नया वित्त विधेयक : एक ख़तरनाक क़ानून
सत्ता पर पूँजीपतियों की और जनता पर सरकार की जकड़बन्दी और सख़्त करने के लिए डेढ़ दर्जन क़ानूनों में बदलाव

मुकेश त्यागी

भारत और दुनिया के इतिहास के बहुतेरे सबक़ों के बाद भी बहुत सारे लोगों, ख़ासतौर पर उदारवादी और वामपन्थी बुद्धिजीवियों को यह ग़लतफ़हमी रही है कि पूँजीवादी जनतान्त्रिक व्यवस्था के संवैधानिक नियम-क़ायदे और संसद, अदालत, मीडिया, प्रशासन, आदि ढाँचा फासीवादी ताक़तों के इरादों पर लग़ाम लगा सकते हैं। इनका सोचना था कि एक बार सत्ता में आने पर सरकारी काम-काज के नियम-रिवाज़, सरकारी संस्थाओं में पदस्थ व्यक्ति, न्यायालयों की सक्रियता और ख़ासतौर पर राज्यसभा में बहुमत का अभाव मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के फासीवादी राह पर बढ़ने में रुकावट डालेगा और मजबूर होकर उन्हें कुछ हद तक तो जनतान्त्रिक बनना पड़ेगा। इन उदारवादियों और संसदीय वामपन्थियों का कहना था कि राज्यसभा में बहुमत न मिलने तक बीजेपी सरकार अपनी मनमर्जी के क़ानून नहीं बना सकेगी। वैसे तो आधार अथॉरिटी के क़ानून को ही मनी बिल के रूप में पेश करके राज्यसभा में जाये बग़ैर ही लोकसभा में पारित करवाकर इस सरकार ने अपने इरादे ज़ाहिर कर दिये थे, पर इस बार बजट के साथ लाये जाने वाले वित्त विधेयक (फ़ाइनेंस बिल) में रस्मी बहस का भी अधिकांश हिस्सा पूरा हो जाने के बाद 30 मार्च को अचानक संशोधन के रूप में लगभग 40 और क़ानूनों को भी लोकसभा से ही बग़ैर किसी बहस के ही पारित कराकर इस सरकार ने दिखा दिया है कि वर्तमान बुर्जुआ जनतन्त्र का ढाँचा कभी फासीवादी ताक़तों के रास्ते की रुकावट नहीं बन सकता। इस संवैधानिक ढाँचे में पूँजीवादी शासक वर्ग की हर क़िस्म की वक़्ती ज़रूरतों के लिए बहुत सारे प्रावधान हैं जिनका इस्तेमाल करके वे ओढ़ा हुआ जनवाद का मुखौटा कभी भी उतारकर बिल्कुल क़ानूनी रास्ते से ही मेहनतकश जनता के समस्त अधिकारों पर नग्न हमला जारी रख सकते हैं।
याद रहे कि 1975 में भारत में इन्दिरा गाँधी की कांग्रेसी सरकार द्वारा लायी गयी इमरजेंसी भी इसी संविधान, संसद और न्याय व्यवस्था के द्वारा पूरी तरह क़ानूनी रास्ते ही लागू की गयी थी। इटली और जर्मनी में भी फासीवादी ‘जनतान्त्रिक’ चुनावों के ज़रिये ही सत्ता में आये थे और उन्होंने भी अपने सारे भयानक अत्याचार संसद में क़ानून पास करा और न्यायालयों द्वारा दिये गये आदेशों के माध्यम से ही अंजाम दिये थे। 24 मार्च 1933 को जर्मन संसद ने ही ‘जनता और जर्मन राज्य की पीड़ा-निवारण क़ानून’ नाम का क़ानून पारित कर हिटलर की नाज़ी पार्टी को वो सारी शक्तियाँ दी थीं, जिनके सहारे उन्होंने करोड़ों का क़त्ल किया। क़ानून और चुनाव के नाम पर तब भी तर्क दिया गया था कि आलोचना-विरोध से पहले हिटलर को एक मौक़ा दिया जाना चाहिए, अपना काम प्रदर्शित करने का। तथाकथित लिबरलों और मज़दूर आन्दोलन के मौक़ापरस्तों का कहना था कि जनतान्त्रिक व्यवस्था में मौक़ा मिलने पर नाज़ियों का अतिवादी-उग्र चरित्र बदल जायेगा।
फ़ाइनेंस बिल के ज़रिये क़ानूनों में किये गये परिवर्तनों की चर्चा से पहले इस जनतान्त्रिक संविधान के कुछ प्रावधानों को समझ लेते हैं। कहने के लिए भारत एक संघीय गणतन्त्र (राज्यों का संघ) है लेकिन संसद में राज्यों के अधिकारों का प्रतिनिधित्व करने वाली राज्यसभा में राज्यों का समान प्रतिनिधित्व नहीं है, बड़े राज्यों को ही ज़्यादा प्रतिनिधित्व दिया गया है। न ही इसके सदस्यों का चुनाव आम मतदाताओं द्वारा किया जाता है, राज्य के विधायकों द्वारा चुनाव में राजनीतिक दलों और धनपशुओं द्वारा जोड़-तोड़, ख़रीद-फ़रोख़्त ही इस चुनाव का एकमात्र आधार है। अब कुछ सालों से तो राज्य के प्रतिनिधि के लिए उस राज्य का निवासी होने की शर्त भी हटा दी गयी है। इसीलिए इसमें या तो शासक दलों के वे विश्वस्त लोग जाते हैं जो तमाम धन बल के भी किसी वजह से लोक सभा का चुनाव हार जाते हैं या विजय माल्या, सुभाष गोयल, राजीव चन्द्रशेखर, अमर सिंह, आदि धनबल से सीट ख़रीदने वाले लोग। इसलिए राज्यसभा वैसे भी आजकल शासक और विपक्षी दलों के साथ ही इन सब शातिर लोगों के बीच सौदेबाज़ी का एक अड्डा बना हुआ है।
मनी बिल क्या है, इसको भी थोड़ा समझ लेना यहाँ ज़रूरी है। इसका स्रोत इंग्लैण्ड में बुर्जुआ संसद के इतिहास में है। इंग्लैण्ड में तत्कालीन राजशाही और उभरते बुर्जुआ वर्ग के बीच विवाद का विषय था कि किस पर कितना टैक्स लगाया जाये और उससे एकत्र धन का ख़र्च किन मदों में हो, यह तय करने का अधिकार राजशाही का हो या टैक्स चुकाने वाले बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधियों का। इस विवाद में बुर्जुआ वर्ग की प्रतिनिधि संसद ने अपनी सेना खड़ी कर 1642 में राजशाही के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया और सत्ता अपने हाथ में ले ली। बाद में 1660 में जब बुर्जुआ वर्ग और सामन्ती राजशाही के बीच समझौता हुआ तो टैक्स लगाने और ख़र्च के मद में आबण्टन का अधिकार बुर्जुआ वर्ग और उसकी प्रतिनिधि संसद के हाउस ऑफ़ कॉमन्स के पास ही रहा; हालाँकि बाक़ी सभी क़ानून इस सदन और सामन्तों के हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स की सहमति से बनाना तय हुआ। इस तरह टैक्स और ख़र्च के आबण्टन वाले मनी बिल की शुरुआत हुई जिसको पारित करने का अधिकार सिर्फ़ हाउस ऑफ़ कॉमन्स का था, लॉर्ड्स इसमें सिर्फ़ सुझाव दे सकते थे। इसके पीछे के इतिहास से कोई मतलब न होते हुए भी मनी बिल की इस व्यवस्था को भारत में भी ज्यों का त्यों अपनाया गया और इसे पास करने का अधिकार सिर्फ़ लोकसभा के पास रहा।
यहाँ सवाल उठ सकता है कि किसी भी क़ानूनी परिवर्तन को मनी बिल या टैक्स से सम्बन्धित कहा जा सकता है, क्या इसकी कोई कसौटी नहीं। सरकार का कहना है कि इन क़ानूनों में परिवर्तन करने से ख़र्च होता है, इसलिए इन्हें भी मनी बिल कहा जा सकता है। पर ऐसा तो दरअसल हर क़ानून में ही होता है, इसलिए सरकार हर मनचाहे क़ानून को इस रास्ते से पारित करा सकती है। नियम के अनुसार कौन सा बिल मनी बिल है या नहीं, इसको तय करने का पूरा अधिकार भी लोक सभा अध्यक्ष के पास ही है जिसको चुनौती देने का कोई प्रावधान ही कहीं नहीं है। इस तरह देखा जा सकता है कि ख़ुद को दुनिया का सबसे बड़ा जनतन्त्र का दावा करने वाले देश के संवैधानिक ढाँचे में असल में जनवाद के लिए कोई जगह है ही नहीं और शासक वर्ग इसके ज़रिये जनवादी अधिकारों पर कितना ही क्रूर हमला कर सकता है।
अब नज़र डालते हैं कुछ उन मुख्य क़ानूनों पर, जिनमें इस बिल के द्वारा संशोधन किये गये। एक मुख्य परिवर्तन कारपोरेट समूहों द्वारा राजनीतिक दलों को दिये जाने वाले चन्दे में है। अब तक यह नियम था कि कोई कम्पनी अपने मुनाफ़े का साढ़े सात प्रतिशत ही राजनीतिक दलों को दे सकती है तथा उसे यह घोषित करना होगा कि उसने किस दल को कितना धन चन्दे में दिया। अब इस राशि की यह सीमा हटा लेने के साथ ही चन्दे की राशि और दल का नाम सार्वजनिक करने की शर्त भी हटा ली गयी है। यद्यपि अब तक भी ऐसे नियमों का उल्लंघन किया जाता था, लेकिन अब तो पूरा नियम ही हटाकर दलों को कारपोरेट समूहों से कितना भी धन पूरी तरह गुप्त रूप से लेने की छूट प्राप्त हो गयी जिसे पूरी तरह क़ानूनी ढंग से किया जा सकेगा। साथ ही चुनावी बॉण्ड जारी करने का प्रावधान भी इस वित्त विधेयक में है। जिससे कोई भी बैंक में धनराशि जमा कर ये बॉण्ड ख़रीद सकेगा और इन्हें किसी दल को दे सकेगा। बैंक इन्हें ख़रीदने वाले का नाम ज़ाहिर नहीं करेंगे। इसलिए यह भी भ्रष्टाचार और अपराध से प्राप्त धन या कारपोरेट समूहों द्वारा लोबीइंग के लिए गुप्त रूप से राजनीतिक दलों को दिया जा सकेगा, जिन्हें इसका कोई रिकॉर्ड रखने की ज़िम्मेदारी भी नहीं होगी।
इसके साथ ही 17 ऐसे क़ानून हैं जिनके तहत बहुत सारे विवादों के निपटारे के लिए न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) बने हुए थे। अब इनमें से बहुत सारे ट्रिब्यूनल बन्द किये गये हैं या मिला दिये गये हैं। साथ ही इनकी नियुक्ति और संचालन के नियम बदल कर इन्हें सुप्रीम कोर्ट के बजाय सीधे सरकारी नियन्त्रण में ले आया गया है। इससे आगे इनके द्वारा अन्यायपूर्ण सरकारी फ़ैसलों के ख़िलाफ़ किसी क़िस्म के निर्णय की वर्तमान में थोड़ी-बहुत सम्भावना भी ख़त्म हो जायेगी। इन ट्रिब्यूनलों में औद्योगिक विवाद, बैंक क़र्ज़ वसूली, रेलवे, पर्यावरण सम्बन्धित ग्रीन ट्रिब्यूनल, ग्राहक सुरक्षा, सिनेमा, आयकर, कम्पनी क़ानून, सैन्य बल, एयरपोर्ट, आदि से सम्बन्धित हैं।
आयकर क़ानून में किये गये परिवर्तन से आधार को अनिवार्य बना दिया गया है। साथ ही आयकर अधिकारियों को बिना कारण बताये ही किसी पर भी छापा मारने का अधिकार दिया गया है जिसके लिए उन्हें बाद में किसी अदालत में भी सफ़ाई देने की आवश्यकता नहीं होगी। यह कल्पना आसानी से की जा सकती है कि अफ़सरशाही के पास ऐसी निरंकुश शक्तियों का इस्तेमाल भी विरोधियों के खि़लाफ़ कैसे किया जा सकता है।
पर हमारा मक़सद यहाँ क़ानूनी मसलों के विस्तार में जाना नहीं, बल्कि यह समझना है कि बुर्जुआ जनतन्त्र में जैसा प्रचार किया जाता है, सारी जनता के लिए जनतन्त्र वैसा होता नहीं। असल में तो यह मेहनतकश लोगों पर बुर्जुआ अधिनायकत्व है, सत्ताधारी पूँजीपति वर्ग द्वारा मज़दूर वर्ग के शोषण की व्यवस्था की हिफ़ाज़त का औज़ार है। यह पूँजीपति वर्ग की ज़रूरत के मुताबिक़ ही काम करता है – जब जनतन्त्र का नाटक करना हो तो वह किया जाता है; जब संकट की स्थिति में जनतन्त्र का नाटक छोड़कर मेहनतकश तबके पर फासीवाद का नग्न आक्रमण करना हो तो यही संवैधानिक व्यवस्था बिना किसी रुकावट के उसकी भी पूरी इजाज़त देती है। इस व्यवस्था के अंगों द्वारा फासीवाद की राह में रुकावट डालने की कल्पना या तो निहायत भोलेपन वाले लोग कर सकते हैं या जनवादी-वामपन्थी चोला ओढ़े शातिर अवसरवादी जो जनवाद-संविधान की रक्षा करने के दम भरते हैं, लेकिन फासीवादी हमले के प्रतिरोध के एकमात्र उपाय जन प्रतिरोध को संगठित करने का कोई इरादा नहीं रखते। इस बार भी वित्त विधेयक के नाम पर यही किया गया है। इसके पारित हो जाने के बाद ये सब लोग राज्यसभा में थोड़ी रस्मी गाल बजाई वाली आलोचना-निन्दा कर चुप हो गये हैं, लेकिन आम मेहनतकश जनता के बीच फासीवादी साजिश को बेनक़ाब कर उसके ख़िलाफ़ जन प्रतिरोध खड़ा करने की कोई पहलक़दमी इन जनवादी, उदारवादी या संसदीय वामपन्थियों के द्वारा नहीं की जा रही है।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2017


 

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