‘हम इस समय मानव इतिहास में सबसे बड़े वैश्विक मज़दूर वर्ग के साक्षी हैं!’
पारम्परिक ट्रेड यूनियनों को दरकिनार कर मज़दूर संगठन और संघर्ष के नये रूपों को जन्म दे रहे हैं — प्रो. इमैनुएल नेस

बिगुल संवाददाता

दुनियाभर में, और ख़ासकर भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में मज़दूर आन्दोलनों के गम्भीर अध्ययन के लिए प्रसिद्ध प्रो. एमैनुएल नेस ने हाल में लखनऊ में ‘नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर में मज़दूर वर्ग के संगठन के नये रूप’ विषय पर एक महत्वपूर्ण व्याख्यान दिया। यह कार्यक्रम अरविन्द मार्क्सवादी अध्ययन संस्थान द्वारा आयोजित किया गया था।

2016-07-19-LKO-Ness-1इमैनुएल नेस सिटी युनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयार्क (अमेरिका) में राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर और युनिवर्सिटी ऑफ़ जोहान्सबर्ग, सेंटर फ़ॉर सोशल चेंज (दक्षिण अफ्रीका) में सीनियर रिसर्च एसोसिएट हैं। उनका शोधकार्य मज़दूर वर्ग की गोलबन्दी, वैश्विक मज़दूर आन्दोलनों, प्रवासन, प्रतिरोध, सामाजिक और क्रान्तिकारी आन्दोलनों, साम्राज्यवाद-विरोध और समाजवाद से जुड़े विषयों पर केन्द्रित रहा है। वे नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर में साम्राज्यवाद में आये बदलावों, ‘पोस्ट-फोर्डिज़्म’, वैश्विक असेंबली लाइन के उभार, अनौपचारीकरण की प्रक्रियाओं, मज़दूर वर्ग के परिधिकरण और नारीकरण, एवं ‘ग्लोबल साउथ’ यानी तीसरी दुनिया के देशों में औद्योगिक मज़दूर वर्ग के नये रैडिकल व जुझारू आन्दोलनों का अध्ययन करते रहे हैं। उन्होंने तीसरी दुनिया के अधिकांश प्रमुख देशों की कई बार यात्राएँ की हैं और भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, ब्राज़ील जैसे देशों में मज़दूरों, मज़दूर कार्यकर्ताओं तथा बुद्धिजीवियों से संवाद करने में काफी समय बिताया है। उनकी हालिया किताब ‘सदर्न इनसर्जेन्सीः दि कमिंग ऑफ़ दि ग्लोबल वर्किंग क्लास’ को श्रम इतिहास और राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में पथप्रदर्शक कहा जा रहा है। वे न सिर्फ़ एक क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी हैं, बल्कि एक रैडिकल एक्टिविस्ट भी हैं जो अमेरिका में एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण के लिए प्रयासरत हैं।

प्रो. नेस ने अपनी बात नवउदारवाद की अवधारणा की व्याख्या से शुरू की जो दरअसल राज्य द्वारा अपने कल्याणकारी कार्यों से मुँह मोड़ने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के साथ ही अति-उत्पादन और अति-संचय के संकट से निपटने के लिए वित्तीयकरण भी बढ़ता जाता है। परन्तु इस वित्तीयकरण ने आर्थिक संकट को और अधिक गहरा किया है एवं अंतरराश्ट्रीय पूँजी व साम्राज्यवाद के परजीवी चरित्र को बढ़ाया है।

2016-07-19-LKO-Ness-2प्रो. नेस ने आगे बताया कि वि‍शेष रूप से द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल में साम्राज्यवाद ने उन्नत देशों तथा तथाकथित विकासशील देशों के बीच एक वैश्विक वर्ग विभाजन पैदा किया है। ‘ग्लोबल नॉर्थ’ और ‘ग्लोबल साउथ’ के बीच के विभाजन की वजह से मैन्युफैक्चरिंग उन्नत देशों से भारत, फिलीपीन्स, चीन, दक्षिण अफ्रीका, ब्राज़ील जैसे देशों की ओर स्थानांतरित हुई है। एप्पल, माइक्रोसॉफ्ट, आईबीएम जैसे प्रमुख ब्राण्ड एवं टोयोटा, होण्डा, हुण्डाई, फोर्ड जैसी दैत्याकार ऑटोमोबाइल कंपनियाँ अब उन्नत पूँजीवादी देशों में कोई उत्पादन नहीं कर रही हैं एवं उन्होंने अपनी मैन्युफैक्चरिंग इकाइयाँ तथाकथित तीसरी दुनिया की ओर स्थानांतरित कर दी हैं। इसकी वजह से ‘ग्लोबल साउथ’ में एक विशाल मज़दूर वर्ग उभरा है। यह मज़दूर वर्ग ज़्यादातर असंगठित, अनौपचारिक एवं असुरक्षित है। यह प्रक्रिया एक वैश्विक असेंबली लाइन के उभार और फोर्डिस्ट असेंबली लाइन के पराभव के साथ ही घटित हुई है। नतीजतन विशेषकर तीसरी दुनिया के देशों में फोर्डिस्ट युग के विशाल कारखानों की जगह बड़ी संख्या में छोटे-छोटे कारखानों का उभार देखने में आया है। इन कारखानों में कार्यबल बेहद असंगठित है एवं वह कैजुअल या ठेके पर कार्यरत है। यह प्रक्रिया ‘ग्‍लेाबल नॉर्थ’ में भी घटित हुई है, लेकिन वहाँ यह बहुत छोटे स्तर पर है।

प्रो. नेस ने नव-कॉरपोरेटवाद की अवधारणा पर भी बात रखी। नव-कॉरपोरेटवाद एक ऐसी प्रवृत्ति है जिसमें ट्रेड यूनियनों पर राज्य का वर्चस्व क़ायम हो जाता है और वे मज़दूर वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व करने की बजाय मज़दूरों के जुझारूपन को नियंत्रित और विनियमित करने का उपकरण बन जाती हैं। उन्होंने दक्षिण कोरिया व दक्षिण अफ्रीका का उदाहरण दिया जहाँ मुख्‍यधारा की पारंपरिक ट्रेड यूनियनों ने कॉरपोरेट घरानों के अति-शोषण के ख़ि‍लाफ़ मज़दूर आन्दोलन को नियंत्रित और विनियमित करने में राज्य के एजेंट के रूप में काम किया। साथ ही इन पीत आत्‍मसमर्पणवादी यूनियनों की प्रतिक्रिया में मज़दूरों ने नये तरीकों से संगठित होने और प्रतिरोध करने का प्रयास किया जिसने अन्तत: स्वतंत्र ट्रेड यूनियनों के रूप में मज़दूरों के विरोध के नए रूपों को जन्म दिया। पारंपरिक ट्रेड-यूनियनें जब मज़दूर राजनीति को विनियमित करने में राज्य मशीनरी का हिस्सा बन गयीं तो इसकी प्रतिक्रिया के रूप में मज़दूरों ने संगठन और संघर्ष के नये रूपों की खोज की।

प्रो. नेस के अनुसार उन्नत देशों में यह नव-कॉरपोरेटवाद कारगर साबित हुआ है जहाँ तीसरी दुनिया के देशों के मज़दूर वर्ग की साम्राज्यवादी लूट-खसोट की बदौलत साम्राज्यवादी शासक वर्ग मज़दूर वर्ग के सापेक्षत: बड़े हिस्से को कुछ रियायतें और सुविधाएँ देकर सहयोजित करने में कामयाब हुआ है। लेकिन इसके कारण वैश्विक स्तर पर ध्रुवीकरण तीखा हुआ है और दूसरी ओर तीसरी दुनिया में मज़दूर आन्दोलन के जुझारूपन में भी बढ़ोत्तरी हुई है।

प्रो. नेस ने कहा कि मज़दूरों के संगठन के नये रूप मुख्यधारा के पारंपरिक ट्रेडयूनियनवाद की विफलता की वजह से अस्तित्व में आ रहे हैं। उन्होंने बताया कि 1960 के दशक में यूरोपीय एवं अमेरिकी ‘न्यू लेफ्ट’ और दक्षिणपंथी सिद्धान्तकारों के बीच यह धारणा व्याप्त थी कि मज़दूर वर्ग ख़त्म हो चुका है। उनकी दलील थी कि हम मज़दूर वर्ग के पूँजीवादी शोषण की मंजिल को पार कर चुके हैं क्योंकि प्रौद्योगिकी ने इन सभी प्रश्नों का समाधान कर दिया है। परन्तु 1990 का दशक आते-आते यह स्पष्ट हो चुका था कि मज़दूर वर्ग अतीत की चीज़ नहीं बनने जा रहा बल्कि हम मानवता के इतिहास में सबसे बड़े मज़दूर वर्ग के उभार के साक्षी हैं। इस समय केवल तीसरी दुनिया के देशों में करीब 3 अरब मज़दूर हैं। औद्योगिक मैन्युफैक्चरिंग और पूँजीवादी शोषण ख़त्म नहीं हुआ है, बल्कि वह उन्नत पूँजीवादी देशों से पिछड़े पूँजीवादी देशों की ओर स्थानांतरित हो गया है। यह विशाल मज़दूर वर्ग न सिर्फ़ मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में काम कर रहा है बल्कि सेवा क्षेत्र में भी कार्यरत है। पूँजी का वित्तीयकरण एक बड़े सेवा क्षेत्र के उभार तथा विकासशील देशों की ओर मैन्युफैक्चरिंग के स्थानांत‍रण का प्रमुख कारण रहा है।

उन्नत दुनिया और साथ ही साथ विकासशील दुनिया दोनों में ही ये मज़दूर कम मज़दूरी वाले प्रवासी/आप्रवासी मज़दूर हैं। पारंपरिक ट्रेड यूनियनें इन मज़दूरों को संगठित करने में अक्षम रही हैं क्योंकि ये मज़दूर छोटे कारखानों और वर्कशॉपों में काम करते हैं। अत: मज़दूरों ने खुद को मज़दूर केन्द्रों और मज़ूदर क्लिनिकों जैसे नये रूपों में संगठित किया है। ये मज़दूर बेहद जुझारू हैं। परन्तु मज़दूरों के संगठन के इन नये रूपों में साम्राज्यवादी फण्डिंग एजेंसियाँ, एनजीओ, एडवोकेसी ग्रुप्‍स भी घुस रहे हैं। उनके असली एजेंडा को समझने की ज़रूरत है। उम्मीद की किरण यह है कि इन अति-शोषित मज़दूरों में से अधिकांश कैजुअल और ठेके पर काम करने वाले हैं और इसलिए वे बहुत रैडिकल व जुझारू मज़दूर हैं। दक्षिण अफ्रीका में खदान मज़दूरों की नयी जुझारू यूनियन ने बहुत जल्‍द ही पारंपरिक आत्मसमर्पणवादी यूनियनों का स्थान ले लिया और वह मज़दूरों के लिए एक विकल्‍प के रूप में उभरी। चीन में भी नये मज़दूर संगठनों ने कई ‘वाइल्ड कैट’ हड़तालें कीं, उदाहरण के लिए होण्डा ऑटो पार्ट्स मज़दूरों की एक महीने की हड़ताल। इसके अतिरिक्त दो साल पहले चीन में निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी हड़ताल हुई थी जिसमें लाखों मज़दूरों ने भाग लिया था। ये स्वतंत्र और तृण-मूल स्तर की यूनियनें भूमण्डलीकरण एवं ‘पोस्ट-फोर्डिज़्म’ के दौर में मज़दूर वर्ग के आन्दोलन की चुनौतियों के संभावित उत्तर के रूप में उभरी हैं।

व्याख्यान के बाद प्रश्नोत्तर सत्र में अभिनव सिन्‍हा, बीएम प्रसाद, अभिषेक गुप्ता और एस.एन. त्रिपाठी ने कुछ प्रासंगिक प्रश्न पूछे जिनका प्रो. नेस ने विस्तार से उत्तर दिया। व्याख्यान में गिरी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज़ के डॉ. ममगैन, डॉ. सी.एस. वर्मा, प्रो. हिरण्मय धर, लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रो. एस.एन. आब्दी, प्रो. जे.पी. चतुर्वेदी और राजीव हेमकेशव सहित बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी, एक्टिविस्ट और छात्र उपस्थित थे।

20 जुलाई को लखनऊ में जनचेतना पुस्तक विक्रय केन्द्र पर ‘अरविन्द मार्क्सवादी अध्ययन संस्थान’ ने प्रो. इमैनुएल नेस के साथ एक अनौपचारिक बातचीत का आयोजन किया। पूँजीवाद के संकट एवं भारत, बांग्‍लादेश, चीन, व दक्षिण अफ्रीका आदि में मज़दूरों की दशा, और इन देशों में मज़दूर किस प्रकार गोलबन्दी एवं संघर्ष के नए रूपों का निर्माण कर रहे हैं, तथा किस प्रकार पारंपरिक ट्रेड यूनियनें तेज़ी से अप्रासंगिक होती जा रही हैं, इन सभी विषयों पर जीवन्त बातचीत हुई। दोनों ओर से प्रश्न पूछे गए और उत्तर दिये गए। श्रोताओं में से लोगों ने अमेरिका में एक समय बहुत मजबूत रहे मज़दूर आन्देालन के पतन और अन्य देशों के लिए उसके सबकों, अश्वेत आन्दोलन, अमेरिका में औरतों के आन्दोलन आदि से सम्बन्धित कई प्रश्न पूछे। प्रो. हिरण्मय धर ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर बंगलादेश में मज़दूरों की दशा पर विस्तार से बात की। अभिषेक गुप्ता ने आईटी उद्योग के वर्करों के बारे में चर्चा की। अभिनव सिन्‍हा ने मज़दूरों के स्वत:स्‍फूर्त विद्रोहों और आन्दोलनों को एक सशक्त पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलन में एकजुट करने से जुड़ी चुनौतियों की चर्चा की।

प्रो. इमैनुएल नेस ने लखनऊ में वर्ग संघर्ष के इतिहास के बारे में जानना चाहा। वरिष्ठ हिन्दी-उर्दू लेखक और ट्रेड यूनियन एक्टिविस्ट शकील सिद्दीकी ने लखनऊ में हुए मज़दूरों और कर्मचारियों के आन्दोलनों के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि लखनऊ 1857 के विद्रोह के प्रमुख केन्द्रों में से एक था और उसके कुचले जाने के बाद भी लंबे समय तक उसकी विरासत लोगों को प्रेरित करती रही। आज़ादी मिलने के ठीक बाद 1949 में एक बड़ी रेलवे हड़ताल हुई थी जिसमें लखनऊ के मज़दूरों ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्‍स लिमिटेड की देश में सभी पाँच इकाइयों में 78 दिन लम्बी हड़ताल चली थी जिसमें लखनऊ इकाई के वर्कर्स 81 दिनों तक हड़ताल पर थे और सभी गिरफ़्तार साथियों की रिहाई के बाद ही हड़ताल समाप्त हुई थी। 1980 के दशक की शुरुआत तक लखनऊ में कई बड़े उद्योग मौजूद थे और मज़दूरों ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष भी किये। लेकिन उसके बाद से बड़े कारखाने बन्द हो चुके हैं और पब्लिक सेक्‍टर इकाइयों के तथा सरकारी कर्मचारी अब अपने आपको मज़दूर नहीं समझते हैं। हालाँकि अब नये उद्योग विकसित हो रहे हैं और मेट्रो का काम चल रहा है जिनमें हज़ारों मज़दूर बेहद ख़राब हालत में काम कर रहे हैं। उनको संगठित करने की ज़रूरत है।

प्रो. नेस ने अपने इस भारत दौरे में मुम्बई और दिल्ली में भी मज़दूर आन्दोलन से जुड़े विषयों पर अनेक व्याख्यान दिये और कार्यकर्ताओं तथा बुद्धिजीवियों के साथ बातचीत की।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2016


 

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