वर्तमान आर्थिक संकट और मार्क्स की ‘पूँजी’

मुकेश असीम

पिछले कई सालों से पूरे पूँजीवादी विश्व के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था भी गहन संकट से गुज़र रही है। आम जनता की घटती आय से बाज़ार में सिकुड़ती माँग से उद्योगों में नया निवेश नहीं हो रहा, पहले स्थापित उद्योग दिवालिया हो रहे हैं; बड़े पैमाने पर श्रमिक रोज़गार से वंचित हुए हैं, नये रोज़गार सृजित नहीं हो रहे; बेरोज़गारी भयंकर रूप से बढ़ी है, 16-25 साल के युवाओं में 27% न शिक्षा में हैं, न किसी तरह के प्रशिक्षण में, न ही किसी रोज़गार में; ग़रीब छोटे किसान और खेत मज़दूर आत्महत्याओं तक के लिए मजबूर हो रहे हैं। पर रोज़गार से लेकर आर्थिक संकट के तमाम पहलुओं पर बात करते हुए अधिकांश लोग आमतौर पर बीजेपी-कांग्रेस की नीतियों, नोटबन्दी, जीएसटी, आदि को जि़म्मेदार ठहराकर रुक जाते हैं। यह बात सही है कि इन नीतियों ने इस संकट को गम्भीर बनाने में भूमिका निभायी है। पर आखि़र ये पार्टियाँ ऐसी नीतियाँ बनाती क्यों हैं? क्या ये कोई और अलग नतीजा देने वाली नीति भी बना सकते हैं? क्या सरकार बदलने मात्र से ये नीतियाँ बदली जा सकती हैं? हमें समझना होगा कि हम वर्ग विभाजित समाज में रहते हैं, जिसमें कोई भी राजनीतिक दल समाज के किसी वर्ग का प्रतिनिधि होता है। बीजेपी कांग्रेस दोनों भारत के इजारेदार पूँजीपति वर्ग के प्रतिनिधि हैं और उसके हितों की हिफ़ाज़त और उन्हें आगे बढ़ाना उनका मुख्य काम है। इसलिए ये पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के उत्पादन सम्बन्धों के विपरीत कोई नीति नहीं बना सकते। ये उत्पादन सम्बन्ध क्या हैं और आज की संकटपूर्ण स्थितियाँ कैसे इनका नतीजा हैं? इसे समझने के लिए विश्व के श्रमिक वर्ग के महान शिक्षक कार्ल मार्क्स ने 150 वर्ष पहले प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘पूँजी’ में जो बताया था, उसका एक छोटा और सरलीकृत अंश समझते हैं।

पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था

पूँजीपति पूँजी से उत्पादन के निर्जीव साधन – ज़मीन-मकान, मशीनें-औज़ार, कच्चा माल – जुटाता है। फिर उत्पादन की सजीव ताक़त अर्थात मानव श्रम के लिए श्रमिक से उसकी श्रम शक्ति ख़रीदता है। श्रम शक्ति लगने से पैदा उत्पाद का मूल्य उसे बनाने में प्रयोग हुए अवयवों के कुल मूल्य के मुक़ाबले ज़्यादा होता है। इस बढ़े हुए मूल्य में से श्रम शक्ति का मूल्य निकाल देने पर बचने वाला अधिशेष या अतिरिक्त मूल्य ही पूँजीपति का मुनाफ़ा होता है अर्थात श्रमिक की श्रम शक्ति लगने से पैदा वह मूल्य जो श्रमिक को प्राप्त नहीं हुआ, बल्कि पूँजीपति को मिला। यह मुनाफ़ा ही मूल पूँजी में जुड़ता रहता है और पूँजीपतियों की दौलत को बढ़ाता जाता है। इस निरन्तर बढ़ती पूँजी से पूँजीपति निरन्तर और अधिक उत्पादन करता जाता है। लेकिन सिर्फ़ एक ही नहीं बल्कि सभी पूँजीपति ऐसा ही करते हैं। इसलिए प्रतियोगिता में दूसरों को पछाड़ने हेतु हर पूँजीपति हमेशा नयी तकनीक लाने का प्रयत्न करता है, ताकि कम श्रम से अधिक उत्पादन मुमकिन हो, उसे अधिक अधिशेष मूल्य या मुनाफ़ा प्राप्त हो, जिससे वह बाज़ार में अपने माल की क़ीमत कम कर होड़ में अन्य पूँजीपतियों को ठिकाने लगा सके। इस तरह उत्पादन के लिए प्रयुक्त कुल पूँजी में श्रम शक्ति की तुलनात्मक मात्रा कम होकर स्थाई पूँजी का अनुपात बढ़ता जाता है अर्थात उतनी ही मात्रा में उत्पादन के लिए आवश्यक श्रमिकों की संख्या कम होती जाती है। अगर उत्पादन वृद्धि की असीमित सम्भावना हो तो इससे कोई समस्या नहीं होती। पर पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन बाज़ार में विक्रय कर मुनाफ़ा कमाने हेतु होता है और बिक्री बाज़ार में ख़रीदारों की माँग अर्थात क्रय क्षमता से ज़्यादा नहीं हो सकती। इसलिए सब पूँजीपतियों द्वारा उत्पादन बढ़ाते जाने, श्रमिकों की तादाद को कम करते जाने से कृत्रिम अति उत्पादन का संकट पैदा होता रहता है। इसे कृत्रिम अति उत्पादन इसलिए कहा जाता है, क्योंकि यह वास्तव में समाज की आवश्यकताओं से अधिक नहीं है, बल्कि इसलिए क्योंकि ज़रूरतें होते हुए भी अधिकांश लोग उत्पादित मालों को ख़रीदने की क्षमता नहीं रखते। इसका दूसरा नतीजा यह होता है कि मशीनों, तकनीक में लगी स्थाई पूँजी की मात्रा बढ़ते जाने से पूँजी पर मुनाफ़े की दर घटने लगती है। उदाहरण के तौर पर अगर 100 रुपये की पूँजी पर 20 रुपया मुनाफ़ा था और पूँजी को 200 रुपये करने पर मुनाफ़ा 30 रुपये हो जाये तो कुल मुनाफ़े की रक़म तो बढ़ी पर पूँजी के प्रतिशत के तौर पर यह 20% से घटकर 15% ही रह गया।

पूँजीवाद का संकट

ऊपर बताए गये इन दोनों नतीजों – बाज़ार में आ रहे उत्पादों का न बिक पाना और पूँजी की मात्रा पर मुनाफ़े की दर का कम होना –  की वजह से पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में तीव्र संकट पैदा होता है। अपने माल को बेचने और मुनाफ़े को बढ़ाने की पूँजीपतियों की आपसी स्पर्धा गलाकाट बन जाती है। इस संकट के बढ़ते जाने पर कुछ पूँजीपतियों के दिवालिया होने और उनके उद्योगों के बन्द होने से हुए उत्पादन की शक्तियों के विनाश में ही इस संकट का अस्थाई समाधान होता है, जिससे कमज़ोर पूँजीपति प्रतिद्वन्द्विता से बाहर हो जाते हैं या उन्हें बचे पूँजीपतियों द्वारा ख़रीद कर अपना प्रबन्धक बना लिया जाता है, उनका उत्पादन बाज़ार से निकल जाता है।  इससे बचे हुए पूँजीपति कुछ समय के लिए सुरक्षित हो जाते हैं तथा और बड़े हो जाते हैं। लेकिन फिर से पूँजी और उत्पादन बढ़ाने की होड़ चालू हो जाती है तथा नतीजे में कुछ वक़्त बाद पहले से भी बड़ा संकट सामने आ प्रस्तुत होता है। कई मौक़ों पर तो युद्धों का विनाश भी इन संकटों के अस्थाई समाधान के लिए प्रयुक्त हुआ है।

अब आज की भारतीय अर्थव्यवस्था में मार्क्स द्वारा बताये गये इस नियम का प्रभाव देखते हैं। पिछले 30 साल में भारतीय अर्थव्यवस्था में नयी तकनीक और स्वचालित मशीनों के प्रयोग से पूँजी निवेश स्तर का लगभग 14-15% सालाना की दर से बढ़ा है, जबकि श्रमिकों की संख्या मात्र 1.5% सालाना की दर से बढ़ी है। अब तो श्रमिकों की संख्या बढ़ना बन्द होकर घटने की स्थिति आ गयी है। नतीजे सामने हैं, पिछले दो साल से रिज़र्व बैंक बता रहा है कि अति-उत्पादन (ज़रूरतों से ज़्यादा नहीं, हमारे ख़रीदने की शक्ति से ज़्यादा!) और बाज़ार में घटी माँग की वजह से उद्योग स्थापित क्षमता के 70-72% पर ही काम कर पा रहे हैं। पिछले 1 वर्ष में तो रोज़गार 20 लाख कम हुए हैं। 30 साल पहले जीडीपी 1% बढ़ती थी तो रोज़गार में भी 0.9% इज़ाफ़ा होता था।  लेकिन अब 1% जीडीपी बढ़ने पर मात्र 0.1% रोज़गार ही बढ़ते हैं। स्पष्ट है कि उद्योग में लगी कुल पूँजी के जैविक संघटन में आनुपातिक रूप से श्रम की मात्रा कम होकर स्थाई पूँजी की मात्रा बढ़ती  जा रही है।

किन्तु उद्योगों में स्थाई पूँजी की मात्रा बढ़ते जाने से मार्क्स द्वारा बतायी गयी दूसरी बात भी वास्तविकता में सामने आ रही है। कुल पूँजी पर मुनाफ़े की दर जो 2008 तक बढ़ रही थी और जीडीपी का कुल 7.8% मुनाफ़े तक पहुँच गयी थी, 2008 के आर्थिक संकट के बाद से घटने लगी है और वित्त वर्ष 2016 में कम होकर 3.9% ही थी। इस वर्ष इसके और घटकर जीडीपी का 3% ही रह जाने का अनुमान है। ध्यान दें कि यहाँ मुनाफ़े की कुल रक़म की नहीं, बल्कि मुनाफ़े की दर की बात हो रही है। शेयर बाज़ार में सूचीबद्ध कम्पनियों की कुल पूँजी पर प्राप्त रिटर्न की दर से भी इसकी पुष्टि होती है। इस साल के शुरू में 3 अप्रैल को विश्लेषकों के अनुसार मुम्बई स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध 50 कम्पनियों के शेयरों पर इस वित्तीय वर्ष में 1719 रुपये प्रति शेयर आय का अनुमान था, लेकिन जुलाई आते-आते यह अनुमान कम होकर मात्र 1632 रुपये ही रह गया।

इस प्रकार मार्क्स द्वारा 150 वर्ष पहले पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था के नियमों के विश्लेषण के आधार पर किया गया आकलन भारतीय अर्थव्यवस्था के आज के आर्थिक संकट पर पूरी तरह सटीक बैठता है। बीजेपी हो या कांग्रेस किसी के भी द्वारा पूँजीवादी व्यवस्था के इन मूल नियमों के विपरीत जा पाना नामुमकिन है। हाँ, नीतियों के नाम, ऊपरी स्वरूप, आदि ज़रूर भिन्न हो सकते हैं। आइए, देखते हैं कि कैसे ये नीतियाँ भी मार्क्स के विश्लेषण के अनुसार ही हैं।

जैसा हमने ऊपर चर्चा की, इस संकट का नतीजा होता है पूँजीपतियों के बीच गलाकाट होड़ और कुछ पूँजीपतियों का दिवालिया होकर उनके उद्योगों का बन्द हो जाना या बचे हुए पूँजीपतियों द्वारा ख़रीद लिया जाना। पिछले सालों में बैंकों के कॉरपोरेट क़र्ज़ों में बढ़ते एनपीए या क़र्ज़ डूब जाना। क्षमता के कम उपयोग और बिक्री की दिक़्क़त से कॉरपोरेट क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा आर्थिक संकट का सामना करते हुए अपने क़र्ज़ की किश्त छोड़िए, ब्याज़ तक चुकाने में असमर्थ हो चुका है और लगभग 14 लाख करोड़ रुपये के क़र्ज़ संकट ग्रस्त हैं। इस संकट से निकलने के लिए सरकार एक दिवालिया क़ानून भी लायी है, जिससे या इनकी सम्पत्तियों को बेचकर इन्हें बन्द किया जा सके या दूसरे पूँजीपतियों को बेच दिया जाये। लेकिन इस प्रक्रिया में इन पर क़र्ज़ की मात्रा का सिर्फ़ 10% ही वसूल हो पा रहा है। इससे बैंकिंग सिस्टम को हो रहे घाटे की पूर्ति के लिए सरकार पहले ही 56 हज़ार करोड़ रुपये दे चुकी है तथा अब 2 लाख 11 हज़ार करोड़ रुपये देने का ऐलान किया गया है। यह सब अन्त में बढ़े टैक्सों, बढ़ी क़ीमतों, तरह-तरह के शुल्कों-सेस, बैंकों में जमा पर घटते ब्याज़ और बढ़ते चार्जों, आदि के द्वारा मेहनतकश जनता से ही वसूल किया जाना है।

नोटबन्दी, कैशलेस, डिजिटल, जीएसटी, आदि तमाम नीतियाँ भी छोटे-मध्यम उद्योगों की लागत को बढ़ाकर उन्हें अलाभकारी बनाकर बाज़ार से बाहर करने की प्रक्रिया को ही तेज़ कर रही हैं। बड़े पैमाने पर ऐसे उद्योग तेज़ी से बन्द हो रहे हैं और बाज़ार में इनका हिस्सा बड़े उद्योगों के पास चला जा रहा है। नोटबन्दी के बाद से 50 करोड़ रुपये से कम की सालाना बिक्री वाले इन उद्योगों की बिक्री और मुनाफ़े में लगभग 50% तक की कमी आयी है, जबकि 1000 करोड़ से ज़्यादा बिक्री वाले उद्योगों की बिक्री में पिछले कई सालों के मुक़ाबले अधिक वृद्धि हुई है। इससे मार्क्स द्वारा बताये गये नियम के अनुसार ही इजारेदारी अर्थात अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र में कुछ बड़े पूँजीपतियों द्वारा अपने प्रतिद्वन्द्वियों को बाहर कर एकाधिकार क़ायम करने की प्रवृत्ति-प्रक्रिया में तेज़ी आयी है। हालाँकि इसका नतीजा भी अन्त में बढ़ती बेरोज़गारी के रूप में श्रमिकों को ही झेलना है।

फिर उपाय क्या है?

उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व और मुनाफ़े के लिए उत्पादन की पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में इन समस्याओं का कोई समाधान सम्भव नहीं है। सिर्फ़ उत्पादन के साधनों पर निजी सम्पत्ति को समाप्त कर सामूहिक स्वामित्व में सबके द्वारा श्रम और सामूहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्पादन की समाजवादी व्यवस्था ही उत्पादन की शक्तियों के और ज़्यादा विकास का रास्ता खोल सकती है, क्योंकि तब सभी के लिए भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, चिकित्सा, मनोरंजन, आदि हेतु उत्पादन को इतना बढ़ाने की आवश्यकता होगी कि समस्त वैज्ञानिक तकनीक के बाद भी सबके लिए काम न सिर्फ़ उपलब्ध हो बल्कि अनिवार्य भी। साथ ही सबके लिए काम के घण्टे कम भी किये जा सकेंगे जिससे संस्कृति, साहित्य, कला जैसी चीज़ें भी बस खाये-अघाये मालिक वर्ग की बपौती नहीं रहकर पूरे मानव समाज की सामूहिक उपलब्धि बन सकें। तभी समाज के प्रत्येक व्यक्ति की असली स्वतन्त्रता सम्भव होगी और उसका सम्पूर्ण विकास भी मुमकिन होगा।

मज़दूर बिगुल,अक्‍टूबर-दिसम्‍बर 2017


 

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