भारत में सूचना तकनीक (आईटी) क्षेत्र के लाखों कर्मचारियों पर लटकी छँटनी की तलवार

2014 में मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार करोड़ों नये रोज़गार पैदा करने के वादे के साथ सत्ता में आयी थी। देश को साम्प्रदायिक रंग में रँगने, संघ के लोगों की गुण्डागर्दी, दलितों और अल्पसंख्यकों को दबाने, संघ के हिन्दुत्वी एजण्डे को लागू करने में मोदी सरकार ने बड़े क़दम तो ज़रूर उठाये हैं, लेकिन नया रोज़गार पैदा नहीं हुआ। अभी-अभी ही मोदी सरकार पूरी बेशर्मी से अपने तीन वर्ष पूरे होने का जश्न मनाकर हटी है। वह भी उस समय जब भारत में रोज़गार के पक्ष से सबसे सुरक्षित माने जाने वाले सूचना तकनीक क्षेत्र में काम कर रहे लाखों इंजीनियरों के सिर पर छँटनी की तलवार लटक रही है।

भारत में नये रोज़गार पैदा होने की दर पिछले दो दशकों के दौरान सबसे कम पर पहुँची है। भारत में हर वर्ष 15 लाख इंजीनियर श्रम बाज़ार में शामिल होते हैं। इनमें से सिर्फ़ 5 लाख ही रोज़गार हासिल कर पाते हैं। जिनमें देश की मशहूर और बड़ी इंजीनियरिंग संस्थाओं के अलावा बड़ी गिनती में मशरूम की तरह उगे नये-नये इंजीनियरिंग कॉलेजों और यूनीवर्सिटियों में डिगरियाँ लेकर निकले नौजवानों की है।

मौजूदा हालात ये हैं कि आईआईटी जैसी संस्थाओं में से इस वर्ष 66 फ़ीसदी विद्यार्थी ही कैम्पस प्लेसमेण्ट के दौरान रोज़गार हासिल कर पाये। इंजीनियरिंग करने के बाद हालत यह है कि बड़ी संख्या में नौजवान गले में डिगरी लटकाकर नौकरी के लिए धक्के खा रहे हैं। जो रोज़गार हासिल करने में क़ामयाब हो भी जाते हैं, वे भी छोटी-छोटी कम्पनियों में 10 से 15 हज़ार तक वेतन पर लगातार छँटनी के डर से काम कर रहे हैं। आईटी क्षेत्र की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में रोज़गार हासिल करना मध्यवर्ग का सपना रहा है। क़र्ज़ लेकर या अपनी जि़न्दगी की पूरी कमाई लगा कर मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा अपने बच्चों पर निवेश करता है। लेकिन अब यह सपना लगातार टूट रहा है।

कारपोरेट संस्कृति से लबरेज़ इंजीनियरिंग और सूचना तकनीक क्षेत्र का यह वर्ग जिसके दिमाग़ में पेशेवर कॉलेज़ों-यूनीवर्सिटियों और कारपोरेट ट्रेनिंग संस्थाओं द्वारा यह विचार कूट-कूटकर भरा जाता है कि इस क्षेत्र में वही तरक़्क़ी कर सकता है जो क़ाबिल है, आपको मुक़ाबले के लिए तैयार रहना चाहिए, नहीं तो कोई और तुम्हें हरा कर आगे निकल जायेगा। कम्पनी के लिए जी-जान से काम करो, कम्पनी की तरक़्क़ी का मतलब है आपकी तरक़्क़ी। यह विचार दिमाग़ में भरा जाता है कि जिसने बड़ी कम्पनी में रोज़गार हासिल कर लिया है, वह दूसरों से ज़रूर ही बेहतर होगा। इस वर्ग की समझ के मुताबिक़ यूनियन से जुड़ना, धरना-प्रदर्शन करना सिर्फ़ नाकाम और नाक़ाबिल लोगों का काम था। मुक़ाबले की अन्धी दौड़ में दूसरों को पीछे छोड़ने का विचार इस वर्ग की सोच में पढ़ाई के समय से ही भरा जाता रहा है। लेकिन मौजूदा झटके ने इसे अहसास करवा दिया है कि वह भी पूँजीपतियों के लिए मुनाफ़ा बटोरने का सिर्फ़ एक साधन-मात्र ही है। अब यह वर्ग भी संघर्ष करने और यूनियन में एकजुट होने की ज़रूरत महसूस कर रहा है।

पिछले कुछ महीनों में देश की सात बड़ी सूचना तकनीक क्षेत्र की कम्पनियों ने हज़ारों इंजीनियरों को बाहर का रास्ता दिखाया है। यह भी ख़बर है कि इसी वर्ष लगभग 56,000 इस क्षेत्र के कर्मचारियों की नौकरियाँ छिनने का ख़तरा है। हैड हण्टर की रिपोर्ट के मुताबिक़ आने वाले तीन वर्षों के लिए हर वर्ष पौने दो लाख से 2 लाख इंजीनियर अपनी नौकरियाँ खो सकते हैं। मैकिनसी कारपोरेशन की यह रिपोर्ट है कि आने वाले तीन से चार वर्षों तक सूचना तकनीक क्षेत्र की लगभग आधी श्रम-शक्ति ग़ैर-प्रासंगिक हो जायेगी।

ये छँटनियाँ सिर्फ़ सूचना तकनीक कम्पनियों में ही नहीं बल्कि पिछले एक वर्ष के दौरान देश के टेलीकॉम क्षेत्र में लगभग 10,000 लोगों की छँटनी की जा चुकी है। फ़ाइनेंशियल एक्सप्रेस के मुताबिक़ इस क्षेत्र में इस वर्ष लगभग 30 से 40 हज़ार लोगों को अपने रोज़गार से हाथ धोना पड़ सकता है। एचडीएफ़सी बैंक में अक्टूबर 2016 से मार्च 2017 तक 16,000 मुलाज़िम अपना रोज़गार गँवा चुके हैं। देश की सबसे बड़ी इंजीनियरिंग कम्पनी एल एण्ड टी द्वारा पिछले महीने 14,000 कर्मचारियों को निकाला गया था।

मौजूदा हालातों के लिए कौन है जि़म्मेदार

मन्दी की शिकार विश्व अर्थव्यवस्था के सामने अब यही विकल्प है कि वह नयी तकनीक लाकर बाज़ार में अधिक से अधिक पूँजी निवेश करे और इसके साथ ही श्रम पर अपना ख़र्चा कम करे ताकि मुनाफ़े की दर बढ़ाई जा सके। जिसका नतीजा बेरोज़गारी के बढ़ने, ख़रीद-शक्ति के कम होने में निकल रहा है और जिससे मुनाफ़ा फिर कम हो रहा है।

मौजूदा समय में सूचना तकनीक (आईटी) क्षेत्र भी इस समस्या से जूझ रहा है। 15,000 करोड़ की आईटी उद्योग (मोदी सरकार का कहना है कि इसे दोगुना किया जायेगा) का देश के सकल घरेलू उत्पादन में 9.3 फ़ीसदी हिस्सा है। यह भी सम्भावना जतायी जा रही है कि इस क्षेत्र के कर्मचारियों का रोज़गार छिनने का असर बैंकिंग क्षेत्र पर भी पड़ेगा जिससे क़र्ज़ लेकर यह वर्ग कार, घर और ख़ुशहाली के और साधनों का आनन्द ले रहा था। यही वह वर्ग है जिसकी आर्थिक तरक़्क़ी पर रिटेल, बैंकिंग, रीयल एस्टेट, आटोमोबाइल क्षेत्र काफ़ी हद तक निर्भर रहा है। इन क्षेत्रों पर भी इसके बुरे प्रभाव की सम्भावनाएँ जतायी जा रही हैं।

“अचानक” आकर खड़े हुए मौजूदा खतरे को लेकर सरकार, कार्पोरेट और मौजूदा व्यवस्था के सेवक बौद्धिक वर्ग द्वारा अपने-अपने तर्क पेश किए जा रहे हैं। सबसे मुख्य तर्क जो पेश किया जा रहा है वह है ऑटोमेशन का। यह प्रचार किया  जा रहा है कि नई तकनीक आने से जहाँ 10 लोगों की ज़रूरत थी वहाँ अब सिर्फ 3 की है। कार्पोरेट मुनाफा बढ़ाने और मुकाबले में टिके रहने के लिए इसे जरूरी मानता है। सरकार के पास भी इसका कोई ठोस हल नहीं है। मीडिया में चल रही चर्चाओं में भी यह माना जा रहा है कि नई तकनीक को रोका नहीं जा सकता लेकिन लाखों की संख्या में अपना रोज़गार गवां रहे इंजीनियरों के लिए कोई हल भी नहीं मिल रहा। और यह हल मिल भी नहीं सकता क्योंकि इन सारी चर्चाओं में जो चीज़ गायब है वह है मुनाफे पर टिकी यह मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था। जिसमें पूँजीवाद के लिए ज़रूरी है कि मुकाबले में टिके रहने के लिए अपनी लागत कम करे। ऐसा वह या तो वेतन कम करके कर सकती है या नई तकनीक लाकर कम से कम श्रमिकों से अधिक उत्पादन करवाकर। नहीं तो यह भी हो सकता है कि नई तकनीक से श्रमिकों के काम के घण्टे घटाए जाने से अधिक से अधिक लोगों को रोजगार मुहैया करवाया जा सके। तकनीक जिसे एक दैत्य की तरह पेश किया जा रहा है, उसे मनुष्य के लिए वरदान के रूप में, उसकी ज़िन्दगी आसान करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन क्योंकि मुनाफा इस व्यवस्था की मुख्य चालक शक्ति इसलिए किसी पूँजीपति से, उसकी मैनेजिंग कमेटी–सरकार–से यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वह ऐसा करेगी। इसलिए मौजूदा समस्या के हल के लिए इस व्यवस्था के सेवकों द्वारा दौड़ाए जा रहे अकल के घौड़े इस व्यवस्था के अन्दर ही चक्कर लगा-लगा कर हाँफ रहे हैं। ‘‘उजरती श्रम और पूँजी’’ में कार्ल मार्क्स की कही यह बात मौजूदा हालात पर पूरी तरह लागू होती है –

“….इस युद्ध की विलक्षणता यह है कि इसकी लड़ाइयाँ श्रम की फौज को भर्ती करने से अधिक निकालने से जीती जाती हैं। जनरल, पूँजीपति, एक दूसरे से इस बात में मुकाबला करते हैं कि उनमें से कौन उद्योग के सबसे अधिक सिपाहियों को निकाल सकता है।’’

 

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2017


 

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