चुप रहना छोड़ दो! जाति‍ की बेड़ि‍यों को तोड़ दो!

जयेश सोलंकी को गरबा देखने पर जान से मार दिया गया

30 सितम्बर की रात पीयूष परमार व उनके दो भाइयों को गुज़रात के गांधीनगर जि़ले में मूँछें रखने पर बुरी तरह मारा-पीटा गया। इस घटना को दो दिन भी नहीं बीते थे कि ’आणन्द जि़ले में एक दलित नौजवान जयेश सोलंकी को गरबा देखने पर जान से मार दिया गया।’ मारने वाले हत्यारे पटेल जाति के खाते-पीते घर से आते हैं। पुलिस के अनुसार मारने वालों की जयेश सोलंकी से कोई व्यक्तिगत पहचान या दुश्मनी नहीं थी, पर वे लगातार मारते हुए ये “बोल रहे थे कि दलितों को गरबा देखने का अधिकार नहीं है।” इन दोनों ही घटनाओं से स्पष्ट हो रहा है कि जातिवादी मानसिकता गहराई से हमारे समाज में पैठी हुई है व आज तमाम मध्य जातियों के अमीर जातिवादी वर्चस्व के बर्बरतम रूपों का प्रदर्शन कर रहे हैं। इन दोनों ही घटनाओं में पीड़ित बेहद ग़रीब थे (मृत नौजवान जयेश एक दिहाड़ी मज़दूर था)। यह घटना एक बार फिर दिखा रही है कि सवर्णवादी वर्चस्व के बर्बरतम रूपों का सामना ग़रीब, मेहनतकश दलितों को ही करना पड़ता है। हालाँकि जातिगत अपमान का सामना तमाम दलित नौकरशाहों, नेताओं और अन्य अमीर दलितों को भी करना पड़ता है, पर इस तरह की जातिगत उत्पीड़न की बर्बरतम घटनाएँ ज़्यादातर मेहनतकश दलितों के खि़लाफ़ ही होती हैं। जातिगत उत्पीड़न के बर्बरतम रूपों का सामना 100 में से 99 केस में ग़रीब मेहनतकश दलितों को ही करना पड़ता है।

पि‍छले 10-12 सालों में हरियाणा के मिर्चपुर, गोहाणा, भगाणा से लेकर कैथल में दलित उत्पीड़न की कई घटनाएँ ग़रीब मेहनतकश दलित आबादी के साथ ही हुई हैं। असल में सरकार चाहे किसी पार्टी की हो, दलित उत्पीड़न की घटनाएँ लगातार जारी रही हैं। पि‍छले साढ़े तीन सालों में गुज़रात, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश से लेकर पूरे देश में दलित उत्पीड़न की घटनाएँ जिस क़दर बढ़ी हैं, उससे भाजपा-संघ सरकार की ”सामाजिक समरसता” की नौटंकी का पर्दाफ़ाश हो गया है। सहारनपुर में सवर्णों की बर्बर दबंगई का विरोध करने वाले जुझारू दलित नेता चन्द्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ को फ़र्ज़ी मुक़दमों में जेल भेजा गया, जेल में उनको बुरी तरह टॉर्चर किया गया, इलाज तक नहीं कराया गया और जब अदालत ने पुलिस को फटकार लगाते हुए उन्हें ज़मानत पर रिहा करने का आदेश दिया तो प्रदेश की योगी सरकार के आदेश पर उन पर रासुका लगाकर दुबारा जेल में डाल दिया गया। दूसरी ओर, दलितों की पूरी बस्ती को जलाकर राख कर देने वाले और बुजुर्गों, औरतों, बच्चों तक पर हिंसा का नृशंस ताण्डव करने वाले सवर्णों के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की गयी है और उन्हें बचाने के लिए सारे नियम-क़ानून ताक पर धर दिये गये हैं।

ऐसे में आज जातीय उत्पीड़न की तमाम घटनाओं के खि़लाफ़ मेहनतकश जनता की वर्ग एकजुटता क़ायम करनी होगी, जुझारू प्रतिरोध के लिए सड़कों पर उतरना होगा, जातीय पहचानों को उभारकर वास्तव में हमें बाँटने वाली अस्मितावादी राजनीति को किनारे करना होगा, व्यवहारवादी आवेदनबाज़ी की राजनीति का भण्डाफोड़ करना होगा और रोज़गार, महँगाई, शिक्षा, आवास, चिकित्सा और व्यापक मेहनतकश जनता की जि़न्दगी से जुड़े हर सवाल पर पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध क्रान्तिकारी संघर्ष करना होगा क्योंकि वर्ग एकजुटता पर आधारित ऐसे ही संघर्षों के ज़रिये पूँजीवादी ब्राह्मणवाद और जातिवाद को भी फै़सलाकुन शिकस्त दी जा सकती है।

मज़दूर बिगुल,अक्‍टूबर-दिसम्‍बर 2017


 

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