कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (सत्रहवीं किश्त)
मूलभूत कर्तव्यः राज्य की विफ़लता का ठीकरा जनता पर फोड़ने की बेशर्म क़वायद

आनंद सिंह

इस लेखमाला के अन्‍तर्गत प्रकाशित सभी किस्‍तें पढने के लिए क्लिक करें

 

भारतीय संविधान के भाग 4क में नागरिकों के लिए कुछ मूलभूत कर्तव्य गिनाये गये हैं। ग़ौरतलब है कि यह भाग मूल संविधान में नहीं था, बल्कि इसे 1976 में 42 वें संशोधन के द्वारा संविधान में डाला गया था। यह महज़ संयोग नहीं है कि भारतीय राज्य ने नागरिकों को उनके मूलभूत कर्तव्यों की याद उस समय दिलाई जब आज़ादी के समय दिखाये सपनों के तार-तार होने के बाद जन-असंतोष इतना गहरा चुका था कि हालात को क़ाबू में करने के लिए शासक वर्ग को संविधान में ही मौजूद प्रावधानों का इस्तेमाल करके पूरे देश में आपातकाल लगाना पड़ा। लगातार बढ़ती हुई ग़रीबी और बेरोज़गारी की वजह से ‘नेहरूवादी समाजवाद’ (जो वास्तव में राजकीय पूँजीवाद था) का खोखलापन और भारतीय संविधान की पूँजीवादी अन्तर्वस्तु जनता के सामने दिन के उजाले की तरह साफ हो चुकी थी। ऐसे में भारतीय बुर्जुआ शासक वर्ग और उसकी सबसे भरोसेमन्द कांग्रेस पार्टी ने न सिर्फ़ आपातकाल की घोषणा की बल्कि संविधान में भी कुछ बुनियादी फ़ेरबदल करके एक अति-केन्द्रीयकृत फौलादी राज्यसत्ता के रूप में अपनी ताक़त और मज़बूत करने की साज़िश भी रची। संविधान का कुख़्यात 42 वां संशोधन इसी साज़िश का नतीजा था जिसे तत्कालीन विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह के नेतृत्व वाली समिति की सिफ़ारिशों के आधार पर लागू किया गया था। एक ऐसे समय में जब संविधान में ही मौजूद राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्तों को लागू करने में भारतीय राज्य की विफ़लता स्पष्ट रूप से दिख रही थी, नागरिकों के मूलभूत कर्तव्यों के प्रावधान संविधान में डालने के पीछे शासक वर्ग की मंशा यह थी की, इनका सहारा लेकर राज्य अपनी विफ़लता का दोष जनता के मत्थे मढ़ सके। इन मूलभूत कर्तव्यों की आड़ लेकर राज्य के नुमाइंदे जनता को यह पाठ पढ़ाते रहे हैं कि तमाम सामाजिक और आर्थिक समस्याओं के लिए शासन और प्रशासन की व्यवस्था नहीं बल्कि नागरिक ही ज़िम्मेदार हैं क्योंकि वे अपने मूलभूत कर्तव्यों का पालन नहीं करते। हलाँकि ये कर्तव्य किसी न्यायालय में प्रवर्तनीय नहीं हैं, फिर भी ये निश्चय ही शासक वर्ग के हाथ में एक ऐसा हथकण्डा है जिसके सहारे वे जनता के बुनियादी अधिकारों का हनन करने का औचित्य प्रतिपादन करते हैं।

आम तौर पर मूलभूत कर्तव्यों के समर्थन में यह तर्क दिया जाता है कि अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं, इसलिए यदि नागरिकों को मूलभूत अधिकार चाहिए तो उनको कुछ मूलभूत कर्तव्यों का भी पालन करना ही होगा। इस क़िस्म का तर्क करने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि किसी भी देश के संविधान के सन्दर्भ में यह तर्क तो मुख्यतः और मूलतः शासक वर्ग और राज्यसत्ता के लिए लागू होना चाहिए। जनवाद का तक़ाज़ा तो यह है कि यदि कोई राज्य नागरिकों से अपने द्वारा बनाये गये कानूनों का पालन करने की अपेक्षा रखता है तो उसका यह कर्तव्य होना चाहिए कि वह जनता की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करे और जनता के बुनियादी अधिकारों का सम्मान करे। इस धारावाहिक में हम पहले ही यह चर्चा विस्तार से कर चुके हैं कि दुनिया का सबसे लम्बा संविधान होने के बावजूद भारतीय संविधान नागरिकों को उनके बेहद बुनियादी हक़ों मसलन काम करने का अधिकार, भोजन का अधिकार, आवास का अधिकार, समान और निशुल्क शिक्षा का अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार, काम करने की मानवोचित परिस्थितियों को अधिकार आदि की भी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेता। यही नहीं बीते वर्षों में भारतीय राज्य अपने तमाम वायदों से निहायत ही बेशर्मी  से मुकरता जा रहा है। भारतीय राज्य की पूँजी के प्रति पक्षधरता और उसका घोर जनविरोधी चरित्र अब खुले रूप में सामने आ चुका है। ऐसी जनविरोधी राज्यसत्ता जब अपने नागरिकों से उनके मूलभूत कर्तव्यों का पालन करने का आह्वान करती है तो यह एक प्रहसन के समान लगता है। यह आश्चर्य की बात नहीं है देश की अधिकांश आबादी को यह पता भी नहीं होगा कि यह मूलभूत कर्तव्य किस चिड़िया का नाम है और जिन लोगों को इसके बारे में पता भी है उनको यह भी पता है कि इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है।

भारतीय संविधान के मूलभूत कर्तव्यों से सम्बन्धित प्रावधानों का एक और प्रहसनात्मक पहलू यह है कि इसको पूर्व सोवियत संघ के समाजवादी संविधान से प्रेरित बताया जाता है। यह बात उतनी ही हास्यास्पद है जितनी कि यह कि नेहरूवादी समाजवाद सोवियत संघ के समाजवाद से प्रेरित था थे और उन नीतियों से भारत समाजवाद की ओर अग्रसर हो रहा था। तत्कालीन सोवियत संघ की समाजवादी अन्तर्वस्तु को दरिक़नार करके महज़ उसके आवरण की नक़ल करने की जो हास्यास्पद प्रक्रिया नेहरू के समय शुरू हुई थी वह इन्दिरा गाँधी के दौर में अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। हम यह पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि संविधान के 42 वें संशोधन के द्वारा ही प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ शब्द जोड़ा गया था । मूलभूत कर्तव्य को संविधान में जोड़ना भी इसी हास्यास्पद नक़ल की एक कड़ी थी। यह सच है कि 1936 में पारित सोवियत संघ के संविधान में मूलभूत कर्तव्यों के प्रावधान मौजूद थे। परन्तु उस संविधान में उससे पहले जनता को काम करने के अधिकार, आराम करने के अधिकार, बुजुर्गों की बेहतर ज़िन्दगी का अधिकार, सार्वभैमिक और समान शिक्षा का अधिकार, स्त्रियों और पुरुषों की बराबरी का अधिकार आदि जैसे बुनियादी अधिकारों के प्रावधान भी संविधान में मौजूद थे। न सिर्फ़ सविधान में, बल्कि व्यवहार में भी सोवियत संघ की समाजवादी सत्ता ने महज़ तीन दशकों के भीतर ही ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, वेश्यावृत्ति आदि जैसी समस्याओं का समाधान करके दिखाया। सोवियत सत्ता ने यह सिद्ध कर दिया था कि उत्पादन और शासन-प्रशासन के हरेक स्तर पर मेहनतकशों की प्रत्यक्ष भूमिका से सरकार चलायी जा सकती है। ऐसा राज्य जो नागरिकों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की गारण्टी लेती हो, जो जनता से दूर उस पर हुकूमत करने की बजाय उसकी प्रत्यक्ष भागीदारी से शासन-प्रशासन की गतिविधियाँ चलाता हो, यदि नागरिकों से मूलभूत कर्तव्यों का पालन करने का आग्रह करता है तो यह बिल्कुल स्वाभाविक है। परन्तु एक ऐसे राज्य को नागरिकों से उनके मूलभूत कर्तव्यों का पालन करने की अपेक्षा करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है जो स्वयं जनता की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी से मुक़र जाये और लोगों के श्रम के शोषण और उनके उत्पीड़न को रोकने की बजाय उल्टे उसको बढ़वा दे रहा हो।

आइये अब हम एक नज़र भारतीय संविधान में मौजूद मूलभूत अधिकारों पर दौड़ायें। ये कर्तव्य बेहद सामान्य प्रकुति के हैं जिनका कोई ठोस ‘ऑपरेटिव पार्ट’ भी नहीं निकलता। अनु. 51क(क) में नागरिकों को यह हिदायत दी गई है कि वे संविधान का पालन करें और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्र गान का आदर करें। अनु. 51क(ख) के अनुसार नागरिकों को स्वतन्त्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को ह्रदय में संजाए रखना चाहिए और उनका पालन करना चाहिए। कोई यह सवाल कर सकता है कि यदि कोई व्यक्ति संविधान की प्रस्तावना में मौजूद आदर्शो और स्वतन्त्रता संग्राम को प्रेरित करने वाले आदर्शों को उनके वास्तविक अर्थों में लेकर एक ऐसा समाज बनाने के लिए मौजूदा व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्षरत है जिसमें वे आदर्श वास्तव में ज़मीनी हक़ीकत बन सकें तो क्या वह अपने मूलभूत कर्तव्यों का पालन कर रहा है अथवा नहीं?

अनु. 51क(ग) के अनुसार प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह भारत की प्रभुता, एकता और अखण्डता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे। इसमें सवाल यह उठता है कि यदि कोई नागरिक जम्मू व कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों की जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करता है और इन राज्यों में भारतीय सेना की ज़्यादतियों का मुखर विरोध करता है तो वह उपरोक्त मूलभूत कर्तव्य का पालन कर रहा है अथवा नहीं?

अनु. 51क(घ) के अनुसार नागरिकों को देश की रक्षा करनी चाहिए और आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करे। यदि कोई दूसरा देश हमारे देश पर हमला करे तब तो यह बात समझ में आती है कि नागरिकों को जी जान से देश की रक्षा करनी चाहिए। परन्तु यदि हमारे देश का शासक वर्ग अपनी विस्तारवादी महत्वकांक्षाओं की तृप्ति के लिए और जनता का ध्यान अन्य बुनियादी मुद्दों से हटाने के लिए युद्धोन्माद फ़ैलाता है और ऐसे में यदि कोई नागरिक शासक वर्ग के अन्धराष्ट्रवाद का विरोध करता है तो क्या वह अपने मूलभूत कर्तव्यों का पालन कर रहा है अथवा नहीं?

अनु. 51क(घ) के अनुसार सभी नागरिकों का यह कर्तव्य है कि वे भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो और वे ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हो। देश की चुनावी राजनीति से वाक़िफ़ कोई भी व्याक्ति यह बखूबी जानता है कि धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित भेदभाव करने वालों में सबसे शीर्ष स्थान शासक वर्ग की नुमाइंदगी करने वाली तमाम चुनावी पार्टियों के नेता करते हैं। अब यह बात किसी से छिपी नहीं है कि समाज में साम्प्रदायिक और जातीय नफ़रत और भेदभाव फ़ैलाने के लिए सर्वोपरि रूप से भारतीय राज्य के विभिन्न अंग – चुनावी पार्टियाँ, पुलिस, नौकरशाही – ज़िम्मेदार हैं। ऐसा राज्य जब नागरिकों से सामाजिक समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करने की बात करता है तो यह बेशर्मी ही कही जायेगी।

अनु. 51क(च) में नागरिकों का यह कर्तव्य बताया गया है कि वे समृद्ध विरासत की गौरवशाली परम्परा का महत्व समझे और उनकी रक्षा करें। इस प्रावधान को कई बार पढ़ने के बाद भी यह पता लगाना मुश्किल है कि इसका मतलब क्या है और नागरिकों को इस कर्तव्य को पूरा करने के लिए क्या करना चाहिए।

अनु. 51क(छ) में प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अन्तर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करने और उसका संवर्धन करने तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखने के लिए कहा गया है। पिछले छह दशकों के विकास में पर्यावरण की रक्षा करने में भारतीय राज्य नितान्त विफल रहा है। मुनाफे की अन्धी होड़ में जंगल, नदियां, पर्वत, आबोहवा सबकुछ प्रदूषित हो रहे हैं और अब तो बात यहाँ तक आ पहुँची है कि ‘ग्लोबल वार्मिंग’ जैसी परिघटनाओं की वजह से धरती पर मानव सहित अन्य जीवों की उपस्थिति पर ही खतरा उत्पन्न हो गया है। ऐसे में पर्यावरण की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी नागरिकों पर थोपना दरअसल अपनी विफ़लता पर पर्दा डालने का ही प्रयास जान पड़ता है।

अनु. 51क(ज) के अनुसार नागरिकों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करना चाहिए। स्पष्ट रूप से ऐसे दृष्टिकोण और भावना के विकास की ज़िम्मेदारी राज्य की होनी चाहिए। परन्तु संविधान में कहीं भी राज्य को यह ज़िम्मेदारी नहीं सौंपी गयी है। ऐसे में यह अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़कर जनता के ऊपर समाज में मौजूद अन्धविश्वासों और अमानवनीयता के लिए जनता को ही ज़िम्मेदार ठहराने की क़वायद ही जान पड़ती है।

अनु. 51क(झ) जनता को यह सलाह देता है कि वह सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे। इस प्रावधान को मूलभूत कर्तव्य के अध्याय में डालने के पीछे जनान्दलानों को निशाना बनाने की मंशा साफ़ तौर पर नज़र आती है। यह बात राज्य की हिंसा और सामाजिक संरचनात्मक हिंसा पर संविधान की चुप्पी से और स्पष्ट हो जाती है।

 अनु. 51क(ञ) के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों में के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊँचाइयों को छू ले। यह प्रावधान एक बड़बोले व्यक्ति की नसीहत जैसा लगता है और इस पर ज़्यादा बात करना समय की फिजूलखर्ची होगी।

वर्ष 2002 में संविधान के 86 वें संशोधन के द्वारा शिक्षा के मूलभूत अधिकार के साथ ही साथ एक नया मूलभूत कर्तव्य भी जोड़ा गया जिसके अनुसार 6-14 वर्ष के बीच की आयु के हर बच्चे के माता-पिता की यह ज़िम्मेदारी होगी कि वह अपने बच्चे को पढ़ने का अवसर प्रदान करे। यह प्रावधान भी छह दशकों में राज्य की सार्वजनिक शिक्षा मुहैया कराने की विफ़लता की ज़िम्मेदारी ख़ासकर ग़रीब जनता के मत्थे डालने के लिए डाला गया जान पड़ता है।

पूँजीवादी शासक वर्ग तमाम हथकण्डों से जनता को अपने शासन के प्रति निष्ठावान और समर्पित बनाने की कोशिश करता आया है और भारतीय संविधान में मौजूद मूलभूत कर्तव्य भी इसी की एक कड़ी है। परन्तु एक मेहनतकश इन्सान का सर्वोपरि दायित्व यह है कि वह उत्पादन और शासन-प्रशासन की एक ऐसी व्यवस्था बनाने के लिए जी जान से जुट जाये जो एक इन्सान द्वारा दूसरे इन्सान के शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करे।

 

मज़दूर बिगुलमार्च  2013

 


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments