अथ सर्वोच्च न्यायालय पुन: उवाच
सम्पत्ति रक्षा के नाम पर हड़ताली मजदूरों की हत्या जायज

बिगुल संवाददाता

दिल्ली। न्यायपालिका पूंजीवादी व्यवस्था में आम जनता की आस्था का सबसे बड़ा केंद्र हुआ करती है। लेकिन जैसे–जैसे इस व्यवस्था का घिनौना चेहरा लोगों के सामने परत–दर–परत उघड़ता चला जा रहा है, और लोककल्याणकारी राज्य का इसका मुलम्मा जनविरोधी और तानाशाहाना फरमानों से तार–तार होता जा रहा है, व्यापक मेहनतकश जनता इसकी असलियत के बारे में भी जागरूक हो रही है और अपनी मेहनत की लूट के खिलाफ उनका आक्रोश विशाल हड़तालों और बंद में गोलबंद हो रहा है। ठीक इसी समय, न्यायपालिका पूंजीवाद की गोद में खुलकर खेल दिखाती है और मेहनतकशों के विरोध के अधिकार को पूरी तरह कुचल डालने पर आमादा हो चुकी है। न्यायपालिका के सर्वोच्च पायदान माननीय (?) सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे ही एक निर्णय में कहा कि हड़तालों या बंद का क्या कोई वैधानिक या नैतिक अधिकार भी है? 15 मार्च 1988 को आयोजित भारत बंद के दौरान केरल में एक आटा मिल मालिक द्वारा हड़तालियों पर गोली चलाने से हुई हड़तालियों की मौत पर सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि यह गोली मिल मालिक द्वारा आत्मरक्षा में चलायी गयी इसलिये वह किसी सजा का हकदार नहीं है। हत्यारों को सजा देने की बजाय माननीय (!) न्यायालय परमहंसों की तरह उपदेश देती है कि जब तक हड़ताली हड़तालों में किसी गड़बड़ी को रोक पाने में समर्थ न हों तब तक उन्हें हड़ताल नहीं करनी चाहिये।

यह सरासर बेतुका और पक्षपातपूर्ण निर्णय है जिसका ठीक–ठीक पोस्टमार्टम होना चाहिये। क्या कोई भी आम आदमी/मजदूर अपनी मर्जी से हड़ताल करता है? स्वाभाविक रूप से नहीं। कोई भी हड़ताल सरकारों, पूंजीपतियों की अन्यायपूर्ण नीतियों और शोषण के खिलाफ स्वत:स्फूर्त्त ढंग से पैदा होती है। अब निश्चित रूप से परम आदरणीय सुप्रीम कोर्ट की सूक्ति के अनुसार मालिकों को आत्मरक्षा में इन शोषित–उत्पीड़ित हड़ताली लोगों की हत्या कर देने का अधिकार है। ‘‘हे संतो, तुम पहले तो लोगों के घर ढहाओ, उनकी नौकरियां छीन लो, उनको भूखा रखो, खुद मालपुए उड़ाओ, अपने बच्चों की पढ़ाई इंग्लैण्ड में और उनके बच्चों की ट्रेनिंग अपने चौके में कराओ तथा अपनी हालत का रोना रोने पर भी आत्मरक्षा के अधिकार की रक्षा हेतु उनको फूंक डालो।’’ क्या बात है…! हिन्दुस्तान के लोग तो इस प्रवचन पर श्रद्धा से सिर नवा रहे हैं।

निश्चित रूप से इस बहरी पूंजीवादी व्यवस्था में हड़तालों से कोई फायदा भी नहीं होता, पर पूजनीय सुप्रीम कोर्ट क्या यह भी बतायेगा कि फायदा कैसे होने वाला है? क्या इस्लामिक बम बनाकर, या फिर त्रिशूल दीक्षा लेकर! निश्चित रूप से हिंदुस्तान की गरीब–भूखी जनता को इस विषय में भी सर्वोच्च न्यायालय के मार्गदर्शन की अनिवार्य आवश्यकता प्रतीत होती है!

क्या न्यायपालिका के ये निर्देश उन गुंडा तत्वों पर भी लागू होंगे जो प्राय: हर दिन बेवजह गुंडागर्दी से जबरदस्ती बंद कराते हैं और उनके मुखियागण, जो जन–गण–मन के हृदय सम्राट होने का दावा पेश करते हैं, सुबह से शाम तक न्यायपालिका के ऐसे आदेशों की धज्जियां उड़ा–उड़ाकर ही जिंदगी तमाम करते हैं। क्या न्यायपालिका उनको इस तरह की गड़बड़ियों के लिए जिम्मेदार ठहरा पाती है?…ठीक ही है, जोर भी कमजोरों पर ही चलता है।

एक और भी सवाल है, जिसपर बात होनी चाहिये। सुप्रीम कोर्ट कहता है कि हड़ताल या बंद के नाम पर किसी व्यक्ति को दूसरे लोगों को असुविधा पहुंचाने, किसी को किसी प्रकार की धमकी देने, जीवन को जोखिम तथा किसी की स्वतंत्रता, संपत्ति या जान अथवा सरकारी या निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का अधिकार नहीं है। क्या इसी तर्ज पर इस अदालत से यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिये कि जनता से अन्याय के विरोध का उसका प्राकृतिक अधिकार छीनने का अधिकार उसे किसने दे दिया? अगर उसे सबकी संपत्ति और स्वतंत्रता की इतनी ही चिंता है तो मेहनतकश मजदूरों के श्रम की संपत्ति का इतना अवमूल्यन क्यों हो रहा है इस पर उसकी नजर क्यों नहीं पड़ती? अगर न्यायापालिका जनता की इतनी ही ज्यादा हितैषी है जितना कि वह प्रकट कर रही है तो उसे हड़ताल को पैदा करने वाले कारकों पर ही फतवा जारी करना था। उसे उन पूंजीपतियों–शोषकों, जनविरोधी सरकारी नीतियों के खिलाफ बोलना था जो एक गरीब मजदूर की एकमात्र संपत्ति श्रम का अवमूल्यन करते हैं, उसकी ही नहीं, उसके पूरे परिवार का जीवन जोखिम में डालते हैं और अपनी सुख सुविधाओं के लिए उसके पूरे जीवन को नर्क कर देते हैं। लेकिन, हुआ ठीक इसका उलटा और वह उनके ही खिलाफ बोली जो उसके पास न्याय की आस में आये थे और जिन्हें उसके सहारे की सबसे ज्यादा जरूरत थी।

इसका सीधा मतलब यह है कि न्यायपालिका अपने को जनता के ऊपर आरोपित तानाशाह मान रही है और पूंजीवाद के रक्षक के तौर पर आचरण कर रही है। पर उसे यह समझना चाहिये कि बहुसंख्यक मेहनतकश जनता को इस तरह धमकाने से पूंजीवाद की अवश्यंभावी मौत तो टलनेवाली नहीं ही है बल्कि इस तरह तो बारूद में पलीता और जल्दी लगेगा। कोई भी जनद्रोही व्यवस्था किसी भी प्रकार जनता के आक्रोश से नहीं बच सकती।

बिगुल, फरवरी 2004


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments