1999 के भारत के ‘क्रीडो’ मतावलम्बी
आपका पत्र आपकी अर्थवादी, सामाजिक जनवादी, अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी भटकावग्रस्त लाइन की सारी गन्दगी को उजागर कर रहा है!

सम्पादक, बिगुल का पी.पी. आर्य को जवाब

प्रति,

साथी पी.पी. आर्य

प्रिय साथी,

बिगुल के अप्रैल 1999 अंक के सम्पादकीय (बिगुल के लक्ष्य और स्वरूप पर एक बहस और हमारे विचार) पर बहस को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से भेजा गया आपका पत्र मिला।

आपकी उम्मीद पूरी करते हुए हम पूरा पत्र छाप रहे हैं। हालाँकि आप शायद पत्र छपने के बारे में आशंकित थे, तभी आपने बिगुल से जुड़े तमाम साथियों के पतों पर इस पत्र की प्रतियाँ भेजीं। हमें अफसोस है कि नाहक ही आपने इतना धन ख़र्च कर डाला। ऐसा पत्र भला हम क्यों न छापते, जो आप और आप जैसों की ”क्रान्तिकारी राजनीति” का चेहरा एकदम उघाड़ कर हमारे ही उद्देश्य की पूर्ति कर रहा है।

आपका पत्र न सिर्फ़ हमारी बात को ही साबित करता है, बल्कि यह भी स्पष्ट कर देता है कि कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर में अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी (Anarcho-syndicalist) और विविध सामाजिक जनवादी प्रवृत्तियों-रुझानों के बदबूदार दलदल की गहराई और क्षेत्रफल उससे कहीं ज्‍़यादा है, जितना कि हम सोचते थे।

आपने हमारे ऊपर ”छूटते ही गाली देने” और ”चिप्पे जड़ने” का आरोप लगाया है। आपकी शिक़ायत है कि हमने ”बिना खुले तौर पर नाम लिए कुछ लोगों पर मेंशेविक एवं अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी होने का चिप्पा लगा” दिया है। आपका पत्र ही बताता है कि नाम लेने की कोई ज़रूरत नहीं थी, चोट जिसके मर्मस्थल पर लगनी थी, वहाँ लग ही गयी है। पर साथ ही, यह भी बता देना हम ज़रूरी समझते हैं कि सामाजिक जनवादी प्रवृत्तियों के असली सिरमौर जिन मठाधीशों पर हमने चोट की है, वे तो अभी भी चुप्पी साधो हुए हैं, तिलमिलाहट उन लोगों को हुई है जो मूल प्रवृत्ति के भोंड़े उपोत्पाद (by-product) मात्र हैं। आप भ्रमवश सारे आक्रमणों का निशाना स्वयं को समझ बैठे। बहरहाल, इससे यह तो स्पष्ट हुआ ही कि आप व आपके साथी किस भोंड़े हद तक सामाजिक जनवादी भटकाव के शिकार हैं। आप जैसों को तो मेंशेविक प्रवृत्ति की श्रेणी में नहीं बल्कि राबोचेये द्येलो और राबोचाया मिस्ल की प्रारम्भिक रूसी अर्थवादी प्रवृत्ति की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।

पहली बात यह साफ़ कर दें कि हमने आप जैसों को मेंशेविक और अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी की श्रेणी में नहीं रखा है, बल्कि आपको क्रान्तिकारी शिविर में मौजूद मेंशेविक और अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी प्रवृत्ति के रूप में रेखांकित किया है। कम्युनिस्ट पार्टी या शिविर के भीतर विविध प्रकार की सर्वहारा प्रवृत्तियाँ-रुझानें (Trends-Tendencies) या भटकाव-विच्युतियाँ (Aberrations-Deviations) प्राय: होती हैं। हाँ, प्रवृत्तियाँ-रुझानें यदि समाप्त नहीं हुईं तो एक विजातीय धारा (Stream) बन जाती है। और भटकाव-विच्युतियाँ आदि ठीक नहीं हुई तो उनकी नियति क्रान्तिकारी शिविर से प्रस्थान (Departure) ही होती है। हमें इन बुनियादी बातों की शिक्षा देना तो अच्छा नहीं लग रहा है, पर मजबूरी है। आपको मार्क्‍सवादी ”पॉलिमिक्स” की भाषा-शैली से परिचित होना चाहिए तथा प्रवृत्तियों-रुझानों तथा धारा के बीच, या भटकाव-विच्युतियाँ और प्रस्थान-विपथगमन के बीच फ़र्क़ करना जानना चाहिए। शिविर में मौजूद विजातीय प्रवृत्ति या रुझान को सही-सटीक नाम देना ‘ईसप की भाषा’ का इस्तेमाल करने के बजाय बहस को सीधे मुद्दे पर लाने का वैज्ञानिक ढंग होता है। इसे गाली या तोहमत समझना मार्क्‍सवादी तहज़ीब से नावाक़िफ़ियत ही ज़ाहिर करता है।

आपका यह कहना भी तथ्य से परे है कि हमने बिना किसी तथ्य या तर्क के ”चिप्पे लगाने” का काम किया है। सम्पादकीय के तीसरे पैराग्राफ को आप फिर ग़ौर से पढ़िये। हम एक बार फिर अपना तर्क स्पष्ट कर रहे हैं। जो लोग किसी भी रूप में यह मानते हैं कि मज़दूर वर्ग के बीच सीधे-सीधे विचारधारात्मक राजनीतिक प्रचार की कार्रवाई से मज़दूर अख़बार को बचना चाहिए और आर्थिक संघर्ष के मुद्दों एवं कार्रवाइयों तथा आम जनवादी अधिकारों एवं नागरिक अधिकारों के सवालों के इर्द-गिर्द लेख-टिप्पणियाँ आदि छापकर आम मज़दूरों की चेतना के स्तर को उन्नत करना चाहिए; जो लोग मानते हैं कि चूँकि मज़दूर की चेतना बहुत पिछड़ी हुई है अत: हमें अख़बार के ज़रिये उनके बीच विचारधारात्मक-राजनीतिक कार्य करने के बजाय उन्हें महज़ नागरिक या जनवादी अधिकारों के बारे में व आर्थिक माँगों के बारे में जागरूक बनाने का काम करना चाहिए; जो लोग मानते हैं कि अलग-अलग कारख़ानों में महज़ आर्थिक संघर्ष से मज़दूर वर्ग की चेतना का धरातल (बिना राजनीतिक शिक्षा व प्रचार तथा बिना राजनीतिक संघर्ष की कार्रवाई संगठित किये) स्वत: ही उन्नत हो जायेगा या स्वत: ही वह राजनीति और विचारधारा तक आ जायेगा, जो लोग पार्टी-निर्माण (Party Building) के काम को मज़दूर वर्ग के बीच करने पर ज़ोर नहीं दे रहे हैं, जो लोग स्वत:स्‍फूर्तता या मात्र आर्थिक आन्दोलनों के पीछे घिसटना अपना ”क्रान्तिकारी दायित्व” मानते हैं; तथा जो लोग यह मानते हैं कि आर्थिक आन्दोलन स्वत: राजनीतिक आन्दोलन में रूपान्तरित हो जाता है और स्वत: ही वह मज़दूरों के भीतर राजनीतिक समझ या विचारधारात्मक समझ पैदा कर देता है – वे सब के सब एक या दूसरे रूप में अर्थवादी और अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी प्रवृत्तियों-रुझानों के शिकार हैं।

फ़िल्मी वक़ीलों वाले नाटकीय अन्दाज़ में आपने हमसे जानना चाहा कि क्या हम ‘बिगुल’ को भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों (या उनके एक ग्रुप) का मुखपत्र मानते हैं। यदि ऐसा है, तब आपका कहना है कि यह पाठकों के स्तर से ऊँचा नहीं है बल्कि निहायत ही कमज़ोर और निम्न स्तर का मुखपत्र है यदि बिगुल मज़दूर वर्ग का ‘मास पोलिटिकल पेपर’ (mass political paper) है, तब आपके ख़याल से हम लेनिन का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि लेनिन की बातें सामाजिक जनवादियों के मुखपत्र (‘इस्क्रा’ जैसे अख़बारों के लिए) लागू होती हैं। हम विनम्रतापूर्वक निवेदन करना चाहते हैं कि ‘पार्टी ऑर्गन’ (Party Organs) के बारे में आपकी समझ दिवालिया है, या फिर ऐतिहासिक तथ्यों की दरोगहल्‍फ़ी करके अपने लाइन के चरित्र पर पर्दा डालना चाहते हैं।

आपके ख़याल से जो ‘मास पोलिटिकल पेपर’ होता है, वह ‘पार्टी ऑर्गन’ होता ही नहीं है। और ‘पार्टी ऑर्गन’ वही होता है जो पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए निकाला जाता है। शायद आपने अभी तक यह नहीं पढ़ा है कि ‘पार्टी ऑर्गन्स’ कई श्रेणी के होते हैं – प्रोपेगैण्डा ऑर्गन (Propaganda Organ), एजिटेशनल ऑर्गन (Agitational Organ) और ‘एजिट प्रॉप ऑर्गन’ (Agit Prop Organ)। ‘प्रोपेगैण्डा ऑर्गन’ के व्यापक प्रवर्ग में गम्भीर सैद्धान्तिक विचारधारात्मक राजनीतिक प्रश्नों पर, लाइन के बुनियादी पहलुओं पर केन्द्रित पत्र आते हैं जो कम्युनिस्टों के बीच बहस तथा कतारों के बीच उच्च स्तरीय प्रचार एवं शिक्षा के काम को अंजाम देते हैं। ‘एजिटेशनल ऑर्गन’ प्राय: समाज के अलग-अलग वर्गों-तबक़ों के लिए अलग-अलग निकाले जाते हैं – वे वर्ग विशेष के उन्नत जागरूक संस्तरों तक अपनी पहुँच बनाते हैं, आम समस्याओं-घटनाओं-आन्दोलनों के विश्लेषण के ज़रिये उन्हें राजनीतिक शिक्षा देते हैं। उन्हें सीधी-सादी भाषा में क्रान्ति की विचारधारा से तथा क्रान्तियों और मज़दूर आन्दोलनों के इतिहास से तथा मज़दूर आन्दोलनों की समस्याओं व समाधान से परिचित कराते हैं। ऐसे पत्र मज़दूरों की आम ज़िन्दगी और संघर्षों की रपटों के द्वारा ही उन्हें शिक्षित करते हैं तथा बुर्जुआ व्यवस्था, बुर्जुआ मीडिया, बुर्जुआ जनवादी चुनावों व संसद आदि के बारे में उन्हें असलियत बताने का काम करते हैं। ‘एजिट प्रॉप ऑर्गन’ इन दो प्रवर्गों के बीच का प्रवर्ग है। जिसका दायरा व्यापक होता है – कुछ में एजिटेशन (Agitation) का पहलू प्रधान होता है तो कुछ में ‘प्रोपेगैण्डा’ (Propaganda) का।

क्या आप इतने अधिक राजनीतिक मासूम हैं कि यह बात आपके सामने स्पष्ट नहीं है कि ‘बिगुल’ कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के एक धड़े का ‘ऑर्गन है? तब हमें मजबूरन बताना पड़ेगा कि ऐसा ही है। पर हमें यह भी बताने दीजिये कि यह मज़दूर वर्ग के लिए निकाला जाने वाला ‘एजिटेशनल ऑर्गन’ है। संसाधनों की मजबूरियों कि चलते (तथा आज की स्थितियों में मुमकिन होने के नाते) यह एक हद तक, कभी-कभार ‘एजिट-प्रॉप ऑर्गन’ के रूप में भी होता है। दूसरे, आप को यह भी याद दिला दें कि यह क़ानूनी दायरे के भीतर निकलने वाला ‘एजिटेशनल ऑर्गन’ है। ‘मास पोलिटिकल पेपर’ शब्द का इस्तेमाल समाजिक जनवादियों की छिछोरी शैली में न करें। कम्युनिस्ट पार्टियों के ‘मास पोलिटिकल पेपर’ उनके ‘एजिटेशलन ऑर्गन’ हुआ करते हैं। हमारा सुझाव है कि रूसी क्रान्ति के इतिहास को आप फिर ग़ौर से पढ़ें। ‘प्रावदा’ बोल्शेविकों का क़ानूनी दैनिक समाचार पत्र था। वह पार्टी का मज़दूरों के लिए निकाला जाने वाला ‘एजिटेशनल ऑर्गन’ था।

‘इस्क्रा’ भी बोल्शेविकों का मूलत: ‘एजिटेशनल’, या एक हद तक ‘एजिट-प्रॉप’ श्रेणी का ‘ऑर्गन’ ही था। ‘इस्क्रा’ के साथ-साथ बोल्शेविक उन्नत कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं की शिक्षा और उन्नत स्तर के ‘पॉलिमिक्स’ (Ploemics) के लिए ‘ज़ार्या’ का प्रकाशन कर रहे थे। जब क़ानूनी दैनिक बोल्शेविक अख़बार के रूप में ‘प्रावदा’ का प्रकाशन हो रहा था, उस समय भी पार्टी कतारों व आगे बढ़े हुए मज़दूरों के लिए ‘प्रोपेगैण्डा ऑर्गन’ के रूप में साप्ताहिक पत्र ‘ज्वेज्‍़दा’ का प्रकाशन किया जा रहा था।

‘इस्क्रा’ और ‘प्रावदा’ के बीच के फ़र्क़ के बारे में आप बुरी तरह ‘कन्फ्यूज्ड़’ हैं। फ़र्क़ यह नहीं था कि एक ‘पार्टी-ऑर्गन’ था और दूसरा नहीं। दोनों ही ‘पार्टी-ऑर्गन’ थे। दोनों ही अपने-अपने दौर में मज़दूर वर्ग के बीच पार्टी-निर्माण (Party Building) के काम को अंजाम दे रहे थे। दोनों ने ही अपने-अपने दौर में मज़दूर वर्ग के प्रचारक, शिक्षक, आन्दोलनकर्ता और संगठनकर्ता की भूमिका निभायी।

हाँ, कुछ अहम फ़र्क़ ज़रूर थे! एक फ़र्क़ यह था कि ‘इस्क्रा’ रूस में पार्टी के निर्माण एवं गठन (Building and Formation) के प्रारम्भिक दौर का पत्र था। पार्टी (पहली कांग्रेस हो चुकने के बावजूद) अभी वास्तव में खड़ी ही नहीं हुई थी। ‘इस्क्रा’ पहला अखिल रूसी ग़ैरक़ानूनी मार्क्‍सवादी अख़बार था। इसके पूर्व, छोटे स्तर पर दो और ग़ैरक़ानूनी अख़बार – रबोची (1885, दो अंक) तथा ‘सेन्ट पीतरबुर्ग्सकी राबोची लिस्तोक’ (लेनिन द्वारा गठित ‘संघर्ष लीग’ का पहला ग़ैरक़ानूनी पत्र) निकल चुके थे। ‘इस्क्रा’ के लेखों में मुख्तय: पार्टी-निर्माण तथा रूस के सर्वहारा वर्ग के संघर्षों और ज़िन्दगी से सम्बन्धित समस्याओं की तथा अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्र की अहम घटनाओं की विवेचना हुआ करती थी। ‘इस्क्रा’ सिर्फ़ पार्टी-कतारों के लिए नहीं बल्कि उन्नत मज़दूरों के लिए निकलता था। और उसने उन्हें शिक्षित करके उनके बीच से बड़े पैमाने पर पार्टी-भर्ती का काम किया। मज़दूरों के बीच से भर्ती के चलते पार्टी की संरचना (Composition) में अहम बदलाव आया। तब तक मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के बीच से ही ज्‍़यादा कम्युनिस्ट तैयार हुए थे। आपको यह भी बता दें कि शुरू में ‘इस्क्रा’ का प्रकाशन पार्टी के केन्द्रीय मुखपत्र के रूप में होता ही नहीं था। दूसरी कांग्रेस ने एक विशेष प्रस्ताव पारित करके पार्टी-निर्माण के संघर्ष में ‘इस्क्रा’ की असाधारण भूमिका को स्वीकार किया और उसे पार्टी का केन्द्रीय मुखपत्र बना दिया। लेकिन केन्द्रीय मुखपत्र बनने के तत्काल बाद ही ‘इस्क्रा’ मेंशेविकों के हाथ में चला गया था। पुरानी ‘इस्क्रा’ की सुसंगत मार्क्‍सवादी कार्यनीति को फिर ‘वपर्योद’ (1904-1905) और ‘प्रोलेतारी’ (1905) ने आगे बढ़ाया।

‘प्रावदा’ का प्रकाशन अप्रैल, 1912 में शुरू हुआ। इस समय तक पार्टी-निर्माण और पार्टी-गठन का काम एक अलग मंज़िल में पहुँच चुका था। प्राग कॉन्फ्रेंस (1912) में मेंशेविकों से पीछा छुड़ाकर बोल्शेविक अपनी स्वतन्त्र मार्क्‍सवादी पार्टी बना चुके थे। ‘इस्क्रा’ की तरह ‘प्रावदा’ रूसी सर्वहारा वर्ग व गाँव के मेहनतकशों के संघर्षों और ज़िन्दगी से तथा सर्वहारा क्रान्ति की समस्‍याओं से और अन्तरराष्ट्रीय घटनाओं से सम्बन्धित सामग्री प्रकाशित करता था। फ़र्क़ यह था कि ‘इस्क्रा’ के विपरीत, ‘प्रावदा’ एक क़ानूनी दैनिक अख़बार था। इस समय तक ज़ारशाही को पीछे हटकर कुछ राजनीतिक व जनवादी अधिकार देने के लिए विवश होना पड़ा था। ‘प्रावदा’ के भी पहले बोल्शेविक एक क़ानूनी साप्तहिक समाचार पत्र ‘नोवाया झिज्न’ (अक्टूबर-दिसम्बर 1905) तथा दो क़ानूनी दैनिक अख़बार ‘बोल्ना’ (अप्रैल-मई 1906) और ‘एखो’ (जून-जुलाई 1906) निकाल चुके थे। ये तीनों ही अपनी प्रकृति से (क़ानूनी फ्रेम में निकलने वाले) ‘एजिटेशनल पेपर’ थे। ‘प्रावदा’ 1912-14 की नयी क्रान्तिकारी उठान के दौर का ‘एजिटेशनल ऑर्गन’ था। क़ानूनी होने के नाते इसकी (‘इस्क्रा’ की अपेक्षा) पहुँच व्यापक मज़दूर वर्ग तक थी और दैनिक होने के चलते यह ज्‍़यादा  ’एजिटेशनल मैटीरियल’ छाप सकता था पर क़ानूनी दैनिक होने के चलते ‘इस्क्रा’ की तुलना में इसकी कुछ सीमाएँ भी थीं। जिसे आप ‘मास पोलिटिकल पेपर’ कह रहे हैं और यह मानक पेश कर रहे हैं कि लेनिन की बातें ‘इस्क्रा’ पर तो लागू होती हैं पर ‘प्रावदा’ पर नहीं, उस पत्र ने (स्तालिन कालीन ‘सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) का इतिहास’ के अनुसार) चौथी दूमा के चुनाव के पूर्व आगे बढ़े हुए मज़दूरों को संगठित किया, सर्वहारा वर्ग की आम कार्रवाई का संगठन किया और मज़दूर वर्ग की आम क्रान्तिकारी पार्टी के रूप में बोल्शेविक पार्टी को ढालने के लिए ‘प्रावदा’ की कार्यनीति ने राजनीतिक रूप से सक्रिय मज़दूरों के अस्सी फ़ीसदी का समर्थन हासिल किया। निश्चित ही ‘प्रावदा’ के लेख मज़दूरों के एक बड़े घेरे के लिए बोधगम्य थे, पर ऐसा इसलिए था कि इस्क्रा काल की अपेक्षा क्रान्तिकारी उठान के इस नये दौर में (यानी प्रावदा काल में) राजनीतिक रूप से जाग्रत, वर्ग-सचेत मज़दूरों का दायरा ही बहुत बड़ा हो चुका था। जिसे आप ‘मास पोलिटिकल पेपर’ कहकर ‘इस्क्रा’ से अलग प्रकृति का बताने की कोशिश कर रहे हैं वह पत्र ”पार्टी सिद्धान्त के लिए, आम मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी बनाने के लिए संघर्ष में…बीचोंबीच में था। प्रावदा ने बोल्शेविक पार्टी के ग़ैरक़ानूनी केन्द्रों के चारों तरफ मौजूदा क़ानूनी संगठनों को इकट्ठा किया और एक निश्चित उद्देश्य की तरफ मज़दूर आन्दोलन का संचालन किया – क्रान्ति की तैयारी के लिए।” [सो.सं. की क.पा. (बोल्शेविक) का इतिहास, पृ. 181] ‘इस्क्रा’ के काल में जिस तरहलेनिन की लाइन के साथ खड़े पार्टी सदस्यों को इस्क्रापन्थी कहा जाता था, उसी तरह ‘प्रावदा’ के काल में बोल्शेविकों को प्रावदापन्थी कहा जाता था। 1912-15 के बीच के लेनिन के लेखों में व पार्टी-दस्तावेज़ों-लेखों में बहुधा बोल्शेविकों द्वारा निकाले जाने वाले सभी अख़बारों को प्रावदावादी अख़बार कहा गया है। जबकि विरोधियों के प्रकाशनों को विसर्जनवादी अख़बार!

आपके अनुसार ‘मास पोलिटिकल पेपर’ ‘प्रावदा’ आम मज़दूरों के व्यापक दायरे के लिए बोधगम्य था, अत: लेनिन से हमने जो”गवाही दिलायी है” वह ‘इस्क्रा’ के लिए तो लागू होती है, लेकिन ‘प्रावदा’ के लिए नहीं। फिर यहाँ अपनी राजनीति का असली चरित्र छुपाने के लिए अपने तथ्य गढ़ने की और ऐतिहासिक तथ्यों को चालाकी की ओट में छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। तथ्य यह है कि ‘प्रावदा’ का पाठक वर्ग वर्ग-सचेत, अग्रणी मज़दूर ही था। हाँ, ऐसे मज़दूरों की संख्या 1912-14 में 1898-99 की अपेक्षा अधिक ज़रूर थी। स्वयं लेनिन के शब्दों में ”सड़क चलते आम मज़दूर के लिए, सामान्य मज़दूर कतारों के लिए, उन लाखों में से किसी एक के लिए जो अभी आन्दोलन के दायरे में नहीं खिंच पाये हैं, यह बहुत महँगा, बहुत कठिन और बहुत बड़ा है।”(लेनिन : ‘अवर टास्क्स’, कलेक्टेड वर्क्‍स, खण्ड 36, पृ. 283)। इसी लेख में लेनिन ने यह राय दी है कि पुत प्रावदी का (‘प्रावदा’ का तत्कालीन नाम। बार-बार प्रतिबन्ध के चलते ‘प्रावदा’ नये-नये नामों से निकलता रहता था, जैसे राबोचाया प्रावदा, सेवरनाया प्रावदा, प्रावदा प्रूदा, जा प्रावदू, पोलीतार्स्काया प्रावदा, पुत प्रावदी, त्रूदोवाया प्रावदा आदि) अपने वर्तमान रूप में निकलते रहना अपरिहार्यत: आवश्यक है, पर इसे साथ ही आम सर्वहारा-र्अद्धसर्वहारा आबादी तक पहुँच के लिए एक कोपेक क़ीमत वाला, सस्ता, छोटा और व्यापक सर्कुलेशन वाला ‘वेचेर्नाया प्रावदा’ (यानी ‘सान्ध्य प्रावदा’) प्रकाशित किया जाये। मज़दूरों के इसी आम, व्यापक संस्तर के लिए लेनिन ने 1899 के अपने लेख में (जो बिगुल में छपा है) और उस दौर के अन्य कई लेखों में छोटे-छोटे पर्चे आदि निकालने तथा मुँहामुही व दरवाज़े-दरवाज़े ज़ुबानी प्रचार आदि की बात कही थी। 1912-14 के दूसरे क्रान्तिकारी उठान के काल में इसी व्यापक आबादी तक पहुँच के लिए एक नियमित, छोटा सान्ध्य अख़बार निकालने की बात उन्होंने कही हैं। ये सारे तथ्य हम ‘प्रावदा’के चरित्र के बारे में आपकी भ्रान्त धारणाओं के खण्डन के लिए दे रहे हैं। और अधिक स्पष्ट होने के लिए आप पार्टी-अख़बारों और उस दौर के कामों से सम्‍बन्धित लेनिन के अन्य लेखों-पत्रों (1912-14) को भी ‘कलेक्टेड वर्क्‍स’ में देख सकते हैं।

आपने अपने पत्र के तीसरे पैराग्राफ़ में ‘बिगुल’ के घोषित उद्देश्य से सहमति ज़ाहिर की है ओर यह भी स्वीकार किया है कि देश के मज़दूर आन्दोलन को ऐसे अख़बार की ज़रूरत है। (वैसे तो, फिर यह प्रश्न भी उठता है कि आप स्वयं ऐसे अख़बार का अपना मॉडल क्यों नहीं पेश करते? यह आपके प्राथमिकता-क्रम में नीचे क्यों है और कितना नीचे है? पर इस प्रश्न को फिलहाल छोड़कर हम दूसरा प्रश्न उठा रहे हैं) आप के ख़याल से ‘बिगुल’ अपने घोषित उद्देश्य को पूरा नहीं कर रहा है। कारण बताते हुए आपने आलोचना का पहला मुद्दा यह बनाया है कि हम ”छूटते ही गाली देने” और ”चिप्पे जड़ने” का काम करते हैं। यह सर्वभारतीय क्रान्तिकारी पार्टी-निर्माण व गठन के हमारे उद्देश्य के विपरीत है और हम लोगों ”कमज़ोर, छिछला व आत्म-महानता की कुण्ठाओं में” जीने वाला साबित करता है। हम आपको बता चुके हैं कि हमने अपनी समझ से कैम्प में पैदा हुई कुछ ख़ास विजातीय प्रवत्तियों-रुझानों की अभिलाक्षणिकताओं को गिनाते हुए उन्हें मार्क्‍सवादी पारिभाषित शब्दावली के अनुसार सुनिश्चित नाम दिया है और सम्पादकीय में आगे भी इसकी सांगोपांग विवेचना की है। यह आपको गाली लगती है तो यह आपकी राजनीतिक समझ का सवाल है। विरोधी प्रवृत्तियों को रेखांकित करके उन पर प्रहार करना सही राजनीतिक एकता की पहली शर्त है कि बिना ऐसा किये एकता की चीख़-पुकार मचाने वालों (या सोहर गाने वाले अथवा छाती पीटने वाले) ‘फेलो ट्रेवलर्स’ (Fellow Travellers) के बारे में लेनिन ने क्या लिखा है, यह आप जानते ही होंगे।

‘बिगुल’ द्वारा स्वघोषित उद्देश्य को पूरा कर पाने में विफलता का दूसरा कारण आपने यह बताया है कि यह एक ‘ऑर्गनाइज़ेशनल ऑर्गन’ (Organisational Organ) के तौर पर निहायत कमज़ोर और निम्न स्तर का है और एक ‘मास पोलिटिकल पेपर’ के रूप में यह औसत चेतना वाले मज़दूरों के लिए दिलचस्प और बोधगम्य नहीं है, जोकि इसे होना चाहिए। आपके इस आपत्ति-आलोचना पर विचार से पूर्व, ‘पार्टी ऑर्गन्स’ की श्रेणियों और ‘मास पोलिटिकल पेपर’ की कथित धारणा के बारे में साफ़ हो लेना ज़रूरी था तथा ‘इस्क्रा’ और ‘प्रावदा’ के स्वरूप के बारे में ऐतिहासिक तथ्यों के बाबत आपकी नासमझी या गोलमाल को साफ़ करना भी ज़रूरी था। यह हम ऊपर कर चुके हैं। अब आगे चलें।

आपके ख़याल से ‘पार्टी ऑर्गन’ के रूप में ‘बिगुल’ निम्नस्तरीय है और ‘मास पोलिटिकल पेपर’ के रूप में उच्चस्तरीय। मुम्बई नगरी निवासी एक बुद्धिजीवी मार्क्‍सवादी ने कुछ वर्षों पूर्व शिक़ायत की थी कि ”’बिगुल’ कुछ ज्‍़यादा  लाल है” हमने उनसे पूछा था कि‘लाली कितनी कम कर दी जाये तो काम चल जाएगा? आपको (मास पोलिटिकल पेपर के आपके स्वनिर्धारित मानकों की दृष्टि से) ‘बिगुल’ की सामग्री कुछ ज्‍़यादा ”गाढ़ी” लग रही है। तब सवाल उठता है कि इसे कितना हल्का या पतला बना दिया जाये तो काम चल जाएगा? आप की भोंड़ी तर्क-पद्धति को देखते हुए यही पूछना शायद ज्‍़यादा उचित होगा, लेकिन नहीं, हम एक बार फिर, आपके सम्भ्रम-दिग्भ्रम-मतिभ्रम को ‘जेनुइन’ मानते हुए मज़दूर वर्ग के लिए ‘लीगल एजिटेशनल ऑर्गन’ (Legal Agitational Organ) के रूप में निकाले जाने वाले पत्र और पार्टी-निर्माण व पार्टी-गठन के आज जैसे प्रारम्भिक दौर में उसकी ज़रूरत के बारे में अपनी समझ और बोध (Perception) को स्पष्ट करने की कोशिश करेंगे।

थोड़ी देर के लिए आपकी ये बातें मान भी ली जायें कि मज़दूरों की एकता आज बेहद कमज़ोर हो गयी है, उनकी चेतना बेहद भोथरी हो गयी है, भारतीय मज़दूर आन्दोलन आज आगे बढ़ने के बजाय पीछे हट रहा है, उसमें समाजवाद के प्रति आकर्षण के बजाय प्रतिक्रियावादी विचारों का माहौल है, आदि-आदि…तो भी इसका मतलब यह कदापि नहीं हो सकता कि भारत के मज़दूर वर्ग के भीतर से अग्रिम, वर्ग-सचेत संस्तरों का ही विलोपन हो चुका है। न ही इससे यह नतीजा निकालना उचित होगा कि इस स्थिति में मज़दूर वर्ग के किसी राजनीतिक अख़बार का मुख्य ‘टारगेट रीडर ग्रुप’ (Target Reader Group½उन्नत, वर्ग-सचेत मज़दूर न होकर औसत या निम्न चेतना वाले मज़दूरों की भारी आबादी होनी चाहिए। आप कहते हैं (पृ. 3, तीसरा पैराग्राफ) कि जब मज़दूर आन्दोलन आगे बढ़ रहा हो तभी समाजवाद के सीधे-सीधे प्रचार की गुंजाइश अधिक होती है और समाजवादी बातों की ग्राह्यता अधिक होती है। आपके अनुसार, चूँकि भारत का मज़दूर आन्दोलन आज पीछे जा रहा है, चूँकि इसमें समाजवाद के बजाय प्रतिक्रियावादी विचारों का माहौल है, चूँकि ट्रेडयूनियन आन्दोलन के नेतृत्व में भी साम्प्रदायिक फ़ासिस्ट तत्व प्रभावी हैं, अत: हमें समाजवाद का सीधे-सीधे प्रचार नहीं करना चाहिए। लेनिन की गवाही से आप यह बताने की कोशिश करते कि हमें अपने को सांस्कृतिक-शैक्षिक कार्यों या आर्थिक आन्दोलन तक सीमित रखना चाहिए। यहाँ आपने अपनी लाइन पर पड़ा झीना परदा भी उतार डाला है और अपने आपको, जितना हम समझते थे, उससे भी अधिक संगीन और भोंड़े अर्थवादी भटकाव का शिकार सिद्ध किया है।

1899 में ही रूस के अर्थवादी अवसरवादियों ने अपना कुख्यात ‘क्रीडो’ दस्तावेज़ प्रकाशित किया था जिसकी मूल प्रस्थापनाएँ ये थीं किरूस का सर्वहारा वर्ग अभी इतना वयस्क नहीं हुआ है कि समाजवाद के विचारों को स्वीकार कर सके, या कि उसकी स्वतन्त्र राजनीतिक पार्टी का गठन किया जा सके। अत: समाजवाद के प्रचार या पार्टी गठित करने के उद्यमों का परित्याग करके मार्क्‍सवादियों को उन्हें केवल काम की बेहतर परिस्थितियों और उच्चतर मज़दूरी जैसे आर्थिक और रोज़मर्रा के संघर्षों के लिए प्रेरित करना चाहिए। (देखिये, लेनिन की संकलित रचनाएँ, तीन खण्डों में, खण्ड एक, भाग 2 का फुटनोट सं. 7, पृ. 500) क्या आपके विचार हूबहू कुख्यात ‘क्रीडो’ मतावलम्बियों जैसे ही नही हैं? आज मज़दूर आन्दोलन के पीछे हटने व उसमें प्रतिक्रियावादी विचारों के माहौल तथा समाजवादी विचारों के प्रति ग्राह्यता नहीं है, अत: हमें समाजवाद के सीधे प्रचार का काम नहीं करना चाहिए, यह स्थितियों के प्रतिकूल होगा, ‘हिरावलपन्थ’ होगा – यही तो आपके विचार हैं। यह क्रीडोपन्थियों का गया-गुज़रा कायराना राजनीतिक पुछल्लावाद नहीं तो भला और क्या है?लेनिन ने अर्थवादी अवसरवादियों के इन विचारों का पुरज़ोर खण्डन किया था और बताया था कि ”सामाजिक जनवाद मज़दूर आन्दोलन और समाजवाद का सहमेल है। उसका काम मज़दूर आन्दोलन की हर अलग-अलग अवस्था में निष्क्रिय रूप से इसकी सेवा करना नहीं, बल्कि पूरे आन्दोलन के हितों का प्रतिनिधित्व करना, इस आन्दोलन को उसका अन्तिम लक्ष्य तथा उसके राजनीतिक कार्यभार बताना तथा इसकी राजनीतिक और विचारधारात्मक स्वतन्त्रता की रक्षा करना है। सामाजिक जनवाद से कटकर मज़दूर आन्दोलन नगण्य और अनिवार्य रूप से पूँजीवादी बन जाता है। लेकिन आर्थिक संघर्ष करने से मज़दूर वर्ग अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता खो देता है।” लेनिन आगे स्पष्ट शब्दों में बताते हैं कि ”हमारा मुख्य और मूल काम मज़दूर वर्ग के राजनीतिक विकास और राजनीतिक संगठन के कार्य में सहायता पहुँचाना है। इस काम को जो लोग पीछे ढकेल देते हैं, जो तमाम विशेष कामों और संघर्ष के विशिष्ट तरीक़ों को इस मुख्य काम के मातहत करने से इन्कार करते हैं, वे ग़लत रास्ते पर चल रहे हैं और आन्दोलन को भारी नुक़सान पहुँचा रहे हैं” (लेनिन, कलेक्टेड वर्क्‍स, खण्ड 4, ‘द अर्जेण्ट टास्क्स ऑफ अवर मूवमेण्ट, नवम्बर 1900, पृ. 368 व 369)।

अपने इसी लेख में लेनिन ने स्पष्ट किया है कि शुरुआती दौर में रूसी मार्क्‍सवादियों को नरोदनाया वोल्या के अनुयाइयों से अपने अस्तित्व के लिए जूझना पड़ा था, जो ”राजनीति” को मज़दूर आन्दोलन से अलग-थलग एक स्वतन्त्र गतिविधि मानते थे। उनका विरोध करते हुए ये रूसी मार्क्‍सवादी एकदम दूसरे छोर तक चले गये थे और राजनीतिक काम को एकदम पृष्ठभूमि में धकेल दिया था। दूसरे, एकदम शुरू में रूस के मार्क्‍सवादी ‘प्रोपेगैण्डा सर्किल्स’ तक सीमित थे और जब वे ‘एजिटेशन’ में उतरे तो दूसरे छोर तक चले गये। तीसरे, अलग-थलग, छोटे, स्थानीय मज़दूर मण्डलों में काम करते हुए एक क्रान्तिकारी पार्टी संगठित करने की आवश्यकता पर उनका समुचित ध्‍यान नहीं रहा और अलग-थलग काम की स्वाभाविक परिणति सिर्फ़ आर्थिक संघर्षों पर बल देने के रूप में सामने आयी (वही, पृ 367)। इसी स्थिति को लेनिन और इस्क्रावादियों ने समाहार करके ठीक किया, जबकि पुराने अर्थवादी और नये अर्थवादी (मेंशेविक) इन्हीं हालात के पीछे-पीछे चलते रहे। आपके विचारों से ज़ाहिर है कि प्रारम्भिक अर्थवादी भटकाव के जिन तीन विवशताजन्य कारणों की लेनिन पड़ताल करते हैं, उसी भटकाव को आप आम दिशा के तौर पर स्वीकार करते हैं।

आज के हालात की जितनी भी प्रतिकूलताओं की आपने चर्चा की है, उन स्थितियों में तो यह और भी ज़रूरी हो जाता है कि हम एक राजनीतिक मज़दूर अख़बार के ज़रिये मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक और विचारधारात्मक प्रचार की कार्रवाई चलायें, मज़दूर वर्ग को उसके ऐतिहासिक मिशन की याद दिलायें, मज़दूर क्रान्ति की विचाराधारा, कार्यक्रम व मार्ग से उसे परिचित करायें, एक एकीकृत सर्वहारा पार्टी के निर्माण व गठन की दिशा में उसे क्रियाशील करें तथा मज़दूर वर्ग के बीच किये जाने वाले समस्त आर्थिक व अन्य सांस्कृतिक-शैक्षिक कार्यों को इस राजनीतिक कार्य के मातहत कर दें। समाजवाद के प्रचार को मुख्य काम बनाने-न-बनाने का फ़ैसला इस बात से क़तई नहीं हो सकता कि मज़दूर आन्दोलन में इन विचारों की कितनी ग्राह्यता है, या राजनीतिक-विचारधारात्मक प्रचार के लिए परिस्थितियाँ कितनी अनुकूल हैं। यदि हम आज भी अभूतपूर्व प्रतिकूल स्थितियों में भी सर्वहारा पार्टी-निर्माण व पार्टी-गठन के कार्य को प्रमुख कार्य मानते हैं, यदि हम मज़दूर वर्ग को नक़ली वामपन्थी, ट्रेडयूनियनवादी या फ़ासिस्‍ट व अन्य बुर्जुआ ताक़तों की जकड़बन्दी में मुक्त करना चाहते हैं, यदि आज की स्थिति में बदलाव लाने में हम सचेतन प्रयासों की भूमिका को स्वीकार करते हैं, तो हमें मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में विचारधारा को ले जाने के काम को आज सर्वोपरि महत्व देना होगा, मज़दूर वर्ग को अर्थवादी जकड़बन्दी और थकी-हारी मानसिकता से मुक्त करने के लिए उसे उसके ऐतिहासिक मिशन की याद दिलानी होगी और क्रान्तिकारी पार्टी की अपरिहार्यता से परिचित कराना होगा। इस प्रक्रिया में ज़ाहिरा तौर पर मज़दूर वर्ग के राजनीतिक अख़बार की ही सर्वोपरि भूमिका हो सकती है, जो मुख्यत: व सर्वोपरि तौर पर मज़दूरों के उन्नत, वर्ग-सचेत संस्तरों के लिए होगी। जो सीधी राजनीतिक-विचारधारात्मक शिक्षा और इतिहास-विज्ञान-साहित्य के स्तम्भों व राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय घटनाओं तथा मज़दूर आन्दोलन के रपटों-विश्लेषणों आदि-आदि के ज़रिये राजनीति और विचारधारा को सबसे पहले पकड़ेंगे, स्वयं को ऊपर उठाकर पार्टी कतारों तक लायेंगे, स्वयं पार्टी संगठनकर्ता बनेंगे और फिर औसत संस्तर के मज़दूरों के बीच से पार्टी के कार्यकर्ता व सक्रिय हमदर्द तैयार करने में सहायक बनेंगे तथा निम्न चेतना की व्यापक मज़दूर आबादी में भी पार्टी व क्रान्ति का समर्थन आधार तैयार करेंगे।

पर आप जैसे लोग यह काम क़तई नहीं कर सकते। समाजवाद के प्रचार के लिए आप अनुकूल स्थिति का इन्तज़ार करेंगे। जब मज़दूर आन्दोलन पीछे हटने के बजाय (आर्थिक संघर्ष करते-करते!!) आगे बढ़ने लगेगा, जब भारतीय मज़दूर की चेतना ”आम हड़ताली” की चेतना से आगे बढ़ जायेगी, तब आप समाजवाद का प्रचार करेंगे। आप ऐसा क्यों नहीं करते कि उसे राज्यसत्ता भी कब्ज़ा कर लेने दीजिये, तब आप आगे आकर उसे समाजवादी निर्माण की तरक़ीबें और हिक़मत सिखाइयेगा। ज़ाहिर है कि आप गम्भीर पराजयवादी मानसिकता के शिकार हैं, प्रतिकूल स्थितियों में आँगन की मुर्गी की तरह आपका कलेजा काँप रहा है। आप मज़दूर वर्ग को कोस रहे हैं और फिलहाल महज़ आर्थिक संघर्षों और सांस्कृतिक शैक्षिक कार्यों तक सीमित रहते हुए उन अनुकूल स्थितियों का इन्तज़ार करना चाहते हैं जब आप मज़दूर वर्ग के बीच विचारधारात्मक-राजनीतिक प्रचार का काम, पार्टी-निर्माण का काम हाथ में ले सकें। इसके विपरीत हमारा यह विचार है कि आज की प्रतिकूल स्थितियों को बदलने के सचेतन प्रयासों में सर्वोपरि स्थान इसी काम को दिया जाना चाहिए। आप, वस्तुगत स्थितियों की पूँछ बनना चाहते हैं (वैसी पूँछ जो मक्खी भी न उड़ा सके) और गाड़ी के पीछे घोड़ा जोतना चाहते हैं। और ऐसा करने वाले आप अकेले नहीं हैं। हम फिर इस बात को दोहराना चाहते हैं कि पूरे क्रान्तिकारी शिविर के कुछ धड़े ”मज़दूर वर्ग के बीच इसी तरह से काम करने के बारे में सोच रहे हैं और अर्थवाद के समान्तर जुझारू अर्थवाद और ट्रेडयूनियनवाद के सामने जुझारू ट्रेडयूनियवाद का मॉडल खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं।” ऐसा सोचने वालों की कमी नहीं है कि महज़ आर्थिक कार्य ही जनकार्य है और ऐसा करते-करते मज़दूर वर्ग में स्वत: राजनीतिक संघर्ष की चेतना भी आती जायेगी और पार्टी बनने की क्रिया भी स्वत: गति पकड़ लेगी। इसी सोच का दूसरा पहलू भी उन लोगों के रूप में मौजूद है जो महज़ किताबें व दस्तावेज़ छापकर, सेमिनार करके, व्याख्यान देकर या ग्रुपों के नेतृत्व से ‘पॉलिमिक्स’ चलाकर (जो प्राय: एकतरफ़ा होकर रह जाती है) पार्टी बना लेना चाहते हैं। वे पार्टी-गठन के बाबत तो सोचते हैं, पर पार्टी-निर्माण के पहलू को या तो अनछुआ छोड़ देते हैं या उसे महज़ युवा शिक्षित मध्‍यवर्ग से पार्टी-भर्ती के कार्य तक सीमित कर देते हैं। मज़दूर वर्ग के बीच पार्टी-निर्माण के कार्यभार से वे या तो अपरिचित हैं या उनमें यह साहस ही नहीं रह गया है। एक ज्‍़यादा गँवारू-भोंड़े क्रान्तिकारियों की धारा आप जैसों की पैदा हुई है जो प्रतिकूल स्थितियों और मज़दूरों की पिछड़ी चेतना को कोसते हुए चीनी लोककथा के चालाक बूढ़े की तरह ख़ुद को सिर्फ़ आर्थिक कार्यों और मज़दूरों व मध्‍यवर्गीय नागरिकों के लिए इकट्ठे ही, नागरिक अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करने वाला अख़बार निकालने जैसी गतिविधियों तक सीमित रखना चाहते हैं और मज़दूरों की राजनीतिक-विचारधारात्मक शिक्षा के काम को तथा एक ऐसा मज़दूर अख़बार निकालने के काम को, जो मज़दूर वर्ग के बीच प्रचारक-शिक्षक, आन्दोलनकर्ता व संगठनकर्ता के रूप में काम करे, हिरावलपन्थ समझते हैं और जनकार्य के नाम पर आप जैसे लोग कर भी क्या रहे हैं। इस कारख़ाने से उस कारख़ाने, इस शहर से उस शहर संगठित-असंगठित मज़दूर आबादी के उठ खड़े होने वाले आन्दोलनों के पीछे बन्दरकुद्दी मारते रहने को ही आप आज के हालात का सही ‘मासवर्क’ मानते हैं। आन्दोलनों के आगे नहीं पीछे चलना, हालात के आगे नहीं पीछे चलना यह राजनीतिक पुछल्लावाद तो सामाजिक जनवादियों की पुरानी फितरत रही है। कोई नयी बात नहीं है।

‘हिरावलपन्थ’ – कहीं से यूँ ही सुने हुए इस जुमले की न जुगाली कीजिये, न बच्चे की तरह झुनझुना बजाइये। हिरावलपन्थी वह नहीं होता जो मज़दूर वर्ग में राजनीति और विचारधरा ले जाकर उनके बीच से हिरावल पाँतें तैयार करता है। हिरावलपन्थी वह होता है जो आर्थिक संघर्ष, रोज़मर्रा के संघर्ष, हर तरह के ‘मासवर्क’ से कोताही करता है, जनसंगठन नहीं खड़े करता है और केवल विचारधारा और राजनीति का प्रचार करता है। राजनीतिक शब्दावली का सही इस्तेमाल करना चाहिए, अन्यथा बन्दर के हाथ में उस्तरा वाली कहावत चरितार्थ होने लगती है।

भारतीय मज़दूर आन्दोलन की वर्तमान स्थिति यदि पीछे हटने की है, तो इस स्थिति के विरुद्ध संघर्ष के लिए यह और अधिक ज़रूरी हो जाता है कि हम मज़दूर वर्ग के उन उन्नत, वर्ग-सचेत संस्तरों तक मज़दूर अख़बार की पहुँच बनायें, जो सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान को सबसे पहले ग्रहण करने की क्षमता रखते हैं। आपके ख़याल से उन्हें छोड़कर आज की स्थिति में हमें मज़दूरों के निम्नतर संस्तरों की चेतना जगाने की कार्रवाइयाँ करनी चाहिए या फिर औसत मज़दूरों के संस्तर तथा अपनी पहुँच बनानी चाहिए और वह भी ऐसे प्रचार व ऐसी कार्रवाइयों द्वारा, जो उन्हें स्वीकार्य हों। हम लेनिन की शिक्षा को इस रूप में समझते हैं कि वैसे तो हर दौर में ही, यदि दौर पार्टी के पुनर्गठन-पुनर्निर्माण का हो तो और भी शिद्दत के साथ, सर्वोच्च प्राथमिकता मज़दूर वर्ग के उन्नत वर्ग-सचेत संस्तरों की विचारधारात्मक-राजनीतिक शिक्षा व उनके बीच संगठन के काम को दी जानी चाहिए। औसत चेतना व निम्न चेतना के मज़दूरों के बीच पार्टी कार्य को हमेशा इसके मातहत रखना होगा। बेशक़ यह सही है कि ”मज़दूरों के निम्नतर संस्तरों की चेतना जगाने के लिए पहले क़दम क़ानूनी-शैक्षिक गतिविधियों के रूप में अंजाम दिये जायें”, पर यह काम हर हमेशा उन्नत चेतना के मज़दूरों के बीच किये जाने वाले काम के मातहत और प्राथमिकता क्रम में उसके नीचे ही होगा। आपकी सोच यह है कि आज चूँकि पूरे भारतीय मज़दूर वर्ग की चेतना का स्तर ही नीचे है, अत: हमारा मुख्य काम ही क़ानूनी-शैक्षिक, आर्थिक-सांस्कृतिक काम होगा। इसे आप देश-काल के हिसाब से प्रचार-कार्य करना कहते हैं और हम जनता की पिछड़ी चेतना का पिछलग्गू बनना कहते हैं, सस्ता लोकरंजकतावाद मानते हैं, ”चना ज़ोर गरम” शैली का प्रचार-कार्य मानते हैं।

किसी देश-काल विशेष के मज़दूर वर्ग की चेतना का धरातल और मज़दूर आन्दोलन का स्तर किसी अन्य देशकाल के मज़दूर वर्ग की चेतना के धरातल से और मज़दूर आन्दोलन के स्तर से नीचे हो सकता है, पर इतना स्पष्ट है कि सभी जगह कुछ उन्नत वर्ग-सचेत मज़दूर होंगे, कुछ दरमियाने संस्तर की चेतना वाले होंगे और कुछ निम्न चेतना के होंगे। ‘बिगुल’ के अप्रैल अंक में प्रकाशित लेनिनके लेख के हवाले से और अपने सम्पादकीय के माध्‍यम से हम कहना यह चाहते हैं कि मज़दूर वर्ग के बीच प्रचारक-शिक्षक-संगठनकर्ता-आन्दोलनकर्ता के रूप में काम करने वाला, मज़दूर वर्ग के बीच पार्टी-निर्माण के कार्य को लक्ष्य मानने वाला अख़बार – अनुकूल-प्रतिकूल, सभी वस्तुगत परिस्थितियों में – सर्वोपरि तौर पर उन्नत चेतना वाले उन मज़दूरों को सम्बोधित होगा जो सर्वहारा क्रान्ति के विचार को सबसे पहले आत्मसात करते हैं और जिनके बीच से मज़दूर आन्दोलन के हिरावल पैदा होते हैं। दूसरे क्रम में यह औसत चेतना वाले मज़दूरों को एक हद तक सम्बोधित करेगा। निम्न चेतना का मज़दूर इसे बहुत कम समझेगा इसके लिए प्रचार के दूसरे माध्‍यम होंगे। इस प्रस्थापना के जवाब में आपने हमारे ऊपर लेनिन को तोड़ने-मरोड़ने का आरोप लगाते हुए लेनिन के लेख का वह हिस्सा उद्धृत किया है जिसमें उन्होंने रूस के औसत स्तर के मज़दूर की चेतना की तस्वीर पेश की है। आपके ख़याल से वह भारत और औसत मज़दूर की चेतना से काफ़ी ऊपर है और भारत का औसत मज़दूर ”आम हड़ताली” की चेतना रखता है। यह तुलना सिर्फ़ यह बताती है कि आप कितने कठमुल्ला क़िस्म के अनुकरणवादी हैं। लेनिन की बात से आप तभी सीखेंगे जबकि आप पायें कि तत्कालीन रूस के मज़दूरों के तीनों संस्तरों की चेतना और आज के भारत के मज़दूरों के तीनों संस्तरों की चेतना में 1:1 की समानुपातिक समानता हो। क्या मूर्खता है! यह भला सम्भव भी कैसे हो सकता है? मूल बात यह है कि मज़दूर अख़बार अपने देशकाल के सबसे उन्नत चेतना के मज़दूरों पर सबसे पहले ध्यान देगा, और दूसरे क्रम पर यह औसत चेतना वाले मज़दूरों को लेगा तथा अतिसीमित रूप में ही यह निम्न चेतना के तीसरे संस्तर तक पहुँच पायेगा।

और तुलना की पद्धति भी आपकी कितनी भोंड़ी यान्त्रिक है : 1899 का रूसी मज़दूर अध्‍ययन मण्डलों में भाग लेता था, समाजवादी अख़बार-किताबें पढ़ता था, प्रचार-कार्य में भाग लेता था जबकि भारत का औसत मज़दूर सिर्फ़ ”आम हड़ताली” की चेतना रखता है। आप यह भूल जाते हैं कि ”आम हड़ताली” की चेतना औसत मज़दूर की स्वयंस्पफूर्त वर्गीय चेतना होती है, जबकि अध्‍ययन मण्डलों व प्रचार-कार्यों में उसकी भागीदारी के पीछे मूल कारण मनोगत शक्तियों की भूमिका है। यहाँ के क्रान्तिकारी संगठन जब बोल्शेविक ढंग से अध्‍ययन मण्डल, प्रचार और शिक्षा के कार्य को संगठित करेंगे, तभी तो यहाँ का औसत मज़दूर उनमें भागीदारी करेगा! यह काम वह ख़ुद तो नहीं संगठित करेगा। क्रान्तिकारी आन्दोलन के सचेतन प्रयासों के अभाव-असफलताओं से पैदा हुई स्थिति को भी यदि आप नियतिवादी ढंग से जनता के ऊपर थोपेंगे, तो परिस्थितियाँ जितनी कठिन हैं, आपको उससे भी अधिक भयावह लगने लगेंगी। आप अपनी बात को साबित करने के हठ के चलते तथ्यों के साथ प्राय: बलात्कार करते नज़र आते हैं। यह सही है कि भारत का मज़दूर आन्दोलन आज ठहराव-उलटाव का शिकार है, पर तुलना करते हुए जब आप 1899 के रूस के बारे में तथ्यों का आविष्कार करने लगते हैं तो काफ़ी विद्रूप दृश्य उपस्थित कर देते हैं। आप 1899 का रूसी मज़दूर आन्दोलन की प्रगति और उभार का काफ़ी उत्साही खाका खींचते हैं (पृ. 3 अन्तिम पैराग्राम), जबकि लेनिन का कहना इसके विपरीत है। उनका कहना है कि 1884 से 1894 तक का दसवर्षीय प्रथम दौर – सामाजिक जनवाद के कार्यक्रम और सिद्धान्त के जन्म लेने का तथा पार्टी की गर्भावस्था का दौर था। 1894 से 1898 तक का दौर आन्दोलन के बचपन और किशोरावस्था का दौर था जब इसने एक सामाजिक आन्दोलन और जन-उभार की शक्‍़ल ली तथा 1898 के वसन्त में पार्टी गठित हुई। 1898 से शुरू हुए तीसरे काल को लेनिन रूसी मज़दूर आन्दोलन के फूट, विसर्जन और ढुलमुलपन का काल मानते हैं (देखिये, लेनिन : व्हाट इज़ टु बी डन का निष्कर्ष वाला अन्तिम अध्‍याय)। यह कठिन दौर 1904 में समाप्त होता है, जब एक ओर लेनिन मेंशेविक अवसरवाद को निर्णायक शिकस्त देकर मार्क्‍सवादी पार्टी के संगठन के सिद्धान्त (‘एक क़दम आगे, दो क़दम पीछे’) प्रस्तुत करते हैं, और दूसरी ओर 1905-07 की रूसी क्रान्ति की पूर्वपीठिका राजनीतिक हड़तालों के रूप में शुरू हो जाती है। 1908 से 1912 तक पहली रूसी क्रान्ति की हार के बाद का काल स्तालिपिन प्रतिक्रियावाद का तथा क्रान्तिकारी शक्तियों के पीछे हटने का कठिन दौर था। पुन: 1912 में बोल्शेविकों द्वारा अपनी स्वतन्त्र पार्टी बनाने तथा क्रान्तिकारी आन्दोलन के नये उभार के साथ उठान का नया दौर शुरू हुआ, जो फ़रवरी क्रान्ति से होते हुए अक्टूबर क्रान्ति तक जारी रहा। हम जानना चाहेंगे कि आपने रूसी क्रान्ति के इतिहास की कौन सी पुस्तक पढ़ी है जिसमें1898 से 1903-04 तक के दौर को मज़दूर आन्दोलन के आगे बढ़ने का काल बताया गया है?

और अपनी बात को सिद्ध करने के लिए आँकड़ेबाज़ी भी क्या ख़ूब की है!… कि 1903 के ब्रसेल्स कान्फ़ेंस के 43 प्रतिनिधियों में तीन मज़दूर थे यानी 6.91 प्रतिशत! अगर ऐसा ही मानक बनाया जाये, तो आप को पता होना चाहिए कि भारत के अधिकांश कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठनों के सम्मेलनों के प्रतिनिधियों में (ग़लत लाइन के बावजूद और औद्योगिक मज़दूरों में बहुत कम काम के बावजूद) आप को शहरी-ग्रामीण सर्वहारा पृष्ठभूमि के लोगों का यह प्रतिशत मिल जायेगा। और उनका जो भी आधार है वह ग्रामीण सर्वहारा आबादी में ही (और अब एक हद तक औद्योगिक सर्वहारा में भी) है। वैसे आपको स्वयं अपना भी सांगठनिक इतिहास ठीक से ज्ञात नहीं है। पर आपका भला क्या दोष? फूट-दर-फूट ने ऐसे नौबढ़ (Upstart) राजनीतिक नौदौलतियों को भी नेता बना दिया है जिन्हें भूत की जानकारी नहीं और भविष्य के बारे में जिनका रुख़ नज़ूमियों या जुआरियों जैसा है।

1899 के रूसी मज़दूर आन्दोलन और 1999 के भारतीय मज़दूर आन्दोलन की तुलना करते हुए वैसे भी आपने पूरी तरह यान्त्रिक, आधिभौतिक पद्धति अपनायी है। इतिहास-विकास न तो सीधी रेखा में होता है, न ही वृत्ताकार मार्ग से होकर। इसका पथ कुण्डलाकार (Spiral) होता है। विश्व सर्वहारा क्रान्ति की वर्तमान पराजय का यह अर्थ कदापि नहीं कि मज़दूर आन्दोलन रूस, चीन, भारत या कि पूरी दुनिया में आज 1899 से पीछे चला गया है। 1999 में विश्व-ऐतिहासिक विपर्यय (Reversal) का दौर अभी जारी है, पर यह विश्व स्तर पर, या भारत में, मज़दूर आन्दोलन का शुरुआती दौर नहीं है। जो नयी शुरुआत हो रही है या होगी, वह एक नये, उन्नत धरातल पर हो रही है या होगी। क्रान्तियों की हार ने विश्व-सर्वहारा से उसकी सारी राजनीतिक-विचारधारात्मक उपलब्धियाँ छीन नहीं ली हैं। हारें भी शिक्षित करती हैं।

कुछ वर्षों पूर्व तक भारतीय मज़दूर वर्ग का ज्‍़यादा बड़ा हिस्सा संशोधनवादियों को ही असली कम्युनिस्ट मानकर उनके पीछे खड़ा था। मुख्यत: वामपन्थी दुस्साहसवादी भटकावों के चलते कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों ने औद्योगिक सर्वहारा वर्ग में काम नहीं किया। बाद में कुछ ग्रुपों ने जब शुरू भी किया, तो वे जुझारू अर्थवाद के भटकाव से ग्रस्त रहे (बाद में नौबत यहाँ तक आ गयी कि आप जैसे भोंड़े अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी भी मंच पर हाज़िरी दर्ज कराने लगे)। आज की स्थिति यह है कि मज़दूर वर्ग यदि सीटू-एटक और भाकपा-माकपा आदि से टूट रहा है तो इसका सकारात्मक पहलू यह है कि वह नक़ली कम्युनिज़्म को और ट्रेडयूनियन नौकरशाहों को समझ चुका है। ज़िन्दगी के कठिन हालात उसे बदहवासी के साथ नये समाधान नये रास्ते की ओर देखने को विवश कर रहे हैं। मार्क्‍सवाद की यह पुरानी शिक्षा है कि ऐसे में यदि सर्वहारा वर्ग के बीच पूरी ताक़त लगाकर क्रान्तिकारी शक्तियाँ प्रचार-शिक्षा, संगठन व आन्दोलन की कार्रवाई नहीं संचालित करेंगी तो मज़दूरों का एक हिस्सा (एक ओर ख़ासकर अपेक्षतया तथा अभिजात मज़दूरों, दूसरी ओर लम्पट सर्वहाराओं के कुछ हिस्से) फ़ासिस्‍ट कतारों में भी जाकर शामिल हो सकता है। हालाँकि साथ ही, यह भी समझ लेना ज़रूरी है कि आज के विशेष विश्व-आर्थिक-राजनीतिक परिदृश्य पर मज़दूर वर्ग में फ़ासिस्‍ट प्रभाव बहुत अस्थायी-अल्पकालिक होगा।वस्तुगत नहीं, बल्कि मनोगत कारणों से आपको 1999 के भारत की स्थिति 1899 के रूस से भी पीछे दीख रही है। साथ ही नेतृत्वकारी मनोगत उपादानों (Subjective Factors) की फिलहाली कमज़ोरी के नतीजों को भी आप मज़दूर वर्ग और उसकी चेतना पर थोपे दे रहे हैं। आपकी राजनीतिक दूर-दृष्टि और निकट-दृष्टि दोनों ख़राब हो चुकी है और ‘पोलर ऐक्सिस’ भी गड़बड़ है। आभासी यथार्थ को आप सारभूत यथार्थ समझ बैठे हैं। आपकी यह चेतना मिथ्याभासी है।

हर देश में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन अभी कमज़ोर है। अभूतपूर्व विश्व परिस्थितियों में वह अभी पुनर्निर्माण के प्राथमिक दौर में है। पर यह नयी शुरुआत के पूर्व का ठहराव है। यह सन्नाटा भविष्य के प्रचण्ड उभार के पहले का सन्नाटा है। हमारे विचार से तोआज का समय न केवल (आर्थिक संघर्ष के साथ-साथ) राजनीतिक आन्दोलनों-हड़तालों-संघर्षों-उभारों की नयी तैयारी का समय है, न केवल यह राजनीतिक-विचारधारात्मक शिक्षा-प्रचार का समय है, न केवल यह एक राजनीतिक मज़दूर अख़बार के प्रकाशन का, मज़दूरों के अध्‍ययन-मण्डल संगठित करने का तथा सभी (बुर्जुआ व संशोधनवादी) यूनियनों के भीतर क्रान्तिकारी मज़दूरों के केन्द्रक व कोशिकाएँ बनाने का समय है; बल्कि यही समय इन कामों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है और यही काम इस समय की सबसे बड़ी ज़रूरत है। यह प्रक्रिया एक बार जब गति पकड़ लेगी तो फिर जल्दी ही भारत की स्थितियाँ आपको 1899 के रूस से ही नहीं बल्कि 1999 के रूस से भी काफ़ी आगे नज़र आने लगेंगी। तब शायद आप तुलना की अपनी यान्त्रिक आधिभौतिक पद्धति के बारे में सोचेंगे और छाती पीटकर मज़दूर वर्ग को कोसना बन्द कर देंगे, बशर्ते कि आपकी क्रान्तिकारिता तब तक बची रह जाये।

‘इस्क्रा’ ‘प्रावदा’ और उनकी भूमिकाओं के बारे में आपने जो विचित्र किन्तु मौलिक स्थापनाएँ अपने पत्र में प्रस्तुत की हैं, उनसे यही स्पष्ट होता है कि आप और आपके नेतागण पार्टी-निर्माण (Party-building) और पार्टी-गठन (Party-farmation) तथा इनके द्वन्द्वात्मक अन्तर्सम्बन्धों के बारे में या तो कुछ नहीं जानते या फिर विभ्रमग्रस्त हैं। इसके बारे में आप और आपके रहनुमा अपने भूतपूर्व रहनुमा की अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी, विसर्जनवादी और सामाजिक जनवादी भटकाव से मुक्त नहीं हुए हैं। फ़र्क़ सिर्फ़ यह पड़ा है कि जनता के बीच काम करने के बारे में उनके पण्डिताऊ बोध (Perception) के स्थान पर आप की मण्डली का बोध कूपमण्डूकी अनुभववादी है।

पार्टी-निर्माण व पार्टी-गठन के कार्य एक-दूसरे से द्वन्द्वात्मक रूप से अन्तर्सम्बन्धित हैं। इन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। पर सर्वहारा वर्ग की एक एकीकृत पार्टी खड़ी होने की पूरी प्रक्रिया में कभी एक तो कभी दूसरे पहलू पर अधिक ज़ोर पड़ता है और कभी-कभी दोनों पहलुओं के कार्य इतने महत्वपूर्ण होते हैं कि यह कहना मुश्‍क़िल होता है कि कौन प्रधान है। एक समग्र-सांगोपांग लाइन के उद्भव और विकास का काम, लाइन के प्रश्न पर कम्युनिस्ट ग्रुपों के बीच ‘पॉलिमिक्स’ का काम और फिर एक सांगठनिक-राजनीतिक प्लेटफ़ॉर्म पर लाइन की एकता के आधार पर एक एकीकृत पार्टी के गठन की दिशा में आगे बढ़ने की प्रक्रिया – यह पार्टी-गठन का पहलू है।

बुनियादी वर्गों के बीच क्रान्तिकारी व्यवहार में लाइन को ठोस रूप देते हुए पार्टी के चरित्र के क्रान्तिकारी रूपान्तरण व सुदृढ़ीकरण का काम, सर्वहारा वर्ग व अन्य बुनियादी वर्गों के बीच क्रान्तिकारी प्रचार, शिक्षा, आन्दोलन व संगठन का काम करते हुए उनके बीच से पार्टी-भर्ती का काम या उनके बीच से अलग-अलग स्तर के संगठनकर्ता-कार्यकर्ता तैयार करने का काम तथा उनके बीच व्यापक स्तर पर संगठन का समर्थन-आधार तैयार करने का काम, उनके जनसंगठनों में संगठन की कोशिकाओं का जाल बिछाने का काम और आर्थिक-राजनीतिक संघर्षों की प्रक्रिया में लाइन का सत्यापन करते हुए कतारों की अग्निदीक्षा का काम – ये सभी काम पार्टी-निर्माण के पहलू से जुड़े हैं। इस प्रक्रिया में ही पार्टी की कार्यशैली, पद्धति और सांगठनिक ढाँचे के निर्माण की प्रक्रिया पूरी होती है।

पार्टी-निर्माण व गठन के पहलू द्वन्द्वात्मक रूप से अन्तर्सम्बन्धित हैं। यदि किसी ग्रुप के सामने लाइन का सवाल प्रमुख है, तब तक सामाजिक व्यवहार की एक स्पष्ट सीमा रहेगी। पर जैसे ही लाइन का सवाल, एक आम दिशा के स्तर तक ही, हल हो जाये; वैसे ही एक ओर तो उस ग्रुप/संगठन विशेष को तो अन्य बिरादर ग्रुपों-संगठनों के साथ ‘पॉलिमिक्स’ चलाने का काम तेज़ करना होगा, दूसरी ओर लाइन की अपनी समझ के आधार पर सर्वहारा व अन्य बुनियादी वर्गों को जागृति, गोलबन्द और संगठित करने का काम शुरू कर देना होगा, उनके बीच से पार्टी-भर्ती का काम तेज़ कर देना होगा। यदि इसमें देरी हुई या दूसरे पहलू की उपेक्षा की गयी तो संगठन का मध्‍यवर्गीकरण हो जायेगा, वह अराजक बुद्धिजीवियों का गिरोह बन जायेगा और इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप उन्हीं के बीच से कोई धड़ा संकीर्ण अनुभववादी आन्दोलनपन्थी भी बन सकता है – जो जनता के बीच काम के नाम पर बस (आर्थिक व अन्य रोज़मर्रा के) आन्दोलनों में भागीदारी तो करे पर राजनीतिक शिक्षा व पार्टी-भर्ती के काम को या तो छोड़ ही दे या फिर उन्हें भोंड़े ढंग से अंजाम दे।

प्रारम्भिक दौर के बाद से पार्टी-गठन व पार्टी-निर्माण के काम साथ-साथ चलते हैं, पर इनमें से कभी एक तो कभी दूसरे पर ज़ोर अधिक पड़ता रहता है। ‘ज़ार्या’ और ‘ज्‍वेज़्दा’ जैसे पार्टी पत्रों की भूमिका प्रधानत: पार्टी-गठन के कार्य से जुड़ती है क्योंकि ‘पॉलिमिक्स’ के ज़रिये वह एक पार्टी में सर्वहारा ग्रुपों के एकीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाती है। पार्टी-निर्माण से ऐसे पत्रों की भूमिका इस रूप में जुड़ती है कि ये पार्टी कार्यकर्ताओं को शिक्षित भी करते हैं। ‘इस्क्रा’, ‘वपर्योद’, ‘प्रोलेतारी’, ‘बोल्ना’, ‘एखो’ और ‘प्रावदा’ जैसे क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी पत्रों की भूमिका प्रधानत: पार्टी-निर्माण के कार्य से इस रूप में जुड़ती थी कि अलग-अलग रूपों-स्तरों के बावजूद ये सभी पत्र अपने-अपने दौर में व्यापक मज़दूर आबादी के उन्नत संस्तरों को राजनीतिक-विचारधारात्मक शिक्षा देते थे, उन्हें संगठित करते थे, उनके बीच से पार्टी-भर्ती करते थे, पार्टी संगठनकर्ता तैयार करते थे, औसत चेतना के मज़दूरों को (सीधे और उन्नत चेतना के मज़दूरों के बीच से तैयार संगठनकर्ताओं के ज़रिये) बीच से कार्यकर्ता और हमदर्द तैयार करते थे और फिर आन्दोलन के दौरान व्यापक मज़दूर आबादी में पार्टी का समर्थन-आधार व्यापक और मज़बूत बनाने में सहायता करते थे। यहाँ पर यह याद रखना ज़रूरी है किपार्टी-गठन व पार्टी-निर्माण के कार्यों की तरह अलग-अलग प्रकृति के ‘पार्टी ऑर्गन्स’ की भूमिकाओं में भी एक द्वन्द्वात्मक अविभाज्यता है। इनके बीच कोई यान्त्रिक विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती या चीन की दीवार नहीं खड़ी की जा सकती।

पार्टी-पत्रों की प्रकृति के बारे में आपके विभ्रमों की जड़ यह है कि आप न तो पार्टी-गठन न तो पार्टी-निर्माण के बीच का भेद समझते हैं, न ही इनके अन्तर्सम्बन्धों को जानते हैं। ‘एजिटेशलन ऑर्गन’ के रूप में आप यदि पत्र निकालते भी हैं तो पूरी जनता के लिए – ”सर्ववर्ग समभाव” के साथ! आम राजनीतिक-आर्थिक मसलों व नागरिक अधिकार के मसलों पर औसत बुद्धिजीवी, औसत मज़दूर – सभी को एक साथ ”शिक्षित” करते हैं! मज़दूर वर्ग को सीधो विचारधारात्मक शिक्षा देने में आपको लाज लगती है। आप समझते हैं कि आप मज़दूरों के आन्दोलनों में (वह भी निहायत अराजक व बचकाने ढंग से) भाग लेते हुए गाड़ी के पीछे घोड़ा जोतते रहेंगे और उनके बीच अपना उपरोक्त चरित्र का अख़बार देते रहेंगे तो औसत मज़दूर उन्नत हो जायेगा और आप तक और विचारधारा तक स्वयं पहुँच जायेगा। आज की परिस्थिति में आप इतना ही करेंगे। कल जब मज़दूर आम हड़ताली की चेतना से आगे ख़ुद बढ़ जायेगा तो आप उसे विचारधारा और संगठन का झण्डा थमा देंगे। आप शेखचिल्ली तो हैं मगर एक कायर शेखचिल्ली हैं!

अब ज़रा नाम से लिखने-न-लिखने के सवाल को भी ले लें। दुनिया की सर्वहारा पार्टियों में पार्टी नामों से काम करने-लिखने की परम्परा रही है। कुछ लेख-टिप्पणियाँ आदि बिना नाम के भी जाते रहे हैं (‘बिगुल’ व अन्य पत्रों में भी प्राय: जाते हैं)। कई देशों में वर्ग-संघर्ष की ठोस स्थिति व ठोस स्वरूप के अनुसार अपने मूल नाम से ही नेतागण भी प्राय: पूरी तरह या अधिकतर लिखते-काम करते रहे हैं। वैसे तो, पार्टी-नामों से भी लिखकर व्यक्ति स्थापित हो सकता है! आपके ख़याल से क्रान्तिकारी पार्टियों में व्यक्तिवाद के ख़ात्मे के लिए पार्टी नाम से लिखने का चलन पड़ा। यह आपकी भोंड़ी अटकलबाज़ी है। पार्टी नामों से लिखने-काम करने की पद्धति राज्यसत्ता के विरुद्ध पार्टियों की एक सम्पूर्ण क्रान्तिकारी (भूमिगत/अवैध) कार्यप्रणाली का एक अंग था। साथ ही क़ानूनी पत्रों व खुले कामों के लिए क्रान्तिकारियों के तौर-तरीक़े कुछ और थे तथा इनके विपरीत के लिए कुछ और। इतिहास से सीखते हुए न तो अटकलबाज़ी से काम चलेगा, न ही अनुष्ठानधर्मी होने से। सिर्फ़ लाइन के गम्भीर सवालों पर आन्तरिक बहसों में ही नहीं, आम लेखों-निबन्धों में भी सही और ग़लत लाइनों की अभिव्यक्ति आती है। और ज़रूरत पड़ने पर व्यक्ति-विशेष के सम्पूर्ण लेखन से उसकी लाइन को ढूँढ़ा-देखा जा सकता है। चीन में जब भी कोई नेता विपथगामी हुआ तो उसके दशकों पुराने लेखों-रिपोर्टों और यहाँ तक कि पत्रों तक से उसकी विजातीय लाइन की जड़ों को खोजकर उजागर किया गया।

संगठन का ढाँचा वैचारिक स्तर पर भी एकाश्मी (Monolithic) नहीं होता। संगठन के सभी पत्रों में होने वाले लेखनों और सभी जगह होने वाले कार्यों में – लाइनों का टकराव सूक्ष्मता में उस समय भी होता रहता है जबकि उनका स्वरूप स्पष्ट नहीं रहता। ऐसा भी तो हो सकता है कि अपनी लाइन की विजातियता को कतारों से छुपाने के लिए कोई व्यक्ति नामहीनता का शोशा उछाले!

नाम से न लिखने से व्यक्तिवाद का निराकरण हो जायेगा – यह कुछ वैसी ही बात है, जैसे तीन दशक पहले लोहियावादियों ने जातिवाद समाप्त करने के लिए नाम से टाइटिल हटाने की मुहिम चलायी थी!

वैसे आपने भी अपनी इस मान्यता को लेकर कथनी में जितनी ढींग बघारी है, करनी में उतने अडिग नहीं हैं। आप लोग जो पत्र निकालते रहे है, उनमें नाम से भी लेख देते रहे हैं। आप एक व्यक्ति को भी व्यक्तिवाद का शिकार क्यों बना रहे हैं? वैसे आप पत्रों में एक व्यक्ति का नाम सम्पादक के रूप में भी लगातार देते हैं। बिचारे सम्पादक जी तो गये काम से! उनकी मुण्डी तो एकदम व्यक्तिवाद के राक्षस के मुँह में ही रखी है!

वैसे कॉमरेड, देखने में तो ऐसा ही आता रहा है कि प्राय: ऐसे ”मौलिक” नियम प्रतिपादन ऐसे व्यक्तिवादी ही करते रहे हैं; जो स्वयं अपने महिमामण्डन के लिए अपने अतीत के बारे में झूठी ”गौरवगाथाएँ” प्रचारित करवाते रहे हैं और अपने विरोधियों के चरित्र-हनन के लिए किसी भी हद तक नीचे उतर जाते रहे हैं।

ऐसा लगता है कि कतिपय संगठनों के कतिपय प्रकाशनगृहों के, नेताओं और उनके परिवारजनों द्वारा व्यक्तिगत इस्तेमाल का तथ्य भी आपको ऐसे ही तत्वों ने मुहैया कराया है! ऐसे ही कुत्सा-प्रचारों का घटाटोप कुछ वर्षों पहले कुछ पतित राजनीतिक तत्वों और एक चिटफण्डी बुर्जुआ अख़बार में कार्यरत कुछ भाड़े के कलमघसीटों ने खड़ा किया था। लगता है अब आप जैसों को आगे करके कुछ भाई-बन्द यह मोर्चा सम्हाले हुए हैं। शाबाश! डटे रहिये और इस राजनीतिक कार्यशैली की तार्किक परिणतियों की प्रतीक्षा करते रहिये।

आपका इशारा स्पष्टत: उन प्रकाशनों की ओर है जिनसे ‘बिगुल’ का भी सम्बन्ध है। यूँ, आप जैसों को सफ़ाई देना हम अपनी तौहीन समझते हैं, पर यह बहस जिस व्यापक पाठक समुदाय तक पहुँच रही है, उसे यह बताना ज़रूरी है कि आप द्वारा इंगित प्रकाशनगृह ऐसे संस्थान हैं जिनसे आप व सक्रिय सदस्यों के निकाय तथा प्रकाशनों की चयन समिति/सम्पादन समिति के रूप में प्रगतिशील-वाम बुद्धिजीवियों और घटक संगठनों के प्रतिनिधियों से बने हुए पूर्ण जनवादी ढाँचे हैं जो जनवादी ढंग से संचालित होते हैं। चीज़ें दोस्ती या रक्त सम्बन्धों से नहीं योग्यता, क्षमता और क़ुर्बानी के आधार पर तय होती है। कभी-कभी ऐसे प्रश्न वे लोग भी उठाते हैं जो क्रान्ति की आँच से अपने घरों-परिवारों को पूरी तरह बचाकर रखते हैं और स्वयं अपनी अयोग्यताओं को लेकर व्यक्तिवादी कुण्ठाओं के शिकार होते हैं।

बहरहाल, अपनी अटकलबाज़ी के पक्ष में बुद्धिजीवियों के बारे में लेनिन का एक लम्बा उद्धरण आपने दिया है। यह तो कुछ भी नहीं है। काफ़ी अधिक लिखा है लेनिन ने इस विषय पर। यदि आप चाहेंगे तो हम भेज देंगे। यूँ ही इधर-उधर चस्पाँ करने के काम आयेगा।

अनावश्यक विद्वता और दार्शनिकता दिखाना तो हमेशा बुरा होता है पर अल्प ज्ञान की स्थिति में तो वह और विद्रूप हो जाता है। कन्फ्यूशियसवादी होने का आरोप आपने लगाया है। हमने ‘डिक्शनरी ऑफ फिलॉस्फी’ (Dictionary of Philosophy), ‘ग्रेट सोवियत इनसाइक्लोपीडिया’ (Great Soviet Encyclopaedia) और ‘फ़िलॉस्‍फ़ी इन चाइना’ (Philosophy in China) (जी. रामकृष्ण) से मदद ली। आप भी ज़रा पढ़ लीजियेगा कि कन्फ्यूशियसवाद क्या है, फिर लेबल चस्पाँ कीजियेगा। हाँ, कन्फ्यूशियस ने एक जगह एक बात कही थी कि ज्ञान व्यक्तिगत सम्पत्ति है। शायद आप यही आरोप लगाना चाहते होंगे। पर यही कन्फ्यूशियसवाद नहीं है। यह उसका मात्र एक कथन है। मार्क्‍सवादियों को अनर्गल प्रलाप और अप्रासंगिक शब्दों से बचना चाहिए। बिना अनावश्यक पण्डिताऊपन दिखाये भी बहस की जा सकती है। सार संग्रहवाद (Eclecticism) पाण्डित्यवाद (Scholasticism) और आत्मधर्माभिमानिता (Self-righteousness) की प्रवृत्तियाँ सभी व्यक्तिवादियों में पायी जाती हैं। और अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी राजनीति करने वालों में व्यक्तिवाद प्रचुरता में पाया जाता है।

कुत्सा प्रचार की राजनीति के बारे में मार्क्‍स के काल से ही काफ़ी कुछ लिखा गया है। हम उन्हें दोहराना ज़रूरी नहीं समझते। आपने शायद पढ़ा ही होगा।

‘बिगुल’ की पचहत्तर प्रतिशत बिक्री मज़दूरों के बीच होती है, ”इस तथ्य पर अभी प्रश्न चिह्न नहीं” लगाते हुए और इसे ”जस का तस लेते हुए” आपका कहना है कि ”यह वितरक साथियों की मेहनत-मशक्कत की बदौलत हो रहा है, ‘बिगुल’ के लेखों की अन्तर्वस्तु की बदौलत नहीं।” आपका यह सूत्रीकरण भी आपकी राजनीति के चरित्र को उजागर करता है।

हर मार्क्‍सवादी यह मानता है कि राजनीति या लाइन (लेखों की अन्तर्वस्तु) यदि ग़लत हो तो कार्यकर्ताओं की पहलक़दमी, उत्साह और सर्जनात्मकता क़ायम नहीं रह सकती। दोनों का सम्बन्ध द्वन्द्वात्मक है। स्तालिन और माओ का कहना है कि लाइन जब तय हो जाती है तो कार्यकर्ता-निर्णायक होता है। स्पष्ट है कि वितरक साथियों की मेहनत-मशक्कत की निरन्तरता पत्र की अन्तर्वस्तु के सहीपन को ही सत्यापित करती है। जो लोग कार्यकर्ताओं को Docile tool (आज्ञाधीन उपकरण) समझते हैं, वही ऐसा सोच सकते हैं। यह एक नौकरशाह नेतृत्व की सोच है।

आपकी लाइन को पर्याप्त तर्कों सहित हमने एक विजातीय राजनीतिक प्रवृत्ति के रूप में रेखांकित किया तो आपको लगा कि हम ”छूटते ही गाली दे” रहे हैं और ”चिप्पे जड़” रहे हैं। आपने हमें नसीहत भी दे डाली कि इससे पार्टी-निर्माण व गठन के काम में मदद नहीं मिलेगी। पर लगता नहीं कि आप स्वयं गाली देने के इतने विरोधी हैं। आपने हम लोगों की राजनीतिक लाइन का सूत्रीकरण करने के नाम पर तो सिर्फ़ कुछ फतवे दिये हैं, पर हमारे ऊपर कमज़ोर व छिछले होने, आत्ममहानता की कुण्ठाओं में जीने, नीत्शेवादी व कन्फ्यूशियसवादी होने, पाठकों को झाँसा देने आदि-आदि के ऐसे तमाम आरोप लगा डाले हैं जिनके पीछे न तो तथ्य है न ही तर्क। यदि हमारी बात आपको गाली लगी तो आपको या तो नसीहत देनी चाहिए थी या गाली! पर आप ”गाली” के ख़िलाफ़ नसीहत भी देंगे और स्वयं गाली भी देंगे। यह दोमुँहापन नहीं तो और क्या है?

साथी, तिलमिलाने के बजाय अपने तिलमिलाने के कारणों का विश्लेषण कीजिये। सच्चाइयों के प्रति ईमानदार रवैया अपनाना चाहिए। आशा है, आप हमारी आलोचनाओं पर विचार करेंगे और इस बहस को आगे बढ़ाने के लिए पत्र लिखेंगे। ‘बिगुल’ में हम उसे अवश्य स्थान देंगे और बहस चलायेंगे क्योंकि यह उन्नत राजनीतिक चेतना वाले मज़दूरों और आम कार्यकर्ताओं को शिक्षित करने में उपयोगी सिद्ध होगा।

क्रान्तिकारी अभिवादन सहित

 – सम्पादक, ‘बिगुल’

(20-06-1999)

 


बिगुल, जून-जुलाई 1999


 

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