जनता द्वारा दिये अपने नाम – केचुआ – को सार्थक करता केन्द्रीय चुनाव आयोग

विकास कुमार

भारत के इतिहास में कभी भी चुनाव आयोग की ऐसी गयी-बीती हालत नहीं रही है। यह स्वाभाविक भी है। फ़ासीवाद की ख़ासियतों में से एक यह भी है कि यह पूँजीवादी जनवाद की तमाम “सम्मानित संस्थाओं” को अन्दर से खोखला बना देता है। पहले भी भारत में इन संस्थाओं की हालत ख़राब ही थी। लेकिन इज़्ज़त बचाने के लिए ये संस्थाएँ कुछ क़दम उठाया करती थीं। लेकिन अब आप चाहे चुनाव आयोग पर निगाह डालें या फिर न्यायपालिका पर, ये मानो आज की फ़ासीवादी शासक पार्टी भाजपा और नरेन्द्र मोदी के इशारों पर काम कर रही हैं। अक्सर तो ऐसा लगता है कि केन्द्रीय चुनाव आयोग भाजपा का ही कोई मोर्चा है।

भाजपा के नेता खुले तौर पर चुनावी रैलियों में भारतीय सेना को ‘मोदी की सेना’ बता रहे हैं, लेकिन चुनाव आयोग शर्माते-शर्माते बस ‘चेतावनी’ देकर रह जा रहा है। प्रधानमन्त्री सैटेलाइट को नष्ट करने वाली एक मिसाइल के परीक्षण के ऐलान के बूते चुनाव प्रचार कर रहे हैं, लेकिन उसमें चुनाव आयोग को कुछ भी आपत्तिजनक नहीं दिख रहा। बालाकोट हमले के बारे में झूठी बातें बोलकर उसका चुनाव प्रचार में इस्तेमाल खुले तौर पर हो रहा है, लेकिन चुनाव आयोग अन्धा बना हुआ है! ‘नमो टीवी’ नामक एक चैनल मोदी के महिमामण्डन के लिए अचानक रहस्यमय तरीक़़़े से प्रकट हुआ, लेकिन चुनाव आयोग ने उस पर कोई क़दम नहीं उठाया, वह भी तब जब कि इस चैनल के लिए न तो कोई पंजीकरण हुआ था और न ही कोई अनुमति ली गयी थी! नरेन्द्र मोदी ने टीवी पर साफ़़ झूठ बोला कि उनको इस नमो चैनल की कोई जानकारी नहीं है, जबकि उनके ट्विटर अकाउण्ट से रोज़ इस चैनल का प्रचार किया जा रहा था। बाद में भाजपा ने बेशर्मी से स्वीकार किया कि उसका आईटी सेल ही इस चैनल को चला रहा था जिसका एकमात्र काम था मोदी के भाषणों और रैलियों को दिखाना। नरेन्द्र मोदी के जीवन पर बनी फ़िल्म का धड़ल्ले से प्रचार हो रहा था और उन पर एक वेब सीरीज़ का प्रसारण भी किया जा रहा था। काफ़ी हंगामे और अनेक वरिष्ठ रिटायर्ड अफ़सरों के एक खुले पत्र के बाद मजबूरन ‘केचुआ’ को नमो टीवी और मोदी फ़िल्म पर रोक लगाने का आदेश देना पड़ा। हालाँकि कई जगहों से लोगों का कहना है कि क़ानूनी रोक के बावजूद नमो टीवी दिखाया जा रहा है। वेब सीरीज़ का प्रसारण अब भी जारी है। सारे क़ानूनों और नियमों को ताक पर रखकर हार के डर से परेशान भाजपा और संघ परिवार चुनाव की आचार संहिता की खुलेआम धज्जियाँ उड़ा रहे हैं, लेकिन चुनाव आयोग शान्त है। ऐसे में, इस संस्था की तथाकथित निष्पक्षता की सच्चाई जनता के सामने आ गयी है।

मोदी, अमित शाह और योगी सहित भाजपा के अनेक नेता झूठे, साम्प्रदायिक और अपमानजनक बयान धड़ल्ले से देते रहे, लेकिन चुनाव आयोग के कान पर जूँ नहीं रेंगी। फिर मायावती और आज़म खाँ ने भी जब ऐसी बयानबाज़ियाँ कीं और सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सख़्ती दिखायी, तब केचुआ जी ने योगी, मेनका गाँधी, आज़म खाँ और मायावती के चुनाव प्रचार करने पर तीन दिन की रोक लगायी। ये अलग बात है कि मोदी के खुलेआम सेना के नाम पर वोट माँगने और हिन्दू-मुस्लिम करने के बावजूद केचुआ की उस पर कुछ बोलने की हिम्मत नहीं हो रही है।

उच्चतम न्यायालय ने पूछा कि सभी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के साथ वीवीपैट की व्यवस्था करके चुनावों में पारदर्शिता सुनिश्चित क्यों नहीं की जा सकती है? तो इस पर जवाब देने के बजाय चुनाव आयोग उच्चतम न्यायालय से पूछता है कि क्या उसे ईवीएम पर भरोसा नहीं है! यह कैसा जवाब है? चुनाव आयोग सभी ईवीएम मशीनों के साथ चुनावों में वीवीपैट की व्यवस्था करने से क्यों घबरा रहा है? क्या इसके पीछे कोई साज़िश तो नहीं? इस सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। जब हालिया विधानसभा चुनावों में ही ईवीएम मशीनें सड़क पर पड़ी मिल रही थीं, भाजपा नेताओं के घर से बरामद हो रही थीं, जहाँ ईवीएम मशीनें रखी गयी थीं, वहाँ अचानक लाइट चली जा रही थी और सीसीटीवी कैमरे बन्द हो जा रहे थे, तो क्या यह शक लाज़िमी नहीं है कि भाजपा सरकार ईवीएम घोटाला करने पर आमादा है?

यह ख़बर लिखे जाने तक इस चुनाव में पहले चरण का मतदान ही हुआ था और एक ही दिन में देश भर से ईवीएम मशीनों में ख़राबी की ख़बरें पूरे देश से आ गयीं। सहारनपुर में ही क़रीब 56 मशीनें ख़राब होने की शिकायत के बाद उन्हें बदला गया। चुनाव आयोग के अनुसार ही क़रीब साढ़े तीन सौ से ज़्यादा ख़राब मशीनों की ख़बरें आयीं। आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री चन्द्रबाबू नायडू ने तो कहा कि 30 प्रतिशत ईवीएम सही काम नहीं कर रही हैं। पहले चरण के मतदान में ही साफ़़ हो गया कि इन ईवीएम मशीनों पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। दिलचस्प बात यह है कि हर चुनाव में हर राज्य में जो भी ईवीएम मशीनें गड़बड़ पायी गयी हैं, सबमें हमेशा एक ही तरह की ख़राबी आती है – बटन किसी भी पार्टी का दबाओ मगर वोट भाजपा को जाता है। पहले चरण के मतदान में एक वोटर ने तो बाक़ायदा वीडियो बनाकर फ़ेसबुक पर पोस्ट किया कि किसी अन्य पार्टी के आगे का बटन दबाने के बावजूद भाजपा को वोट जा रहा है। क्या अब भी सुप्रीम कोर्ट को स्वयं संज्ञान लेकर इस मुद्दे पर कार्रवाई नहीं करनी चाहिए? क्या चुनाव आयोग को पहले चरण के अनुभव के बाद स्वयं ही सभी ईवीएम के वीवीपैट वेरिफि़केशन की व्यवस्था नहीं करनी चाहिए? लेकिन कोई नहीं चाहता कि उसका हश्र भी जज लोया जैसा हो। मोदी सरकार के कार्यकाल में न्यायपालिका और चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं का हाल दयनीय हो गया है। इनसे उम्मीद करना भी बेकार है कि वे कोई क़दम उठायेंगे। दूसरी पूँजीवादी पार्टियों में इतना भी दमखम नहीं बचा कि इस मुद्दे पर एकजुट होकर माँग उठायें कि ईवीएम को छोड़कर बैलट पेपर की व्यवस्था फिर अपनायी जाये। ईवीएम की व्यवस्था को दुनिया के अनेक उन्नत पूँजीवादी देश अपनाने के बाद छोड़ चुके हैं। भाजपा के दोगलेपन का आलम यह है कि जब ये सत्ता में नहीं थे तो ईवीएम का ज़ोर-शोर से विरोध करते थे। लालकृष्ण आडवाणी ने तो ईवीएम से होने वाले चुनाव घोटालों के उदाहरण देते हुए इसे ख़ारिज़ करने की माँग पर एक किताब ही लिख डाली थी।

मोदी सरकार इक्कीसवीं सदी के फ़ासीवाद की ख़ासियतों को ही दिखा रही है जिसमें पूँजीवादी लोकतन्त्र का बस खोल बना रह जाता है, पूँजीवादी जनवाद की सभी संस्थाओं और प्रक्रियाओं की आत्मा निकाल ली जाती है और उन्हें खोखला बना दिया जाता है। हिटलर की नात्सी पार्टी  की तरह इक्कीसवीं सदी का फ़ासीवाद औपचारिक तौर पर पूँजीवादी लोकतन्त्र और उसके चुनावों व अन्य संस्थाओं को ख़त्म नहीं करेगा। लेकिन उन्हें ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया जायेगा कि उनका रहना न रहना बराबर हो जायेगा। मोदी-शाह की जोड़ी यही काम कर रही है और इसका मुक़ाबला सिर्फ़़ न्यायपालिका में नहीं बल्कि सड़क पर उतरकर भी करना होगा। जनता को चुनावों की प्रक्रिया में हो रही हेराफेरी के प्रति जागरूक बनाना होगा और उन्हें गोलबन्द और संगठित करना होगा।

इन सभी चिन्ताओं के विषय में चुनाव आयोग को कुछ नहीं कहना है। चुनाव की तारीख़ें तय करने से लेकर मोदी की सुविधानुसार बेहद लम्बा चुनाव कार्यक्रम तय करने तक, सबकुछ भाजपा के इशारे पर किया जा रहा है। याद कीजिए, 2017 में गुजरात चुनाव के समय तरह-तरह के बहानों से चुनाव तब तक टाले गये थे, जब तक कि मोदी ने ढेर सारी चुनावी घोषणाएँ नहीं कर डालीं और सरकारी ख़र्च पर प्रचार का पूरा फ़ायदा नहीं उठा लिया। ऐसे में, यह कहना ग़लत नहीं होगा कि चुनाव आयोग भाजपा के चुनाव विभाग के तौर पर काम कर रहा है। सोशल मीडिया पर जनता का दिया नाम – केचुआ – अब उस पर पूरी तरह लागू हो रहा है। ज़ाहिर है, फ़ासीवाद ने पूँजीवादी चुनावों की पूरी प्रक्रिया को ही बिगाड़कर रख दिया है।

आम मेहनतकश जनता को इस बारे में चौकस रहना चाहिए। चुनाव का पूँजीवादी जनवादी हक़ हमारे लिए ज़रूरी है। हम अपने मज़दूर वर्गीय दूरगामी राजनीतिक संघर्ष को पूँजीवादी जनवाद के रहते हुए तेज़ी से आगे बढ़ा सकते हैं और चुनने और चुने जाने का अधिकार पूँजीवादी जनवाद का सबसे बुनियादी अधिकार है। (हालाँकि मज़दूर वर्ग के लिए ‘चुने जाने के अधिकार’ में इतनी बाधाएँ खड़ी कर दी जाती हैं, कि वह आम तौर पर चुनाव में इस अधिकार का उपयोग ही नहीं कर पाता है।) इस अधिकार को पूर्ण बनाने के लिए भी संघर्ष किया जाना चाहिए और इसे बचाने के लिए भी। इसलिए अगर चोर दरवाज़े से इस अधिकार को फ़ासिस्ट मोदी सरकार नष्ट करने की कोशिश करती है, तो हमें ज़रूरत पड़ने पर सड़कों पर उतरकर इसके लिए संघर्ष करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2019


 

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