भारतीय मज़दूर आन्दोलन की पश्चगामी यात्रा के हिरावल “सेनानी”

अरविन्द सिंह

“बिगुल के लक्ष्य और स्वरूप पर एक बहस और हमारे विचार” शीर्षक अप्रैल 1999 के सम्पादकीय में साथी पी.पी. आर्य का पत्र हमने जून-जुलाई 1999 अंक में छापा था और उसका उत्तर भी दिया था। पी.पी. आर्य के पत्र पर ही हम इस अंक में साथी विश्वनाथ मिश्र और अरविन्द सिंह की दो टिप्पणियाँ दे रहे हैं। हम एक बार फिर इस बहस में क्रान्तिकारी वामपन्थी शिविर के साथियों की भागीदारी आमन्त्रित करते हैं। – सम्पादक

कॉमरेड पी.पी. आर्य के ख़याल से, आज भारत का मज़दूर आन्दोलन इतना अधिक पीछे चला गया है कि उसके बीच राजनीतिक-विचारधारात्मक शिक्षा और प्रचार का कोई मतलब ही नहीं है। उनके ख़याल से ‘बिगुल’ के लोग “मज़दूर आन्दोलन की वर्तमान कमज़ोर स्थिति” और “राजनीतिक चेतना की गिरावट का ठीक-ठीक अन्दाज़ा ही नहीं लगा पा रहे हैं”, इसलिए “मज़दूर आन्दोलन पर ऐसी बहुत-सारी सामग्री लादने की कोशिश कर रहे हैं जो आन्दोलन की आवश्यकताओं से मेल नहीं खाती है।” पी.पी. आर्य का ख़याल है कि आज जैसी स्थिति में मज़दूरों के बीच आर्थिक और निम्न स्तर के सांस्कृतिक-शैक्षिक कार्य ही किये जा सकते हैं। ज्‍़यादा  से ज्‍़यादा  वे इतनी ही इजाज़त देने को तैयार हैं कि “मास पोलिटिकल पेपर” में “वैज्ञानिक समाजवादी दृष्टिकोण से शोषण के वर्गीय स्वरूप, राजसत्ता की वर्गीय पक्षधरता, देश-समाज की घटनाओं का वर्गीय विश्लेषण होना चाहिए।” और यह कि “यह भण्डाफोड़ लेखों से भरा होना चाहिए।”

वैसे तो राजनीतिक मोतियाबिन्द की वजह से पी.पी. आर्य शायद यह देख नहीं पाये हैं कि ‘बिगुल’ में मज़दूरों को राजनीतिक शिक्षा देने के लिए ज्‍़यादातर, देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे जन संघर्षों, हड़तालों और उनकी हार-जीत के विश्लेषण को तथा सरकारी नीतियों-फैसलों और अहम राजनीतिक घटनाओं के विश्लेषण को ही माध्‍यम बनाया जाता है। हाँ, ऐसे भण्डाफोड़ यह समाहारमूलक लेखों का स्तर उन्नत चेतना के मज़दूरों और कार्यकर्ताओं के हिसाब से प्रधानत: तय होता है। इसके अतिरिक्त, इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं व नायकों की वर्षगाँठों के माध्‍यम से, कुछ स्वतन्त्र वैचारिक टिप्पणियों के माध्‍यम से तथा बहुत सीमित हद तक सीधे विचारधारा पर केन्द्रित लेखों के माध्‍यम से राजनीतिक शिक्षा दी जाती है और क्रान्तिकारी वामपन्थ की वर्तमान समस्याओं और कार्यभारों के बारे में बताया जाता है।

पर मुख्य बात यह नहीं है। पी.पी. आर्य का मूल प्रस्थान-बिन्दु ही यह है कि हमें औसत और आम मज़दूर को ध्यान में रखकर आर्थिक एवं जनवादी-राजनीतिक अधिकार आदि के मसलों पर लिखना चाहिए और आज की स्थिति में मुख्यत: आर्थिक-सांस्कृतिक कामों तक ही सीमित रहना चाहिए।

सम्पादकीय प्रत्युत्तर (जून-जुलाई 1999 अंक) में इस बात को भलीभाँति स्पष्ट किया गया है कि प्रतिकूलतम स्थितियों में भी राजनीतिक अख़बार के ज़रिये, मुख्यत: वर्ग-सचेत मज़दूरों को क्रान्तिकारी हरावल पाँतों तक लाने के लिए प्रचार, शिक्षा, आन्दोलन व संगठन की कार्रवाई चलायी जानी चाहिए। इस सोच से विचलन लेनिनवादी कार्यनीति से विचलन होगा।

हम यहाँ जोड़ना यह चाहते हैं कि हर सामाजिक जनवादी (I) जनता में आस्था की कमी के कारण उसके पिछड़ेपन को बढ़ा-चढ़ाकर आँकता है, (II) साहसपूर्ण प्रयासों और राजनीतिक पहल की चुनौतियों से कतराकर जनता और वस्तुगत परिस्थितियों पर दोष मढ़ता रहता है (III) आभासी यथार्थ को ही सारभूत यथार्थ मानता रहता है और (IV) वस्तुनिष्ठता का आग्रह करता हुआ कूपमण्डूकी कायरता की खोल में घुस जाता है।

1905 की क्रान्ति के पहले, ऊपरी तौर पर रूसी जनता बहुत अशिक्षित और पिछड़ी हुई थी, यह 22 जनवरी, 1905 के “ख़ूनी इतवार” को गेपन पादरी के नेतृत्व में ज़ार से दरख्वास्त के मजमून से भी साफ़ था। इन्हीं स्थितियों में “ख़ूनी इतवार” से ठीक दो दिन पहले “क़ानूनी मार्क्‍सवादी” (वस्तुत: उदारवादी-राजतन्त्रवादी पूँजीवादी) स्त्रूवे (जो रूस के बाहर से ग़ैरक़ानूनी स्वतन्त्र अख़बार‘ओस्वोबोज्देनिये’ निकालता था) ने कहा था कि “रूस में अभी तक क्रान्तिकारी जनता नहीं है।” आगे लेनिन के शब्दों में,”पूँजीवादी सुधारवादियों के उस उच्च शिक्षित, महादम्भी और नितान्त निर्बुद्धि नेता को यह विचार बहुत ही मूर्खतापूर्ण लगा था कि एक निरक्षर किसान देश भी क्रान्तिकारी जनता पैदा कर सकता है। उन दिनों के सुधारवादियों को – आज के सुधारवादियों की तरह ही – इस बात का कितना गम्भीर विश्वास था कि एक वास्तविक क्रान्ति असम्भव है।

”22 जनवरी (पुराने कैलेण्डर से 9 जनवरी), 1905 से पहले रूस की क्रान्तिकारी पार्टी में थोड़े से गिने-चुने लोग ही थे, और उन दिनों के सुधारवादी (ठीक आज के सुधारवादियों की तरह ही) हमें एक “सम्प्रदाय” कहकर हमारी हँसी उड़ाते थे। कुछ सौ क्रान्तिकारी संगठनकर्ता, स्थानीय संगठनों के कुछ हज़ार सदस्य, आधा दर्ज़न क्रान्तिकारी पर्चे जो महीने में एक बार से अधिक नहीं निकल पाते थे और मुख्यत: विदेशों से प्रकाशित होते थे तथा अकल्पनीय कठिनाइयों और भारी क़ुर्बानियों की क़ीमत पर रूस में चोरी-छिपे पहुँचाये जाते थे – ऐसी थी 22 जनवरी, 1905 से पहले रूस की क्रान्तिकारी पार्टियाँ और ऐसा था विशेषत: क्रान्तिकारी सामाजिक जनवाद। ऐसी परिस्थिति के कारण संकुचित बुद्धि और दम्भी सुधारवादियों को यह दावा करने के लिए नियमित आधार मिला कि रूस में उस समय तक क्रान्तिकारी जनता का अस्तित्व नहीं था।

”फिर भी कुछ महीनों के भीतर ही तस्वीर एकदम बदल गयी। क्रान्तिकारी सामाजिक जनवादियों की संख्या “यकायक” सैकड़ों से बढ़कर हज़ारों तक पहुँच गयी और वे हज़ारों, बीस से तीस लाख सर्वहारा के नेता बने। सर्वहारा वर्ग के संघर्ष ने पाँच करोड़ से दस करोड़ तक किसान जनता में गहरी और ज़ोरदार अशान्ति तथा आंशिक रूप से एक क्रान्तिकारी आन्दोलन को जन्म दिया। किसान आन्दोलन की गूंज फौज में पहुँची, जिसके फलस्वरूप सैनिकों के विद्रोह हुए, फौज के एक हिस्से और दूसरे हिस्से के बीच हथियारबन्द टक्करें हुईं। इस तरह तेरह करोड़ आबादी के एक विशाल देश ने क्रान्ति में प्रवेश किया। इस प्रकार ऊँघता हुआ रूस क्रान्तिकारी सर्वहारा और क्रान्तिकारी जनता के रूस में परिणत हो गया।”

(लेनिन : ‘लेक्चर ऑन द 1905 रेवोल्यूशन’, कलेक्टेड वर्क्‍स, खण्ड 23, पृ. 238, 9 जनवरी 1917 से पहले लिखित½

कॉमरेड पी.पी. आर्य जैसे लोगों को आज के भारत के मज़दूरों में, स्त्रूवे की तरह ही दूर-दूर तक क्रान्तिकारी सम्भावनाएँ नज़र नहीं आ रही हैं। वे सन्नाटे की सतह के नीचे की विस्फोटक संकटापन्न स्थितियों के सीझने-पकने की क्रिया को नहीं देख पा रहे हैं। उन्हें सबकुछ लगातार पीछे जाता हुआ ही दीख रहा है।

हम लेनिन के उपरोक्त भाषण के हवाले से ही बता दें कि जनवरी 1905, यानी क्रान्ति के पहले महीने में हड़तालियों की संख्या 4 लाख 40 हज़ार थी, जो क्रान्ति के पहले के पूरे दस वर्षों में हड़तालियों की संख्या (4 लाख 30 हज़ार) से भी अधिक थी। अक्टूबर, 1905 में यह संख्या 5 लाख से अधिक (सिर्फ़ एक माह में) हो चुकी थी। यह भी महत्वपूर्ण है कि जनवरी, 1905 में विशुद्ध राजनीतिक हड़तालियों की संख्या 1 लाख 23 हज़ार, अक्टूबर में 3 लाख 30 हज़ार और दिसम्बर में 3 लाख 70 हज़ार थी।

इस परिवर्तन और राजनीतिक चेतना में चमत्कारी, विस्फोटक विकास के लिए, पी.पी. आर्य को भी इसकी सम्भावनाओं, रीतियों और रास्तों को, लेनिन का सुझाव मानकर समझने की कोशिश करनी चाहिए।

गेपन पादरी की रहनुमाई में ज़ार बादशाह को दरख्वास्त देने जाने वाले रूसी मज़दूरों से, आज के भारतीय मज़दूरों की चेतना, तमाम उलटावों-पराजयों के बावजूद आगे है। आभासी यथार्थ के पीछे का सारभूत यथार्थ यह है कि वह नक़ली वामपन्थी और बुर्जुआ मज़दूर नेताओं के पीछे खड़ा होते हुए भी, उनके बारे में कोई भ्रम नहीं रखता। उधर, देश का आर्थिक-राजनीतिक संकट 1905 के रूस से अधिक चौतरफा और व्यापक है। इसके विस्फोट तक की यात्रा में समय ज्‍़यादा लग सकता है, पर साथ ही, यह भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि यह बहुत दूर है।

अपने उपरोक्त भाषण में ही लेनिन ने आगे तत्कालीन (जनवरी, 1917 के) यूरोप के बारे में कहा है, “हमें यूरोप की वर्तमान श्मशानवत शान्ति से धोखा नहीं खाना चाहिए। यूरोप क्रान्तिगर्भित है।” आज भारत ही नहीं, पूरे एशिया, अफ़्रीका, लैटिन अमेरिका के देशों तथा रूस व पूर्वी यूरोप के कई एक देशों के बारे में भी यही कहा जा सकता है।

1905 की क्रान्ति की असफलता के अहम कारण यह थे कि (i) वहाँ सर्वहारा क्रान्तिकारी एकजुट नहीं थे, (ii) मज़दूरों के एक हिस्से में मेंशिेविकों का प्रभाव था (iii) किसान क्रान्ति में अपेक्षित सक्रिय सहयोग नहीं बन सके और (iv) कम्युनिस्टों का एक बड़ा हिस्सा क्रान्तिकारी विस्फोट की आसन्नता और प्रचण्डता का पूर्वानुमान नहीं लगा पाया था।

इस आधार पर सोचें तो आज के भारत कीश्मशानवत शान्ति” से धोखा खाने के बजाय यहाँ के सर्वहारा क्रान्तिकारियों को मज़दूरों (और किसानों के बीच भी) में राजनीतिक प्रचार और उनके बीच सांगठनिक आधार को व्यापक बनाने का काम तथा आर्थिक संघर्ष के साथ-साथ कारख़ानों के संकुचित दायरे से बाहर आकर सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ व्यापक राजनीतिक संघर्षों, राजनीतिक हड़तालों के लिए उन्हें तैयार करने का काम तेज़ कर देना होगा। सर्वहारा पार्टी के पुनर्गठन-पुनर्निर्माण के प्रयासों को नये सिरे से गति देनी होगी और मज़दूरों के बीच से हर तरह के सामाजिक-जनवादी प्रभावों को उखाड़ फेंकना होगा।

इस ‘ऑपरेटिव पार्ट’ तक आते-आते पी.पी. आर्य जैसों की राजनीति से बिगुल-वादियों की राजनीति का अन्तर एकदम दिन के उजाले की तरह साफ़ हो जाता है।

पी.पी. आर्य के हिसाब से मज़दूर वर्ग को वही विचार दिये जाने चाहिए जिनकी ग्राह्यता (रिसेप्टिविटी) हो! आज मज़दूर समाजवादी विचारों को नहीं सुनता है (हालाँकि यह एक कूपमण्डूक का कायरतापूर्ण अनुभववादी आकलन है, सर्वहारा वर्ग हर हमेशा समाजवाद के विचारों को सुनता है – कभी कम तो कभी ज्‍़यादा, और जब कम लोग सुनते हैं तो प्रचार की अहमियत और बढ़ जाती है) अत: हमें”स्थान-काल के भेद का ख़याल” करते हुए अभी उन्हीं बातों का प्रचार करना चाहिए जो सर्वहारा वर्ग को “ग्राह्य” हों और वही काम करना चाहिए जो (संकुचित स्वार्थ की दृष्टि से) उसे पसन्द आये यानी कुछ आर्थिक और कुछ सुधारपरक कार्य!

बकौल साथी आर्य, “भारत का मज़दूर आन्दोलन आगे नहीं बढ़ रहा है, बल्कि पीछे हट रहा है”, अत: आगे बढ़ने के बजाय पीछे हटने में ही नेतृत्व देते हुए आर्य जी जैसे लोग आज अपनी हरावल भूमिका निभा रहे हैं! और विचारों के स्तर पर लगातार पीछे जाने में मार्गदर्शन करते हुए, कई मायनों में वे ‘ओस्वोबोज्देनिये’-पन्थियों और ‘राबोचाया देलो’-पन्थियों से भी पीछे पहले इण्टरनेशनल के ज़माने के ब्रिटिश ट्रेडयूनियनवादियों तक जा पहुँचे हैं। ईश्वर जाने, मज़दूर आन्दोलन कब पीछे हटना बन्द करेगा, ताकि हमारे साथियों की भी इस पश्चगामी यात्रा पर रोक लग सके!

रॉबर्ट शॉ नाम का एक अंग्रेज़ रंगसाज मज़दूर था। वह पहले इण्टरनेशनल के संस्थापक सदस्यों में से एक था। जनवरी 1870 में, उसकी मृत्यु के बाद मार्क्‍स ने जो स्मृति-लेख लिखा था, उसमें उन्होंने यह चर्चा की थी कि उस समय की ब्रिटिश ट्रेडयूनियनें मूलत: स्थानीयतावादी थीं और वेतन और कुछ सुधार आदि की माँगों तक ही सीमित थीं। ब्रिटिश ट्रेडयूनियनवादी नेता हर क़ीमत पर इस ढाँचे को बरकरार रखना चाहते थे, जबकि “रॉबर्ट शॉ ने इण्टरनेशनल की स्थापना के बाद इन अभिप्रेत बन्धनों को छिन्न-भिन्न कर डालने तथा यूनियनों को सर्वहारा क्रान्तिय के संगठित केन्द्रों में बदल डालने के काम को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।” (मार्क्‍स-एंगेल्स : कलेक्टेड वर्क्‍स, खण्ड 21, पृ. 92)।

उसी दौर के ब्रिटिश ट्रेडयूनियनवादियों की तरह पी.पी. आर्य जैसे लोग सोचते हैं कि अभी “मज़दूर-यूनियनों को सर्वहारा क्रान्ति के संगठित केन्द्रों में बदल डालने की कोशिश” नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि स्थान-काल अभी इसके अनुकूल नहीं है। हमेशा यदि अनुकूल परिस्थितियों के इन्तज़ार की तथा परिस्थितियों, जनता और मनमाफिक बात न करने वालों को कोसने-सरापने की आदत पड़ जाये तो विज्ञान के अध्‍ययन और क्रान्तिकारी व्यवहार के साथ-साथ, कलेजा मज़बूत करने के लिए गोर्की की ‘तूफ़ानी पितरेल पक्षी का गीत’ जैसी रचनाएँ भी पढ़नी चाहिए।

क्रान्तिकारी वामपन्थी शिविर के एक “महामण्डलेश्वर” हैं जिनका विचार है कि चूँकि कार्यकर्ताओं की राजनीतिक चेतना का धरातल बहुत नीचे है अत: आज न तो एक सुसंगत सांगठनिक ढाँचा बनाया जा सकता है, न ही जनवादी केन्द्रीयता के सांगठनिक उसूलों को लागू किया जा सकता है। साथी पी.पी. आर्य का कहना है कि चूँकि समूचे मज़दूरों की चेतना का धरातल बहुत नीचे है, अत: उनके बीच राजनीतिक शिक्षा और राजनीतिक संघर्ष का काम नहीं किया जा सकता और उनके लिए ऐसा पत्र नहीं निकाला जा सकता जो राजनीतिक शिक्षक-प्रचारक-आन्दोलनकर्ता-संगठनकर्ता की भूमिका निभाये और सर्वोपरि तौर पर उन्नत चेतना के मज़दूरों की अल्पसंख्या पर ध्यान दे (क्योंकि वे हैं ही नहीं)! इन दोनों “मौलिक”-”महान” विचार-सरणियों के बीच के योजक-सूत्रों को कार्यकर्ता ही नहीं, उन्नत चेतना वाले मज़दूर भी आसानी से देख सकते हैं। दरअसल पी.पी. आर्य जैसे लोगों की अधकचरी सोच उपरोक्त “महामण्डलेश्वर” की परिपक्व विसर्जनवादी लाइन का ही ‘बाई-प्रोडक्ट’ है। कुछ “नवीन मौलिक प्रतिभाओं” ने नयी लाइन की पौध तैयार करने के लिए कलम लगायी है, लेकिन उसी पुराने पेड़ पर जो काफ़ी पहले से रोग-ग्रस्त है।

बिगुल, अगस्त 1999


 

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