हौज़री के मज़दूरों की ज़िन्दगी की एक झलक

राजविन्दर

ज़िन्दा-दिल और ख़ुशमिजाज़ बशीर एक हौज़री मज़दूर है। वह बतौर दर्ज़ी शिवपुरी स्थित आर.के. दर्शन हौज़री लुधियाना में काम करता है। बशीर बिहार के सीवान ज़िले का रहने वाला है। उसके तीन बच्चे हैं जो अपनी माँ के साथ गाँव में रहते हैं। बशीर ने बताया कि उपरोक्त कारख़ाने में लगभग तीन सौ मज़दूर काम करते हैं। इस कारख़ाने में ठेका/पीस रेट पर काम कराया जाता है और श्रम क़ानूनों के अनुसार कोई भी सुविधा नहीं दी जाती। यहाँ तक कि किसी भी मज़दूर के पास कारख़ाने का पहचान पत्र भी नहीं है। जब कि श्रम क़ानूनों के अनुसार दस मज़दूरों तक बिजली के साथ काम करवाने वाले कारख़ाने का, फै़क्टरी एक्ट के तहत, पंजीकरण करवाना ज़रूरी है, पर यह कारख़ाना सरेआम ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से चल रहा है।

यही नहीं बल्कि हर साल कम माँग/मन्दी का सारा बोझ मज़दूरों पर डालते हुए पीस रेट कम किये जा रहे हैं। इस साल ट्रेक सूट की सिलाई 28 रुपये कर दी गयी जो कि पिछले साल 35 रुपये थी। शुरू में कोई दर्ज़ी इतने कम रेट पर काम करने को तैयार नहीं था, पर कुछ दिन दौड़-धूप करने पर पता चला कि हर हौज़री में पीस रेट कम किये जा रहे हैं। इसलिए वापिस उसी जगह पर काम करना पड़ा। अगर कोई मज़दूर मेहनताने की माँग करता है तो मालिक कह देता है “जहाँ ज़्यादा मिलता है वहीं काम कर लो!” लुधियाना में यह अक्सर ही देखने-सुनने में आ जाता है। हर कारख़ाने की यही हालत है।

बशीर ने बताया कि फ़िलहाल एक कमरे में वे दो आदमी रहते हैं और सीज़न के वक़्त चार आदमी रहते हैं। इस वक़्त कुल ख़र्च (कमरे का किराया, बिजली का बिल, खाना, चाय-पानी, फ़ोन आदि) 3500-4000 तक आ जाता है। ज़्यादा लोगों के रहने पर परेशानी तो होती है मगर ख़र्चा कम हो जाता है। उसने बताया कि हर साल महँगाई बढ़ने के कारण ख़र्चे में 300-400 की बढ़ोत्तरी हो जाती है पर आमदन बढ़ने की बजाय कम हो रही है। पहले 12 घण्टे काम करके 5-6 सौ तक की दिहाड़ी बन जाती थी पर अब सिर्फ़ 4 सौ तक ही रह गयी है।

पिछले हफ़्ते बुखार होने के कारण वह बीमार रहा पर फिर भी वेतन घटने के कारण छुट्टी नहीं कर सका। इस स्थिति का मुक़ाबला करने के लिए सबसे पहला असर खाने पर पड़ा है, पहले हफ़्ते में दो-तीन बार अण्डा-मीट बना लिया जाता था पर अब सिर्फ़ एक दिन इतवार को ही बनता है। कपड़े वग़ैरा भी मज़दूरी के वक़्त ही सिलवाये जाते हैं। ज़रूरतें कम करने की कोशिशें की जा रही हैं, पर फिर भी परिवार का गुज़ारा मुश्किल से हो रहा है।

एक साल पहले ज़्यादा कमाई की उम्मीद में बशीर काम करने के लिए दुबई चला गया था पर काम के बुरे हालात और कपनियों द्वारा मज़दूरों के साथ की जाती बेईमानी देखकर वह 3-4 महीनों के अन्दर ही लुधियाना वापिस आ गया। वहाँ घुली-मिली मज़दूर आबादी की बदतर हालत के भी उसने अनेक कि़स्से सुने, उनके बारे में फिर कभी। बातों-बातों में बशीर की चिन्ता साफ़ दिखायी दे रही थी कि अगर महँगाई का बढ़ना और मालिकों का रवैया ऐसा ही रहा तो गुज़ारा कैसे होगा!!

 

मज़दूर बिगुल, मार्च 2019


 

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