बढ़ते घपले-घोटाले और पूँजीवाद

 कविता कृष्णपल्लवी

घोटालों ने आज़ाद भारत के सभी रिकार्ड ध्वस्त कर दिये। पी.एन.बी. घोटाला , रफ़ाएल डील घोटाला, सृजन घोटाला, आई.पी.एल. घोटाला, शौचालय घोटाला, व्यापम घोटाला, मेडिकल घोटाला (जिसमें उँगली सीधे सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की ओर उठी थी)… – और ये सभी घोटाले तो हिमखण्ड का ऊपर दिखायी देने वाला सिरा मात्र है। जब सारी जाँच एजेंसियाँ जेब में हों और मीडिया पूँजी और उसकी मैनेजिंग कमेटी (सरकार) के दरवाज़े पर बैठी हुई कुतिया जैसा हो गया हो, तो सतह के नीचे छिपे तमाम घोटालों के सामने आने की उम्मीद कोई बेहद मासूम आदमी करेगा या परले सिरे का उल्लू।

लेकिन हम फिर ज़ोर देकर इस बात को कहना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद एक कपोल-कल्पना है। पूँजीवाद अपने आप में एक “मान्यता-प्राप्त” भ्रष्टाचार है। “हर सम्पत्ति-साम्राज्य अपराध की बुनियाद पर खड़ा होता है”(बाल्ज़ाक)। पूँजी श्रम-शक्ति की क़ानूनी लूट है। जहाँ क़ानूनी लूट होगी वहाँ अवैध लूट भी होगी। जहाँ “सफ़ेद पैसा” होगा, वहाँ काला पैसा भी होगा। दरअसल पूँजीवाद में सफ़ेद और काले धन का कोई अन्तर होता ही नहीं। एक हज़ार एक रास्तों से सफ़ेद धन काला और काला धन सफ़ेद होता रहता है। काले-सफ़ेद के खेल में लगे खिलाड़ी जब उस सीमा तक चले जाते हैं कि “खेल के नियमों” को तोड़कर खेल ही बिगाड़ने लगते हैं तो व्यवस्था के नियामक आगे आते हैं और कुछ खिलाड़ियों को मैदान से बाहर निकालकर खेल को फिर से व्यवस्थित किया जाता है। ऐसे ही समय में कुछ “सदाचार के मसीहा” सुथराजी लोग भी नायक बनकर आगे आते हैं और इस व्यवस्था के दामन पर लगी गन्दगी को तरह-तरह के डिटर्जेन्ट से धोकर साफ़ करते हैं और लोगों में यह उम्मीद पैदा करते हैं कि कुछ भ्रष्टाचारी व्यक्तियों को किनारे लगाकर पूँजीवादी व्यवस्था को कल्याणकारी और भ्रष्टाचार-मुक्त बनाया जा सकता है।

पूँजीवादी व्यवस्था जैसे-जैसे संकटग्रस्त और पतनोन्मुख होती जाती है, वैसे-वैसे भ्रष्टाचार और अवैध लूट बढ़ती चली जाती है। आज यही हो रहा है। जितने घोटाले घूस, ग़बन, कमीशनखोरी और वित्त-बाज़ार की जालसाज़ियों के रूप में हो रहे हैं, उससे सैकड़ों और हज़ारगुना बड़ा घोटाला तो यह है कि जनता की गाढ़ी कमाई से खड़ी की गयी सार्वजनिक परिसम्पत्तियाँ कौड़ियों के मोल निजी पूँजीपतियों को सौंपी जा रही हैं, खदानें, ज़मीनें, जंगल और नदियाँ तक मिट्टी के मोल पूँजीपतियों को मुनाफ़ा कूटने के लिए नीलाम की जा रही हैं और सालाना लाखों परिवारों को बलपूर्वक उनकी जगह-ज़मीन से दर-बदर किया जा रहा है। निजीकरण-उदारीकरण की मुहिम का मतलब ही है कि पूँजीवादी शोषण अब डाकेज़नी की शक्ल अख्तियार कर चुका है। नवउदारवाद के दौर में हड्डियाँ निचोड़ने वाले शोषण, मज़दूरों के अधिकारों में अधिकतम सीमा तक कटौती,पूँजी के अत्यधिक वित्तीयकरण, पूँजी की सेवा के लिए सरकारों की बढ़ती निरंकुशता, फासीवादी उभार और पूँजीपतियों की चरम प्रतिस्पर्धा की स्थिति में भ्रष्टाचार का घटाटोप – ये सभी चीज़ें लाज़िमी तौर पर एक साथ सामने आ रही हैं।

भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई यदि पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ाई का अंग नहीं है, तो वास्तव में उसका कोई मतलब ही नहीं है। हमें भ्रष्टाचार के इन उदाहरणों से जनता को यह बताना होगा कि आज का पूँजीवाद ऐसा ही हो सकता है और भ्रष्टाचार से निजात पाने का अकेला रास्ता है – पूँजीवाद से निजात पाना।

अन्त में, जो लोग एक भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवादी जनवाद के ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ आज भी देखते रहते हैं, उनके लिए हम लगभग सवा सौ साल पहले एंगेल्स और सौ साल पहले लेनिन द्वारा कही गयी बातों का हवाला देना चाहते हैं। इन दोनों उद्धरणों पर ग़ौर कीजिये :

‘’जनवादी गणराज्य (डेमोक्रेटिक रिपब्लिक) आधिकारिक तौर पर (नागरिकों के बीच) सम्पत्ति में अन्तर का कोई ख़याल नहीं करता। उसमें धन-दौलत परोक्ष रूप से, पर और भी ज़्यादा सुनिश्चित ढंग से, अपना असर डालती है। एक तो सीधे-सीधे राज्य के अधिकारियों के भ्रष्टाचार के रूप में, जिसका क्लासिकी उदाहरण अमेरिका है; दूसरे, सरकार तथा स्टॉक एक्सचेंज के गठबंधन के रूप में।’’

फ्रेडरिक एंगेल्स: ‘परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति’

‘’जनवादी गणराज्य ‘’तार्किक तौर पर’’ पूँजीवाद से विरोध रखता है, क्योंकि ‘’आधिकारिक तौर पर’’ यह धनी और गरीब दोनों को बराबरी पर रखता है। यह आर्थिक व्यवस्था और राजनीतिक अधिरचना के बीच का अन्तरविरोध है। साम्राज्यवाद और गणराज्य के बीच भी यही अन्तरविरोध होता है, जो इस तथ्य के द्वारा गहरा या गम्भीर हो जाता है कि स्वतंत्र प्रतियोगिता से इजारेदारी में संक्रमण राजनीतिक स्वतंत्रताओं की सिद्धि को और भी अधिक ‘’कठिन’’ बना देता है। तब, फिर पूँजीवाद जनवाद के साथ सामंजस्य कैसे स्थापित करता है? पूँजी की सर्वशक्तिमानता के परोक्ष अमल के द्वारा। इसके दो आर्थिक साधन होते हैं: (1) प्रत्यक्ष रूप से घूस देना; (2) सरकार और स्टॉक एक्सचेंज का गठजोड़। (यह हमारी प्रस्थापनाओं में बताया गया है – एक बुर्ज़ुआ व्यवस्था के अन्तर्गत वित्त पूँजी ‘’किसी सरकार और किसी अधिकारी को बेरोकटोक घूस दे सकती है और खरीद सकती है।’’) एक बार जब माल उत्पादन की, बुर्ज़ुआ वर्ग की और पैसे की ताकत की प्रभुत्वशील हैसियत बन जाती है – सरकार के किसी भी रूप के अन्तर्गत और जनवाद के किसी भी किस्म के अन्तर्गत – (सीधे या स्टॉक एक्सचेंज के जरिए) घूस देना ‘’सम्भव’’ हो जाता है। तब यह पूछा जा सकता है कि पूँजीवाद के साम्राज्यवाद की अवस्था में पहुँचने, यानी प्राक्-एकाधिकारी पूँजी का स्थान एकाधिकारी पूँजी द्वारा ले लेने बाद, इस सम्बन्ध में कौन सी चीज़ बदल जाती है? सिर्फ यह कि स्टॉक-एक्सचेंज की ताक़त बढ़ जाती है। क्योंकि वित्त पूँजी औद्योगिक पूँजी का उच्चतम, एकाधिकारी स्तर होती है, जो बैंकिंग पूँजी के साथ मिल गयी होती है। बड़े बैंक स्टॉक एक्सचेंज के साथ विलय कर गये हैं या उसे अवशोषित कर चुके हैं। (साम्राज्यवाद पर उपलब्ध साहित्य स्टॉक एक्सचेंज की घटती भूमिका के बारे में बात करता है, लेकिन केवल इस अर्थ में कि हर दैत्याकार बैंक वस्तुत: अपने आप में एक स्टॉक एक्सचेंज है।)’’

व्ला.. लेनिन: ‘मार्क्सवाद का विकृत रूप और साम्राज्यवादी अर्थवाद’

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2018


 

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