नीमराणा में डाइकिन के मज़दूरों पर बर्बर लाठीचार्ज!

विजय

8-9 जनवरी की दो दिवसीय देशव्यापी हड़ताल के समर्थन में नीमराणा औद्योगिक क्षेत्र के क़रीब 2000 मज़दूरों द्वारा ‘मज़दूर अधिकार रैली’ आयोजित की गयी। इस रैली में डाइकिन कम्पनी के मज़दूरों के अलावा होण्डा, टोयोटा, शॉन, टोयडा, नीडेड व नीमराणा की दूसरी अन्य कम्पनियों के मज़दूरों ने भी शिरकत की। यह रैली जब डाइकिन कम्पनी गेट पर पहुँची तो डाइकिन के मज़दूरों ने वहाँ यूनियन का झण्डा लगाना चाहा। लेकिन कम्पनी प्रबन्धन द्वारा बुलाये गये बाउंसरों ने झण्डा उखाड़ दिया। मज़दूरों ने दोबारा झण्डा लगाने की कोशिश की तो वहाँ मौजूद पुलिस उन पर लाठियाँ बरसाने लगी। साथ ही वहाँ मौजूद बाउंसरों ने भी मज़दूरों पर लाठियाँ बरसानी शुरू कर दी। इसके बाद पुलिस की कार्यवाही से गुस्साये मज़दूरों ने पुलिस पर जवाबी पत्थरबाज़ी की। पुलिस ने मज़दूरों पर बेतहाशा लाठीचार्ज किया, आँसू गैस के गोले छोड़े जिसमें 40 से अधिक मज़दूर बुरी तरह से घायल हो गये। पुलिस ने कई मज़दूरों को डण्डों और राइफ़ल के बट से तब तक पीटा जब तक कि वे बेहोश नहीं हो गये। पुलिस ने अपनी इस बर्बर कार्यवाही में डाइकिन यूनियन के अध्यक्ष रुक़मुद्दीन व कुछ अन्य मज़दूरों को विशेष तौर पर टारगेट किया था।

ग़ौरतलब है कि डाइकिन एयर कण्डीशनिंग कम्पनी के मज़दूरों का यूनियन बनाने का संघर्ष पिछले 5 साल से चल रहा है। कम्पनी ने मज़दूरों द्वारा यूनियन बनाने के प्रयास को विफल करने के लिए कई मज़दूरों को या तो काम से निकाल दिया या फिर तबादला कर दिया। आखि़रकार अगस्त 2018 में मज़दूर अपनी यूनियन रजिस्टर करवाने में सफल हो गये। डायकिन के मज़दूरों को यूनियन बनाने की ज़रूरत इसलिए महसूस हुई, क्योंकि कम्पनी मज़दूरों से जबरन ओवरटाइम करवाती है, कम्पनी के अन्दर दुर्घटना होने पर कोई मुआवज़ा नहीं दिया जाता है, किसी प्रकार की छुट्टी प्रदान नहीं की जाती है और काम के मुकाबले में वेतन बहुत कम है।

ठेकाकर्मियों का शोषण तो और भी जबरदस्त है। स्थायीकर्मियों की अपेक्षा उनकी मज़दूरी भी कम है, दूसरा उन्हें जब चाहे निकाल बाहर कर दिया जाता है। डायकिन ही नहीं बल्कि नीमराणा औद्योगिक बेल्ट की लगभग सभी कम्पनियों में मज़दूरों के हालात एक जैसे हैं। सभी कारख़ानों में ज़्यादातर काम ठेकेदारी के तहत करवाया जाता है। किसी भी कारख़ाने में स्थायी मज़दूरों की संख्या तो नाममात्र ही मिलेगी। काम की शिफ़्ट अधिकतर 12-12 घण्टे की रखी जाती है। 8 हज़ार से अधिक मज़दूरी शायद ही किसी कारख़ाने में दी जाती हो! काम के दौरान किसी ठेकाकर्मी का अंग-भंग हो जाये या मौत भी हो जाये तो कोई मुआवज़ा नहीं! जब तक कारख़ानेदारों को ज़रूरत है तब तक काम है, नहीं तो बाहर। ठेका मज़दूरों द्वारा यूनियन बनाना तो दूर की बात, कोई अन्य छोटी-मोटी माँग करते ही अगले दिन से काम से छुट्टी कर दी जाती है! 

ऐसी भयंकर परिस्थिति में डायकिन के मज़दूरों ने यूनियन संघर्ष का रास्ता अपनाया। यूनियन बनाने की बात का पता चलते ही कम्पनी ने सभी नेतृत्वकारी मज़दूरों को नौकरी से बर्ख़ास्त कर दिया। लेकिन मज़दूरों ने संघर्ष जारी रखा। पाँच साल के लम्बे संघर्ष के बाद अगस्त 2018 में वे यूनियन को पंजीकृत करवाने में सफल रहे। मगर कम्पनी प्रबन्धन ने यूनियन को मान्यता देने से इनकार कर दिया तथा मज़दूरों को यूनियन का झण्डा लगाने से भी रोक दिया। इसके अलावा कम्पनी ने 15 नेतृत्वकारी मज़दूरों का दूर-दूर के इलाक़ों में ट्रांसफ़र कर दिया। फिर भी डाइकिन के मज़दूरों ने अपना संघर्ष जारी रखा। यूनियन ने ठेका मज़दूरों से एकता स्थापित की तथा कम्पनी के सामने उनके स्थायीकरण की माँग रखी। इन सबके चलते कम्पनी प्रबन्धन और ठेकेदार मज़दूरों से खार खाये हुए थे।

दो दिवसीय हड़ताल के प्रचार-प्रसार हेतु 8 जनवरी को तड़के सुबह 5 बजे के क़रीब जब मज़दूर पर्चे बाँट रहे थे, तब कम्पनी प्रबन्धन व ठेकेदारों ने गुण्डे बुलवाकर उन पर लाठी, रॉड, हॉकी आदि से हमला करवा दिया, जिसमें विजय नाम का एक मज़दूर गम्भीर रूप से घायल हो गया, जिसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था। उसके बाद से ही कम्पनी प्रबन्धन व ठेकेदारों ने कम्पनी के अन्दर सैकड़ों बाउंसर बुलवा लिये थे तथा कम्पनी गेट पर सैकड़ों पुलिसकर्मी तैनात कर दिये थे। कम्पनी में स्थानीय भाजपा विधायक मंजीत चौधरी ने भी ठेके ले रखे हैं।

डायकिन कम्पनी के एक मज़दूर ने बताया कि कम्पनी के अन्दर बाउंसर भेजने का काम विधायक मंजीत चौधरी के इशारों पर ही होता है। यही नहीं, मज़दूरों के अन्दर फूट डालने के लिए कम्पनी प्रबन्धन व ठेकेदार कई दिनों से साम्प्रदायिकता का कार्ड भी खेलने की कोशिश कर रहे थे। वे मज़दूरों को यह कहकर बहका रहे थे कि एक मुसलमान को अध्यक्ष बनाकर तुम लोगों ने सही नहीं किया; इसकी वजह से तुम सभी ख़तरे में पड़ सकते हो।

मज़दूरों पर बर्बर लाठीचार्ज की घटना के बाद विधायक महोदय का बयान भी ग़ौर करने लायक़ है। उसने कहा, “किसी भी उपद्रवी को बख़्शा नहीं जायेगा, पुलिस कड़ी से कड़ी कार्यवाही करेगी।” इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि कम्पनी प्रबन्धन का पुलिस व विधायक के साथ किस क़दर गँठजोड़ स्थापित है। एक और ग़ौर करने वाली बात उक्त घटना में मीडिया के रोल के बारे में है। घटना के बाद वायरल हुए वीडियो में साफ़-साफ़ दिख रहा है कि पुलिस बर्बरतापूर्वक मज़दूरों पर लाठियाँ बरसा रही है, लेकिन ज़ी न्यूज के मीडियाकर्मी को वह पिटाई दिखायी नहीं देती है। उल्टे वह कह रहा है कि पत्थरबाजी से पुलिसकर्मी घायल हुए हैं; मज़दूर घायल हुए हैं या नहीं इसकी कोई सूचना नहीं है!

पुलिस का निन्दनीय कृत्य यहीं पर नहीं रुकता है। 8 जनवरी की ही रात में छापेमारी कर 14 मज़दूरों को उनके घरों और कमरों से उठाया गया। पुलिस ने यह काम कम्पनी के ठेकेदारों की मदद से किया। 17 नामजद व 600-700 अज्ञात मज़दूरों के खि़लाफ़ एफ़आईआर दर्ज की गयी। पुलिस ने उन पर धारा 307 सहित राजकार्य में बाधा डालने, दंगा करने, सरकारी सम्पत्ति की तोड़फोड़ आदि गम्भीर आरोप लगाये हैं।

गिरफ़्तार मज़दूरों को दो दिन बाद 10 जनवरी को कोर्ट में पेश किया गया। कोर्ट में मजिस्ट्रेट ने उनकी जमानत याचिका रद्द कर उन्हें जेल भेजने के आदेश दे दिये। मज़दूरों को गिरफ़्तार कर फ़र्ज़ी मुक़दमे बनाने का यह सिलसिला यहीं नहीं रुका, दो दिन की हड़ताल के बाद जब मज़दूर अपनी शिफ़्ट में काम के लिए कम्पनी पहुँचे तब कुछ और मज़दूरों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया तथा उन्हें डराने-धमकाने का काम जारी है।

ऐसे माहौल में पुलिस के झंझट से बचने के लिए मकान-मालिक भी डाइकिन कम्पनी में काम करने वाले मज़दूरों को कमरा ख़ाली करने को कह रहे हैं। डायकिन कम्पनी के एक मज़दूर ने बताया कि मकान-मालिक कह रहा है कि या तो कम्पनी में जाओ या कमरा ख़ाली करो; उधर कम्पनी में जाते ही पुलिस गिरफ़्तार कर रही है। बहरोड़ विधायक बलजीत यादव जोकि विधायक बनने से पहले मज़दूरों व बेरोज़गारों के लिए टेसुएँ बहाया करता था, अब कह रहा है कि मैं कुछ नहीं कर सकता, जाकर श्रम मन्त्री से मिलो।

ऐसे हालात में मज़दूरों के पास अपने घरों को लौट जाने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। फिर भी डायकिन यूनियन के मज़दूरों का कहना है कि वे अपना संघर्ष जारी रखेंगे। साथियो, इन विकट परिस्थितियों ने कुछ ऐसे सवाल खड़े किये हैं जिनके जवाब हमें मिलजुल कर तलाशने हैं। आखि़र इतने लम्बे संघर्ष के बाद जो यूनियन बनी, कम्पनी प्रबन्धन उसे मान्यता क्यों नहीं दे रहा है? कौन सी ऐसी ताक़त है जिसके बल पर कम्पनी प्रबन्धन मनमानी पर उतर आया है? पुलिस जब चाहे लाठियाँ बरसा रही है! नेता-विधायक, ठेकेदार, मकान-मालिक, मीडिया सबका रवैया एक जैसा क्यों है? आम मेहनतकश जनता आपके संघर्षो के प्रति उदासीन क्यों है? जनता को तो बलजीत यादव, मंजीत चौधरी सरीखे नेता झूठ-सच कहकर बहकाने में लगे हैं – स्थानीय बेरोज़गारों के बीच यह बात फैलायी जा रही है कि बाहरवाले मज़दूरों की वजह से तुम्हें काम नहीं मिल रहा है! और त्रासदी यह है कि यही वे नेता हैं जिनके लिए राजस्थान विधानसभा के चुनाव में मज़दूर भी प्रचार कर वोट माँग रहे थे?!

 

 

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2019


 

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