ग़रीबों के मुँह का ग्रास छीनकर बढ़ती जीडीपी और मालिकों के मुनाफ़े!

मुकेश त्यागी

पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन का चरित्र तो सामाजिक हो चुका है अर्थात वस्तुओं-सेवाओं का उत्पादन अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा नहीं बल्कि बहुत सारे श्रमिकों द्वारा सामूहिक रूप से किया जाता है। लेकिन उत्पादित वस्तुओं पर स्वामित्व सामाजिक अर्थात इन उत्पादकों का सामूहिक नहीं बल्कि उत्पादन के साधनों के मालिकों या पूँजीपतियों का निजी स्वामित्व होता है। उत्पादकों को अपनी श्रमशक्ति बेचने के एवज में पूँजी मालिकों द्वारा तय मज़दूरी ही मिलती है जबकि उत्पाद के पूरे मूल्य पर मालिकों का अधिकार होता है जिससे उनका मुनाफ़ा तथा दौलत बढती जाती है। श्रमिकों की श्रम शक्ति का मूल्य भी बाज़ार के माँग-पूर्ति के नियम से तय होता है और जब मजदूरों की एक विशाल बेरोज़गार फौज श्रम के बाज़ार में बिकने के लिये उपलब्ध हो तो यह मूल्य इतना कम हो जाता है कि उनको अपना जीवन चलाने के लिये भी पर्याप्त नहीं होता क्योंकि मालिक पूँजीपति को श्रमिकों की अटूट कतार बिकने के लिये नजर आती है। इस स्थिति में मजदूरों की जिन्दगी बद से बदहाल होती जाती है और पूँजीपति का मुनाफ़ा ऊँचे से ऊँचा। वर्तमान व्यवस्था में पूँजीपतियों के मुनाफ़े-दौलत में इस भारी वृद्धि को ही अर्थव्यवस्था के विकास का पैमाना माना जाता है।

garibon-copyअभी भारत की अर्थव्यवस्था में तेज़ी की भी बडी चर्चा है और इसे दुनिया की सबसे तेज़ी से विकास करती अर्थव्यवस्था बताया जा रहा है। इस विकास की असली कहानी भी बहुसंख्यक श्रमिक-अर्धश्रमिक जनता की जिन्दगी पर पडे इसके असर से ही समझनी होगी। 1991 में शुरू हुए आर्थिक ‘सुधारों’ से देश की अर्थव्यवस्था कितनी मज़बूत हुई है उसकी असलियत जानने के लिए जीडीपी-जीएनपी की वृद्धि, एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट के आँकड़े, मकानों-दुकानों की कीमतें, अरबपतियों की तादाद, या सेंसेक्स-निफ्टी का उतार-चढाव देखने के बजाय हम नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो (NNMB) के सर्वे के नतीजों और अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर नजर डालते हैं जो बताता है कि जीवन की अन्य सुविधाएँ – आवास, शिक्षा, चिकित्सा, आदि को तो छोड ही दें, इस दौर में ग़रीब लोगों को मिलने वाले भोजन तक की मात्रा भी लगातार घटी है। यह ब्यूरो 1972 में ग्रामीण जनता के पोषण पर नजर रखने के लिए स्थापित किया गया था और इसने 1975-1979, 1996-1997 तथा 2011-2012 में 3 सर्वे किये। इस सारे दौरान सरकारें लगातार तीव्र आर्थिक तरक्की की रिपोर्ट देती रही हैं इसलिए स्वाभाविक उम्मीद होनी चाहिये थी कि जनता के भोजन-पोषण की मात्रा में सुधार होगा लेकिन इसके विपरीत ज़मीनी असलियत उलटे ये पायी गयी कि जनता को मिलने वाले पोषण की मात्रा बढ़ने के बजाय लगातार घटती गयी है।

2012 के न्यूट्रीशन ब्यूरो के ग्रामीण भारत के आखिरी सर्वे के अनुसार 1979 के मुकाबले औसतन हर ग्रामीण को 550 कैलोरी ऊर्जा, 13 ग्राम प्रोटीन, 5 मिग्रा आइरन, 250 मिग्रा कैल्सियम और 500 मिग्रा विटामिन ए प्रतिदिन कम मिल रहा है। इसी तरह 3 वर्ष से कम की उम्र के बच्चों को 300 मिलीलीटर प्रतिदिन की आवश्यकता के मुकाबले औसतन 80 मिली दूध ही प्रतिदिन मिल पा रहा है। सर्वे यह भी बताता है कि जहाँ 1979 में औसतन दैनिक ज़रूरत के लायक प्रोटीन, ऊर्जा, कैल्शियम तथा आइरन उपलब्ध था, वहीं 2012 आते-आते सिर्फ़ कैल्शियम ही ज़रूरी मात्रा में मिल पा रहा है जबकि प्रोटीन दैनिक ज़रूरत का 85%, ऊर्जा 75% तथा आइरन मात्र 50% ही उपलब्ध है। सिर्फ़ विटामिन ए ही एक ऐसा पोषक तत्व है जिसकी मात्रा 1979 के 40% से 1997 में बढकर 55% हुई थी लेकिन वह भी 2012 में घटकर दैनिक ज़रूरत का 50% ही रह गयी। इसी का नतीजा है कि सर्वे के अनुसार 35% ग्रामीण स्त्री-पुरुष कुपोषित हैं और 42% बच्चे मानक स्तर से कम वज़न वाले हैं। और यह तो पूरी आबादी का औसत आँकड़ा है, जनसंख्या के ग़रीब हिस्से में तो हालात और भी बेहद ख़राब हैं। आजीविका ब्यूरो नाम के संगठन द्वारा दक्षिण राजस्थान के गाँवों में किये गये एक सर्वे के अनुसार आधी माँओं को दाल नसीब नहीं हुई थी तथा एक तिहाई को सब्‍ज़ी। फल, अंडे या मांस तो खैर किसी को भी मिलने का सवाल ही नहीं था। नतीजा, आधी माँएँ और उनके बच्चे कुपोषित थे।

इस हालत की वजह क्या है? इस बारे में न्यूट्रीशन ब्यूरो के ही सर्वे में पाया गया कि असल में 1979 में सिर्फ़ 30% ग्रामीण लोग भूमिहीन थे जो अब बढकर 40% हो गये हैं; मुख्यतः मज़दूरी पर निर्भर परिवार 51% हो गये हैं तथा और 27% ग़रीब किसान हैं जिनकी आमदनी बेहद कम है और उन्हें जीवन निर्वाह के लिये अपनी ज़मीन पर निर्भर रहने की गुंजाइश नहीं इसलिए बाकी समय उन्हें मज़दूरी ही करनी पड़ती है। 2011 की जनगणना के अनुसार भी भूमिहीन कृषि मजदूरों की तादाद 2001 के 10.67 करोड़ के मुकाबले बढ़कर 14.43 करोड़ हो गयी है। उपजाऊ जोत वाले मालिक किसान पहले से आधे ही रह गये हैं। अर्थात 3 चौथाई ग्रामीण जनसंख्या भी अब भोजन के लिए बाज़ार से खरीद पर ही निर्भर है। अब सरकार इस साल पहले ही संसद को बता चुकी है कि महँगाई से एडजस्ट करने पर कृषि में मज़दूरी की दर भी घटने लगी है – 2014 और 2015 में यह 1% प्रतिवर्ष कम हुई है। साथ में यह भी ध्यान दें कि बाकी चीजों के मुकाबले खाद्य पदार्थों की महँगाई अधिक तेज़ी से बढ़ी है – 6.7% के मुकाबले 10%। खाद्य पदार्थों में भी दालों, वसा तथा सब्‍ज़ि‍यों के दाम ज़्यादा तेज़ी से बढे हैं। नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार शहरों-गाँव के सबसे ग़रीब लोगों द्वारा उपभोग की गयी वस्तुओं की महँगाई दर अमीर शहरियों की उपभोग्य वस्तुओं के मुकाबले 5% तक अधिक है। निष्कर्ष यह कि ग्रामीण भारत का बहुलांश ना तो अब पर्याप्त मात्रा में भोजन उगाने में समर्थ है और ना ही ख़रीदने में। अतः अधिकांश लोगों के लिए दाल, सब्‍ज़ी, फल, दूध, अंडा-मांस, आदि अब दुर्लभ पदार्थ बनते जा रहे हैं।

अगर विकसित देशों की बात को छोड़ भी दिया जाये और सिर्फ़ मीडिया द्वारा भारत की बराबरी के उभरते देश कहे जाने वाले ब्रिक्स (BRICS) देशों के साथ भी तुलना की जाये तो भारत में कुपोषण की स्थिति ब्राज़ील से 13 गुना, चीन से 9 गुना और 1994 तक भयंकर रंगभेदी शासन झेलने वाले दक्षिण अफ्रीका से भी 3 गुना बदतर है। इस पर भी हमारे शासक कुपोषण को कोई ध्यान देने लायक समस्या नहीं मानते। अभी भारत की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले मुम्बई से सटे पालघर में पिछले एक साल में 600 आदिवासी बच्चों की कुपोषण से मृत्यु पर जब महाराष्ट्र के आदिवासी मामलों के मंत्री से सवाल पूछा गया तो उनका सीधा जवाब था ‘तो क्या हुआ’। यहाँ तक कि ‘सबका हाथ सबका विकास’ वाली मोदी सरकार ने तो 2015 में इस न्यूट्रीशन ब्यूरो को ही बन्‍द कर दिया है, ताकि ऐसी ख़तरनाक परेशान करने वाली सच्चाइयाँ ज़ाहिर ही ना हों! पर सच का मुँह क्या इतनी आसानी से बन्‍द हो जायेगा?

यद्यपि उपरोक्त सब तथ्य ग्रामीण क्षेत्र के हैं लेकिन हम सब यह भी जानते हैं कि शहरी मजदूरों-निम्न मध्य वर्ग की स्थिति भी इतनी ही बुरी है। अर्थात देश के 80% लोगों के लिए इन ‘सुधारों’ का नतीजा भूख और कुपोषण ही हुआ है। तो हम जो बढ़ते कॉरपोरेट मुनाफ़े, अरबपतियों की बढती संख्या की खबरें पढ़ते हैं उसके पीछे की कड़वी सच्चाई यही है कि ग़रीब मजदूरों, किसानों, निम्न-मध्यवर्गीय लोगों के मुँह का निवाला छीनकर ही यह मुनाफ़े, यह अरबों की दौलत इकठ्ठा हो रही है। इसीलिए इन सब सर्वे की ख़बरें या इस पर बहसें हमें कॉरपोरेट मीडिया में कहीं नजर नहीं आतीं।

आइये, अब हम शहरी ग़रीबों की स्थिति पर नजर डालते हैं। शहरों की ऊपरी चमक-दमक से उनका हाल बेहतर न समझें। दिल्ली और मुम्बई सहित शहरों की झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वाली एक चौथाई अर्थात 10 करोड़ अत्यन्त ग़रीब लोग भी भूख और कुपोषण का उतना ही शिकार हैं। और जैसे-जैसे हम भारत के आर्थिक महाशक्ति बनने की चर्चा सुनते हैं भूख पीड़ित लोगों की तादाद घटने के बजाय बढ़ती जाती है। यूनीसेफ के अनुसार भारत में हर साल 5 वर्ष से कम आयु के 10 लाख बच्चे कुपोषण सम्बन्धी कारणों से मृत्यु का शिकार होते हैं। सामान्य से कम वज़न वाले 5 साल तक के बच्चों की संख्या का विवरण देखें तो पता लगेगा कि विकसित देशों को तो भूल ही जाइये, ब्राजील, चीन, दक्षिण अफ्रीका जैसे तीसरी दुनिया के देश भी छोड़िये, शहरी बच्चों के कुपोषण के मामले में हम बांग्लादेश-पाकिस्तान से भी गये गुजरे हैं! भारत में यह तादाद जहाँ 34% है वहीं बांग्लादेश में 28%, पाकिस्तान में 25%, दक्षिण अफ्रीका में 12%, ब्राजील में 2% और चीन में 1% है!

भारत की राजधानी दिल्ली और आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले मुम्बई की स्थिति को थोड़ा और विस्तार से जानते हैं क्योंकि यहाँ के बारे में ज़्यादा जानकारी उपलब्ध है। इससे हम बाकी शहरों की स्थिति का भी कुछ आकलन कर पायेंगे। इन दोनों की कुल जनसंख्या के आधे और करीब 2.40 करोड़ लोग स्लम या झोंपड़पट्टी में रहते हैं जो भारी भीड़, ग़रीबी और कुपोषण के केन्द्र हैं। इनमें लोग किस तरह रहते होंगे यह अनुमान लगाने के लिए इतना ही बताना पर्याप्त है कि मुम्बई की जनसँख्या का 60% झोंपड़पट्टी में रहता है जो मुम्बई के कुल क्षेत्रफल का सिर्फ़ 8% जगह में स्थित हैं। मुम्बई के गोवंडी/मानखुर्द या दिल्ली की ऐसी ही श्रमिक बस्तियों में जाइये तो आपको खुले गंदे नालों, कचरे के ढेरों और भिनभिनाती मच्छर-मक्खियों के बीच दड़बे की मानिंद भरे लोग रहते मिलेंगे जिन्होंने देश भर के गाँवों में अपनी जीविका की बरबादी के बाद इन झोंपड़ बस्तियों में शरण ली है। लेकिन इनमें से बहुत सारे तो इस झोंपड़ बस्ती में भी सही से ठौर नहीं पा पाते क्योंकि कभी बुलडोज़र तो कभी आग, कभी प्रॉपर्टी डीलरों के माफिया गिरोह इनके थोडे बहुत बर्तन-भांडों को भी जलाते, तोड़ते, फेंकते रहते हैं।

इन ग़रीब मज़दूर परिवारों में अक्सर माता-पिता दोनों को दिन का ज़्यादातर समय लम्बे हाड़-तोड़ श्रम में बिताना होता है, काम के लिये आने-जाने में भी काफी समय लगता है और खुद तथा अपने बच्चों के लिये भोजन पकाने का समय नहीं होता; फिर उतना कमा भी नहीं पाते कि आवश्यक पोषक तत्व युक्त भोजन सामग्री खरीद सकें। ये और इनके बच्चे पोषण के नाम पर सिर्फ़ आटा-मैदा, चीनी और चिकनाई-तेल वाला कचरा भोजन (जंक फूड) ही उपभोग करने की क्रय क्षमता रखते हैं। दाल के नाम पर कभी-कभी सस्ती मसूर और सब्‍ज़ी के नाम पर आलू ही मयस्सर होता है, फल-दूध तो स्वप्न बन चुके हैं। नाश्ते के नाम पर परिवार चाय के साथ फैन या रस्क से काम चला रहे हैं और बच्चों को बीच में भूख लगे तो मैदे के नूडल्स या मैदे, चीनी, तेल वाली जलेबी जैसी चीजों से काम चलाया जा रहा है। ये ग़रीब श्रमिक परिवार इस प्रकार के भोजन को जीभ के स्वाद की वजह से नहीं अपना रहे बल्कि इस लिये कि यह पोषक तो नहीं होता पर पेट की भूख को मारता है। लेकिन और भी बडी तथा असली वजह है कि यह दाल, चावल, रोटी, सब्ज़ी, सलाद वाले वास्तविक संतुलित भोजन की एक तिहाई-चौथाई कीमत का पड़ता है तथा समय की कमी से परेशान मज़दूर परिवार इसे सुविधाजनक भी पाते हैं। लेकिन इस किस्म के भोजन का नतीजा होता है नाटा कद, आड़ी-टेढ़ी हड्डियाँ, सडे़ दाँत, फूले पेट, बीमारियों का मुकाबला करने में अक्षम शरीर अर्थात कुपोषण। ऐसे बच्चे डायरिया, मलेरिया, न्यूमोनिया, जैसी बीमारियों के भी आसान शिकार होते हैं। हर साल करीब 10 लाख बच्चे कुपोषण की वजह से 5 साल की उम्र के पहले ही जान गँवा देते हैं। साथ ही यह कुपोषण सिर्फ़ जिस्म को ही बरबाद नहीं करता बल्कि बच्चों के दिमाग को भी कुन्द करता है, उनके सीखने-पढ़ने की कूव्वत को भी कम करता है। दिल्ली के 20 लाख बच्चों में से आधों की जिस्मानी-दिमागी बढ़वार ही कुपोषण के मारे कुन्द हो गयी है। बाकी देश के ग़रीब मज़दूर-किसान का ही नहीं निम्न मध्य वर्गीय परिवारों का भी यही हाल होता जा रहा है क्योंकि एक ओर घटती वास्तविक आमदनी और दुसरी ओर खाद्य पदार्थों की भयंकर जमाखोरी-कालाबाजारी से आसमान छूती कीमतें भारतीय समाज के अधिकांश लोगों के जिस्मानी-दिमागी स्वास्थ्य को पतन के गर्त में धकेल रही हैं।

विश्व खाद्य व कृषि संगठन (FAO) की ग्लोबल हंगर रिपोर्ट 2015 के अनुसार भारत में कुल 19.46 करोड़ लोग कुपोषण के शिकार हैं जो पिछले 5 साल में 2.6% बढे हैं अर्थात 5 साल पहले 18.99 करोड़ ही थे। ऐसे समझ सकते हैं कि पाकिस्तान की कुल जनसँख्या से भी 1.20 करोड़ ज़्यादा लोग भारत में कुपोषित हैं। यहाँ कुपोषण का मतलब सिर्फ़ कुछ दिन या समय भोजन की कमी झेलने से नहीं है बल्कि उनसे जिन्हें लगातार एक साल और उससे ज़्यादा अपनी दैनिक शारीरिक पोषण की ज़रूरत से कम भोजन मिलता है। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में ग़रीबों के भोजन में मात्र किसी तरह जीवित रह सकने वाले पदार्थ ही शामिल हैं क्योंकि खाद्य पदार्थों की बढ़ती महँगाई से ग़रीब लोग पोषक भोजन खरीदने में असमर्थ हैं।

आखिर इस स्थिति की वजह क्या है? अभी 15 सितंबर को प्रकाशित कोर्न फेरी हे ग्रुप के 2008 के वित्तीय संकट से अब तक के 51 देशों के रोज़गार व वेतन के तुलनात्मक अध्ययन के अनुसार इन 8 वर्षों में भारत की जीडीपी 63.8% बढी है लेकिन औसत वेतन वृद्धि मात्र 0.2% हुई है। इसमें भी और गहराई तक जायें तो शिखर के लोग अर्थात उच्च प्रबन्धकों का वेतन 30% बढा है लेकिन सबसे नीचे वाले श्रमिकों की वास्तविक मज़दूरी 30% कम हुई है। सारे 51 देशों में उच्चतम व निम्नतम स्तर के कर्मियों में वेतन असमानता सबसे अधिक भारत में ही है क्योंकि यहाँ रोज़गार कम बढे़ हैं और श्रमिकों की सप्लाई ज़्यादा। वैसे भी अब नियमित वेतन वाले स्थायी मज़दूर रखने के बजाय उनसे तिहाई-चौथाई मज़दूरी वाले अस्थायी मजदूरों की ही संख्या बढ़ती जा रही है।

खुद सरकारी लेबर ब्यूरो के सर्वे इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। 8 मुख्य रोज़गार देने वाले उद्योगों के लेबर ब्यूरो सर्वे की पिछली रिपोर्ट थी कि पिछले 8 साल में सबसे कम रोज़गार अर्थात मात्र 1 लाख 35 हज़ार रोज़गार 2015 में पैदा हुए थे। अब अप्रैल-जून 2016 के लेबर ब्यूरो सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार अब रोज़गार पैदा होने के बजाय कम होने लगे हैं! इस तिमाही में 0.43% रोज़गार घटे हैं। ऑटोमोबाइल में 18%, आभूषण-जवाहरात में 16%, हैंडलूम/पावरलूम में 12% तथा ट्रांसपोर्ट में 4% श्रमिकों की नौकरियाँ चली गयीं हैं। चमड़ा उद्योग में शून्य रोज़गार वृद्धि है। इसी तरह सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकॉनोमी (CMIE) की रिपोर्ट के अनुसार इस साल जनवरी में बेरोज़गारी की दर 8.72% थी जो अगस्त में बढकर 9.8% पर जा पहुँची है।

इसी का नतीजा है कि 2011-12 के उपभोक्ता खर्च के नेशनल सैम्पल सर्वे के अनुसार अगर शहर में रहने कोई व्यक्ति 6,383 रु महीना और गाँव में रहने वाला 2,886 रु महीना से ज़्यादा उपभोग पर खर्च करने की हैसियत रखता है तो वह भारत के सबसे अमीर 5% लोगों में शामिल है; मतलब मुकेश अम्बानी, रतन टाटा, गौतम अडानी, मूर्ति, प्रेमजी की कतार में! और इस साल संसद में पेश इकोनॉमिक सर्वे के अनुसार 17 राज्यों में किसान परिवारों की औसत सालाना आमदनी 20,000 रु है अर्थात 1,666 रु महीना! इसमें भी अगर बड़े किसानों को निकाल दें तो यह संख्या और भी कम हो जायेगी। एक और तथ्य सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण से जिसके अनुसार देश में 21 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके पास शून्य, जी हाँ, ज़ीरो, संसाधन है; इनमें से 8 करोड़ आदिवासी हैं। यह गणना इस आधार पर की जाती है कि साइकिल, रेडियो या मोबाइल/टेलीफोन जैसी ‘मूल्यवान’ चीज़ें कितने लोगों के पास हैं। इस गणना में यह 21 करोड़ लोग ऐसे थे जिनके पास इसमें से भी कुछ नहीं पाया गया।

उपरोक्त तथ्य यह बताने के लिये काफी हैं कि कॉरपोरेट मीडिया द्वारा बहुप्रचारित ”समावेशी” विकास और इसके ‘ट्रिकल डाऊन’ (बूँद-बूँद कर रिसने) से देश के ग़रीब श्रमिक-अर्धश्रमिक-निम्नमध्यवर्गीय जनता को कितना फ़ायदा मिल रहा है। फ़ायदे के ठीक विपरीत असल में अर्थव्यवस्था की यह सारी ‘वृद्धि’ इनके मुँह का निवाला छीनकर पूँजीपति वर्ग की तिजोरियों को भरने से ही हो रही है। फिर बढती ग़रीबी, कुपोषण, बीमारियाँ, आत्महत्याएँ अचरज की बात कैसे? बिना समाज की बहुसंख्या के जीवन में सुधार हुए जीडीपी का बढ़ना वैसे ही है जैसे हमारे शरीर की कुछ कोशिकाएँ जब अचानक बढ़ने लगती हैं तो शरीर को मज़बूत नहीं करतीं बल्कि मर्मान्तक पीड़ादायक और जानलेवा कैंसर बनती हैं। उसी तरह पूँजीवादी व्यवस्था में यह ढोलपीटू जीडीपी वृद्धि भी समाज के लिए तरक्की नहीं, पीड़ादायक कैंसर ही बन चुकी है! इसका इलाज जल्दी नहीं किया गया तो यह दर्द-तकलीफ़ बढ़ती ही जायेगी।

 

 

मज़दूर बिगुल, अक्‍टूबर-नवम्‍बर 2016


 

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