नोटबन्दी को लेकर सारे सरकारी दावे झूठे: जनता की मेहनत की कमाई पर डाका
मुट्ठीभर अमीरों को फ़ायदा पहुँचाने के लिए तमाम तरह के घपले-घोटाले उजागर

मुकेश त्यागी

नोटबन्दी के सवाल पर हम पहले के अंकों में विस्तार से लिख चुके हैं कि इस हमले का असली निशाना काला धन नहीं बल्कि मुल्क़ के ग़रीब, मेहनतकश लोगों की थोडी बहुत कमाई/सम्पत्ति था, जिसका एक हिस्सा जबरिया हथिया कर मालिक तबक़े को हस्तान्तरित करने का अभियान इसके द्वारा छेड़ दिया गया है। वैसे ख़ुद सरकार शुरू में तो कहती रही कि वह इसके द्वारा काले धन को समाप्त कर टैक्स वसूली बढ़ाएगी, नक़ली नोट के धन्धे को समाप्त करेगी और आतंकवाद की कमर तोड़ेगी। लेकिन फिर बाद की दो बातें तो बिल्कुल भुला ही दी गयीं क्योंकि ये बिल्कुल ही हास्यास्पद थीं, और काले धन के सवाल को भी पीछे कर भारत को कैशलेस या नक़दी विहीन डिजिटल अर्थव्यवस्था बनाने की बात पर ही मुख्य ज़ोर दिया जाने लगा। हालाँकि एक न्यायप्रिय समाज में तो जिस कि़स्म की भारी तकलीफ़ें अपने पुराने नोट बदलने या जमा करने के लिए आम लोगों को उठानी पड़ीं, बैंकों के बाहर लाइनों में जैसे सैकड़ों जानें गयीं, और कोई भी तर्क-दलील के बग़ैर, सिर्फ़ वही इस फ़ैसले को घोर अन्यायपूर्ण घोषित कर दिये जाने के लिए पर्याप्त होना चाहिए था, पर हमारे अत्यन्त असमान, वर्गविभाजित समाज में न्याय की बात कहाँ? इसलिए हम समाज के विभिन्न वर्गों पर इसके असर का एक ब्यौरा आगे पेश करेंगे।

मोदी नीत सरकार का कहना था कि नोटबन्दी के इस क़दम से काले धन वाले घबरा जायेंगे और अपनी नक़दी को बैंकों में जमा करने के बजाय जलाना, पानी में बहाना, आदि तरीक़े से नष्ट करना शुरू कर देंगे। भोंपू बुर्जुआ मीडिया में यह ख़बर भी फैलायी गयी थी कि 3 से 5 लाख करोड़ तक की काली कमाई इससे बरबाद हो जायेगी, जिसके नष्ट होने का सीधा लाभ सरकार को मिलेगा और मोदी सरकार इससे बड़े-बड़े लोक कल्याणकारी कार्य शुरू करेगी। लाइनों में भारी तकलीफ़ें झेलती आम जनता को भरमाने के लिए ऐसी भी अफ़वाहें फैलायी गयी थीं कि इससे प्राप्त धन से उनके जनधन खातों में भी कुछ पैसा डाला जायेगा। लेकिन हमने शुरू में ही कहा था कि इस फ़ैसले से काले धन या टैक्स चोरी, भ्रष्टाचार और आपराधिक कामों से जुटाये गये धन पर कोई असर नहीं होगा। पहली बात तो यह कि कुछ तात्कालिक ज़रूरतों को छोड़कर यह काली कमाई नक़दी में रखी ही नहीं जाती, सिर्फ़ 5% ही कैश में होती है क्योंकि काले धन वाले लोग इसे आगे और कमाने वाले धन्धों में लगाते हैं। और अगर इनके पास कुछ नक़दी रहे भी तो इस व्यवस्था में अपनी पहुँच के कारण उन्हें इसे खपाने में कोई दिक़्क़त नहीं आयेगी। नतीजा भी वही निकला है। दिसम्बर के मध्य में ही 80% नक़दी जमा हो जाने के बाद सरकार की तरफ़ से पूरी कोशिश की गयी कि जनता को अपना पैसा जमा करने से रोका जाये, फिर भी 30 दिसम्बर तक 97% नक़दी बैंकों में जमा हो गयी और किसी काली कमाई वाले को असल में कोई परेशानी नहीं हुई। बल्कि कुछ विश्लेषणों के अनुसार तो बाज़ार में जितनी नक़दी होने का रिज़र्व बैंक का अनुमान था उससे ज़्यादा जमा होने का भी अन्देशा है और माना जा रहा है कि कुछ लोगों के नाम पर तो विभिन्न तरीक़ों से इतना पैसा भी जमा हो गया जितना दरअसल उनके पास था ही नहीं। संक्षेप में समझा जाये तो इस मुहिम के दौरान अमीर काले धन वालों और बैंकिंग-वित्तीय क्षेत्र में उनके दलालों को नुक़सान के बजाय इससे और ज़्यादा कमाई करने का ही मौक़ा हासिल हुआ है।

अभी भी 30 जून तक अप्रवासी भारतीय अपने पुराने नोट जमा कर सकते हैं; साथ ही नेपाल और भूटान के लोग भी। इसके बाद भी अगर कुछ नोट जमा होने से बचे तो वो काली कमाई वाले अमीरों के नहीं होंगे बल्कि उन बेचारे, असहाय लोगों के पास होंगे जो बीमारी, अपंगता, अधिक उम्र, अशिक्षा, बैंक तक पहुँच के अभाव या किसी और मज़बूरी से इन्हें जमा नहीं करा पाये। उनमें से कुछ अगर अब रिज़र्व बैंक पर पहुँच भी रहे हैं तो उन्हें लौटा दिया जा रहा है। इस बेग़ैरत, झूठी, वादाि‍ख़लाफ़ी करने वाली सरकार द्वारा जिसने ये वादा किया था कि 31 मार्च तक रिज़र्व बैंक के काउण्टर से नोट बदले जा सकेंगे लेकिन जो अब पूरी बेशर्मी से अपनी बात से पलट गयी है।

सरकारी उम्मीदों के ि‍ख़लाफ़ इतने नोट जमा हो जाने की वजह ही है कि अत्याधुनिक कम्प्यूटर सिस्टम के बावजूद भी रिज़र्व बैंक व सरकार इतने दिन बाद भी यह बता पाने की स्थिति में नहीं हैं कि कितना कुल कैश बाज़ार में था, उसमें से कितना काला धन था और कितना जमा हुआ, और उसकी जगह कितने नये नोट जारी हुए। अब उनका कहना है कि दोबारा हिसाब लगाना, गिनती करना ज़रूरी है कि कुल कितने नोट जमा हुए। इस दोबारा हिसाब के काम के संयोजन के लिए वित्त मन्त्रालय के एक अफ़सर की तैनाती की गयी है रिज़र्व बैंक में। कोशिश हो रही है कि मोदी सरकार अपनी ग़लती मानने के बजाय कुछ हेर-फेर से अपने मनपसन्द आँकड़े तैयार करे जिसे इस योजना की कामयाबी के तौर पर घोषित किया जा सके।

ख़ुद शासक बीजेपी और उसके क़रीबियों की स्थिति को जानें तो यह ख़बरें तो पहले से ही आ रही थीं कि नोटबन्दी के ऐलान के ठीक पहले ही बीजेपी ने भारी संख्या में देश के विभिन्न शहरों में ज़मीनें और मकान आदि ख़रीदे थे और निर्माण कार्य शुरू किया था जिसमें उसने अपने पास इकट्ठा काले धन को खपाया था। उसी समय पर उसके विभिन्न बैंक खातों में बड़ी मात्रा में पैसा जमा कराने की ख़बर भी खातों के विवरण सहित सार्वजनिक हुई थी। इसके बाद यह भी सूचना है कि बीजेपी नेताओं द्वारा संचालित सहकारी बैंकों में भी नोटबन्दी के बाद के 3-4 दिन में ही बड़ी मात्रा में कैश जमा हुआ। हिन्दुस्तान टाइम्स के अनुसार, अहमदाबाद जि़ला सहकारी बैंक, जिसमें ख़ुद अमित शाह डाइरेक्टर है, में ही 3 दिन में 600 करोड़ रुपया जमा हुआ। इसी तरह अमरेली के जि़ला सहकारी बैंक, जिसमें गुज़रात के कृषि मन्त्री दिलीप संघानी अध्यक्ष हैं, 4 दिन में 209 करोड़ रुपया जमा हुआ जबकि पहले इसमें औसतन 1-2 करोड़ रुपया रोज़ जमा होता था।

एक ओर मोदी जी देश के लोगों से काले धन, भ्रष्टाचार की समाप्ति के लिए बलिदान करने और 50 दिन तक असुविधा झेलने को कह रहे थे, वहीं बीजेपी के नेताओं द्वारा नये नोटों के बण्डलों के फ़ोटो सोशल मीडिया में डाले जाने की ख़बर तो पहले ही थी, पर अभी 11 जनवरी के हिन्दुस्तान टाइम्स के अनुसार सीधे रिज़र्व बैंक की नोट छापने की प्रेस से ही बड़ी मात्रा में नये नोट कुछ लोगों के यहाँ घर पर पहुँचाने का धन्धा भी ज़ोरों से चालू था। जबकि दूसरी ओर करोड़ों साधारण लोग अपने काम-धन्धे रोज़गार छोड़कर कई दिनों तक दो हज़ार रुपये के लिए लाइनों में लगे हुए थे और बीमार लोग खाते में पैसा होते भी इलाज न करा पाने से जान देने तक को मजबूर थे; जिन दिहाड़ी मज़दूर या छोटे-मोटे काम जैसे रेहड़ी-पटरी दुकान वालों का काम पूरी तरह बन्द हो गया, उनके परिवारों के लिए अपना पेट भरने तक का संकट पैदा हो गया था। इस स्थिति में सत्ता के क़रीबी लोग ख़ुद तो बैंकिंग व्यवस्था में अपनी पहुँच का फ़ायदा उठाकर ख़ूब कमाई कर रहे थे वहीं बुरी तरह परेशान लोगों को ज़रा सी शिकायत पर ही देशद्रोही का तमगा भी दे रहे थे – ‘वहाँ सीमा पर सैनिक जान दे रहे हैं और तुम देश के लिए लाइन में भी खड़े नहीं हो सकते?’

अगर नुक़सान इन काले धन वालों का नहीं हुआ तो फिर किसका हुआ? नुक़सान हुआ मज़दूरों का – दिहाड़ी-अस्थाई, प्रवासी, खेतिहर, असंगठित क्षेत्र के मज़दूर; नुक़सान हुआ सीमान्त-छोटे किसानों का; नुक़सान हुआ छोटे काम धन्धे करने वाले दुकानदारों, रेहड़ी-पटरी वालों का; नुक़सान हुआ निम्न मध्य वर्ग के लोगों का। अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करने वाले इन लोगों को ही नक़दी में काम करना पड़ता है क्योंकि या तो वही इनकी पूरी जमा-पूँजी है या पूरी तरह सम्पत्ति-विहीन मज़दूरों के पास वही ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा वे तुरन्त अपनी ज़रूरत के लिए उपभोग कर सकते हैं। इनके पास ही थोड़ी मात्रा में पुराने बन्द किये नोट थे जो इनकी कुल जमा-पूँजी या तुरन्त मिली मज़दूरी थे जिससे उन्हें अपना रोज़गार चलाना था या अपना और परिवार का पेट भरना था। इनके पास इन्हें फ़ौरन उपयोग में न लाने का कोई विकल्प नहीं था और थोड़ा समय हो भी तो बैंक खातों और पहचान पत्रों का अभाव भी था। इसलिए इनकी बुरी तरह लूट चालू हुई, नोटों के दलालों द्वारा, 500 के नोट 200-300 और एक हज़ार के नोट 600-700 में बेचकर अपने हाड़तोड़ श्रम की कमाई को लुटवाने के लिए मजबूर होना पड़ा इन्हें।

छोटे-काम धन्धे करने वालों पर पड़ने वाले असर को स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया के एक सर्वे के परिणामों से समझा जा सकता है, जिसने मुम्बई-पुणे के व्यावसायिक इलाक़ों में नोटबन्दी के कारोबार पर असर जानने के लिए यह सर्वे किया। वैसे तो 69% कारोबारियों ने कहा कि काम-काज पर बुरा असर हुआ है, पर ज़्यादातर के लिए असर 50% से कम था। लेकिन सबसे ज़्यादा नुक़सान अनौपचारिक बाज़ार अर्थात सड़क किनारे के रेहड़ी-पटरी वालों पर हुआ – इनमें से 71% का काम आधे से भी कम रह गया क्योंकि इनके ज़्यादा ग्राहक भी ऐसे ही ग़रीब मज़दूर या निम्न मध्यवर्गीय लोग होते हैं जो ख़ुद ही संकट में थे। इसका और भी प्रमाण है कि देश में सबसे ज़्यादा रोज़गार देने वाले निर्माण उद्योग में 55% ने बताया कि उनका काम आधे से कम रह गया है, मतलब इस क्षेत्र में भारी संख्या में श्रमिक अपने रोज़गार से वंचित हुए।

श्रमिकों पर इसका असर समझने के लिए 13 हज़ार प्रत्यक्ष और 3 लाख अप्रत्यक्ष सदस्यों वाले ऑल इण्डिया मैनुफै़क्चरर्स आॅर्गेनाइजे़शन के द्वारा दिसम्बर में किये गये अध्ययन के नतीजे भी अहम हैं। दिसम्बर में किये गये इस अध्ययन के अनुसार नोटबन्दी के पहले 34 दिन में ही 35% श्रमिकों को रोज़गार से वंचित होना पड़ा। यह भी अनुमान है कि मार्च 2017 तक 60% श्रमिक अपने रोज़गार से हाथ धो बैठेंगे। अध्ययन के अनुसार बड़े उद्योगों में कम और सबसे अधिक नुक़सान छोटे उद्योगों में हुआ है जहाँ काम-काज लगभग ठप्प हो गया है। इस संगठन का सरकारी रवैये के बारे में यह भी कहना है कि ‘इस संकट की स्थिति में उन्होंने आँखें बन्द की हुई हैं, कान बन्द किये हुए हैं और बस अपनी और अपने आकाओं की पीठ थपथपाते रहते हैं। सभी राज्यों में सबसे बदतर हालात महाराष्ट्र और तमिलनाडु के हैं।’ ध्यान रहे कि ये दोनों भारत के सर्वाधिक औद्योगीकृत राज्य हैं जहाँ बड़ी संख्या में प्रवासी मज़दूर आते हैं। ये दोनों राज्य हों या दिल्ली, लुधियाना जैसे अन्य औद्योगिक क्षेत्र सब जगह यही स्थिति है और बड़ी संख्या में बेरोज़गार हुए मज़दूरों को अपने गाँवों को वापस लौटना पड़ा है।

लेकिन इन गाँवों की स्थिति तो और भी बदतर है। नोटबन्दी के ठीक पहले ही ख़रीफ़ की फ़सल आयी थी, इस बार मानसून बेहतर होने से उपज बेहतर थी। किसानों को इस उपज को बेचकर पिछले क़र्ज़ उतरने और जि़न्दगी में कुछ राहत की उम्मीद थी। पर मोदी जी की नोटबन्दी की वजह से फ़सल नहीं बिक सकी। उसने ख़रीदारों, जो बड़े किसान या साहूकार-आढ़तिये होते हैं, को अनाज बेचने की हर कोशिश की पर वह असफल रहा। सबने नोटबन्दी की वजह से हाथ उठा दिये या औने-पौने दाम दिये वह भी अक्सर या तो पुराने नोटों में या महीनों बाद जब नक़दी मिलेगी के आश्वासन पर। तुरन्त ख़राब होने वाली उपज जैसे सब्जि़यों, आदि को तो ख़रीदारों या वाजि़ब क़ीमतों के अभाव में फेंक देना पड़ा। धनी किसान तो यहाँ भी नुक़सान में नहीं रहे क्योंकि उन्हें तुरन्त पैसे का अभाव नहीं, अपने अनाज को स्टोर कर सकते हैं, यहाँ तक कि गरजबेचा ग़रीब किसान से सस्ते में ख़रीद कर उसे भी स्टोर कर बेहतर क़ीमत मिलने पर बेच सकते हैं। लेकिन छोटा किसान या बटाईदार मज़दूर क्या करे? मोदी की नोटबन्दी ने इन्हें कंगाल कर दिया है। धन के अभाव में अगली फ़सलों को बोने के लिए फिर साहूकारों से ख़ून-निचोड़ू सूद पर क़र्ज़ लेने को भी मजबूर हैं – ज़मीन, मकान, गहने, आदि गिरवी रखकर। इनमें से काफ़ी उन्हें फिर कभी वापस नहीं मिलने वाले। उनके खेतों में मज़दूरी करने वाले खेत मज़दूरों की स्थिति की तो सहज ही कल्पना की जा सकती है। इनकी मज़दूरी सरकारी आँकड़ों के अनुसार पिछले दो साल से पहले ही घट रही थी। अब शहर से बड़ी संख्या में बेरोज़गारों के वापस लौटने से मज़दूरों की सप्लाई में होने वाली वृद्धि इसे और भी गिरायेगी।

पहली सब घोषणाओं की असलियत सामने आने के बाद अब यह सरकार नोटबन्दी के पक्ष में कुछ नये ‘तर्क’ लेकर आयी है। एक, इससे बड़ी मात्रा में धन बैंकों में जमा हुआ है, उससे बैंक सस्ती दर पर ज़्यादा क़र्ज़ देंगे तो अर्थव्यवस्था तेज़ी से आगे बढ़ेगी, रोज़गार बढ़ेंगे। दूसरे, कैशलेस व डिजिटल लेन-देन से अनौपचारिक क्षेत्र को औपचारिक होना पड़ेगा, जिससे टैक्स वसूली बढ़ेगी और सरकार लोक कल्याण पर ज़्यादा ख़र्च कर सकेगी। तीसरे, महँगाई कम होगी। आइये इन्हें भी थोड़ा विस्तार से देखते हैं।

अर्थव्यवस्था में क़र्ज़ की मात्रा बैंकों के पास उपलब्ध जमाराशि से तय नहीं होती। क़र्ज़ की मात्रा तय होती है, अर्थव्यवस्था में होने वाले निवेश से जो बाज़ार माँग पर निर्भर होता है। जब माँग बढ़ती है और उत्पादन स्थापित क्षमता के 85-90% से ज़्यादा होने लगता है तो क्षमता के विस्तार के लिए नया निवेश होता है जिसके लिए पूँजी का मुख्य स्रोत बैंक क़र्ज़ है। लेकिन पिछले कुछ साल की नीतियों की वजह से नोटबन्दी के पहले ही जनता की गिरती आमदनी के कारण बाज़ार माँग सिकुड़ रही थी तथा उद्योग स्थापित क्षमता के 70% पर ही उत्पादन कर रहे थे अर्थात पूँजीवादी व्यवस्था पहले ही माँग की कमी से पैदा होने वाले ‘अतिउत्पादन’ के संकट से जूझ रही थी। इससे निवेश की स्थिति पिछले 8 साल में सबसे ख़राब थी और उद्योगों को बैंक क़र्ज़ में गिरावट हो रही थी। अब नोटबन्दी की वजह से श्रमिकों तथा अन्य मेहनतकश तबक़े को बड़ी मात्रा में रोज़गार से हाथ धोना पड़ा है इससे माँग और कम होगी तो नया निवेश कहाँ से होगा? सेण्टर फ़ॉर मॉनिटरिंग इण्डियन इकोनॉमी के अनुसार इस स्थिति का प्रभाव अगले 5 वर्ष तक रहने वाला है जब जीडीपी की वृद्धि दर पुराने अनुमानों से 2% कम रहेगी। अगर अर्थव्यवस्था में तेज़ी नहीं आने वाली तो जनता से ज़बरदस्ती जमा कराये गये धन से सस्ती की गयी ब्याज़ दरों का लाभ किसे होगा? निश्चित रूप से बैंक क़र्ज़ दबाये बैठे कॉर्पोरेट घरानों को। 7.3 लाख करोड़ क़र्ज़ लिये बड़े कॉर्पोरेट घरानों को ब्याज़ दर में 1% कमी से सीधे 7300 करोड़ सालाना का मुनाफ़ा होगा। अर्थात अर्थव्यवस्था में कोई तेज़ी आये बग़ैर और रोज़गार बढ़े बग़ैर ही मुनाफ़े बढ़ जायेंगे। इसीलिए यह वर्ग और इसका भोंपू मीडिया पूरी मजबूती से मोदी के पीछे खड़ा है। यह भी समझना चाहिए कि यह 7300 करोड़ आम जनता से छीनकर कॉर्पोरेट घरानों को दी जाने वाली सब्सिडी है क्योंकि ऐसा करने के लिए पहले जमा राशि पर मिलने वाली ब्याज़ दरों में भारी कटौती की गयी है। इसकी मार किसी तरह वक़्त ज़रूरत के लिए बचत करने वाले निम्न मध्य वर्ग, गृहिणियों, बुजुर्ग लोगों, आदि पर ही पड़ती है।

जहाँ तक कैशलेस होने का सवाल है तो पूँजीवादी व्यवस्था में कोई भी उत्पाद या सेवा खैरात या आवश्यकतापूर्ति के लिए नहीं बल्कि मुनाफ़ा कमाने के लिए विक्रय की जाती है। कैशलेस का मतलब है हर लेन-देन में एक तीसरे दलाल अर्थात कैशलेस डिजिटल सेवा देने वाले का प्रवेश जो इसके लिए शुल्क लेगा। इससे अर्थव्यवस्था में लागत बढ़ेगी, लेन-देन की गति कम होगी तथा तीसरे पक्ष पर निर्भरता होगी। यह तीसरा पक्ष बैंक है (ध्यान रहे कि डिजिटल बटुए वाले पेटीएम, एयरटेल मनी, जिओ मनी, आदि भी सब बैंक बनने की प्रक्रिया में हैं)। अर्थात पूरी अर्थव्यवस्था पर बैंकों की वित्तीय पूँजी का नियन्त्रण बढ़ेगा जो इसकी रक्त-मज्जा से अपना हिस्सा वसूल करेगा। इससे अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के छोटे काम-धन्धे करने वालों को फ़ायदा नहीं नुक़सान ही होगा, उनकी लागत बढ़ेगी और आमदनी कम, उसमें से भी एक हिस्सा वित्तीय पूँजी के हवाले। हाँ, अप्रत्यक्ष करों में थोड़ी वृद्धि होगी, जिससे कॉर्पोरेट तबक़े को कॉर्पोरेट टैक्स और धनी तथा उच्च मध्यम वर्ग को आयकर में और भी छूट दी जा सकेगी। अगले बजट में ऐसा करने की चर्चा पहले ही शुरू हो चुकी है अर्थात ग़रीबों पर लगाने वाले अप्रत्यक्ष कर की वसूली बढ़ाकर अमीरों को और टैक्स छूट! ज़बरदस्ती, डण्डे के बल पर सबको हाँक कर कैशलेस करने की मोदी की व्यग्रता का कारण बिल्कुल साफ़ है।

महँगाई दर में कुछ कमी होने का तात्कालिक कारण भी स्पष्ट है। ऐसा पूँजीपति तबक़े की मुनाफ़ाखोरी पर रोक से नहीं हुआ है बल्कि इसके दो कारण हैं – एक ओर कृषि उपज के दामों में भारी गिरावट, दूसरी ओर बेरोज़गारी और आमदनी की कमी से बाज़ार माँग में भारी कमी। महँगाई कम होने से जनता को फ़ायदा तभी हो सकता है जब उसकी आमदनी कम न होते हुए मुनाफ़ाखोरी पर रोक लगे। लेकिन अगर वह कुछ न ख़रीद पाने की स्थिति में पहुँच जाये जिसकी वजह से महँगाई की दर में कमी हो तो इससे उसे क्या फ़ायदा? अक्सर कुछ समय बाद इसका नतीजा होता है, सप्लाई में गिरावट और फिर से दामों में भारी वृद्धि जो फिर से दोहरी चोट होगी।

निष्कर्ष यह कि पहले से ही वंचित शोषित मेहनतकश जनता को ही नोटबन्दी के इस क़दम का सबसे ज़्यादा बोझ उठाना पड़ रहा है जबकि असली काले धन वाले अपनी कमाई को न सिर्फ़ खपाने में सफल हुए हैं बल्कि उनको अगर कहीं कुछ नुक़सान हो भी गया हो तो उसके मुआवज़े का भी इन्तज़ाम सरकार इस बजट में कर देगी – कॉर्पोरेट और इनकम टैक्स में कमी करके- जिसका फ़ायदा सिर्फ़ शीर्ष 5% लोगों को होगा जबकि उसकी भरपाई के लिए बढ़ाये जाने वाले अप्रत्यक्ष करों का बोझ बहुसंख्य मेहनतकश जनता को ही उठाना पड़ेगा। इसलिए ये लोग नोटबन्दी को ग़लत नहीं कहते, क्योंकि इन तबक़ों को तो असल में ही ‘थोड़ी असुविधा’ के बाद इससे फ़ायदा होने वाला है।

 

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2017


 

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