देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई के बच्चों में बढ़ता कुपोषण
मुकेश असीम
मुम्बई भारत की आर्थिक राजधानी और स्वप्ननगरी कही जाती है, क्योंकि देश के सबसे ज़्यादा अमीर लोग यहाँ रहते हैं। पिछले सालों में इनकी दौलत का अम्बार और भी तेज़ी से ऊँचा हुआ है। लेकिन इनकी दौलत का यह अम्बार जिन श्रमिकों की मेहनत के बल पर खड़ा होता है, उनकी जि़न्दगी की हालत पर इसका क्या असर पड़ा है, इसको भी जानना बेहद ज़रूरी है। पूँजीवादी व्यवस्था का सबसे बड़ा सत्य यही है कि अगर एक ओर अमीरों की दौलत बढ़ती जा रही हो तो दूसरी ओर निश्चित ही बहुत बड़ी तादाद में ग़रीब, वंचित, मेहनतकश लोग भी मिलेंगे, जिनकी जि़न्दगी और भी ज़्यादा दुःख-तकलीफ़ के गहरे कूप के अंधकार में गिरती जा रही होगी।
मुम्बई भी ऐसा ही एक ऊपरी तौर पर चमकदार शहर है जहाँ एक ओर अम्बानी, टाटा, बिड़ला, अडानी जैसे भारी दौलतमन्द लोग रहते हैं; वहीं यहाँ की अधिकांश मेहनतकश जनसंख्या भारी ग़रीबी और तंगहाली में गन्दगी से बजबजाती, दड़बों की तरह भरी झोपड़पट्टियों में रहने को मजबूर है। हालत यह है कि इस ‘मायानगरी’ के दो तिहाई निवासियों को इस शहर की सिर्फ़ 8% जगह ही रहने को मयस्सर है। शायद इनमें से भी बहुतों ने 2014 के चुनाव के पहले के भारी प्रचार से चकाचौंध होकर नरेन्द्र मोदी के ‘सबका साथ सबका विकास’ और ‘अच्छे दिनों’ के वादों में भरोसा किया था, देश के चहुमुँखी विकास से अपनी जि़न्दगी में बेहतरी आने का सपना देखा था। पर नतीजा क्या हुआ?
2 साल में 4 गुना बढ़ा स्कूली बच्चों में कुपोषण
मुम्बई महानगर पालिका (बीएमसी) के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर के उदाहरण के ज़रिये जानते हैं। प्रजा फ़ाउण्डेशन नामक संस्था द्वारा बीएमसी के स्कूलों में छात्रों की स्वास्थ्य जाँच पर आधारित एक रिपोर्ट के अनुसार ‘अच्छे दिनों’ के पहले 2 सालों में ही बीएमसी के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में कुपोषण चार गुना बढ़ गया है। 2013-14 अर्थात मोदी सरकार के आने के ठीक पहले समाप्त वर्ष में इन स्कूलों के 8% बच्चे ही कुपोषित थे, जबकि इसके ठीक दो साल बाद 2015-16 में कुपोषित विद्यार्थियों की तादाद बढ़कर 34% हो गयी है। 2013-14 में 4 लाख 4 हज़ार छात्रों में से 13 हज़ार लड़के और 17 हज़ार लड़कियाँ कुपोषित थे। हालाँकि 2015-16 में कुल छात्रों की तादाद घटकर 3 लाख 84 हज़ार ही रह गयी पर कुपोषित छात्रों की तादाद बढ़कर लड़कों में 63 हज़ार और लड़कियों में 67 हज़ार हो गयी। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे में भी यह पाया गया कि मुम्बई के एक चौथाई से अधिक बच्चों का क़द और वज़न उनकी उम्र के सामान्य बच्चों के स्तर से कहीं कम है। कुपोषण में इस वृद्धि का सम्बन्ध डायरिया की बढ़ती बीमारी से भी पाया गया है, क्योंकि इन ‘अच्छे दिनों’ में डायरिया भी घटने के बजाय बढ़ा है और 2012 के 99 हज़ार से बढ़कर 2016 में इसके मामले 1 लाख 19 हज़ार हो गये। इसकी वजह है कि बढ़ते कुपोषण की तरह ही डायरिया के शिकार भी मुम्बई के मानखुर्द, गोवण्डी, कुर्ला, आदि सबसे ग़रीब और गन्दगी भरी बस्तियों के निवासी हैं, जहाँ पेय जल और मल निकासी की व्यवस्था लगभग नहीं के बराबर, और वह भी बेहद बदइन्तज़ामी की हालत में है।
मिड-डे मील की लूट
इस रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि मुम्बई के स्कूली बच्चों में कुपोषण की स्थिति बेहद ग़रीब माने जाने वाले सोमालिया, इथिओपिआ, कांगो, जैसे सहारा के अफ़्रीकी मुल्क़ों से भी ख़राब है। यह हाल तब है जबकि कहने के लिए इन स्कूलों में मिड-डे मील और बाल विकास के अन्य कार्यक्रमों पर बड़ा ख़र्च करने का दावा किया जाता है। इससे ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इन कार्यक्रमों में किस पैमाने पर लूट और भ्रष्टाचार का बोलबाला है। ग़ौरतलब है कि महाराष्ट्र बीजेपी सरकार की बालकल्याण मन्त्री पंकजा मुण्डे पर पहले ही बच्चों को पौष्टिक पदार्थ के तौर पर दी जाने वाली चिक्की में ग़लत तरह से ठेके देने और मिट्टी भरी चिक्की बच्चों को दिये जाने में सैकड़ों करोड़ रुपये के घोटाले का आरोप लग चुका है, जिस पर आज तक कोई जाँच तक नहीं करायी गयी।
निष्कर्ष यह कि ‘सबका हाथ सबका विकास’ के द्वारा ‘अच्छे दिन’ लाने वाली मोदी सरकार के आने के बाद जहाँ यह सही है कि एक ओर चन्द पूँजीपतियों की सम्पत्ति और मुनाफ़े में बेतहाशा वृद्धि हुई है, वहाँ असली बात यह है कि इस वृद्धि की असली क़ीमत चुकाई है देश के शहरी-ग्रामीण मज़दूरों, छोटे किसानों और निम्न मध्यवर्गीय लोगों द्वारा – रोज़गार के मौक़ों में कटौती, महँगाई की तुलना में घटती आमदनी द्वारा जिसका असर उनके जीवन के हर क्षेत्र पर पड़ना ही था। वह असर अब ज़रूरी पोषक भोजन की मात्रा में विवशता में की गयी कमी के तौर पर सामने आ रहा है, जिसका नतीजा बच्चों और बड़ों – सबके कुपोषण में यह बेतहाशा वृद्धि है। और इस पर मोदी सरकार की क्या प्रतिक्रिया है? आम लोगों के जीवन में राहत देने का कोई क़दम उठाने, बच्चों के लिए सन्तुलित, पोषक आहार का इन्तज़ाम करने, इसमें लूट और भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के बजाय उसने क्या किया? पहले नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो (एनएनएमबी) नाम की एक संस्था थी जो भोजन में पोषण की मात्रा का सर्वे कर इसकी रिपोर्ट देती थी। मोदी सरकार ने आते ही सबसे पहले उस संस्था को ही बन्द कर दिया, जिससे इन सब बातों का ब्यौरा भी समाज के सामने न आने पाये।
मज़दूर बिगुल,अगस्त 2017
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन