शहीद उधम सिंह के 78वें शहादत दिवस (31 जुलाई 1940) के अवसर पर!
शहीद उधम सिंह उर्फ़ राम मोहम्मद सिंह आज़ाद अमर रहें !

शाम मूर्ति

31 जुलाई को शहीद उधम सिंह का 78वाँ शहादत दिवस है। भारत के आज़ादी आन्दोलन के उधम सिंह अमर सेनानी रहे हैं। अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड को भला कौन भूल सकता है! यह घटना ब्रिटिश हुकूमत के काले अध्यायों में से एक है। 13 अप्रैल सन् 1919 को वैशाखी वाले दिन निहत्थी जनता पर अंग्रेज़ों ने गोलियाँ चलवा दी थीं। अमृतसर के जलियाँवाला बाग़़ में ‘रॉलेट ऐक्ट 1919’ (अराजक और क्रान्तिकारी अपराध अधिनियम, 1919) के विरोध में शान्तिपूर्वक तरीक़े से विरोध कर रहे महिलाओं-बच्चों-बूढ़ों समेत सैकड़ों भारतीयों पर अंग्रेज़ी हुकूमत के नुमाइन्दों ने अन्धाधुँध गोलीबारी कर उनकी निर्मम हत्या कर दी थी। ‘रॉलेट ऐक्ट’ को भारत में उभर रहे राष्ट्रीय आन्दोलन को कुचलने के उद्देश्य से निर्मित किया गया था। इस क़ानून के अनुसार ब्रिटिश सरकार किसी भी भारतीय पर अदालत में बिना मुक़दमा चलाये और सुनवाई किये उसे जेल में डाल सकती थी। इस क़ानून के तहत अपराधी को उसके ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज करने वाले का नाम जानने का अधिकार भी समाप्त कर दिया गया था। इस क़ानून के विरोध में देशव्यापी हड़तालें, जुलूस और प्रदर्शन हो रहे थे। उन्ही में से एक था जलियाँवाला बाग़। इस गोलीकाण्ड में हज़ारों लोग घायल और शहीद हुए थे। गोली चलाने का हुक्म ‘जनरल एडवर्ड हैरी डायर’ नामक अंग्रेज़ अफ़सर ने दिया था। किन्तु इसके पीछे पंजाब के तत्कालीन गवर्नर जनरल रहे ‘माइकल ओ’ड्वायर’ का हाथ था। ब्रिटिश सरकार इस हत्याकाण्ड के माध्यम से पंजाब और पूरे देश की जनता को आतंकित करना चाहती थी। पंजाब के तत्कालीन गवर्नर ‘ओ’ड्वायर’ ने ‘जनरल डायर’ की कार्रवाई का अन्त तक न सिर्फ़ समर्थन किया बल्कि उसका बचाव भी किया। उस समय बाग़ में उधम सिंह भी मौजूद थे। उन्होंने इस ख़ूनी दृश्य को अपनी आँखों से देखा था। गोरी हुकूमत द्वारा रचे गये इस क़त्लेआम से क्षुब्ध होकर उधम सिंह ने इसके ज़िम्मेदार पंजाब के तत्कालीन गवर्नर को मौत के घाट उतारने का फ़ैसला लिया। गोलीकाण्ड के क़रीब 21 साल बाद, 13 मार्च 1940 को लन्दन के एक हॉल में उन्होंने ‘माइकल ओ’ड्वायर’ को गोलियों से निशाना बनाया और ख़त्म कर दिया। ‘ओ’ड्वायर’ की हत्या के बाद उधम सिंह भागे नहीं बल्कि उन्होंने अपनी गिरफ़्तारी दी। उधम सिंह शहीद भगतसिंह से प्रभावित थे और उन्हें अपना आदर्श मानते थे। मुक़दमे के दौरान उधम सिंह ने कहा, ”मेरे जीवन का लक्ष्य क्रान्ति है। क्रान्ति जो हमारे देश को स्वतन्त्रता दिला सके। मैं अपने देशवासियों को इस न्यायालय के माध्यम से यह सन्देश देना चाहता हूँ कि देशवासियो! मैं तो शायद नहीं रहूँगा। लेकिन आप अपने देश के लिए अन्तिम साँस तक संघर्ष करना और अंग्रेज़ी शासन को समाप्त करना और ऐसी स्थिति पैदा करना कि भविष्य में कोई भी शक्ति हमारे देश को गुलाम न बना सके”। इसके बाद उन्होंने हिन्दुस्तान ज़िन्दाबाद! और ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो! नारे बुलन्द किये।

उधम सिंह हिन्दू, मुस्लिम और सिख जनता की एकता के कड़े हिमायती थे, इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर ‘राम मोहम्मद सिंह आज़ाद’ रख लिया था। वे इसी नाम से पत्र-व्यवहार किया करते थे और यही नाम उन्होंने अपने हाथ पर भी गुदवा लिया था। उन्होंने वसीयत की थी कि फाँसी के बाद उनकी अस्थियों को तीनों धर्मों के लोगों को सौंपा जाये। अंग्रेज़ों ने इस जाँबाज को 31 जुलाई 1940 को फाँसी पर लटका दिया। उधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर 1899 को पंजाब प्रान्त के संगरूर जि़ले के सुनाम गाँव हुआ था। छोटी उम्र में ही माँ-बाप और बड़े भाई की मृत्यु की वजह से वह अनाथ हो गये। उनका लालन-पोषण अनाथालय में हुआ। इसके बावजूद भी जीवन के मुश्किल हालात उनके इरादों को डगमगा नही पाये। मैट्रिक की पढ़ाई कर उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और क्रान्तिकारियों के साथ मिलकर जंग-ए-आज़ादी के मैदान में कूद पड़े। 1924 में विदेशों में भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाली क्रान्तिकारी गदर पार्टी में सक्रिय रहे और विदेशों में चन्दा जुटाने का काम किया। उधम सिंह ने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए), इण्डियन वर्कर्स एसोसिएशन आदि क्रान्तिकारी संगठनों के साथ अलग-अलग समय पर काम भी किया।

उनकी वीरता व जज़्बे को हमारा क्रान्तिकारी सलाम। लेकिन आज हर उस महान क्रान्तिकारी जिसने इस देश को आज़ाद कराने के लिए अकूत बलिदान दिये है के नाम पर तथाकथित समाजसेवी और नेता-मन्त्री अपना उल्लू सीधा करने, वोट बैंक या संकीर्ण हितों के लिए उन्हें अपने-अपने तरीक़े से हमारे देश के महान क्रान्तिकारियों के नाम का फ़ायदा उठाते हैं। उनमें से कई लोग/संगठन/पार्टियाँ दलित (कम्बोज जाति) परिवार में पैदा होने की वजह से उन्हें दलित क्रान्तिकारी के तौर पर, तो कोई सिख धर्म में विश्वास होने की वजह से सिख क्रान्तिकारी, पंजाब में पैदा होने की वजह से पंजाबी क्रान्तिकारी और एक अंग्रेज़ अफ़सर को मारने की वजह से कट्टरवादी-राष्ट्रवादी स्थापित करने में लगे हैं। ये लोग हमारे असली क्रान्तिकारियों की तस्वीर को हर-हमेशा आधे-अधूरे व ग़लत ढंग से पेश करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। आज का पूँजीपतियों की सेवा में लगा गोदी, मुनाफ़ाखोर और मौक़ापरस्त मीडिया भी कर रहा है। भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु, चन्द्र शेखर आज़ाद से लेकर उधम सिंह तक को केवल जुनूनी देशभक्ति की भावना से प्रेरित युवाओं के रूप में पेश किया जाता है, जिन्होंने देश के लिए अपने प्राण त्याग दिये। ये सभी क्रान्तिकारी भारत को सिर्फ़ अंग्रेज़ी हुकूमत से आज़ाद कराने के लिए नहीं बल्कि हर तरह की शोषक व्यवस्था से आज़ाद कराने के लिए संघर्षरत थे। साम्राज्यवाद और पूँजीवाद दोनों को ध्वस्त कर एक समतामूलक समाज की स्थापना उनका लक्ष्य था। उन्होंने इस देश की जनता को आज़ादी से पहले ही चेता दिया था कि अगर हम धर्म या जाति के नाम पर आपस में झगड़ते रहेंगे, तो देश आज़ाद होने के बाद गोरे साहब की जगह भूरे साहब आ जायेंगे और इस देश की मेहनतकश आबादी का शोषण बदस्तूर जारी रहेगा।

आज़ादी से पहले जिस तरह किसानों और मज़दूरों का शोषण हो रहा था, वो आज भी बदस्तूर जारी है। देश की मेहनतकश अवाम के माथे से गुलामी का कलंक आज भी नहीं हटा है। ऐसे में बिना समय गँवाये शहीद उधम सिंह जैसे तमाम क्रान्तिकारी देशभक्तों के सन्देश को याद करते हुए हमें इस शोषक-उत्पीड़क पूँजीवादी लुटेरी व्यवस्था को बदलने के लिए इसके ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दे और असली मुद्दे – जैसेकि बेरोज़गारी, महँगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा – को उठायें। अगर आप भी इस शोषक व्यवस्था के बरक्स एक शोषण-मुक्त समतामूलक समाज में जीना चाहते हैं तो आइए!  इस क्रान्तिकारी जनजागरण की मुहिम में शामिल हों!

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2018


 

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