सरकारी आँकड़ों की हवाबाज़ी और अर्थव्यवस्था की ख़स्ताहाल असलियत

मुकेश असीम

पिछले वर्षों में बीजेपी सरकार के मंत्रियों-अफसरों और उनके नजदीकी अर्थशास्त्रियों द्वारा हर कुछ महीनों बाद यह दावा बारम्बार दोहराया जाता रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में बाजार माँग से अधिक उत्पादन का संकट अब हल होने लगा है और चारों ओर वृद्धि व विकास की ‘हरी कोंपलें’ निकलती नजर आने लगी हैं। पिछले दिनों एक बार फिर से यही बात रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय द्वारा इस आधार पर कही गयी है कि उद्योगों की स्थापित क्षमता का प्रयोग, जो कई साल से औसतन 70-72% के दायरे के आस-पास चल रहा था, अब वह बढ़कर लगभग 74% हो गया है। उनके अनुसार इसका निष्कर्ष है कि कुल बाजार माँग में वृद्धि हो रही है जिससे औद्योगिक विकास होगा तथा नये रोज़गार सृजित होंगे।

लेकिन इसका विश्लेषण करते हुए हम यहाँ दिखायेंगे कि पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था के चारित्रिक अति-उत्पादन के संकट की तर्ज़ पर ही वर्तमान संकट का यह ‘समाधान’ भी स्थापित उद्योगों में बड़ी तादाद में दिवालियेपन द्वारा ही हो रहा है। उद्योगों के एक हिस्से के बन्द होकर कबाड़ में तब्दील होने और उत्पादक शक्ति के विनाश से बचे हुए उद्योगों को एक तात्कालिक राहत की साँस मिल जाती है। लेकिन उद्योगों को मिल रही यह राहत की साँस दिवालिया हुए उद्योगों के श्रमिकों को भारी तादाद में बेरोज़गारी, कंगाली और भूख की ज़िन्दगी की ओर धकेल देने की बड़ी कीमत चुकाकर प्राप्त हो रही है। अतः इससे बाजार में माँग के संकट का कोई समाधान होने वाला नहीं। यह राहत की साँस अस्थाई व बहुत संक्षिप्त समय के लिए है। उसके बाद यह और गहन, और जानलेवा विपत्ति को जन्म देगी।

पिछले कुछ वर्षों के इतिहास को देखें तो बाजार में माँग के संकट की वजह से उद्योगों के स्थापित क्षमता से कम पर काम कर पाने से उनकी लाभप्रदता में गिरावट हुई है। इससे बहुत सारे उद्योग उत्पादन क्षमता के विस्तार हेतु निवेश की गयी स्थाई पूँजी की बड़ी मात्रा पर ऋणदाताओं की मूल देनदारी ही नहीं उस पर ब्याज तक चुकाने में असमर्थ हो गए हैं। इसका नतीजा बैंकों द्वारा दिए गए कर्जों की वसूली में संकट और कर्ज के डूब जाने में सामने आया। लगभग 12-14 लाख करोड़ रुपये के बैंक कर्ज इस तरह दबाव में आ गए। लगभग 9 लाख करोड़ अभी एनपीए हैं जबकि बीजेपी सरकार के पहले साढ़े तीन वर्षों में ही करीब पौने तीन लाख के कर्ज बैंकों को बट्टे खाते में (राइट ऑफ़) डालने पड़े। इस संख्या में भी इसका ब्याज शामिल नहीं है। इससे बैंकों पर भी पूँजी का संकट पैदा हुआ और सरकार द्वारा आम मेहनतकश जनता पर बढ़ाये गए करों, डीजल-पेट्रोल-बिजली के दामों में वृद्धि, शिक्षा-स्वास्थ्य, आदि कल्याण कार्यक्रमों में खर्च से कटौती कर जुटाई गयी रकम से लाखों करोड़ रूपयों की पूँजी बैंकों को जीवित रखने के लिए उनमें डालनी पड़ी।

दिवालिया कानून

उद्योग और बैंकों दोनों में आये इस संकट से निपटने हेतु बीजेपी सरकार एक नया दिवालिया कानून लेकर आयी और उसके लिए नई अदालतें स्थापित की गयीं। बताया गया कि इससे संकटग्रस्त उद्योगों को नये अधिक पूँजी व प्रभावी प्रबंधन वाले मालिकाने में हस्तांतरित करने से पुनर्जीवन मिलेगा, पूँजी का बेहतर प्रयोग होगा और उद्योगों के पुनर्जीवन से श्रमिकों के रोज़गार भी सुरक्षित होंगे। पर नतीजा क्या हुआ? अब तक जो कर्जदार कम्पनियाँ इन नई अदालतों में पुनर्जीवन के लिए भेजी गयीं हैं उनमें से इलेक्ट्रो स्टील या बिनानी सीमेंट जैसे कुछ गिने-चुने ही हैं जिनके लिए उनमें लगी कुल पूँजी तो दूर रही, सिर्फ बैंकों के बकाया कर्ज की राशि से भी बहुत कम अर्थात लगभग औने-पौने दामों पर कुछ खरीदार प्राप्त हुए हैं, और उनके पुनर्जीवन की कोई संभावना अभी भी शेष है, यद्यपि उसमें भी अभी क़ानूनी विवादों के लम्बे चलने की शंका बनी हुई है। शेष अधिकांश ऋणग्रस्त उद्योग इन दामों पर भी कोई खरीदार नहीं पा रहे हैं और उनकी ज़मीन, इमारतों, मशीनों, लेनदारियों को कबाड़ के दामों पर बेचकर उन्हें कब्र में अंतिम रूप से दफना देने का काम फ़िलहाल जारी है। इकोनॉमिक टाइम्स की 20 अप्रैल की रिपोर्ट के अनुसार दिवालिया अदालत में गयी कम्पनियों में से 81 को अब तक ऐसे ही कबाड़-भंगार में बेचकर बन्द किया जा चुका है तथा और 100 से अधिक इसी कगार पर पहुँच चुकी हैं। दूसरी ओर, अब तक एक ऋणदाता कम्पनी का भी पुनर्जीवन अंतिम मंज़िल तक नहीं पहुँच पाया है। अभी ऐसी और जो कम्पनियाँ भी दिवालिया अदालत में हैं, अब तक के तजुर्बे से उनके परिणाम का भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है।  

पर यह सब किस कीमत पर हो रहा है? एक कम्पनी आलोक इंडस्ट्रीज का उदाहरण लेते हैं। लगभग 12 हज़ार नियमित कर्मचारियों सहित 18 हज़ार कुल कर्मियों वाली इस कम्पनी पर बैंकों का 29500 करोड़ रुपया बकाया था। साथ ही इसके दो लाख शेयरधारकों की पूँजी भी लगी थी। अनुमानतः कुल पूँजी कम से कम साठ-सत्तर हज़ार करोड़ रही होगी। पर कई प्रयासों के बाद इसके लिए रिलायंस व जेएम फाइनैंशल ने 5050 करोड़ रुपये की अधिकतम बोली लगाई जिसे ऋणदाता बैंकों ने स्वीकार नहीं किया। अब दिवालिया कानून में समाधान की 270 दिन की निश्चित अवधि 14 अप्रैल को पूरी हो चुकी है और इस कम्पनी की सम्पत्तियों को भंगार में बेचकर अब इसे कब्र में दफना दिया जायेगा, तथा इसके 18 हज़ार श्रमिक बेरोज़गार हो जायेंगे। श्रमिकों के शोषण की झलक पाने के लिए यह तथ्य भी जानने लायक है कि इतनी बड़ी कम्पनी का 18 हज़ार कर्मियों पर सालाना खर्च 283 करोड़ ही था – औसतन 1.45 लाख सालाना; इसमें से भी प्रबन्धकों को निकाल दें तो शेष श्रमिकों को दिये जाने वाले मामूली वेतन की कल्पना की जा सकती है। पर पूँजीवादी व्यवस्था और उसकी मैनेजिंग कमेटी मोदी सरकार द्वारा दिये गये ‘समाधान’ ने इन 18 हज़ार श्रमिकों, उनके परिवारों तथा इनके सहारे चलने वाले छोटे काम-धंधे वालों से जीवन का वह सहारा भी छीन लिया है। साथ ही इस कम्पनी को माल सप्लाई करने वाले कई लघु उद्योगों में जिनकी नौकरी चली जाएगी, वह गिनती हमें मालूम नहीं। इसी तरह की और सब बन्द हो रही कम्पनियों के कितने श्रमिक अपनी जीविका खो चुके हैं या खोने जा रहे हैं, उसकी तादाद बहुत बड़ी है।  

गहराता ऋण संकट

लेकिन क्या इससे ऋण संकट की स्थिति में कोई सुधार आ रहा है? इकरा और क्रिसिल दोनों प्रमुख भारतीय रेटिंग एजेंसियों के अनुसार बैंकों के कर्ज़ डूबने का सिलसिला अभी और तेज होगा, इस संकट का शिखर अभी दूर है! कुल एनपीए बैंकों द्वारा दिए कुल कर्ज़ के साढ़े 11% तक पहुँचने का अनुमान है। तीसरी कम्पनी केयर रेटिंग्स ने 31 मार्च 2017 को 20 लाख करोड़ रुपये का कुल कर्ज़ वाली 2314 कम्पनियों का एक विश्लेषण किया है। इसके अनुसार 4.78 लाख करोड़ कर्ज़ अर्थात कुल कर्ज़ का 24% वाली 578 कम्पनियों का अप्रैल-दिसंबर 2017 की अवधि का ब्याज कवरेज अनुपात 1 से कम था अर्थात इनका कुल मुनाफ़ा इनकी ब्याज की देनदारी से भी कम था। आसानी से समझा जा सकता है कि इनमें से ज्यादा के कर्ज़ के डूब जाने की पूरी सम्भावना है। साथ ही बैंकों में बहुत सारा छिपा एनपीए भी मौजूद है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की स्थिति तो अधिक स्पष्ट है लेकिन बेहतर मीडिया प्रबन्धन वाले निजी बैंकों में भारी छिपा एनपीए सामने आ रहा है। रिज़र्व बैंक की ऑडिट में पाया गया है कि एचडीएफसी, आईसीआईसीआई, यस बैंक, कोटक महिंद्रा और इंडस इंड बैंक सभी में पाया गया है कि पिछले दोनों वर्षों में इन्होंने गलत खाते दर्शाकर अपने एनपीए छिपाये थे और इनकी वास्तविक मात्रा कुछ मामलों में तो घोषित मात्रा के दोगुनी तक पायी गयी। इससे भी स्पष्ट है कि डूबे कर्ज़ की समस्या सिर्फ सार्वजनिक बैंकों की नहीं बल्कि पूरी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के संकट का परिणाम है। स्थिति इतनी विकट है कि कुछ मामलों में तो रिज़र्व बैंक ने बैंकों को यह भी छूट दी है कि वे अपना पूरा घाटा एक साथ घोषित न करें, बल्कि उसे चार तिमाहियों में समायोजित कर दिखायें।

निवेश कहाँ से आये?

दिवालिया कानून की प्रक्रिया से इन कम्पनियों का पुनरुद्धार क्यों सम्भव नहीं हो रहा है, इसके लिए अभी की आर्थिक स्थिति में निवेश के माहौल को समझना आवश्यक है। सेंटर फ़ॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार मार्च 2018 में ख़त्म वित्तीय वर्ष में विभिन्न कम्पनियों द्वारा 7 लाख 63 हज़ार करोड़ रुपये की पूँजी निवेश वाली पूर्व योजनाओं के प्रोजेक्ट रद्दी की टोकरी में डाल दिये गये; इनमें से 40% अर्थात 3 लाख 33 हज़ार करोड़ तो अंतिम 3 महीने में ही रद्द हुए। अगर अर्थव्यवस्था में वृद्धि की ‘हरी कोंपलें’ उगती नजर आ रही हैं तो ऐसा क्यों? क्यूजे़ड डॉट कॉम में प्रकाशित इंडिया रेटिंग्स के मुख्य अर्थशास्त्री देवेंद्र पंत के बयान के अनुसार ‘कुछ वर्ष पहले तक प्रोजेक्ट में देरी की वजह सही समय पर नियामकों की अनुमति न मिलना था। पर अब पूर्व निर्धारित प्रोजेक्ट इसलिए रद्द किये जा रहे हैं क्योंकि धीमी आर्थिक वृद्धि के कारण बाज़ार में माँग का अभाव है।’ अर्थात मोदी के ‘ईज़ ऑफ़ डूइंग बिजनेस’ में पूँजीपतियों को श्रम क़ानूनों सहित सभी तरह के नियम-कायदों में दी जा रही तमाम ढील के बावजूद माँग की कमी के चलते नया निवेश ठप है, खास तौर पर स्टील और विद्युत क्षेत्रों की कम्पनियों पर भारी दबाव है। वैसे भी कम लागत पर अधिकतम उत्पादन के लिए स्थाई पूँजी में भारी निवेश की पूँजीवादी प्रतियोगिता के कारण भारतीय कॉर्पोरेट क्षेत्र का कर्ज़ पिछले वर्षों के मुकाबले अपने सर्वोच्च स्तर पर है जिसे चुकाने की क्षमता गिरती लाभप्रदता की वजह से प्रभावित है। पूर्व निर्धारित निवेश योजनाओं को रद्द करती कम्पनियाँ संकटग्रस्त कम्पनियों के पुनरुद्धार में रुचि कैसे ले सकती हैं?

बढ़ती बेरोज़गारी

इस आर्थिक स्थिति का ही परिणाम है कि कुछ वर्ष पहले तक जहाँ हम रोज़गार सृजन की गिरती दर की चर्चा कर रहे थे वहाँ अब वास्तविक स्थिति कुल रोज़गार की गिरती संख्या में परिवर्तित हो चुकी है।  रिज़र्व बैंक और KLEMS ने संयुक्त रूप से 2015-16 तक का रोज़गार डाटा 27 मार्च 2018 को जारी किया है। इसके अनुसार 2012-13, 2014-15 और 2015-16 अर्थात अंतिम 4 में से 3 वर्षों में देश में कुल रोज़गार की तादाद घटी है। 2016 के ही पाँचवे रोज़गार सर्वेक्षण के अनुसार देश में सिर्फ 60% लोग ही ऐसे थे जो साल भर रोज़गार पा सके थे। 40% अर्थात हर 5 में से 2 तलाश के बावजूद आंशिक रोज़गार पा सके थे या बिल्कुल नहीं। इसकी मुख्य वजह है कि कृषि में स्थाई पूँजी में निवेश (यंत्रीकरण, विद्युतीकरण) बढ़ने से उसमें 2005-06 से ही श्रम शक्ति की जरुरत अर्थात कुल रोज़गार की तादाद निरंतर कम हो रही है। लेकिन कुछ वर्षों तक कृषि से फालतू हुए श्रमिक उद्योग या सेवा क्षेत्र, खास तौर पर निर्माण क्षेत्र, में खप जा रहे थे हालांकि इन क्षेत्रों में मिलने वाली मजदूरी बमुश्किल जीने लायक थी। लेकिन अब उद्योग-सेवा क्षेत्र भी इतने नये रोज़गार सृजित नहीं कर रहे कि कृषि से अतिरिक्त हुए श्रमिकों को खपा सकें। उपरोक्त वर्षों में रोज़गार में यह गिरावट तब थी जब अर्थव्यवस्था में तेज वृद्धि बताई जा रही थी। इसके बाद के दो सालों में तो नोटबंदी और जीएसटी के असर से बड़ी मात्रा में निर्माण, उद्योग, सेवा क्षेत्रों में करोड़ों नौकरियां कम होने की बात पहले ही जगजाहिर है।

साथ ही बेरोज़गारों की भारी फ़ौज के चलते माँग और पूर्ति के नियम से श्रम शक्ति का बाजार मूल्य भी गिरा है। अभी जो रोज़गार हैं भी वे स्थाई नहीं बल्कि उससे 50-60% कम मजदूरी वाले ठेका/अस्थाई रोज़गार हैं। 22 मार्च की मिंट की रिपोर्ट के अनुसार 1997-98 में संगठित क्षेत्र के विनिर्माण उद्योग में सिर्फ 16% ठेका श्रमिक थे, 2014-15 में 35% हो गए, अब मोदी सरकार ने तो इसको और जोर से बढ़ावा देना शुरू किया है। अर्थात इन 17 वर्षों में तमाम तेज वृद्धि के दावों के बीच नियमित श्रमिकों की तादाद में सिर्फ आधा प्रतिशत सालाना वृद्धि हुई। कुछ उद्योगों में तो अब ठेका श्रमिक आधे से भी ज्यादा हैं। वजह – ठेका श्रमिकों को नियमित श्रमिकों से औसतन 60% कम मजदूरी दी जाती है।

साफ़ है कि इस स्थिति में उपभोग माँग और उत्पादक शक्तियों में निवेश माँग के दोनों स्रोतों के विस्तार की सम्भावनाएँ बहुत कम हैं। इससे हम समझ सकते हैं कि पूँजीवाद के अनिवार्य परिणाम ‘अति-उत्पादन’ के संकट ने उद्योग के एक बड़े हिस्से को दिवालिया कर उसमें लगी स्थाई पूँजी (उत्पादक शक्ति या क्षमता) को नष्ट कर दिया है, जिससे शेष जीवित बचे पूँजीपतियों को एक तात्कालिक जीवनदान मिला है और उनकी स्थापित उत्पादन क्षमता का प्रयोग थोड़ा बढ़ सकता है। इसे ही पूँजीवादी ‘अर्थशास्त्री’ वृद्धि की ‘हरी कोंपलें’ बता रहे हैं। किन्तु इसका नतीजा बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी है। फिर, यह तात्कालिक राहत की साँस संकट के मूल कारण को समाप्त नहीं करती। पूँजीवाद के आर्थिक नियम से शेष पूँजीपतियों के बीच भी श्रमिकों को कम कर स्थाई पूँजी में अधिक निवेश की यह प्रवृत्ति काम करती ही रहेगी। इसलिए बाजार माँग से अधिक उत्पादन का संकट इससे हल होने वाला नहीं है बल्कि यह शीघ्र ही संकट के एक नये, और भी गहन व मरणांतक दौर को जन्म देगा।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2018


 

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