काकोरी के शहीदों को याद करो! लोगों को धर्म के नाम पर बाँटने की साज़ि‍शों को नाकाम करो!!

आज से 90 साल पहले 17 दिसम्बर और 19 दिसम्बर 1927 को देश के चार जाँबाज़ युवा आज़ादी के लिए कुर्बान हो गये थे। एच.आर.ए. (हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन) से जुड़े इन नायकों के नाम थे रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक़ उल्ला खान, रोशन सिंह और राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी। भारत के आज़ादी आन्दोलन में ‘काकोरी एक्शन’ एक महत्वपूर्ण घटना है। 9 अगस्त 1925 के दिन 10 नौजवानों ने काकोरी नामक जगह पर चलती रेल रोककर अंग्रेजी खजाने को लूट लिया था। भारत में लूट, शोषण और दमन पर टिके अंग्रेजी साम्राज्य के मुँह पर ‘काकोरी एक्शन’ एक करारा तमाचा था। दमन चक्र के बाद मुकदमें की नौटंकी करके कईयों को कठोर कारावास और चार को फाँसी की सजा सुनाई गयी जबकि चन्द्रशेखर आज़ाद को कभी गिरफ्तार ही नहीं किया जा सका। एच.आर.ए. वही संगठन था जिसकी विरासत को लेकर भगतसिंह और उनके साथी आगे बढ़े और 1928 में उन्होंने एच.एस.आर.ए. (हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन) के रूप में दल को विकसित किया। चन्द्रशेखर आज़ाद इसके ‘कमाण्डर इन चीफ़’ बने।

अंग्रेज अपनी फूट डालो और राज करो की नीतियों के द्वारा हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता को लगातार बढ़ावा दे रहे थे। अनेक राष्ट्रीय नेता अपने साम्प्रदायिक रुझान दिखला रहे थे। इस दौर में तबलीगी जमात, हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसों के नेतृत्व में धर्म के नाम पर लोगों को बाँटने की शुरुआत हो गयी थी। साम्प्रदायिकता की यह राजनीति लाखों निर्दोषों की लाशों पर से होते हुए विभाजन तक पहुँची और आज पहले से भी भयानक रूप में फ़ैलायी जा रही है। उसी समय हमारे ये क्रान्तिकारी अपने जीवन से मिसालें कायम कर रहे थे। ‘गदर’ आन्दोलन के क्रान्तिकारियों की तरह ही ‘एच.आर.ए.’ और ‘एच.एस.आर.ए.’ का भी यह स्पष्ट मानना था कि धर्म एक व्यक्तिगत मसला होना चाहिए और उसका राज्य मशीनरी व राजनीति में इस्तेमाल बिलकुल भी नहीं होना चाहिए।

दोस्तो! आज हमारा समाज एक बड़े बदलाव के मुहाने पर खड़ा है। यही वो हालात होते हैं जब समाज के अन्दर से बिस्मिल, अशफ़ाक, आज़ाद, सराभा और भगतसिंह जैसे नायक पैदा होते हैं। निश्चित तौर पर हमारे वो महान शहीद भी अवतार और मसीहा नहीं बल्कि परिस्थितयों की ही पैदावार थे। जैसा कि भगतसिंह ने कहा है ‘बम और पिस्तौल इन्क़लाब नहीं लाते बल्कि इन्क़लाब की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है।’ आज जनता को जगाने का काम, जातिवाद-साम्प्रदायिकता की आग में झुलस रहे लोगों को असल समस्याओं के प्रति शिक्षित, जागरूक और संगठित करने का काम ही सबसे महत्त्वपूर्ण काम है। जान की बाजी लगाकर जनता के प्रति अपनी सच्ची मोहब्बत सिद्ध कर देने वाले हमारे महान शहीदों को आज की युवा पीढ़ी की यही असल सलामी हो सकती है।

साथियो! इतिहास बताता है कि कोई भी व्यवस्था सनातन नहीं है। हर समाज बदलता है और उसे इंसान ही बदलते हैं। देश के युवाओं को आज तमाम भ्रष्ट चुनावी पार्टियों व धार्मिक कट्टरपन्थी संगठनों का झण्डा धूल में फेंक कर ‘समान शिक्षा-सबको रोजगार’ का झण्डा अपने हाथ में उठा लेना चाहिए। पानी, बिजली, स्वास्थ्य आदि के मुद्दे पर आम जनता को गोलबन्द करना चाहिए। बेहतर विचारों, बेहतर आदर्शों को खुद आत्मसात करना चाहिए व देश के एक-एक इंसान तक पहुँचाने की मुहिम में जुट जाना चाहिए। अपने शहीदों के समता व न्याय पर टिके समाज के सपने को पूरा करने के लिए मैदान में उतर जाने का संकल्प ही शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। क्या आप तैयार हैं?

मज़दूर बिगुल,अक्‍टूबर-दिसम्‍बर 2017


 

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