विश्व स्तर पर मज़दूरों की हालत और गिरी – भारत निचले 10 देशों में शामिल

लखविन्दर

भारत के हुक्मरान इसके विश्व गुरु होने की बातें कर रहे हैं। हर देश में बहुत कुछ ऐसा होता है जिससे बाक़ी दुनिया भी सबक़ ले सकती है। कोई शिक्षा किसी के पक्ष में हो सकती है, किसी के विरोध में। मौजूदा समय में भारत में जो हालात हैं, यहाँ के हुक्मरानों की काली करतूतों के कारण जनता की हालतें जिस कदर बदत्तर हो चुकी हैं, उसको देखते हुए समझा जा सकता है कि विश्व गुरु बनने की बातें देश-दुनिया के किस वर्ग के पक्ष में हो रही हैं और हुक्मरानों की ऐसी ही बेशर्म बातें सुनकर घिन आती है।
हुक्मरानों के प्रति यह घिन और भी ज़्यादा बढ़ जाती है जब विश्व स्तर पर भारत के मेहनतकश जनता की हालत की तुलना करते हैं। भारत वह देश है जो मेहनतकश जनता की बुरी हालतों के मामले में रिकार्ड पर रिकाॅर्ड तोड़ रहा है, जो मज़दूरों के आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक हक़ छीनने के मामले में आगे की क़तारों में पहुँच चुका है। विश्व गुरु की भूमिका निभाते हुए देश के हुक्मरान यही तो बाक़ी दुनिया के लुटेरे हुक्मरानों को सिखाना चाहते हैं कि देखो हमें हम मज़दूरों-मेहनतकशों के अधिकारों को छीनने में कितने माहिर हैं, सीखो हमसे कैसे जनता का दमन करना है, कैसे अधिकारों के लिए उठी हर आवाज़ को दबाना है।
पिछले वर्ष अन्तर्राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन संघ की एक रिपोर्ट जारी हुई थी – ‘आईटीयूसी विश्व अधिकार सूचकांक 2016’। इस रिपोर्ट में कुल 141 देशों में मज़दूरों की हालत का 91 अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त सूचकों के आधार पर लेखा-जोखा किया गया है। यह रिपोर्ट यह अहम खुलासा करती है कि दुनिया के लगभग हर हिस्से में मज़दूरों के हक़ कमज़ोर पड़े हैं। इनमें से विचारों की अभिव्यवक्ति और संगठित होने की आज़ादी के हक़ भी शामिल हैं। 25 देशों की एक अलग सूची तैयार की गयी है जिसमें उन देशों के नाम हैं जहाँ मज़दूरों के अधिकारों पर सबसे अधिक डाका मारा जा रहा है, श्रम अधिकारों के लिए संघर्ष करते मज़दूरों को हिंसा का शिकार बनाया और जेलों में डाला जा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार इन मुल्क़ों में श्रम अधिकारों की कोई गारण्टी नहीं है। मज़दूरों को निरंकुश व्यवस्था और बुरे हालात का सामना करना पड़ रहा है। इन 25 देशों में से भी भारत पहले 10 देशों में शामिल है। इन 10 देशों में भारत के अलावा बेलारूस, चीन, कोलम्बिया, कम्बोडिया, गुआटेमाला, र्इरान, क़तर, तुर्की और सऊदी अरब अमीरात शामिल हैं।
वैसे जो खुलासे इस रिपोर्ट में हुए हैं वो कोई नये और हैरानीजनक नहीं हैं। भारत और विश्व के सभी देशों में लागू पूँजीवादी आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। इससे पहले भी मज़दूरों की हालात के बारे में अनेकों रिपोर्टें जारी हो चुकी हैं। जो भी व्यक्ति मज़दूरों की ज़िन्दगी के साथ थोड़ा-बहुत भी जुड़ा हुआ है, वह इस बारे में जानता ही है कि भारत का मज़दूर वर्ग आज कितने बुरे हालात का सामना कर रहा है।
भारत में मज़दूर वर्ग ने कुर्बानियों भरे संगठित संघर्षों द्वारा अनेकों अधिकार हासिल किये थे। पिछली सदी के आखि़री दशक की शुरुआत में कांग्रेस पार्टी की सरकार ने भारत में उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों की शुरुआत की। पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़ों के रास्तों में से हर रुकावट हटाने के लिए मज़दूरों के जनवादी श्रम अधिकारों पर ज़ोरदार हमला बोला गया। केन्द्र और राज्यों में भले ही किसी भी पार्टी की सरकार हो हर सरकार ने यही नीतियाँ लागू कीं। परिणामस्वरूप, आज हालत यह हो चुकी है कि मज़दूरों को न्यूनतम वेतन, हादसों और बीमारियों से सुरक्षा के प्रबन्ध, मुआवज़ा, ईएसआई., ईपीएफ़, बोनस, छुि‍ट्टयों, ओवरटाइम, यूनियन बनाने आदि सारे क़ानूनी अधिकारों से वंचित कर दिया गया है। 5-6 फ़ीसदी मज़दूरों को ही इन श्रम अधिकारों के तहत कोई हक़ हासिल होते हैं। श्रम अधिकारों के हनन का सिलसिला लगातार जारी है। अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने पर पूँजीपतियों के गुण्डे और पुलिस मज़दूरों पर दमन करते हैं। श्रम विभाग और श्रम अदालतें हाथी के दाँत बनकर रह गये हैं। केन्द्र में मोदी सरकार आने के बाद देश स्तर पर श्रम अधिकारों पर बाक़ी के जनवादी अधिकारों के खि़लाफ़ पूँजीपति वर्ग का मिशन और तेज़ हो गया है। इस तरह मज़दूरों की हालत 1990 से पहले से भी बहुत बुरी हो गयी है।
ये हैं वे शिक्षाएँ जो विश्व गुरु दुनिया को देना चाहते हैं और दे रहे हैं।
जैसे कि रिपोर्ट में कहा गया है कि पूरी दुनिया में मज़दूरों के अधिकार लगातार कमज़ोर पड़ रहे हैं। असल में विश्व पूँजीवादी व्यवस्था जिस आर्थिक संकट से जूझ रही है (जो पूँजीवादी व्यवस्था का ढाँचागत संकट है और जिसका कारण पूँजीवादी वर्ग की मुनाफ़ाखोरी ही है) का सारा बोझ मज़दूर वर्ग पर डाला जा रहा है। सिकुड़ रहे मुनाफ़ों को बढ़ाने के लिए मज़दूर वर्ग की लूट तेज़ की जा रही है।
मज़दूरों के लिए सबसे अधिक बुरे हालात वाले देशों में चीन भी शामिल है। कोई पूछ सकता है कि वहाँ तो कम्युनिस्ट पार्टी का राज है और वहाँ तो समाजवादी व्यवस्था है फिर वहाँ मज़दूरों की हालत इतनी बुरी कैसे हो गयी है? लेकिन चीन में तो 1976 तक ही कम्युनिस्ट पार्टी की अगवाई में मज़दूरों की सत्ता रही है। समाजवादी व्यवस्था में वहाँ मज़दूरों को बेहतर हालात हासिल थे और ये हालात लगातार सुधर रहे थे। अमीरी-ग़रीबी का अन्तर लगातार कम हो रहा था। 1976 में कॉमरेड माओ-त्से-तुङ की मौत के बाद हुए पूँजीवादी राज्यपलट के बाद मज़दूरों के हालात लगातार बिगड़ते गये हैं। कारख़ाने जिन पर पहले मज़दूर वर्ग का क़ब्ज़ा था उन पर पूँजीपति वर्ग का क़ब्ज़ा हो गया। मज़दूरों के श्रम अधिकार छीन लिये गये। इसके खि़लाफ़ चीन का जूझारू मज़दूर वर्ग लगातार ज़ोरदार जुझारू संघर्ष कर रहा है। कम्युनिस्ट पार्टी के भेस में चीन की सत्ता पर क़ब्ज़ा करने वाला पूँजीपति वर्ग मज़दूरों के संघर्षों को भयानक दमन द्वारा कुचलने की कोशिश करता रहा है। इसलिए, क्योंकि चीन में अब नक़ली कम्युनिस्ट पार्टी (यानी पूँजीवादी पार्टी) का राज है और वहाँ पूँजीवादी अर्थव्यवस्था लागू कर दी गयी है, चीनी मज़दूरों के भयानक हालात की कसूरवार बाक़ी दुनिया की तरह पूँजीवादी व्यवस्था ही है।
दुनिया के जिन देशों (अमेरिका, आस्ट्रेलिया, इंग्लैण्ड, जर्मनी, जापान आदि) में मज़दूरों के हालात मुक़ाबलतन ठीक हैं, उन्हें क़ानूनी श्रम अधिकार हासिल हैं, इसका कारण यह नहीं है कि वहाँ के पूँजीपति लूटते नहीं हैं, कि वहाँ की सरकारें मज़दूर पक्षधर हैं। वास्तव में इन देशों में मज़दूरों में श्रम अधिकारों के प्रति ज़ोरदार जनवादी चेतना है। दूसरा यह कि ये साम्राज्यवादी देश हैं जो अपनी आर्थिक और राजनीतिक/फ़ौजी ताक़त द्वारा विश्व के पिछड़े पूँजीवादी देशों की श्रमिक जनता के श्रम और स्रोत-साधनों की भयानक लूट-खसोट करते आये हैं। लेकिन जैसे-जैसे समय आगे बढ़ रहा है, वैसे-वैसे इन देशों में भी मज़दूरों के अधिकारों को छीनने की कोशिशें तीखी होती जा रही हैं। उपरोक्त रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि सारे विश्व में ही मज़दूरों के हक़ कमज़ोर पड़ रहे हैं।

 

मज़दूर बिगुल, जून 2017


 

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