साल-दर-साल बाढ़ की तबाही : महज़ प्राकृतिक आपदा नहीं मुनाफ़ाखोर पूँजीवादी व्यवस्था का कहर!

सत्यम

केरल की साढ़े तीन करोड़ जनता इस समय भयंकर विनाशकारी बाढ़ की तबाही झेल रही है। इसे पिछले 70 वर्षों की सबसे विनाशकारी बाढ़ बताया जा रहा है। यह लेख लिखे जाने तक बाढ़ के कारण राज्य में कम-से-कम 350 लोगों की जान जा चुकी है और 20,000 करोड़ से ज़्यादा की सम्पत्ति का नुक़सान हुआ है। राज्य के कई ज़िले लगभग पूरी तरह जलमग्न हैं। लाखों लोग घरों से दरबदर हो गये हैं और करीब दो लाख लोग राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं। इस तबाही से उबरने में केरल को लम्बा समय लगेगा। बाढ़ का पानी उतरने के बाद बड़े पैमाने पर बीमारियाँ फैलने का भी ख़तरा रहेगा। लाखों लोगों के घर और आजीविका के साधन बर्बाद हो गये हैं। हमेशा की तरह, इस विनाशलीला की सबसे बुरी मार ग़रीबों और मेहनतकशों पर ही पड़ेगी।

इस दौरान देश में लगातार तबाही मचा रही नफ़रत की बाढ़ भी अपने सबसे गन्दे रूपों में सामने आयी है। जिस समय केरल के लोगों को पूरे देश की मदद और साथ की ज़रूरत है, उसी समय सोशल मीडिया पर ऐसे घिनौने अभियान चलाये गये जिनमें लोगों से कहा गया कि वे केरल में मदद न भेजें। इसके तरह-तरह के कारण गिनाये गये – किसी में कहा गया कि वहाँ आधे से ज़्यादा मुस्लिम और ईसाई रहते हैं, तो किसी में कहा गया कि बाढ़ इसलिए आयी, क्योंकि सबरीमाला देवस्थान में स्त्रियों के प्रवेश के लिए आन्दोलन चलाया गया था। इनके पीछे कौन लोग हैं, इसे अब हर कोई समझता है। बाक़ायदा संगठित तरीक़े से चलाये गये अभियानों के तहत देश में करोड़ों लोगों के पास ऐसे व्हाट्सऐप मैसेज भेजे गये और फ़ेसबुक व ट्विटर पर हज़ारों पोस्ट किये गये। नरेन्द्र मोदी के एक-एक वाक्य और अदाओं पर घण्टों चर्चा करने वाले दर्जनों टीवी चैनलों के लिए कई दिनों तक यह कोई ख़बर ही नहीं थी। इन लोगों को सीधा संकेत ख़ुद देश की सरकार से मिल रहा था। मोदी सरकार के प्रचार पर 4300 करोड़ ख़र्च करने और मूर्तियों पर हज़ारों करोड़ ख़र्च करने वाली केन्द्र सरकार ने पहले तो केरल को सिर्फ़ 100 करोड़ की सहायता दी; फिर जब चौतरफ़ा आलोचना होने लगी तो 500 करोड़ की सहायता की घोषणा की गयी। लेकिन जिस स्तर की तबाही मची है, उसे देखते हुए यह राशि भी बेहद मामूली है।

केरल की मेहनतकश जनता के प्रयासों और देशभर के इंसाफ़पसन्द लोगों की मदद से केरल अन्तत: इस तबाही से उबर जायेगा, हालाँकि इसके दाग़ लम्बे समय तक बने रहेंगे। लेकिन भारत में बाढ़ की यह विनाशलीला पहली बार नहीं हुई है, और न ही यह आख़िरी बार होगी। हर साल देश का कोई-न-कोई हिस्सा बाढ़ का प्रकोप झेलता है। जुलाई और अगस्त के महीने बाढ़ के महीने होते हैं। हर साल सैकड़ों या हज़ारों लोगों की जान जाती है, लाखों विस्थापित होते हैं और खरबों की सम्पत्ति और संसाधन नष्ट होते हैं। लाखों हेक्टेयर की फ़सलें बर्बाद हो जाती हैं। न जाने कितने ग़रीब परिवार इस तबाही से सारी ज़िन्दगी नहीं उबर पाते हैं। असंख्य ग़रीब क़र्ज़ों के बोझ तले दब जाते हैं।

आज़ादी के बाद के 71 वर्षों के दौरान बाढ़ के नाम पर खरबों रुपये की लूट भले ही हुई हो, लेकिन इसकी तबाही कम करने और लोगों के जान-माल के बचाव के वास्तविक इन्तज़ाम बहुत कम हुए हैं। शुरू में नदियों के किनारे तटबन्ध बनाये जाने से नदी किनारे के इलाक़ों में बाढ़ का ताण्डव कुछ कम हुआ लेकिन बेलगाम पूँजीवादी विकास के कारण कुछ ही वर्षों में बाढ़ पहले से भी ज़्यादा भयंकर होकर तबाही मचाने लगी। जंगलों की अन्धाधुन्ध कटाई, नदियों के किनारे बेरोकटोक होने वाले निर्माण-कार्यों, गाद इकट्ठा होने से नदियों के उथला होते जाने, बरसाती पानी की निकासी के क़ुदरती रास्तों के बन्द होने, शहरी नालों आदि को पाट देने जैसे अनेक कारणों ने न केवल बाढ़ की बारम्बारता बढ़ा दी है, बल्कि शहरों में होने वाली तबाही को पहले से कई गुना बढ़ा दिया है। पूँजीवादी विकास की अन्धी दौड़ के चलते अब शहर भी बाढ़ों से बचे नहीं रहते। पहले की तरह अब बाढ़ सिर्फ़ गाँवों में ही नहीं आती बल्कि शहरों को भी अपनी चपेट में ले लेती है। पूँजीवाद गाँव और शहर के बीच के भेद को इसी तरह मिटाता है!

सच तो यह है कि बाढ़ के आने का पता बहुत पहले से ही चल जाता है, लेकिन इसके नुक़सान को रोकने और बाढ़ आने के पहले लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाने का कोई इन्तज़ाम नहीं किया जाता है। दरअसल इन सत्तर सालों में बाढ़ का अपना अर्थशास्त्र और अपनी राजनीति विकसित हुई है जिसका करोड़ों बाढ़ पीड़ितों की मदद और बचाव से कोई लेना-देना नहीं होता। हर साल बाढ़ के आने के साथ ही हवाई दौरों का सिलसिला शुरू होता है, आरोपों-प्रत्यारोपों की राजनीति शुरू होती है, अरबों-खरबों के बजट की मारा-मारी मचती है, अपनी-अपनी रोटी सेंकने के लिए चुनावी राजनीति के तमाम खिलाड़ी मैदान में कूद पड़ते हैं। अगर बाढ़ का पूर्वानुमान लगने पर इसके प्रभाव को नियन्त्रित कर लिया जाये और जान-माल की होने वाली हानि को रोक दिया जाये तो वह अरबों रुपये की रक़म तमाम मन्त्रियों और नौकरशाहों की और साथ ही स्वयंसेवी संगठनों और ठेकेदारों की जेबें गर्म नहीं कर पायेगी। बाढ़ की पूरी राजनीति चुनावों में काफ़ी काम आती है। सुपर कम्प्यूटरों और उपग्रहों से युक्त मौसम के पूर्वानुमान की बेहद उन्नत तकनीक आज मौजूद है जिससे आने वाली भीषण वर्षा या तूफ़ान के संकेत कुछ दिन पहले ही मिल जाते हैं। बाढ़ के फैलाव को रोकने की समझ, विशेषज्ञता और तकनीक आज मानवता के पास है। लेकिन इस पर अमल करने के बजाय इन्तज़ार किया जाता है कि हर साल बाढ़ आये, लोग डूबें, बर्बाद हों, बेघर हों, फ़सलें नष्ट हों, फिर तमाम चुनावी घड़ियाल उस पर आकर आँसू बहायें, स्वयंसेवी संगठनों को ”जनसेवा” करने का और थोड़ी अपनी सेवा भी कर लेने का मौक़ा मिले और नौकरशाही भी बाढ़ राहत की भारी राशि का भरपूर इस्तेमाल कर सके!

सरकारें और मीडिया साल-दर-साल हमको बताते रहते हैं और ज़्यादातर लोग अज्ञानतावश मान भी लेते हैं कि बाढ़ तो प्रकृति का क़हर है; इसमें भला किसी की क्या ग़लती! सरकार बेचारी क्या करे? लेकिन अगर हम बाढ़ के कारणों पर एक निगाह डालें तो हमें पता चल जाता है कि यह महज़ प्राकृतिक आपदा नहीं है। यह पूँजीवादी व्यवस्था में मुनाफ़े की अन्धी हवस और तथाकथित विकास के नाम पर पर्यावरण की तबाही की एक सज़ा है जिसे सबसे अधिक उन लोगों को भुगतना पड़ता है, जिनकी कोई ग़लती नहीं होती।

सबसे पहले हम केरल के ही उदाहरण को लें। इस साल बाढ़ ने जिन इलाक़ों को प्रभावित किया, उनमें से ज़्यादातर वे हैं जिन्हें पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल ने पारिस्थितिकी की दृष्टि से संवेदनशील बताया था। जाने-माने पर्यावरणविद माधव गाडगिल की अध्यक्षता में बनी इस समिति ने पश्चिमी घाट के 1 लाख 40 हज़ार वर्ग किलोमीटर में फैले क्षेत्र में पर्यावरणीय तबाही रोकने के लिए कई सुझाव दिये थे। इनमें खनन और पत्थरों की खुदाई, ग़ैर-वनीय उपयोग के लिए ज़मीन के इस्तेमाल, बहुमंज़िला इमारतों के निर्माण, पेड़ों की कटाई आदि पर सख़्त पाबन्दियाँ लगाने के सुझाव दिये गये थे। पश्चिमी घाट का क्षेत्र छह राज्यों, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गोआ और गुजरात में फैला हुआ है। 2011 में दी गयी इस रिपोर्ट को केरल सरकार ने ख़ारिज़ कर दिया और अन्य राज्य सरकारों ने भी इसका कड़ा विरोध किया। जैसाकि माधव गाडगिल ने हाल में मीडिया से इस बार बड़े पैमाने पर हुए भूस्खलनों और पहाड़ियों के ढहने का एक बड़ा कारण अन्धाधुन्ध पत्थरों की खुदाई और पेड़ों की कटाई है। उन्होंने इसे ”मानव-निर्मित आपदा” करार दिया। हालाँकि इसे ”पूँजीवादी दानव-निर्मित आपदा” कहना ज़्यादा सही होगा। कई और पर्यावरणविदों ने भी धुआँधार खनन, कटाई, पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर बड़े पैमाने पर बहुमंज़िला होटलों आदि के निर्माण और निजी कम्पनियों द्वारा वन भूमि की अवैध ख़रीद आदि की ओर भी उँगली उठायी है। केरल में भारी बारिश की आशंका को देखते हुए 30 बाँधों से धीरे-धीरे पानी छोड़ने का काम भी नहीं किया गया, जिसकी वजह से जलस्तर बढ़ने पर एकदम से पानी का सैलाब आ गया।

इसी तरह, 26 जुलाई 2005 को मुम्बई में बादल फटने से आयी बाढ़ में 1200 से ज़्यादा लोग मारे गये थे। उस वक़्त केन्द्र और राज्य सरकारों ने लम्बे-चौड़े कस्मे-वादे किये कि अब ऐसी आपदा दुबारा नहीं होने दी जायेगी और आधारभूत ढाँचे में सुधार किये जायेंगे। जनता की गाढ़ी कमाई के हज़ारों करोड़ रुपये बहाये गये, और बार-बार घोषणाएँ की गयीं कि शहर अब कैसी भी भारी वर्षा के लिए तैयार है। मगर हुआ क्या? पिछले ही साल, 29 अगस्त को अचानक मुम्बई में 350 मिमी बारिश हुई जो 26 जुलाई 2005 को हुई 900 मिमी बारिश से बहुत कम थी। लेकिन इसने जो तबाही मचायी, उसकी याद अभी लोगों को होगी क्योंकि अभी इसे ज़्यादा समय नहीं हुआ। वजह क्या है? मुम्बई की तटरेखा और अरब सागर के बीच फैले घने मैनग्रोव जंगल बाढ़ के विरुद्ध एक क़ुदरती अवरोध का काम करते हैं, ज़मीन की कटान को रोकते हैं और समुद्री खारे पानी से भूमि को होने वाले नुक़सान से बचाव करते हैं। वे किसी भी अन्य पारिस्थितिकी तन्त्र के मुकाबले आठ गुना ज़्यादा कार्बन डाई-ऑक्साइड सोखते हैं। लेकिन बिल्डरों के दबाव में और मुम्बई शहर के फैलाव के लिए इन जंगलों को बड़े पैमाने पर काट डाला गया। मीठी नदी, ओशिवारा नदी और ठाणे क्रीक से बाढ़ का पानी निकल जाया करता था। इन सभी के साथ घने मैनग्रोव जंगल हैं। लेकिन इन सभी को व्यवस्थित ढंग से तबाह किया गया है। मैनग्रोव जंगलों से भरे मीठी नदी के मुहाने को तबाह करके वहाँ बान्द्रा-कुर्ला कॉम्प्लेक्स बना दिया गया। अब नवी मुम्बई हवाई अड्डा बनाने के लिए इससे भी बड़ी पर्यावरणीय विनाशलीला रची जाने वाली है।

केदारनाथ और उत्तरकाशी में 2013 में आयी बाढ़ से मची भयंकर तबाही का सबसे बड़ा कारण भी उस पूरे इलाक़े में नाजुक पर्यावरण का ख़याल किये बिना ”विकास” के नाम पर अन्धाधुन्ध कटायी, रिज़ॉर्ट और होटलों, सैकड़ों गाड़ियों की पार्किंग आदि बनते चले गये। पर्यावरण का सन्तुलन बिगड़ने की चेतावनी देने वाले विशेषज्ञों की रिपोर्टों को कचरे में डाल दिया गया। पहाड़ों में अन्धाधुन्ध निर्माण और तथाकथित विकास की गतिविधियों से ग्लेशियरों-नदियों के प्राकृतिक प्रवाह के रास्ते बन्द हो रहे हैं। बरसाती पानी ले जाने वाले असंख्य ”गदेले” (पहाड़ी नाले) बन्द हो चुके हैं और जंगलों की कटाई के कारण भूस्खलन और पहाड़ों के दरकने की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं। लेकिन सरकारें इन तबाहियों से कोई सबक़ लेने को तैयार नहीं हैं।

इंस्टीट्यूट ऑफ़ ट्रॉपिकल मीटियरोलॉजी ने पिछले 100 वर्षों में बारिश के डेटा के विश्लेषण के आधार पर बताया है कि मॉनसून के दौरान अक़सर बहुत अधिक वर्षा के लिए ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ (पृथ्वी के तापमान में बढ़ोत्तरी) ज़िम्मेदार है। इसकी दोषी भी यह पूँजीवादी व्यवस्था है, लेकिन इस पर एक अलग लेख की दरकार है।

पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई एक ऐसा कारण है जो सूखा और बाढ़ दोनों में योगदान करती है। जल्द से जल्द मुनाफ़ा कमाने के पागलपन में पूँजीपति और ठेकेदार जंगलों को साफ़ करते जा रहे हैं और पहाड़ों को नंगा करते जा रहे हैं। पेड़ों के कटने से ही सिल्टिंग यानी गाद जमा होने की समस्या की शुरुआत होती है। होता यह है कि पहाड़ की ढलान पर लगे वृक्ष बारिश होने पर मिट्टी को भारी मात्रा में बहकर नदियों में जाने से रोकते हैं। लेकिन वृक्षों की लगातार हो रही कटाई के कारण यह प्रक्रिया कमज़ोर पड़ रही है और नदियों में गाद जमा होने की रफ़्तार बढ़ रही है। नतीजा यह होता है कि एक ओर पेड़ों की लगातार कटाई के कारण पूरा का पूरा पारिस्थितिक सन्तुलन गड़बड़ाता है और दूसरी ओर नदियों के तल में गाद जमा होने के कारण वे उथली हो जाती हैं, उनका जल-स्तर जल्दी बढ़ जाता है और बारिश के मौसम में बाढ़ की समस्या आती है।

वैसे तो सभी सरकारें पर्यावरण को तबाह करने के लिए देशी-विदेशी पूँजीपतियों को खुली छूट देती रही हैं, लेकिन नरेन्द्र मोदी सरकार ने तो सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिये हैं। अपने पूँजीपति मालिकों को ख़ुश करने के लिए इसने पर्यावरण के विरुद्ध एक युद्ध ही छेड़ दिया है। सत्ता में आते ही इसने वन अधिकार क़ानून को कमज़ोर बनाकर लुटेरी कम्पनियों के लिए जंगलों को काट डालना और आदिवासियों की ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करना आसान बना दिया। राष्ट्रीय वन्यजीव परिषद की स्वायत्तता ख़त्म करके उसे एक बेजान संस्था बना दिया गया, ताकि जंगलों में कम्पनियों की घुसपैठ को बेरोकटोक किया जा सके।

उत्तर व पूर्वी भारत के अधिकांश क्षेत्रों में बाढ़ आने का एक कारण नेपाल से आने वाली नदियाँ हैं जो नेपाल के पहाड़ों से काफ़ी गाद बहाकर भारत की नदियों में लाती हैं। इसके लिए 1954 में गठित गंगा आयोग ने ही कुछ बहुउद्देश्यीय योजनाओं का सुझाव दिया था जिससे कि इन नकारात्मक कारकों को सकारात्मक कारकों में बदलकर इनका लाभ उठाया जा सकता था।। ऐसी ही एक योजना थी ‘जलकुण्डी योजना’। इस योजना के तहत नेपाल की नदियों से आने वाली सिल्ट को रोकने के लिए पानी की भारी मात्रा को नेपाल में रोककर बाँधों पर जल विद्युत परियोजनाएँ लगाने का इरादा था। इन परियोजनाओं का आधा लाभ नेपाल और आधा लाभ भारत को मिलने की योजना थी। तब इस योजना पर 33 करोड़ रुपये का ख़र्च होना था। लेकिन सरकार की उदासीनता की वजह से यह योजना धरी की धरी रह गयी। आज इस योजना को लागू करने पर उसमें 500 करोड़ रुपये से भी अधिक की लागत आयेगी, लेकिन फिर भी यह रक़म बाढ़ राहत के नाम पर बहायी जाने वाली रक़म से कहीं कम है। 1976 में गठित राष्ट्रीय बाढ़ आयोग ने नदियों के तल से गाद हटाने का सुझाव दिया था और साथ ही जलकुण्डी योजना को लागू करने का भी सुझाव दिया था। इसमें से कुछ भी नहीं किया गया। आगे भी इस तरह के आयोग बनते रहेंगे। लेकिन कुछ नहीं होगा। क्योंकि यह पूरी व्यवस्था मानवीय आवश्यकताओं की कोई क़द्र नहीं करती। ऐसी आपदाओं को रोकना तो दूर ऐसी आपदाओं के बाद इंसानों की लाशों पर अपने मुनाफ़े की रोटियाँ सेंकना इस व्यवस्था का काम है।

बाढ़ से बचने के तमाम रास्ते आज विज्ञान ने खोज निकाले हैं। निश्चित रूप से इसके लिए दीर्घकालिक योजनाएँ बनानी होंगी, जिसका तात्कालिक तौर पर मुनाफ़े के रूप में कोई फ़ायदा नहीं होगा। पूँजीवादी तन्त्र तात्कालिक मुनाफ़े में इस क़दर डूबा होता है कि ऐसी किसी भी योजना में वह पूँजी निवेश नहीं करना चाहता, जिसका फ़ायदा ठोस रूप में न मिले या देर से मिले। उसे तुरत-फुरत मुनाफ़ा चाहिए। ऐसा करना दरअसल पूँजीपतियों की मजबूरी भी है। कारण यह है कि कोई पूँजीपति अगर जनता की ज़रूरतों का लिहाज़ करते हुए ऐसी किसी दूरगामी और दीर्घकालिक योजना में पैसा लगाता है जिसका ‘रिटर्न’ उसे तत्काल नहीं मिलना है, तो बाज़ार में उसकी प्रतिस्पर्धा में खड़ा पूँजीपति उसे निगल जायेगा। ऐसे में निजी मालिकाने पर आधारित पूँजीवादी व्यवस्था में कोई काम योजनाबद्ध और व्यवस्थित ढंग से नहीं हो पाता और पूँजीवादी गलाकाटू प्रतिस्पर्धा की अराजकता में जनता का भारी हिस्सा लुटता, पिसता और तबाह होता रहता है। आज अगर बाढ़ को रोकने के लिए सिल्ट हटाने, वृक्षारोपण के लिए योजनाबद्ध प्रयास करने और बड़े बाँधों के बजाय छोटे-छोटे बाँध बनाने के काम को योजनाबद्ध ढंग से शुरू किया जाये तो करोड़ों की संख्या में रोज़गार भी पैदा हो सकता है। नदियों के तल से निकाली गयी गाद बेहद उपजाऊ होती है। इस गाद से बेहद उन्नत गुणवत्ता वाली ईंटें भी बनायी जा सकती हैं। शहरी जल निकासी की पूरी व्यवस्था को ठीक करने की भी आवश्यकता है। यह काम भी लाखों रोज़गार पैदा कर सकता है। जब ये काम इतने ज़रूरी हैं, इसके लिए काम करने को तैयार लोग मौजूद हैं और इसके लिए ज़रूरी तमाम संसाधन भी हैं, तो क्या वजह है कि सरकारें इन कामों को नहीं कर रही हैं?

इसकी वजह साफ़ है। कोई भी पूँजीपति घराना और सरकार ऐसे कामों में पूँजी निवेश को तैयार नहीं है। लेकिन यह मजबूरी इस पूँजी केन्द्रित व्यवस्था की है। एक मानव-केन्द्रित व्यवस्था इस समस्या का समाधान मानव श्रम को गोलबन्द और संगठित करके आसानी से कर सकती है। इसकी जीती-जागती मिसाल चीन का समाजवादी प्रयोग था। चीन में जब समाजवादी व्यवस्था क़ायम थी, यानी माओ की मृत्यु तक, तो मज़दूरों की सत्ता ने ह्वांगहो नदी की पूरी दिशा मोड़ दी थी और चीन के एक बहुत बड़े हिस्से को हर साल आने वाली बाढ़ की विभीषिका से हमेशा के लिए बचा लिया था। नदियों के किनारे बसे गाँवों-शहरों के लाखों लोग अपने-अपने इलाक़े में नदियों से भारी पैमाने पर गाद निकालते थे और तटबन्ध बनाते थे। इस तरह बेहद कम ख़र्च में बाढ़ की समस्या को काफ़ी हद तक हल कर दिया था। चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के बाद एक बार फिर बाढ़ एक समस्या के रूप में उभरना शुरू हो गयी है। लेकिन इतना तो चीन के महान समाजवादी प्रयोग ने साबित कर ही दिया कि बाढ़ कोई ऐसी प्राकृतिक आपदा नहीं है जिससे बचा न जा सके। एक मानव-केन्द्रित समाजवादी व्यवस्था के पास इस समस्या का इलाज है और वह इस समस्या को दूर कर सकती है और एक नकारात्मक शक्ति को मानव मेधा का इस्तेमाल कर उसके विपरीत यानी एक सकारात्मक शक्ति में बदल सकती है।

लेकिन यह सब इस व्यवस्था में सम्भव नहीं है। मुट्ठी-भर मुनाफ़ाख़ोरों, मुर्दाख़ोरों और कफ़नखसोटों के मुनाफ़े की ख़ातिर ऐसे तमाम ज़रूरी कामों और योजनाओं को ठण्डे बस्ते में डाले रखा जायेगा, पर्यावरण को तबाह करते रहा जायेगा और हर साल हज़ारों लोग बाढ़ में मरते रहेंगे, करोड़ों लोग बेघर होते रहेंगे और अपनी आजीविका के साधन गँवाते रहेंगे। इस बरबादी पर नेता, नौकरशाह, पूँजीपति और ठेकेदार अपने मुनाफ़े का जश्न मनाते रहेंगे और चुनावी गोटियाँ लाल करते रहेंगे। आपदा प्रकृति नहीं है बल्कि आपदा यह मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था है। जब तक मानवता इससे निजात नहीं पायेगी, तब तक बाढ़ की विभीषिका से भी निजात नहीं मिलने वाली।

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2018


 

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