हम अपना अधिकार माँगते, नहीं किसी से भीख माँगते।
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के हॉस्टल मैस कर्मचारियों का संघर्ष जि़न्दाबाद!

प्रवीन, कुरुक्षेत्र

जैसाकि हमने पिछले अक्टूबर-दिसम्बर 2017 (संयुक्तांक) बिगुल की रि‍पोर्ट थी कि कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अन्दर हॉस्टल मेस कर्मचारी अपनी माँगों को लेकर हर रोज़ रोष प्रदर्शन कर रहे हैं और यह रिपोर्ट लिखने तक भी तमाम उतार-चढ़ाव से होता हुआ हॉस्टल मेस कर्मचारियों का संघर्ष अब भी कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अन्दर चल रहा है। वैसे तो यह हॉस्टल मेस कर्मचारियों का संघर्ष कोई अभी शुरू हुआ संघर्ष नहीं है, मैस कर्मचारी विश्वविद्यालय में पिछले 35-40 साल से लगातार काम कर रहे हैं। इस दौरान सत्ता में तमाम सरकारें आयी और चली गयी लेकिन इन मज़दूरों की जि़न्दगी में कोई बुनियादी फ़र्क़ नहीं आया। 40-40 साल से काम करने वाले ये कर्मचारी आज भी 5-5 हज़ार पर काम करने के लिए मजबूर हैं। इतने सालों के दौरान काम करते-करते बहुत साथियों की मृत्यु भी हो चुकी है और बहुत साथी आज भी यहाँ इतनी कम तनख्वाह पर काम कर रहे हैं। इन मैस कर्मचारियों ने अपनी यूनियन के तहत 2007 में लेबर कोर्ट में केस डाला कि हम इतने दिनों से विश्वविद्यालय में काम कर रहे हैं तो हमें विश्वविद्यालय का कर्मचारी घोषित किया जाये और हमें यहाँ काम पर पक्का किया जाये। अन्ततः 2010 में लेबर कोर्ट ने हॉस्टल मैस कर्मचारियों के हक़ में फ़ैसला सुना दिया। इस फ़ैसले के विरोध में तानाशाह विश्वविद्यालय प्रशासन हाईकोर्ट में इस केस को लेकर गया। विश्वविद्यालय प्रशासन का कहना था कि बैकडोर एण्ट्री के कारण इन्हें विश्वविद्यालय का कर्मचारी घोषित नहीं किया जा सकता। जैसाकि हमें पता है जब भी कोई मेहनतकश वर्ग अपने अधिकार को माँगने के लिए किसी भी प्रकार के कोर्ट में जाता है तो बहुत जल्दी उसकी वहाँ कोई सुनवाई नहीं होती और एक अच्छा-ख़ासा वक़्त बीत जाने के बाद बड़ी मुश्किल से कोर्ट को मेहनतकश लोगों की माँगों की याद आती है। यहाँ भी अपनी परम्परा को बरकरार रखते हुए हाई कोर्ट ने यह केस दोबारा से लेबर कोर्ट को भेजने में 5 साल (2010-15) लगा दिये। लेकिन अन्त में 31 मार्च 2017 को फिर से लेबर कोर्ट ने अपना फ़ैसला हॉस्टल मेस कर्मचारियों के हक़ में दे दिया।

लेकिन अड़ियल और तानाशाह विश्वविद्यालय प्रशासन भी कब अपनी हरक़तों से बाज आने वाला था और ऐसे ही वह अपनी जि़द पर अड़ा हुआ बोलता रहा कि यह हमारे विश्वविद्यालय के कर्मचारी नहीं हैं। ये तो विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों के यहाँ नौकरी करते हैं और उनके नौकर हैं। तो ऐसे में हॉस्टल मैस कर्मचारियों ने विश्वविद्यालय के अड़ियल रवैये के सामने हर रोज़ अपना रोष प्रदर्शन करने की ठान ली। जब यह बात विश्वविद्यालय प्रशासन को पता चली तो वह कोर्ट में स्टे लेने के लिए चला गया ताकि मैस कर्मचारी अपना रोष प्रदर्शन ना कर सकें। लेकिन कोर्ट ने विश्वविद्यालय प्रशासन को स्टे देने से मना कर दिया। अब मैस कर्मचारियों ने लेबर कोर्ट के फ़ैसले को लागू करवाने के लिए अपना रोष प्रदर्शन शुरू कर दिया। इसी समय बीच-बीच में कर्मचारियों ने डीसी एसपी को ज्ञापन देने के माध्यम से अपनी बात विश्वविद्यालय प्रशासन तक पहुँचाने की बार-बार कोशिश की। लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन पर फिर भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। क़ानून के माध्यम से कोई बात न बनती देख हॉस्टल मेस कर्मचारी कुरुक्षेत्र के बीजेपी विधायक सुभाष सुधा के पास भी अपनी माँगों को लेकर गये और उनसे अपील की कि विश्वविद्यालय प्रशासन को बोलकर वह उनकी माँगों को मनवाये। लेकिन बेचारे कर्मचारियों को यह कहाँ पता था कि विश्वविद्यालय प्रशासन और बीजेपी विधायक सुभाष सुधा सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। और हुआ भी यही कि विधायक ने उनको कुछ दिन गुमराह करके रखा और विश्वविद्यालय प्रशासन के हक़ में आन्दोलन को कमजोर करवाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। अब गीता जयन्ती समारोह का समय भी पास आ रहा था। तो विश्वविद्यालय प्रशासन ने कर्मचारियों की तमाम कमजोरियों का फ़ायदा उठाते हुए गीता जयन्ती समारोह ख़त्म होने तक उनसे आन्दोलन बन्द करने की अपील की और उनको चीफ़ वार्डन के माध्यम से झूठा आश्वासन दिलवाया कि जब तक लेबर कोर्ट का फ़ैसला लागू नहीं होता, तब तक उनको डीसी रेट देने पर हम विचार कर रहे हैं। और कहा कि गीता जयन्ती को ख़त्म होने दो, फिर हम साथ बैठकर इन सब माँगों पर विचार करेंगे और जब तक लेबर कोर्ट का फ़ैसला लागू नहीं होता तब तक के लिए डीसी रेट लागू करवा देंगे। विश्वविद्यालय प्रशासन की यह चाल भी कामयाब हो गयी और कर्मचारियों ने अपना आन्दोलन गीता जयन्ती ख़त्म होने तक स्थगित करने का फ़ैसला लिया। विश्वविद्यालय प्रशासन को पता था कि गीता जयन्ती समारोह के बीच में राष्ट्रपति साहब विश्वविद्यालय में आ रहे हैं। इसलिए विश्वविद्यालय प्रशासन के लिए आन्दोलन बन्द करवाना ज़रूरी था, ताकि राष्ट्रपति साहब को यह लगे कि विश्वविद्यालय में सब ठीक-ठाक चल रहा है। एक बार फिर बेचारे भोले-भाले कर्मचारी विश्वविद्यालय प्रशासन के जाल में फँस गये। लेकिन जब गीता जयन्ती समारोह ख़त्म होने के बाद मैस कर्मचारियों ने विश्वविद्यालय प्रशासन से बात करने की कोशिश कि तो विश्वविद्यालय प्रशासन उनसे  बात करने के लिए पहले तो टालमटोल करता रहा। लेकिन जब अन्त में बातचीत हुई तो विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनकी माँगों को मानने से इनकार ही नहीं किया बल्कि उल्टा उनको यह बोलना शुरू कर दिया कि तुम मैस में खाना खाते हो, यहाँ तुम्हें दवाइयाँ मुफ्त मिलती हैं, वर्दी तुमको यहीं से मिलती है। इनको तो छोड़ दीजिए लोहड़ी के अवसर पर दी जाने वाली मूँगफली के पैसे भी जोड़ते हुए उनको बोला गया कि आप यहाँ एक आदमी लगभग 17000 रुपये में पड़ता है। इन सब बातों से ही विश्वविद्यालय का तानाशाह रवैया साफ़ झलकता है कि मज़दूर विरोधी मानसिकता से वह कैसे काम कर रहा है। और सभी श्रम क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाते हुए वह कैसे अपने तानाशाह रवैये पर बना हुआ है। तो ऐसे में हॉस्टल मैस कर्मचारियों की यूनियन ने अपना प्रदर्शन फिर से चालू करने का फ़ैसला किया और 16 जनवरी से अपना प्रदर्शन चालू भी कर दिया और अब तक 25 दिन लगातार प्रदर्शन को करते हो गये हैं। अब विश्वविद्यालय प्रशासन पर कोई दबाव नहीं बनता देख मैस कर्मचारियों ने अनिश्चितकालीन धरना-प्रदर्शन भी शुरू कर दिया गया है जिसके भी 11 दिन बीत चुके हैं। साथियों तमाम नेता-मन्त्री मैस कर्मचारियों के बीच अपना चेहरा चमकाने के लिए आते हैं और मुश्किल से 10-15 मिनट अपनी शक्ल दिखा कर चले जाते हैं। जैसा कि पता चलता है उनकी माँगों को मनवाने के लिए इनमें से कोई भी विश्वविद्यालय प्रशासन पर दबाव बनाने की कोशिश नहीं करता बल्कि सिर्फ़ यह अपनी वोट बैंक की राजनीति करने के लिए मज़दूरों के बीच आते हैं। अब सवाल यह उठता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन के तानाशाह रवैये को तोड़ने के लिए हॉस्टल मैस कर्मचारी क्या करें। ऐसे में मैस कर्मचारी अपनी माँगों को मनवाने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन पर तभी दबाव बना सकते हैं। जब वह विश्वविद्यालय के अन्दर पढ़ने वाले छात्रों के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से को अपने समर्थन में लेने में कामयाब होते हैं। हालाँकि यह काम इतना आसान नहीं है। लेकिन मैस कर्मचारियों के बीच विश्वविद्यालय से जो भी छात्र संगठन समर्थन देने आ रहे हैं उनको साथ लेकर विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं के बीच जाया जा सकता है। और यह काम एक-दो दिन मैं नहीं बल्कि बार-बार पर्चों के माध्यम से, नुक्कड़ सभाओं के माध्यम से टोलियाँ बना करके करना होगा। तभी  छात्रों के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से को अपनी तरफ़ खड़ा किया जा सकता है। और अपनी माँगों को मनवाने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन पर दबाव बनाया जा सकता है।

 

 

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2018


 

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