माँगपत्रक शिक्षणमाला – 6
प्रवासी मज़दूरों की दुरवस्था और उनकी माँगें मज़दूर आन्दोलन के एजेण्डा पर अहम स्थान रखती हैं

 

मज़दूर माँगपत्रक 2011 क़ी अन्य माँगों — न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे कम करने, ठेका के ख़ात्मे, काम की बेहतर तथा उचित स्थितियों की माँग, कार्यस्थल पर सुरक्षा और दुर्घटना की स्थिति में उचित मुआवज़ा, प्रवासी मज़दूरों के हितों की सुरक्षा, स्त्री मज़दूरों की विशेष माँगों, ग्रामीण व खेतिहर मज़दूरों, घरेलू मज़दूरों, स्वतन्त्र दिहाड़ी मज़दूरों की माँगों के बारे में विस्तार से जानने के लिए क्लिक करें। — सम्पादक

 

प्रवासी मज़दूर, मज़दूरों की वह आबादी है जो या तो अपने स्थायी निवास से दूर रहक़र काम करती है या जिसका कोई स्थायी निवास है ही नहीं।

मज़दूरों का प्रवासी होना (‘माइग्रेशन’, आप्रवास या प्रव्रजन) पूँजीवाद की आम परिघटना, लक्षण और परिणाम है। यूँ तो ज़्यादातर औद्योगिक मज़दूर या अन्य शहरी मज़दूर भी ऐसे ही लोग हैं जो (या जिनकी पूर्ववर्ती पीढ़ियाँ) कभी न कभी गाँव से प्रवासी होकर शहर आये थे। धीरे-धीरे वे किसी एक शहर या औद्योगिक क्षेत्र में क़ानूनी या ग़ैरक़ानूनी ढंग से बसायी गयी मज़दूर बस्ती में झुग्गी या कोठरी ख़रीदकर किराये पर रहने लगे। इनमें से कुछ कुशल या अर्द्धकुशल मज़दूर हो गये। कुछ के बी.पी.एल. राशन कार्ड और पहचानपत्र भी बन गये। कुछ के ई.एस.आई. कार्ड भी बन गये। हालाँकि ये सुविधाएँ भी बहुत कम को ही नसीब हुईं। छँटनी, तालाबन्दी या बिना किसी ठोस वजह के नौकरी से कभी भी निकाल दिये जाने की तलवार इनके सिर पर भी लटकती रहती है। लेकिन एक ठौर-ठिकाना और आसपास अपने ही जैसों के बीच जान-पहचान का दायरा ऐसे मज़दूरों को नयी नौकरी ढूँढ़ने में भी काफी मदद करते हैं। रहने का कोई स्थायी ठौर और नौकरी का कोई सुनिश्चित बन्दोबस्त नहीं होने के कारण प्रवासी मज़दूर जीने और काम करने की सर्वाधिक असुरक्षित, अनिश्चित और नारकीय स्थितियों को झेलने के लिए अभिशप्त होते हैं। पूरी दुनिया में, उन्नत पूँजीवादी देशों से लेकर भारत जैसे पिछडे पूँजीवादी देशों तक प्रवासी मज़दूरों की कमोबेश एक सी ही दुर्दशा है वे सबसे सस्ती दरों पर अपनी श्रम शक्ति बेचने वाले, सबसे नारकीय परिस्थितियों में रहने और काम करने वाले, सर्वाधिक असुरक्षित उजरती ग़ुलाम होते हैं।

यूँ तो पूँजी हमेशा से लोगों को अपनी जगह-ज़मीन से दर-बदर करती रही है ताकि उनकी श्रम शक्ति को निचोड़कर वह लगातार अपनी वृद्धि कर सके। सामन्तवाद से पूँजीवाद में संक्रमण के साथ, ज़मींदार की ज़मीन से बँधे मज़दूर ”मुक्त” होकर कारख़ानों के मज़दूर बने। छोटे मालिक किसान भी पूँजी की मार से उजड़ने लगे। उनमें से कुछ ग्रामीण सर्वहारा बने, कुछ शहरों में प्रवास करके औद्यौगिक सर्वहारा बन गये और कुछ सीज़नल सा अस्थायी मज़दूर के तौर पर शहरों में आकर काम करने लगे। खेती-बाड़ी का पूँजीवादीकरण जहाँ-जहाँ सापेक्षत: तेज़ हुआ, वहाँ-वहाँ मज़दूरों की माँग बढ़ी, पर जल्दी ही मशीनीकरण ने उन्हें वहाँ भी काम से निकाल बाहर किया। ‘जीवित श्रम’ का स्थान ‘मृत श्रम’ ने ले लिया। यही प्रक्रिया शहरों में भी जारी रहती है। उत्पादन के किसी भी सेक्टर में नयी मशीनें आती हैं और मज़दूर काम से बाहर कर दिया जाता है। यही नहीं, मुनाफे की अन्धी हवस और पूँजीवादी उत्पादन की अराजकता जब अतिउत्पादन और मन्दी का दौर लाती है तो पूँजीपति पहला काम यही करता है कि छँटनी और तालाबन्दी करके मज़दूर को सड़क पर ढकेल देता है। बेघर-बेदर मज़दूर फिर किसी और उद्योग या इलाक़े में काम ढूँढ़ने निकल पड़ता है। इस तरह मज़दूर पिछडे उत्पादन क्षेत्र (कृषि और छोटे उद्यमों) से उन्नत उत्पादन क्षेत्रों की ओर आप्रवास करता है और फिर अधिक मशीनीकरण वाले उन्नत क्षेत्रों से कम मशीनाकरण वाले उत्पादन क्षेत्रों की ओर जाता रहता है। बड़ी-बड़ी औद्योगिक अन्य निर्माण परियोजनाओं और खनन परियोजनाओं में लाखों की तादाद में मज़दूरों की ज़रूरत पड़ती है और प्रोजेक्ट ख़त्म होते ही यह सारी आबादी नये काम की तलाश में निकल पड़ती है। ‘लार्सन एण्ड टयूब्रो’ और ‘नवयुग’ जैसी पचासों कम्पनियाँ हैं जो कोई भी प्रोजेक्ट (जैसे ‘दिल्ली मेट्रो’ या कोई बाँध या फैक्टरी या सड़क परियोजना) लेते समय हज़ारों (कभी-कभी लाखों) मज़दूर भरती करती हैं और प्रोजेक्ट समाप्त होते ही उन्हें निकला देती हैं। बिल्डर कम्पनियाँ भी इसी प्रकार काम करती हैं। मेण्टेनेंस जैसे काम करने वाली प्राइवेट कम्पनियाँ भी अपने 90-95 प्रतिशत मज़दूरों को (थोड़े से कुशल अनुभवी लोगों को ही एक हद तक स्थायित्व प्राप्त होता है) कभी स्थायी नहीं करतीं। जहाँ जैसा ठेका मिलता है, उसी हिसाब से निकालने और भर्ती करने का काम होता रहता है। इस तरह मज़दूरों की एक भारी आबादी कहीं स्थिर होकर रह नहीं पाती। जो सीज़नल मज़दूर कुछ दिनों के लिए गाँव से शहर आते है, उनका भी जीवन प्रवासी मज़दूरों का ही होता है।

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काम की तलाश में लगातार नयी जगहों पर भटकते रहने और पूरी ज़िन्दगी अनिश्चितताओं से भरी रहने के कारण प्रवासी मज़दूरों की सौदेबाज़ी करने की ताक़त नगण्य होती है। वे दिहाड़ी, ठेका, कैजुअल या पीसरेट मज़दूर के रूप में सबसे कम मज़दूरी पर काम करते हैं। सामाजिक सुरक्षा का कोई भी क़ानूनी प्रावधान उनके ऊपर लागू नहीं हो पाता। कम ही ऐसा हो पाता है कि लगातार सालभर उन्हें काम मिल सके (कभी-कभी किसी निर्माण परियोजना में साल, दो साल, तीन साल वे लगातार काम करते भी हैं तो उसके बाद बेकार हो जाते हैं)। लम्बी-लम्बी अवधियों तक ‘बेरोज़गारों की आरक्षित सेना’ में शामिल होना या महज पेट भरने के लिए कम से कम मज़दूरी और अपमानजनक शर्तों पर कुछ काम करके अर्द्धबेरोज़गारी में छिपी बेरोज़गारी की स्थिति में दिन बिताना उनकी नियति होती है।

पिछले इक्कीस वर्षों से जारी उदारीकरण-निजीकरण का दौर लगातार मज़दूरी के बढ़ते औपचारिकीकरण, ठेकाकरण, दिहाड़ीकरण, ‘कैजुअलीकरण’ और ‘पीसरेटीकरण’ का दौर रहा है। नियमित/औपचारिक/स्थायी नौकरी वाले मज़दूरों की तादाद घटती चली गयी है, यूनियनों का रहा-सहा आधार भी सिकुड़ गया है। औद्योगिक ग्रामीण मज़दूरों की कुल आबादी का 95 प्रतिशत से भी अधिक असंगठित/अनौपचारिक है, यूनियनों के दायरे के बाहर है (या एक हद तक है भी तो महज़ औपचारिक तौर पर) और उसकी सामूहिक सौदेबाज़ी की ताक़त नगण्य हो गयी है। ऐसे मज़दूरों का बड़ा हिस्सा किसी भी तरह के रोज़गार की तलाश में लगातर यहाँ-वहाँ भागता रहता है। उसका स्थायी निवास या तो है ही नहीं या है भी, तो वह वहाँ से दूर कहीं भी काम करने को बाध्य है। तात्पर्य यह कि नवउदारवाद ने मज़दूरों को ज़्यादा से ज़्यादा यहाँ-वहाँ भटकने के लिए मजबूर करके प्रवासी मज़दूरों की संख्या बहुत अधिक बढ़ा दी है।

प्रवासी मज़दूर वे सच्चे सर्वहारा हैं, जिनके पास खोने को कुछ भी नहीं होता। सचमुच उनका कोई देश, शहर, इलाक़ा नहीं होता। अपनी श्रमशक्ति बेचकर वे जीते हैं क्योंकि उनके पास ज़्यादातर, रस्मी तौर पर भी और कुछ भी नहीं होता। उनकी संख्या आज भारत में भी सबसे अधिक है और पूरी दुनिया में भी। हर जगह उनकी एक समान स्थिति है। आप्रवासन केवल एक देश के भीतर नहीं है, बल्कि देश के बाहर भी होता है। हालाँकि साम्राज्यवादी देश नहीं चाहते कि बड़े पैमाने पर पिछड़े देशों के मज़दूर उनके देशों में जायें, क्योंकि तब उन्हें उनको (अपने देश के मज़दूरों के मुक़ाबले काफी कम होते हुए भी) ज़्यादा मज़दूरी देनी पड़ती है। इसलिए वे चाहते हैं कि पिछड़े देशों में ही पूँजी लगातार सस्ती से सस्ती दरों पर श्रमशक्ति को निचोड़ा जाये। ऐसी बहुतेरी तमाम प्रत्यक्ष-परोक्ष बन्दिशों के बावजूद जो भारतीय मज़दूर दूसरे देशों में जाकर काम करते हैं उन्हें अपने परिवारों को पैसे भेजने के लिए नारकीय गुलामों का जीवन बिताना पड़ता है। उन्हें भेजी हुई विदेशी मुद्रा से भारत सरकार को अपने विदेश व्यापार के चालू खाते और विदेशी मुद्रा भण्डार की स्थिति मज़बूत करने में सर्वाधिक मदद मिलती है, लेकिन भारतीय कामगारों के हितों की रक्षा के लिए यह एक भी क़दम नहीं उठाती क्योंकि यह सरकार उन भारतीय पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी है जो विश्व पैमाने की लूट में साम्राज्यवादियों के कनिष्ठ साझीदार हैं।

दिलचस्प बात यह है कि भारत में भी नेपाल और बंगलादेश से आकर जो लाखों ग़रीब मेहनतकश महज़ दो जून की रोटी के लिए काम करते हैं, उनके लिए श्रम क़ानूनों का कोई मतलब नहीं होता, सबसे कम मज़दूरी पर वे सबसे कठिन व अपमानजनक काम करते हैं, सामूहिक सौदेबाज़ी की उनकी कोई ताक़त नहीं होती, वे नारकीय जीवन बिताते हैं तथा अक्सर घृणित नस्ली, धार्मिक और अन्‍धराष्ट्रवादी पूर्वाग्रहों का सामना करते हैं। पूँजीपति इसका लाभ उठाकर उनका और अधिक शोषण करते हैं और भारतीय मज़दूरों के दिलों में यह बात बैठाने की कोशिश करते हैं कि इन ”बाहरी लोगों” की वजह से उनके रोज़गार के अवसर कम हो रहे हैं जबकि सच्चाई यह है कि या तो मज़दूरों पर दबाव बनाने के लिए रोज़गार की कमी का हौव्वा खड़ा किया जाता है या फिर मन्दी और बेरोज़गारी की जो भी स्थिति होती है उसका कारण कामगारों की संख्या की बहुतायत नहीं बल्कि पूँजीवादी उत्पादन और विनिमय प्रणाली के ढाँचे में मौजूद होता है। पूँजीपति वर्ग अपने दुष्प्रचार के द्वारा मज़दूरों की श्रम शक्ति कम दरों पर ख़रीदने के साथ ही मेहनतकशों की व्यापक एकजुटता को तोड़ने और उन्हें आपस में ही लड़ाने का भी काम करता है। जिन हालात का सामना नेपाली और बंगलादेशी मज़दूरों के भारत में करना पड़ता है, वैसे ही हालात का सामना भारतीय मज़दूरों को ब्रिटेन, इटली, जर्मनी, कनाडा, अमेरिका, आस्ट्रेलिया और खाड़ी के देशों में करना पड़ता है। समस्या केवल पड़ोसी देशों से भारत आने वाले या भारत से बाहर जाकर काम करने वाले भारतीय प्रवासी कामगारों की ही नहीं है। देश के भीतर भी कभी मुम्बई में, तो कभी दिल्ली में, तो कभी पंजाब में, बाहर से आकर काम करने वाले प्रवासी कामगारों के ख़िलाफ नफरत की लहर भड़काई जाती है। इसका फायदा उठाकर पूँजीपति छँटनी-तालाबन्दी-बेरोज़गारी से क्रुद्ध मज़दूरों के आवेश की दिशा मोड़ देते हैं और साथ ही सस्ती दरों पर मज़दूरी के लिए सौदेबाज़ी में अपनी स्थिति मजबूत कर लेते हैं। साथ ही, क्षेत्रीय पूँजीवादी पार्टियाँ भी बाहरी-भीतरी का मुद्दा भड़काकर अपना चुनावी गोट लाल करती रहती हैं।

प्रवासी मज़दूरों की विराट शक्ति एक सोये हुए महाबली की ताक़त है। यह एक ऐसी बिखरी हुई ताक़त है जो यदि इकट्ठा हो जाये तो चक्रवाती बवण्डर की ताक़त बन सकती है। लेकिन यह ”यदि” एक बड़ा प्रश्न है, क्योंकि बिखरे होने और प्राय: आर्थिक संघर्षों के लिए ऐक्यबद्ध न हो पाने के कारण, प्रवासी मज़दूर असंगठित सर्वहारा की वह क़तार है जिसकी वर्गचेतना अत्यधिक पिछड़ी होती है। मज़दूरों के इस तबक़े को उसके राजनीतिक अधिकारों से परिचित कराने तथा आर्थिक-राजनीतिक संघर्षों के लिए लामबन्द करने की प्रक्रिया लम्बी और श्रमसाध्य होगी। पर सर्वहारा वर्ग के अगुवा दस्तों को यह करना ही होगा।

‘भारत के मज़दूरों के माँगपत्रक 2011’ में प्रवासी मज़दूरों से सम्बन्धित जो विशेष माँगें रखी गयी हैं, उनका दायरा जनवादी अधिकारों का दायरा है। यह एक शुरुआती क़दम है। प्रवासी मज़दूरों के लिए हम सबसे पहले वे सामान्य माँगें उठा रहे हैं, जिनका वायदा या तो इस देश की सरकार भी करती है या जो बुर्जुआ जनवाद के आम सैद्धान्तिक वायदों के दायरे में आते हैं। आज प्रवासी मज़दूरों को ये माँगें भी बड़ी लग सकती हैं। उनके बीच लगातार प्रचार का काम भी काफी मेहनत की माँग करता है। पर एक बार यदि इन माँगों को समझकर प्रवासी मज़दूर एकजुट होने लगे और एक बार यदि व्यापक मज़दूर आबादी भी इन माँगों को अपनी माँगें समझने लगी तो फिर आगे बढ़ते जाने का सिलसिला रुकेगा नहीं। ये कुछ प्रारम्भिक स्तर की राजनीतिक माँगें हैं, पर इनमें व्यापक मज़दूर एकता के धागे हैं, जिनका ताना-बाना फैलकर देश की सीमाओं के पार तक जाता है और अन्य देशों के मज़दूरों के साथ भी भारतीय मज़दूरों की एकजुटता की एक नयी ज़मीन तैयार कर सकता है।

प्रवासी मज़दूर के लिए ज़ाहिरा तौर पर पहली माँग यही हो सकती है कि उनके लिए एक विशेष पहचान कार्ड की व्यवस्था की जाये ताकि देश में कहीं भी जाकर काम पाने में, अन्य बुनियादी नागरिक सुविधाएँ पाने में, बी.पी.एल. कार्ड बनवाने में, स्वास्थ्य सेवा कार्ड (जिसकी सार्विक व्यवस्था संघर्ष का एक अलग मुद्दा है) आदि हासिल करने में उन्हें परेशानी का सामना न करना पड़े। इस काम के लिए, यानी प्रवासी मज़दूरों का पंजीकरण करके कार्ड जारी करने, उनके (व उनके परिवार के लिए) आवास की व्यवस्था करने में मदद करने के लिए था, उनके अस्थायी आवास के निर्माण एवं प्रबन्‍धन के लिए, पूरे देश में, निचले स्तर तक, श्रम विभाग में ‘प्रवासी मज़दूर ब्यूरो’ बनाये जाने चाहिए। इस सम्बन्ध में मज़दूरों के नियोक्ताओं की ज़िम्मेदारी भी तय की जानी चाहिए और उपरोक्त मदों में ख़र्च के लिए एक हिस्से की ज़िम्मेदारी (सरकार के अतिरिक्त) भी उनकी होनी चाहिए। प्रवासी मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी मिले, उनके सन्दर्भ में श्रम क़ानूनों का अनुपालन सुनिश्चित हो, उन्हें साफ़ पानी, जल निकासी, साफ़-सफाई युक्त आवास जैसी बुनियादी सुविधाएँ अनिवार्यत: मिलें, इसके लिए श्रम विभाग और नियोक्ताओं की स्पष्ट जवाबदेही तय होनी चाहिए तथा अनुपालन न होने की स्थिति में कठोर दण्ड का प्रावधान होना चाहिए। जो प्रवासी मज़दूर पूँजीवादी विकास वाले दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर कृषि व कृषि आधारित या सम्बद्ध उद्यमों में काम करते हैं, उनके लिए भी यह माँग समान रूप से लागू होती है। साथ ही, सीज़नल मज़दूरों के इन अधिकारों की भी हिफाज़त होनी चाहिए। प्रवासी सीज़नल मज़दूरों को सीज़न में यात्रा के दौरान ट्रेनों की कमी के कारण भयंकर दिक्‍कतों का सामना करना पड़ता है। केन्द्र और राज्य के श्रम विभागों को रेलवे विभाग के साथ तालमेल करके प्रवासी सीज़नल मज़दूरों के लिए विशेष ट्रेनों की व्यवस्था करवानी चाहिए।

अन्तरराज्यीय प्रवासी मज़दूर क़ानून में व्यापक परिवर्तन की माँग को मुद्दा बनाना होगा। फिलहाल यह सिर्फ काण्ट्रैक्टर के ज़रिये काम पर ले जाये जाने वाले मज़दूरों पर ही लागू होता है। इसके दायरे को बढ़ाकर, इसे व्यक्तिगत तौर पर प्रवासी होने वाली बहुसंख्यक प्रवासी मज़दूर आबादी पर भी लागू किया जाना चाहिए, इसके प्रावधानों में उपरोक्त सभी माँगें शामिल की जानी चाहिए तथा इसके अमल की अनिवार्य ज़िम्मेदारी गृह राज्य और मेज़बान राज्य — दोनों ही के श्रम विभागों पर अनिवार्यत: डाली जानी चाहिए। फिलहाल यह क़ानून सिर्फ उन स्थानों पर लागू होता है जहाँ 6 या उससे अधिक प्रवासी मज़दूर काम करते हैं। इसमें संशोधन करके इस क़ानून को हर उस जगह पर लागू किया जाना चाहिए जहाँ एक भी प्रवासी मज़दूर काम करता है। फिलहाल इस क़ानून के तहत, काण्ट्रैक्टर द्वारा मज़दूरों को मज़दूरी के अतिरिक्त स्थानान्तरण भत्ता, यात्रा भत्ता, स्थिति अनुसार आवास, कपड़े, चिकित्सा-सुविधाएँ आदि देने के जो भी प्रावधान हैं वे कहीं भी लागू नहीं होते। अत: ज़रूरी है कि इस क़ानून में व्यापक सुधार के साथ ही इसका अमल सुनिश्चित करने की व्यवस्था की भी पुरज़ोर माँग उठायी जाये।

समूची दुनिया के मेहनतकश एक हैं। मज़दूर आन्दोलन में इस भावना को मज़बूती से जमाना होगा। दूसरे देशों से भारत आकर काम करने वाले मज़दूर भाइयों को भारतीय श्रम क़ानून प्रदत्त सभी अधिकार हासिल कराने के लिए विशेष क़ानून बनाया जाये, उनके पंजीकरण और वर्क परमिट आदि की प्रक्रिया सरल बनायी जाये तथा उनके सभी क़ानूनी अधिकारों पर अमल सुनिश्चित कराने के लिए श्रम विभाग में अलग प्रकोष्ठ बनाया जाये, यह माँग भारत के समूचे मज़दूर वर्ग को अपनी माँग के तौर पर उठानी होगी। यह सच्ची अन्तरराष्ट्रीयतावादी भावना होगी जो मज़दूर आन्दोलन की आत्मा है। किसी भी प्रकार की अन्‍धराष्ट्रवादी दुर्भावना या विद्वेष मज़दूर आन्दोलन के लिए घातक होता है। और फिर आज तो पूँजी की वैश्विक एकता के ख़िलाफ श्रम की वैश्विक एकता और अधिक ज़रूरी, बल्कि अनिवार्य हो गयी है। मज़दूरों को नयी तैयारी का पहला क़दम उठाते समय से ही इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा।

साम्राज्यवादियों से मज़दूर वर्ग को यह सवाल उठाना होगा कि भूमण्डलीकरण का झण्डा लहराते हुए जब वे पूँजी के स्वतन्त्र विश्वव्यापी आवाजाही के रास्ते की सारी बन्दिशें हटाते जा रहे हैं तो यही बात श्रम की विश्वव्यापी आवाजाही पर क्यों नहीं लागू करते? अमेरिका और पश्चिमी देशों की पूँजी यदि निर्बाध रूप से भारत जैसे सभी पिछड़े पूँजीवादी देशों में जा सकती है तो ऐसे सभी पिछड़े देशों के मज़दूरों को भी दुनिया के विकसित देशों में जाकर मज़दूरी करने की उतनी ही आज़ादी क्यों नहीं दी जाती? भारत सरकार यदि इस माँग को पुरज़ोर तरीक़े से नहीं उठाती तो इसलिए कि वह साम्राज्यवादियों के ‘जूनियर पार्टनरों’ (भारतीय पूँजीपतियों) की ‘मैनेजिंग कमेटी’ से अधिक कुछ भी नहीं है। साथ ही, अंशत: भी ऐसा होने से विश्व पूँजीवादी तन्त्र में जो संकट पैदा होगा उससे भारतीय पूँजीवाद भी अछूता नहीं रह पायेगा। भारत के मज़दूर आन्दोलन को भूमण्डलीकरण के तर्क की असलियत उजागर करने और पूँजीवादी व्यवस्था पर दबाव बनाने के लिए यह माँग दमदार तरीक़े से उठानी चाहिए।

भारत के मज़दूर आन्दोलन को बाहर के देशों में जाकर काम करने वाले मज़दूरों के हितों के लिए भी संगठित, पुरज़ोर आवाज़ उठानी चाहिए। उसे भारत सरकार पर दबाव बनाना चाहिए कि वह अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर आवाज़ उठाकर तथा सम्बन्धित देशों की सरकारों से तालमेल करके प्रवासी भारतीय मज़दूरों की बेहतर मज़दूरी, बेहतर जीवन-स्थिति तथा उनके सन्दर्भ में समान श्रम क़ानूनों का अनुपालन सुनिश्चित करे और उनके विरुद्ध किसी भी प्रकार की नस्ली या अन्‍धराष्ट्रवादी हिंसा पर रोक के लिए कठोर कार्रवाई का दबाव बनाये। बाहर जाने वाले मज़दूरों के साथ भर्ती एजेण्टों द्वारा की जाने वाली मनमानी और धोखाधड़ी पर भी कठोर क़ानून बनाकर रोक लगाने की माँग एक अहम माँग है।

कुछ क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियाँ (जैसे शिवसेना, मनसे आदि) अपनी चुनावी गोट लाल करने के लिए अक्सर अन्य राज्यों से आये लोगों के खिलाफ हिंसा भड़काती रहती हैं जिसका सर्वाधिक शिकार प्रवासी मज़दूर होते हैं। इस देश का बुर्जुआ जनवादी संविधान भी किसी नागरिक को देश में कहीं भी जाकर काम करने और जीने का अधिकार देता है। फिर यदि इस बुनियादी नागरिक अधिकार का हनन करने वाली पार्टियों को असंवैधनिक बनाकर प्रतिबन्धित नहीं किया जाता तो इसे बुर्जुआओं के आपसी भाईचारे के अतिरिक्त भला और क्या कहा जायेगा! ऐसी अर्द्धफासिस्ट-फासिस्ट किस्म की राजनीतिक पार्टियों के विरुद्ध प्रतिबन्ध की माँग के साथ ही इनके ख़िलाफ व्यापक मेहनतकश आबादी की लामबन्दी की कोशिशें भी करनी होंगी।

 

मज़दूर बिगुल, मई-जून 2011

 


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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