भोरगढ़ (दिल्ली) के मज़दूरों का नारकीय जीवन और उससे सीखे कुछ सबक

मुकेश (भोरगढ़)

मैं पिछले दो महीने से भोरगढ़ के दिल्ली वेल्डिंग कम्पनी ए-280, में काम कर रहा हूं। इसमें केबल (तार) बनता है। मैंने इन दो महीनों में ही इस इलाके में काम करने वाले मजदूरों की जो हालत देखी वह बहुत ही खराब है। भोरगढ़ में अधिकतर प्लास्टिक लाइन की कम्पनियां है। इसके अलावा बर्तन, गत्ता, रबर, केबल आदि की फैक्ट्री है। सभी कम्पनियों में औसतन मात्र 8-10 लड़के काम करते हैं अधिकतर कम्पनियों में माल ठेके पर बनता है। छोटी कम्पनियों में मज़दूर हमेशा मालिक की नजरों के सामने होता है मज़दूर एक काम खतम भी नहीं कर पाता है कि मालिक दूसरा काम बता देता है कि अब ये कर लेना। भोरगढ़ में जितनी भी फैक्ट्रियां है उसमें अधिकतर प्रदूषण वाली (काली-पीली गन्दगी वाली) फैक्ट्रियां हैं। सभी कम्पनियों में धूल-मिट्टी हमेशा उड़ता रहता है। मैं जिस कम्पनी में काम करता हूं उसमें केबल की रबर बनाने में पाउडर (मिट्टी) का इस्तेमाल होता है। मिट्टी इतनी सूखी और हल्की होती है कि हमेशा उड़ती रहती हहै। आंखों से उतना दिखाई तो नहीं देता किन्तु शाम को जब अपने शरीर की हालत देखते हैं तो पूरा शरीर और सिर मिट्टी से भरा होता है। नाक, मुंह के जरिये फेफड़ों तक जाता है। इस कारण मजदूरों को हमेशा टी.वी., कैंसर, पथरी जैसी गंभीर बीमारियां होने का खतरा बना रहता है। जो पाउडर केबल के रबर के ऊपर लगाया जाता है उससे तो हाथ पर काला-काला हो जाता है। जलन एवं खुजली होती रहती है। इन सबसे सुरक्षा के लिए सरकार ने जो नियम बना रखे हैं (दिखावटी नियम)। नाक, मुंह ढंकने के लिए कपड़े देना, हाथों के लिए दस्ताने, शाम को छुट्टी के समय गुड़ देना आदि। इनमें से किसी भी नियम का पालन मालिक, ठेकेदार नहीं करता है। सभी नियम-कानून को अपनी जेब में रखकर चलता है। मजबूरन मज़दूर को इस गन्दगी से बचने के लिए खुद कम्पनी में एक सेट पुराना कपड़ा रखना पड़ता है। और काम के समय उसी को पहनकर काम करता है। लेकिन रोज उसी गन्दे कपड़े को पहनकर काम करने से बीमारियों का खतरा और बढ़ जाता है। एक अन्य सें‍चुरियन प्रा.लि. केबल कम्पनी एफ-1775 में पता किया तो पता लगा कि इस कम्पनी के सात लोगों को टी.बी. हो चुका है। उस गन्दे कपड़े से अगर मालिक की कुर्सी या अन्य सामान साफ करिये तो कहेगा कि गन्दा करेगा क्या, साफ कपड़े से साफ करो। लेकिन मज़दूर उसी तरह के गन्दे कपड़े पहनकर रोज काम करता है।

एक तो इन कम्पनियों में लंच एवं छुट्टी का समय कोई नहीं होता है अगर लंच का समय हो गया और आप काम कर रहे हैं तो ठेकेदार कहेगा अरे आधे घंटे बाद लंच कर लेना ये काम तब तक खतम हो जायेगा। छुट्टी के समय भी उसी तरह कि इतना काम कर ले उसके बाद छुट्टी कर लेना। लेकिन अगर किसी दिन आप 10 मिनट लेट आइये तो मालिक पूरा हिसाब पूछेगा कि क्यों लेट आये। यह कम्पनी है कोई धर्मशाला नहीं। यही हालत लगभग सभी फैक्ट्रियों की है कहीं भी मजदूरों की चिन्ता किसी मालिक, ठेकेदार को नहीं होती उसे सिर्फ मुनाफे की चिन्ता होती है।

दिल्ली सरकार इन फैक्ट्रियों को मुख्य दिल्ली से उजाड़कर भोरगढ़ में इसलिए बसायी गयी थी क्योंकि सरकार का कहना था कि इन फैक्ट्रियों से निकलने वाला धुआँ, मिट्टी एवं शोर से इन इलाकों में रहने वाले लोगों (धन्नासेठों) का स्वास्थ्य खराब हो रहा है लोगों का कई तरह की बीमारियां हो जाती है। इसलिए इन फैक्ट्रियों को दिल्ली के बाहरी इलाके में लगाओ। लेकिन इन्हीं फैक्ट्रियों के धूल-मिट्टी में सारा दिन काम करने वाले मजदूरों की सरकार को कोई चिन्ता नहीं है।

कम मज़दूर होने के कारण इन फैक्ट्रियों में मालिकों से मज़दूर अपनी कोई मांग नहीं मनवा पाता। क्योंकि हमारी ताकत छोटी होती है उसमें भी एक-दो मज़दूर, फोरमैन मालिक का चमचा ही होता है। किसी चीज का विरोध करने पर मालिक तुरंत उन मजदूरों को निकालकर नयी भर्ती ले लेता है। 5-7 मज़दूर तुरंत मिल भी जाता है। विरोध करने वाले मजदूरों का पैसा भी मारा जाता है। मजदूरों के पास इतना समय भी नहीं होता कि वह यहां-वहां भाग दौड़ करे क्योंकि काम छूटने के बाद नया काम भी ढूंढ़ना होता है क्योंकि इतनी कम तनख्वाह में मज़दूर के पास कुछ बचता नहीं है कि वह एक दिन भी बैठ कर बिताये। और ऐसे भी मजदूरों को पता है कि भाग दौड़ करने से कोई फायदा नहीं होगा। क्योंकि सरकार, पुलिस सब मालिकों के साथ ही होते हैं।

दोस्तो, ऐसे समय में मैं कहना चाहूंगा कि हमारे पास सिर्फ एक ही रास्ता है कि खुद को संगठित करना पड़ेगा, सिर्फ एक फैक्ट्री के मजदूरों को नहीं बल्कि उस पूरे फैक्ट्री इलाके के मजदूरों को। हम जिस ब्लॉक में काम करते हैं या जिस इलाके में काम करते हैं उस पूरे इलाके की यूनियन, जहां रहते हैं उस इलाके का संगठन। जैसे पूरे ब्लॉक का यूनियन या भोरगढ़ के मजदूरों का यूनियन या शाहपुर के मेहनतकशों का संगठन। क्योंकि जब तक हम बड़ी ताकत नहीं बनेंगे। मालिक हम लोगों की जिन्दगियों से खेलता रहेगा। अभी कम मजदूरों का विरोध होने से मालिक आसानी से उसको दबा देता है, लेकिन जब हमारी बड़ी ताकत होगी तो किसी भी एक कम्पनी से किसी मज़दूर को वे निकालने पर उस पूरे इलाके के फैक्ट्रियों के मजदूरों का हड़ताल, विरोध प्रदर्शन करना या जिस इलाके में रहते हैं वहां के संगठन का उस फैक्ट्री के विरुद्ध धरना प्रदर्शन होगा तब मालिक को झुकाना आसान होगा क्योंकि जब सभी फैक्ट्रियों में हड़ताल होगा तो इतने मजदूरों को मालिक नहीं निकाल सकता क्योंकि इतने मज़दूर उसको तुरंत कहां मिलेगा।

हमारे पास यही एक रास्ता है दोस्तो। हम कब तक यूं ही घुट-घुटकर जीते रहेंगे, आज नहीं तो कल हमें लड़ना ही होगा तो क्यों न आज से ही शुरुआत की जाये ताकि‍ हमारा कल और आने वाली पीढ़ी का आज खुशहाल हो सके। दोस्तो, जानवरों की तरह हजार दिन जीने से अच्छा है कि इंसान की तरह पूरे स्वाभिमान के साथ एक दिन जिया जाये।

 

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2017


 

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