क्या छँटनी/बेरोज़गारी की वज़ह ऑटोमेशन है?

मुकेश त्यागी

उद्योग में ऑटोमेशन से भारी बेरोजगारी फैलने की बड़ी चर्चा है। ‘विशेषज्ञ’ कहते हैं श्रमिकों के लिए आगे काम ही नहीं रहेगा, रोबोट से करा लिया जायेगा और सरकार ख़ैरात के तौर पर ‘न्यूनतम आमदनी’ देने पर विचार करेगी!
बात सही है कि ऑटोमेशन के बाद उतने ही उत्पादन या सेवा के लिए श्रमिकों की कम संख्या की जरूरत होती है। ध्यान दें ‘उतने ही उत्पादन’ के लिए। लेकिन क्या ज़रूरत की वस्तुओं/सेवाओं की उपलब्धता इस स्तर तक पहुँच चुकी है कि अब उनके विस्तार की और आवश्यकता नहीं है? दूसरे, यह भी देखना होगा कि क्या कामगारों पर काम का बोझ इतना कम हो चुका है कि वे फालतू हो चुके हैं?
पहले सवाल को देखें तो अनाज, दाल, फल-सब्ज़ी, दूध, माँस, आदि खाद्य पदार्थों से लेकर वस्त्र, जूते, आवास, रोजमर्रा के जरूरी सामान हों या सफ़ाई, पानी, बिजली, सिंचाई, यातायात से लेकर स्कूल-कॉलेज, अस्पताल, अन्य सांस्कृतिक आवश्यकतायें हों, मुश्किल से 10 फीसदी लोग ही अपनी आवश्यकता पूरी कर पाते हैं। अगर सभी नागरिकों की जरूरतें पूरा करने की सोचा जाये तो उत्पादन/सेवाओं के इस स्तर पर विस्तार के लिए श्रमिकों की कमी पड़ेगी, सब स्त्री-पुरुषों के लिए श्रम करना अनिवार्य कर देने के बाद भी जरुरत पूरी नहीं होगी। तब असल में सोचना होगा कि तकनीक का और भी विकास, और भी ऑटोमेशन किया जाये। सड़क पर कोई भी इंसान झाड़ू क्यों लगाता रहे, मशीन क्यों नहीं जिसे सीख कर कोई भी जल्दी बड़े पैमाने पर सफाई कर सके, न कि ऐसे सब कामों कोई जाति जैसी अमानवीय व्यवस्था रह जाये? खेत, खान में आदमी पशुवत दिन-रात क्यों खटता रहे? उसके लिए यंत्रीकरण क्यों न किया जाये ताकि स्त्री-पुरुष सब समान रूप से इन कामों की जिम्मेदारी सँभाल सकें।
दूसरे, 19वीं सदी से शुरू हुए श्रमिक संघर्षों ने 8 घंटे काम, 8 घंटे आराम, 8 घंटे मनोरंजन के सिद्धांत को स्थापित किया था। लेकिन आज भी स्थिति है कि अधिकांश कामगार इससे बहुत ज़्यादा, 12-14 घंटे तक भी काम करने के लिए मजबूर हैं; खुद को मज़दूर न मानने वाले सफ़ेद कॉलर वाले बैंक, आईटी, प्रबंधन, आदि वाले तो सबसे ज्यादा! फिर श्रमिक फालतू कैसे हो गए, जैसा कि कहा जा रहा है कि आगे काम ही नहीं रहेगा?
तो काम न सिर्फ है बल्कि उसके विस्तार की अपार सम्भावनायें भी हैं। फिर समस्या क्या है? कुछ लोग बोलेंगे, ऐसा करने के लिए धन नहीं है। पर ऐसा करने में धन लगता कहाँ है? उत्पादन के लिए जमीन, इमारत, कच्चा माल, औजार और मानव श्रम यही 3 चीजें तो लगती हैं। मुद्रा तो मात्र इनमें लगे तुलनात्मक श्रम के हिसाब और इनके विनिमय का माध्यम है। पहले सोना-चाँदी यह करते थे, फिर कागज करने लगा, अब तो कम्प्यूटर के डेटाबेस में ही इधर-उधर करके काम चल जा रहा है, उत्पादन में कहीं यह मुद्रा काम नहीं आती!
फिर बाधा कहाँ है? बाधा है कि पूरे समाज के सामूहिक श्रम से पैदा इन उत्पादन के साधनों पर कुछ लोगों का स्वामित्व और बाकी के लिए उन्हें अपनी श्रमशक्ति बेचने की विवशता। श्रमशक्ति से उत्पादित मूल्य का चुरा लिया गया हिस्सा ही उनका मुनाफा है जिसको एकत्र कर ये पूँजी के मालिक बने हैं। अब जितनी कम श्रम शक्ति का उपयोग कर ये उत्पादन कर सकें, उतना ही इनका मुनाफा। लेकिन यह बिके कहाँ? श्रमिकों की क्रय शक्ति कम है, जरुरत होते हुए भी खरीद नहीं सकते। इसलिए पहले ही ‘अति उत्पादन’ की स्थिति है, उद्योग 70% क्षमता पर चल रहे हैं। तो मुनाफे के लिए उत्पादन बढ़ाना नहीं बल्कि कम श्रमिकों से कराना मकसद है। इसलिए ऑटोमेशन का नतीजा छँटनी और बेरोजगारी है, काम की कमी नहीं।
यही आज के समाज का मूल अंतर्विरोध है जिसका समाधान सरकार द्वारा दी गई खैरात नहीं, उत्पादन के समस्त साधनों पर समाज का सामूहिक स्वामित्व है, जिसमें समाज के सभी सदस्यों की जरूरतों की पूर्ति के लिए उत्पादन की योजना होने से न सिर्फ चाहने वालों हेतु रोजगार होगा बल्कि सबके लिए काम करना अनिवार्य करना होगा, निठल्ले बैठकर खाना नहीं।

 

मज़दूर बिगुल, मई 2017


 

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