माँगपत्रक शिक्षणमाला – 2
कार्य-दिवस का प्रश्न मज़दूर वर्ग के लिए एक महत्‍वपूर्ण राजनीतिक प्रश्न है, महज़ आर्थिक नहीं
हमारा तात्कालिक नारा : 8 घण्टे के कार्य-दिवस के कानून को लागू करो!
दूरगामी संघर्ष का नारा है : काम के घण्टे 6 करो!

 

मज़दूर माँगपत्रक 2011 क़ी अन्य माँगों — न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे कम करने, ठेका के ख़ात्मे, काम की बेहतर तथा उचित स्थितियों की माँग, कार्यस्थल पर सुरक्षा और दुर्घटना की स्थिति में उचित मुआवज़ा, प्रवासी मज़दूरों के हितों की सुरक्षा, स्त्री मज़दूरों की विशेष माँगों, ग्रामीण व खेतिहर मज़दूरों, घरेलू मज़दूरों, स्वतन्त्र दिहाड़ी मज़दूरों की माँगों के बारे में विस्तार से जानने के लिए क्लिक करें। — सम्पादक

 

पिछले अंक में हमने ‘माँगपत्रक आन्दोलन-2011’ क़ी शुरुआत के साथ ‘मज़दूर बिगुल’ में इस आन्दोलन का परिचय देने के साथ माँगपत्रक शिक्षणमाला की शुरुआत की थी। इस शिक्षणमाला का लक्ष्य है मज़दूर साथियों को माँगपत्रक आन्दोलन की माँगों के इतिहास और महत्‍व से वाकिफ कराना। इन सभी माँगों में निस्सन्देह आठ घण्टे के कार्य-दिवस की माँग सबसे महत्‍वपूर्ण है। यही कारण है कि माँगपत्रक-2011 क़ी पहली माँग काम के घण्टों से जुड़ी हुई है। लेनिन ने भी सन् 1900 में ख़ारकोव के मई दिवस के आयोजन पर लिखा था : ”इन माँगों में सबसे पहली माँग होगी आठ घण्टे के कार्य-दिवस की आम माँग, जो सभी देशों के सर्वहारा वर्ग ने की है। इस माँग का सबसे पहले रखा जाना ख़ारकोव के मज़दूरों की अन्तरराष्ट्रीय समाजवादी मज़दूर आन्दोलन के साथ एकजुटता के अहसास को दर्शाता है और निश्चित रूप से इसीलिए इस माँग को छोटी-मोटी आर्थिक माँगों, जैसे – फोरमैन द्वारा अच्छे बर्ताव की माँग या तनख्वाह में दस फीसदी की बढ़ोत्तरी की माँग, से नहीं मिलाया जाना चाहिए। आठ घण्टे के कार्य-दिवस की माँग पूरे सर्वहारा वर्ग की माँग है और सर्वहारा उसे एक-एक मालिक के सामने नहीं बल्कि सरकार के सामने रखता है, क्योंकि ये ही आज के सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के प्रतिनिधि हैं। सर्वहारा वर्ग यह माँग समूचे पूँजीपति वर्ग के सामने रखता है, जो सभी उत्पादन के साधनों का मालिक है।” लेनिन का यह कथन आठ घण्टे के कार्य-दिवस की माँग के व्यापक और राजनीतिक चरित्र को स्पष्ट कर देता है। लेकिन इस माँग के महत्‍व को पूरी तरह समझने के लिए हमें संक्षेप में इसके इतिहास और राजनीतिक अहमियत को जानना होगा। निश्चित रूप से आज यह माँग इसलिए भी महत्‍वपूर्ण बन जाती है, क्योंकि हम जानते हैं कि आठ घण्टे के कार्य-दिवस का कानून मौजूद होने के बावजूद हमारे देश और तमाम देशों में इस कानून की रोज़ धज्जियाँ उड़ायी जाती हैं और कहीं भी यह कानून लागू नहीं होता। इसलिए इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि आज की तात्कालिक लड़ाई इस कानून को लागू करवाने की है। लेकिन इस पूरी लड़ाई का दीर्घकालिक और ऐतिहासिक महत्‍व है जिसे समझना मज़दूर वर्ग के लिए अनिवार्य है।

”आठ घण्टे काम! आठ घण्टे आराम! आठ घण्टे मनोरंजन!”

कार्य-दिवस की लम्बाई को लेकर मज़दूर वर्ग की लड़ाई का इतिहास पुराना है। इस माँग के उठने के इतिहास की शुरुआत हम 19वीं सदी के शुरुआती दशकों से देख सकते हैं। यही वह समय था, जब पूरे यूरोप और अमेरिका में औद्योगिक क्रान्ति ज़ोर पकड़ रही थी। गाँवों से उजड़कर खेतिहर मज़दूर शहरों की तरफ पलायन कर रहे थे। शहरों में बड़े पैमाने पर कारख़ाने लग रहे थे और ये भूतपूर्व खेतिहर मज़दूर इन्हीं कारख़ानों में अमानवीय स्थितियों में काम कर रहे थे। हमें उस समय के इतिहास से पता चलता है कि ब्रिटेन और अमेरिका में लग रहे कारख़ानों में कई बार मज़दूर 18 से 20 घण्टे तक भी काम कर रहे थे। वे कारख़ाने में ही काम करते, फिर वहीं सो जाते, और फिर उठकर वहीं काम करने लगते। उनके जीवन का अर्थ महज़ पूँजीपतियों के लिए मुनाफा पैदा करना ही रह गया था। चूँकि बड़े पैमाने पर गाँवों से शहरों की तरफ श्रमिकों का आगमन हो रहा था, इसलिए पूँजीपतियों के पास बेरोज़गारों की एक बड़ी सेना तैयार खड़ी थी। यही कारण था कि कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूर इन अमानवीय कार्य-स्थितियों के ख़िलाफ लड़ नहीं पाते थे। दूसरी बात यह कि खेतों में अमानवीय स्थितियों में खटने और उसके बाद भुखमरी झेलकर आये श्रमिकों की राजनीतिक चेतना का स्तर भी ऐसा न था कि वे शुरुआत से ही अपने अधिकारों को लेकर लड़ते। लेकिन पूँजीवादी औद्योगिक उत्पादन-प्रणाली ने जल्द ही ऐसी स्थितियाँ और चेतना पैदा कर दी जिसने मज़दूर वर्ग के पहले आन्दोलनों को जन्म दिया। जिस पहले आन्दोलन के बारे में हम सुनते हैं, वह था 1810 के दशक के उत्तरार्ध्द में फिलाडेल्फिया, अमेरिका के मोचियों का आन्दोलन। इस आन्दोलन में काम के घण्टे को 10 करने की माँग की गयी थी। इसके बाद 1825 में न्यूयॉर्क के निर्माण व गोदी मज़दूरों ने एक ज़बरदस्त आन्दोलन किया जिसमें उन्होंने 10 घण्टे के कार्य-दिवस की माँग को दोहराया। इंग्लैण्ड के चार्टिस्ट आन्दोलन ने भी कार्य-दिवस की लम्बाई के सवाल को पूरे ज़ोर के साथ उठाया। यह माँग जहाँ कहीं भी पहली बार उठी,वहीं इसने मज़दूर वर्ग के भीतर फौरन जड़ें जमा लीं। कार्य-दिवस का प्रश्न जल्दी ही पूरे विश्व के अलग-अलग देशों के मज़दूर आन्दोलनों के लिए केन्द्रीय प्रश्न बन गया। न जाने इस माँग में ऐसा क्या था जिसके कारण हर देश, हर वर्ग और हर जाति का मज़दूर इसे फौरन अपना लेता था। इसके कारणों की चर्चा हम अगले उपशीर्षक में करेंगे।

Working hour demand

जहाँ तक उपलब्ध स्रोत बताते हैं, आठ घण्टे के कार्य-दिवस की माँग की बात सबसे पहले इंग्लैण्ड के काल्पनिक समाजवादी रॉबर्ट ओवेन ने की थी। इसके बाद अलग-अलग समय में अलग-अलग जगहों पर इस माँग को मज़दूर आन्दोलन ने अपना लिया। जल्द ही मज़दूर आन्दोलन का यह केन्द्रीय नारा बन गया – ”आठ घण्टे काम, आठ घण्टे आराम, आठ घण्टे मनोरंजन”। इस माँग को लेकर जगह-जगह छोटे-बड़े आन्दोलन तो लम्बे समय तक होते रहे, लेकिन इसको लेकर सबसे महान और प्रसिध्द आन्दोलन हुआ 1886 में शिकागो में। इस आन्दोलन ने ही मई दिवस की अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर परम्परा को जन्म दिया जिसे आज भी दुनियाभर के मज़दूर शान से मनाते हैं। 1886 में शिकागो के मज़दूरों ने आठ घण्टे के कार्य-दिवस को अपनी केन्द्रीय माँग के तौर पर रखते हुए एक ज़बरदस्त आन्दोलन खड़ा किया। इस आन्दोलन में हर व्यवसाय और पेशे में काम करने वाले मज़दूर शामिल हुए। शुरुआत में इसके प्रति टे्रड यूनियनों का रुख़ ढीला था; नतीजतन, मज़दूरों ने ट्रेड यूनियन नेतृत्व से अलग जाते हुए इस आन्दोलन को आगे बढ़ाया। इस आन्दोलन ने शिकागो के पूँजीपतियों को हिलाकर रख दिया। शिकागो के पूँजीपतियों ने इस आन्दोलन को दबाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक डाली। इसमें अमेरिकी पूँजीपतियों की सरकार ने इनकी पूरी मदद की। 3 मई 1886 के दिन मज़दूरों पर पुलिस ने गोलियाँ चलायीं, जिसमें 6 मज़दूर मारे गये। इसके बाद 4 मई को इस दमन के ख़िलाफ मज़दूरों का जनसैलाब फिर से सड़कों पर उतरा। इस बार भी पुलिस ने भीड़ पर हमला किया। इसी बीच भीड़ में एक बम फेंका गया जिसमें चार मज़दूर और सात पुलिसवाले मारे गये। इसके बाद बम फेंकने का आरोप लगाकर चार मज़दूर नेताओं – पार्सन्स, फिशर,स्पाइस और एंजेल को गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में फर्जी मुकदमा चलाकर उन्हें मृत्युदण्ड दे दिया गया। ये चारों मज़दूर नेता तब से मज़दूर वर्ग के अमर नायक बन गये और आज भी दुनियाभर का मज़दूर वर्ग उन्हें याद करता है।1886 में मज़दूर आन्दोलन के दमन के बाद 1890 के मई दिवस को अन्तरराष्ट्रीय हड़ताल के रूप में मनाया गया। अमेरिका और यूरोप के ही नहीं बल्कि इस हड़ताल में एशिया की औपनिवेशिक दुनिया के नवजात औद्योगिक शहरों के मज़दूर भी शामिल हुए। अब तक दुनियाभर के पूँजीपति वर्ग को समझ आ चुका था कि मज़दूरों की इस माँग को अब और दबाया नहीं जा सकता। इसके बाद, आठ घण्टे के कार्य-दिवस का कानून बनाने का काम दुनिया के विभिन्न देशों में शुरू हुआ और आज कम-से-कम काग़ज़ पर यह कानून हर जगह मौजूद है। यह बात अलग है कि 1970 में नवउदारवादी नीतियों की शुरुआत के बाद, जिस प्रकार मज़दूर वर्ग से उसके तमाम अधिकारों को छीना जा रहा है, वैसे ही आठ घण्टे के काम के अधिकार को भी व्यवहार में छीन लिया गया है। काग़ज़ पर यह कानून आज भी मौजूद है, लेकिन दुनियाभर के90 फीसदी अनौपचारिक मज़दूरों के लिए यह कानून कोई मायने नहीं रखता है। उन्हें हमेशा 10 से 12 और कई बार 14घण्टे तक काम करना पड़ता है। आठ घण्टे के कार्य-दिवस का हक आज स्थायी मज़दूरों के एक छोटे-से हिस्से को ही मिला हुआ है। इसीलिए आज आठ घण्टे के कार्य-दिवस के कानून को लागू करवाने के लिए सरकार और उसकी पूरी मशीनरी को मज़दूर शक्ति के बल पर मजबूर करना सर्वप्रमुख तात्कालिक ज़रूरत है।

कार्य-दिवस का प्रश्न केन्द्रीय प्रश्न क्यों है?

पूँजीवादी समाज में पूँजीपति वर्ग क्या चाहता है? पूँजीपति वर्ग हर कीमत पर अपने मुनाफे को बढ़ाना चाहता है। यह पूरी व्यवस्था ही निजी मालिकाने और निजी मुनाफे पर टिकी व्यवस्था है। इसमें समस्त उत्पादन का स्वामित्व मुट्ठीभर पूँजीपतियों के वर्ग के हाथों में होता है, जबकि विशाल मज़दूर आबादी कल-कारख़ानों से लेकर खेतो-खलिहानों में दिनों-रात खटती है। मेहनतकशों की इस मेहनत के बूते ही पूँजीपति का पूरा मुनाफा पैदा होता है। इस पूरे तन्त्र में पूँजीपति का काम मालिकाने के करार पर दस्तख़त करने से ज्यादा और कुछ नहीं होता। लेकिन यह व्यवस्था कोई सहज और सुचारू रूप से चलने वाली व्यवस्था नहीं होती। पूँजीवाद का नियम है प्रतिस्‍पर्द्धा। पूँजीपति वर्ग प्रतिस्‍पर्द्धा द्वारा विकास के सिध्दान्त को मानता है और बाज़ार में अधिक से अधिक मुनाफे के लिए प्रतिस्‍पर्द्धा में उतरता है। इस प्रतिस्‍पर्द्धा में बड़ी मछली छोटी मछली को निगलती है और इसलिए हर पूँजीपति के लिए अपने मुनाफे के मार्जिन को अधिकतम बनाना जीवन-मृत्यु का प्रश्न होता है। ख़ुद प्रतिस्‍पर्द्धा में उतरने वाला पूँजीपति वर्ग मज़दूरों की भी भारी आबादी को बेरोज़गारों की फौज में खड़ा कर रोज़गार के लिए प्रतिस्‍पर्द्धा करने के लिए बाध्‍य कर देता है। लेकिन आपसी प्रतिस्‍पर्द्धा के बावजूद मज़दूरों के प्रतिरोध के समक्ष सभी पूँजीपति फौरन एकजुट हो जाते हैं। बहरहाल, इस प्रतिस्‍पर्द्धा के कारण हर पूँजीपति के ऊपर मुनाफे को अधिक से अधिक बढ़ाने का ज़बर्दस्त दबाव होता है। अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो बाज़ार में कोई न कोई उसे निगल जायेगा।

मुनाफे की हवस पूँजीपति को हर सम्भव तरीका अपनाने को विवश करती है। मुनाफे का मूल होता है मज़दूरों के श्रम द्वारा पैदा होने वाला मूल्य, जिसे हम बेशी मूल्य कहते हैं। यह बेशी मूल्य यदि नहीं बढ़ेगा तो कुल मुनाफे में कोई वृध्दि नहीं हो सकती। और अधिकांश मामलों में अलग-अलग कारख़ानों में भी मुनाफे में वृध्दि के लिए बेशी मूल्य को बढ़ाना मुनाफा बढ़ाने की पूर्वशर्त होता है। मज़दूर कच्चे माल और उपकरणों-यन्त्रों का मेल अपने श्रम से करता है। यह श्रम ही बेकार अनुपयोगी सामग्रियों को मानव उपयोग लायक बनाता है। इसके कारण ही यह माल बिक भी पाता है। इस उपयोग मूल्य के बिना बाज़ार में वह माल बिकेगा ही नहीं यानी उसका कोई विनिमय मूल्य नहीं होगा। साफ है कि मज़दूर की मेहनत ही माटी में मोल पैदा करती है। यह मोल कच्चे माल और उपकरणों पर हुए ख़र्च और साथ ही मज़दूरी पर हुए ख़र्च के कुल योग से भी ज्यादा होता है। उत्पादित माल के मूल्य और कुल निवेश के बीच के फर्क को ही बेशी मूल्य कहते हैं। लेकिन मज़दूर के श्रम का उत्पाद होने के बावजूद यह बेशी मूल्य मज़दूरों के हाथ नहीं आता, बल्कि पूँजीपति इसे हड़प जाता है। यही पूँजीपति के समृद्ध होते जाने और मज़दूरों के दरिद्र होते जाने का मूल कारण होता है। हम देख सकते हैं कि पूँजीपति के पूरे मुनाफे का मूल मज़दूर द्वारा अपनी मेहनत के ज़रिये पैदा किया गया यह बेशी मूल्य ही है। यानी कि अगर पूँजीपति को अपना मुनाफा या अपने पूँजी संचय को बढ़ाना है तो उसे मज़दूर से अधिक से अधिक बेशी मूल्य निचोड़ना होगा। बहुत से साथियों को यह चर्चा ग़ैर-ज़रूरी लग सकती है। लेकिन हर मज़दूर को कार्य-दिवस का सवाल अहम क्यों लगता है, इसे समझने के लिए यह चर्चा ज़रूरी थी। अब मूल मुद्दे पर वापस आते हैं।

चूँकि पूँजीपति के सारे मुनाफे का मूल बेशी मूल्य है, इसलिए वह हर कीमत पर मज़दूर से अधिक से अधिक बेशी मूल्य का उत्पादन करवाना चाहता है। इसके दो तरीके हैं।

मार्क्‍स पहले तरीके को बेशी मूल्य के उत्पादन की दर को बढ़ाने का सापेक्षिक तरीका बताते हैं। इस तरीके में श्रमकाल यानी कार्य के घण्टों को तो नहीं बढ़ाया जाता, लेकिन तकनोलॉजी व यन्त्रों के ज़रिये श्रम की उत्पादकता को बढ़ा दिया जाता है। श्रम की उत्पादकता बढ़ने से बेशी मूल्य के पैदा होने की रफ्तार बढ़ जाती है क्योंकि कुल उत्पादन की ही गति बढ़ जाती है। ऐसे मौकों पर कई बार पूँजीपति बिना कार्य-दिवस की लम्बाई बढ़ाये, मज़दूरी में भी मामूली-सी बढ़ोत्तरी कर देते हैं। मज़दूर को लगता है कि उसका मालिक बड़ा दरियादिल है। लेकिन वास्तविकता तो यह है कि उसने मज़दूर की उत्पादकता को बढ़ाकर उतने ही घण्टों में उससे कहीं ज्यादा मुनाफा कमा लिया है। और इसके बदले में उसके वेतन में नाममात्र की वृध्दि कर दी है। यह एक चालाक तरीका है जिसके ज़रिये पूँजीपति समय-समय पर यन्त्रों और तकनोलॉजी में निवेश करके अपने मुनाफे को बढ़ाता है।

दूसरा तरीका अधिक नग्न है और पूँजीपति आज के समय में इसका जमकर इस्तेमाल करते हैं। इसे बेशी मूल्य के उत्पादन की दर बढ़ाने का निरपेक्ष तरीका कहा जाता है। इसमें पूँजीपति सीधे काम के घण्टे बढ़ाकर श्रम को और सघन कर देता है। श्रमकाल बढ़ने के कारण कुल उत्पादन और बेशी मूल्य की दर में बढ़ोत्तरी होती है और पूँजीपति का मुनाफा बढ़ता है। तकनोलॉजी और यन्त्रों को और उन्नत बनाना हमेशा सम्भव नहीं होता है। ऐसे में पूँजीपति बेशी मूल्य को बढ़ाने का निरपेक्ष तरीका अपनाते हैं। अक्सर पूँजीपति मुनाफे की गिरती दर के कारण इन दोनों ही तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। यह दूसरा तरीका ही वह तरीका है जिसके कारण पूँजीपति हमेशा मज़दूर के काम के घण्टे को बढ़ाने का प्रयास करता है।

इसलिए काम के घण्टे को सीमित रखने और इसके लिए कानूनी सीमा तय करने की लड़ाई वास्तव में पूँजीपति के मुनाफा बढ़ाने के प्रयासों पर एक चोट होती है। मन्दी के दौर में पूँजीपति वर्ग के विरुध्द आठ घण्टे के कार्य-दिवस की लड़ाई वास्तव में पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के लिए एक संकट पैदा करती है क्योंकि यह पूँजीपति वर्ग के लिए मुनाफे को बढ़ाने के प्रयासों को मुश्किल बनाती जाती है। वास्तव में, आज की वैश्विक मन्दी के दौर में, बल्कि 1970 के दशक से सतत जारी संकट के दौर में दुनियाभर का पूँजीपति वर्ग मज़दूरों के कार्य-दिवस के अधिकार को छीनने की कोशिश कर रहा है और ख़ासतौर पर ‘तीसरी दुनिया’ के देशों में वह काफी हद तक कामयाब भी हुआ है। आज एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के देशों में बिरले ही ऐसे कारख़ाने मिलते हैं जिनमें 8 घण्टे के कार्य-दिवस के कानून का पालन होता है। काग़ज़ी तौर पर तो आठ घण्टे के कार्य-दिवस का कानून मौजूद है लेकिन इसका कहीं भी पालन नहीं होता।

इन्हीं कारणों से मज़दूर वर्ग के लिए पूँजीवादी व्यवस्था के रहते कार्य-दिवस की लम्बाई का प्रश्न हमेशा महत्‍वपूर्ण बना रहेगा। और यही कारण है कि ‘माँगपत्रक आन्दोलन -2011’ में आठ घण्टे के कार्य-दिवस को लागू करने को तात्कालिक संघर्ष का सबसे अहम मुद्दा माना गया है। यही कारण है कि मार्क्‍स के नेतृत्व में इण्टरनेशनल वर्किंगमेंस एसोसिएशन ने1866 में यह संकल्प लिया था : ”कार्य-दिवस की कानूनी सीमा वह प्राथमिक पूर्वस्थिति है जिसके बिना मज़दूर वर्ग की बेहतरी और मुक्ति के अन्य सभी प्रयास असफल सिध्द होंगे…यह कांग्रेस कार्य-दिवस के लिए आठ घण्टे की कानूनी सीमा का प्रस्ताव करती है।” मार्क्‍स ने बताया कि यह माँग ऐसी माँग है जिसकी अनुगूँज दुनिया के हर मज़दूर में हमें सुनायी देगी। उन्होंने ‘पूँजी’ के प्रथम खण्ड में लिखा है : ”जब तक दासप्रथा गणराज्य के एक हिस्से पर कलंक के समान चिपकी रही, तब तक अमेरिका में कोई भी स्वतन्त्र मज़दूर आन्दोलन पंगु बना रहा। सफेद चमड़ी वाला मज़दूर कभी भी स्वयं को मुक्त नहीं कर सकता जब तक कि काली चमड़ी वाले मज़दूरों को अलग करके देखा जायेगा। लेकिन दासप्रथा की समाप्ति के साथ ही एक नये ओजस्वी जीवन के अंकुर फूटे।’काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन के साथ ही वहाँ गृह-युध्द का श्रीगणेश हुआ। ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन एक ऐसा आन्दोलन था जो तेज़ी के साथ अटलाण्टिक से हिन्द तक, न्यू इंग्लैण्ड से कैलिफोर्निया तक फैल गया।” एंगेल्स ने बताया था कि यह माँग अपने आप में मज़दूर वर्ग को दुनिया के वर्ग-विभेदों को ख़त्म करने की लड़ाई की तरफ भी ले जायेगी। यह पूरी दुनिया के मज़दूरों को एक झण्डे तले गोलबन्द करने की ताकत रखता है। 1890 में कम्युनिस्ट घोषणापत्र के चौथे जर्मन संस्करण की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा : ”जब मैं ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ, यूरोप और अमेरिका का सर्वहारा अपनी शक्तियों की समीक्षा कर रहा है, यह पहला मौका है जब सर्वहारा वर्ग एक झण्डे तले, एक तात्कालिक लक्ष्य के वास्ते, एक सेना के रूप में, गोलबन्द हुआ है : आठ घण्टे के कार्य-दिवस को कानून द्वारा स्थापित कराने के लिए…। यह शानदार दृश्य जो हम देख रहे हैं, वह पूरी दुनिया के पूँजीपतियों, भूस्वामियों को यह बात अच्छी तरह समझा देगा कि पूरी दुनिया के सर्वहारा वास्तव में एक हैं।” निश्चित रूप से, आज भी जब मई दिवस के मज़दूर प्रदर्शन दुनिया के हर हिस्से में होते हैं तो वह पूँजीपति वर्ग के लिए असुविध का सबब होते हैं। यह मज़दूर वर्ग की अन्तरराष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। और इसका मूल कार्य-दिवस को आठ घण्टे का बनाने का संघर्ष ही है। लेनिन ने भी तमाम जगहों पर इस माँग के राजनीतिक चरित्र को बार-बार स्पष्ट किया है और बताया है कि यह पुराने समय से मज़दूर वर्ग की प्रमुख तात्कालिक माँग रही है।

काम के घण्टे छह करो!

जी हाँ! आपने ग़लत नहीं पढ़ा है! आपने सही पढ़ा – छह! काम के घण्टे छह करो! यह आज मज़दूर वर्ग की कार्य-दिवस सम्बन्धी दूरगामी माँग है। जब दुनियाभर के मज़दूरों ने पूँजीपति वर्ग से इनसानों जैसे जीवन की माँग करते हुए आठ घण्टे के कार्य-दिवस का कानून बनाने की माँग की थी, उस समय से श्रम की उत्पादकता में कई सौ प्रतिशत की वृध्दि हो चुकी है। इसके लिए ऑंकड़ों से पन्ने रँगने की कोई आवश्यकता नहीं है। हर मज़दूर अच्छी तरह से जानता है कि जब लगभग 180 वर्ष पहले पहली बार मज़दूरों ने आठ घण्टे के कार्य-दिवस की माँग की थी, और जब सवा सौ साल पहले पहली बार मज़दूरों ने एकजुट होकर इसके लिए एक शानदार आन्दोलन किया था और जब लगभग सौ साल पहले आठ घण्टे के कार्य-दिवस के कानूनों का विभिन्न देशों में निर्माण शुरू हुआ था, तब से अब तक उत्पादकता में ज़मीन-आसमान का फर्क आ चुका है। आज दुनियाभर के मज़दूरों को प्रतिदिन छह घण्टे से अधिक कार्य करने की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। वास्तव में, यह छह घण्टे की माँग भी कोई बहुत आगे बढ़ी हुई माँग नहीं है। इसे सबसे नरम माँग कहा जा सकता है। वरना इससे कम में भी दुनिया का काम आसानी से चल सकता है! आज की लड़ाई तो यह है कि पहले आठ घण्टे के कार्य-दिवस के कानून को ही लागू करवाया जाये क्योंकि इस कानून को कहीं भी लागू नहीं किया जाता। लेकिन मज़दूरों की लड़ाई यहीं ख़त्म नहीं हो जाती है। हमें इस लड़ाई को लड़ते हुए पूँजीवादी सत्ता में बैठे लोगों के दिमाग़ में यह बात पैठा देनी होगी कि हमारी माँग छह घण्टे के कार्य-दिवस की है और इसे हम हर कीमत पर लेकर रहेंगे।

मज़दूर वर्ग का एक बड़ा हिस्सा अपनी राजनीतिक चेतना की कमी के चलते इस माँग को ज़रूरत से ज्यादा माँगना समझ सकता है। लेकिन हमें यह बात समझनी होगी कि मानव चेतना और सभ्यता के आगे जाने के साथ हर मनुष्य को यह अधिकार मिलना चाहिए कि वह भी भौतिक उत्पादन के अतिरिक्त सांस्कृतिक, बौध्दिक उत्पादन और राजनीति में भाग ले सके; उसे मनोरंजन और परिवार के साथ वक्त बिताने का मौका मिलना चाहिए। दरअसल, यह हमारा मानवाधिकार है। लेकिन लम्बे समय तक पूँजीपति वर्ग ने हमें पाशविक स्थितियों में रहने को मजबूर किया है और हमारा अस्तित्व महज़ पाशविक कार्य करने तक सीमित होकर रह गया है, जैसे कि भोजन करना, प्रजनन करना, आदि। लेकिन मानव होने का अर्थ क्या सिर्फ यही है? हम जो दुनिया के हरेक सामान को बनाते हैं, यह अच्छी तरह से जानते हैं कि दुनिया आज हमारी मेहनत के बूते कहाँ पहुँच चुकी है। लेकिन हम अपनी ही मेहनत के इन शानदार फलों का उपभोग नहीं कर सकते। ऐसे में अगर हम इन पर हक की माँग करते हैं तो इसमें नाजायज़ क्या है? इसलिए हमें इनसान के तौर पर ज़िन्दगी जीने के अपने अधिकार को समझना होगा। हम सिर्फ पूँजीपतियों के लिए मुनाफा पैदा करने, जानवरों की तरह जीने और फिर जानवरों की तरह मर जाने के लिए नहीं पैदा हुए हैं। जब हम यह समझ जायेंगे तो जान जायेंगे कि हम कुछ अधिक नहीं माँग रहे हैं। इसलिए हमारी दूरगामी माँग है – ‘काम के घण्टे छह करो!’ और हम छह घण्टे के कार्य-दिवस का कानून बनाने के लिए संघर्ष करेंगे। हमें शुरुआत आठ घण्टे के कार्य-दिवस के कानून को लागू करवाने के संघर्ष से करनी होगी और फिर छह घण्टे के कार्य-दिवस के कानून को बनवाने के संघर्ष तक जाना होगा। अगर हम देश के पैमाने पर इन माँगों के लिए मज़दूर वर्ग को संगठित कर पाये तो पूँजीपतियों की चाकरी करने वाली इस सत्ता-व्यवस्था को ऐसा कानून बनाने के लिए निश्चित ही मजबूर कर सकते हैं।

 

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2010

 


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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