मुज़फ़्फ़रपुर : एक और सामूहिक हत्याकाण्ड

जिस वक़्त देश का खाया-पिया-अघाया मध्यवर्ग क्रिकेट मैच में पाकिस्तान को हराने की ख़ुमारी में झूम रहा था और पार्टी कर रहा था और देश का गृहमंत्री इसे एक और ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ बताते हुए ट्वीट कर रहा था, उसी समय बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले में एक्यूट इन्सेफ़लाइटिस (चमकी बुखार) से सौ से ज़्यादा बच्चों की मौत चन्द दिनों में हो चुकी थी। पूरे बिहार में 126 बच्चे इस बुखार से दम तोड़ चुके थे। उन्हीं अस्पतालों में जहाँ उनके ग़रीब माँ-बाप उनकी ज़िन्दगी बचाने की आस लेकर आये थे। मौत का ताण्डव उसके बाद भी जारी रहा। और उन लोगों की शर्मनाक हरकतें भी जारी रहीं जिन पर इन बच्चों को बचाने की ज़िम्मेदारी थी। मुज़फ़्फ़रपुर में हो रही प्रेस कॉन्फ़्रेंस में बिहार का स्वास्थ्य मंत्री मैच का स्कोर पूछ रहा था, केन्द्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री सो रहा था और केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री बेशर्मी से उन्हीं वादों को दोहरा रहा था जो वह पाँच वर्ष पहले हुई ऐसी मौतों के समय मुज़फ़्फ़रपुर की जनता से करके गया था। ज़िले का सांसद जुमलेबाज़ प्रधानमंत्री की तर्ज़ पर शब्दों का खेल खेलते हुए इन मौतों के लिए 4जी (गाँव, गर्मी, ग़रीबी और गन्दगी) को दोष देकर सरकार की ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ चुका था।

यह एक और सामूहिक हत्याकाण्ड था। “विकास पुरुष” मोदी और “सुशासन बाबू” नीतीश कुमार की सरकारों की देखरेख में हुआ ग़रीब बच्चों का हत्याकाण्ड!

यूरोप का कोई देश होता तो इतनी बड़ी घटना पर सरकार गिर गयी होती। लेकिन हमारा समाज जड़ता और असंवेदनशीलता की ऐसी शर्मनाक और डरावनी हालत में पहुँचा दिया गया है कि ऐसे झकझोर देने वाले मामलों पर भी न तो कोई आन्दोलन खड़ा होता है और न ही सरकारों को कठघरे में खड़ा किया जाता है।

केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन 2014 में 200 से अधिक बच्चों की मौत के बाद मुज़फ़्फ़रपुर मेडिकल कॉलेज गये थे और कई घोषणाएँ कर आये थे। 2014 में हर्षवर्धन ने कहा था कि 100 फ़ीसदी टीकाकरण होना चाहिए, कोई बच्चा टीकाकरण से नहीं छूटना चाहिए. जल्दी ही यहाँ 100 बिस्तरों वाला बच्चों का अस्पताल बनाया जायेगा, आदि-आदि। मोदी ने 2014 में इन्सेफ़लाइटिस से मरने वाले बच्चों के लिए रुआँसे गले से शोक प्रकट किया था और सत्ता में आने पर सब ठीक करने का सपना दिखाया था। मगर इन पाँच सालों में जब देश का जीडीपी कुलाँचे भर रहा था और जनता को देश के महाशक्ति बनने के सपने दिखाये जा रहे थे, तब केन्द्र और राज्य की सरकारों ने मुज़फ़्फ़रपुर को लेकर ऐसा कुछ भी नहीं किया जो बच्चों को मौत के मुँह में जाने से रोक सके।

इतने बड़े पैमाने पर बच्चों की मौत की यह पहली घटना नहीं है। अगस्त-सितम्बर 2017 में गोरखपुर में तीन सौ से भी ज़्यादा बच्चों ने इन्सेफ़लाइटिस से दम तोड़ दिया था। करीब 100 बच्चों की मौत दो ही दिनों में सिर्फ़ इसलिए हो गयी थी क्योंकि भुगतान नहीं करने के कारण मेडिकल कॉलेज को ऑक्सीजन की सप्लाई बन्द कर दी गयी थी। वह भी तब जब गोरखपुर और उसके आसपास के ज़िलों में पिछले 40 सालों में जापानी इन्सेफ़लाइटिस से 50 हज़ार से ज़्यादा मौतें हो चुकी हैं और हर वर्ष इस मौसम में उस इलाक़े का एकमात्र मेडिकल कॉलेज बीमार बच्चों से भर जाता है।

बिहार में भी चमकी बुखार का प्रकोप नया नहीं है। हर वर्ष इससे मौतें होती हैं लेकिन सरकारों के लिए इन ग़रीब लोगों की जान की क़ीमत कीड़ों-मकोड़ों से ज़्यादा नहीं है।

नेशनल सैंपल सर्वे के आँकड़ों के आधार पर 2016 में ‘द टेलीग्राफ़’ अख़बार में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार में स्वास्थ्य पर औसतन प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष ख़र्च 348 रुपए है, जबकि राष्ट्रीय औसत 724 रुपया है। निजी अस्पतालों में भर्ती का अनुपात राज्य में 44.6 प्रतिशत है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह 56.6 प्रतिशत है। लेकिन निजी अस्पतालों में दिखाने का अनुपात बिहार में 91.5 प्रतिशत है जबकि राष्ट्रीय अनुपात 74.5 प्रतिशत है। बिहार की सिर्फ़ 6.2 प्रतिशत आबादी के पास स्वास्थ्य बीमा है। इसमें राष्ट्रीय औसत 15.2 प्रतिशत है। राज्य के 11 प्रतिशत परिवार स्वास्थ्य पर बहुत भारी ख़र्च के बोझ तले हुए हैं।

वर्ष 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की शुरुआत के बाद स्वास्थ्य के बजट में सालाना 10 प्रतिशत बढ़ोत्तरी की दरकार को बिहार सरकार ने लागू ही नहीं किया है। हालाँकि 2014-15 में बजट का 3.8 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य के मद में था और यह 2016-17 में 5.4 प्रतिशत हो गया, लेकिन 2017-18 में यह गिरकर 4.4 प्रतिशत हो गया। इस अवधि में राज्य के कुल बजट में 88 प्रतिशत की बढ़त हुई थी। बिहार में स्वास्थ्य ख़र्च का लगभग 80 प्रतिशत परिवार ख़ुद उठाता है, जबकि इस मामले में राष्ट्रीय औसत 74 प्रतिशत है।

बिहार में एक भी ऐसा सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र नहीं है, जो स्थापित मानकों पर खरा उतरता हो। सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों के अभाव के मामले में भी बिहार पहले स्थान पर है। साल 2015 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन ने जानकारी दी थी कि हर एक लाख जनसंख्या पर एक ऐसा केन्द्र होना चाहिए। इस हिसाब से बिहार में 800 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों की दरकार है लेकिन राज्य में 200 ही ऐसे केन्द्र हैं। राज्य में 3,000 से अधिक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र होने चाहिए, लेकिन ऐसे केन्द्रों की संख्या सिर्फ़ 1,883 है। एक ग्रामीण स्वास्थ्य उपकेन्द्र के तहत लगभग 10 हज़ार आबादी होनी चाहिए, लेकिन बिहार में ऐसा एक उपकेन्द्र 55 हज़ार से अधिक आबादी का उपचार करता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार बिहार भारत के उन चार राज्यों में है, जहाँ स्वास्थ्यकर्मियों की बहुत चिन्ताजनक हद तक कमी है। एलोपैथिक डॉक्टरों की उपलब्धता के मामले में भी बिहार सबसे नीचे है। नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल के मुताबिक, बिहार में 28,391 लोगों पर एक डॉक्टर है, जबकि दिल्ली में यही आँकड़ा 2,203 पर एक डॉक्टर का है। इनमें से भी ज़्यादातर डॉक्टर शहरों में हैं। नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल 2018 के अनुसार, बिहार की 96.7 प्रतिशत महिलाओं को प्रसव से पहले पूरी देखभाल नहीं मिलती है।

यूनिसेफ़ के अनुसार, बच्चों में गम्भीर कुपोषण के मामले में भी बिहार देश में पहले स्थान पर है। साल 2014-15 और 2017-18 के बीच पोषण का बजट भी घटाया गया है। मुज़फ़्फ़रपुर में इतनी बड़ी संख्या में बच्चों की मौत के पीछे भी कुपोषण एक बड़ा कारण है।

बीमारी का यह हमला आकस्मिक नहीं था। इंसेफे़लाइटिस की वजह से हर साल हमारे देश में हज़ारों बच्चे मर जाते हैं। यह बीमारी हर बार इसी मौसम में अपना क़हर ढाती है। 1978 से अब तक इन्सेफ़लाइटिस अकेले पूर्वांचल में 50 हज़ार से अधिक मासूमों को लील चुकी है। 2005 में इसने महामारी का रूप लिया था। तब अकेले गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में 1132 मौतें हुई थीं।

और यह सिर्फ़ मुज़फ़्फ़रपुर या गोरखपुर की बात नहीं है। पूरे ही देश में स्वास्थ्य सेवाओं का यही हाल है। जनता को हर तरह की स्वास्थ्य सेवा देने की जि़म्मेदारी होती है सरकार की। लेकिन अव्वल तो सरकार यह करती नहीं है और कुछ सरकारी अस्पताल जो ठीकठाक काम करते भी थे, उनकी हालत भी अब बद से बदतर होती जा रही है। पिछले तीन दशकों के दौरान आर्थिक सुधारों और नवउदारवादी नीतियों के चलते हर क्षेत्र की तरह जनस्वास्थ्य की हालत भी खस्ता हो चुकी है। सरकार लगातार इस क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ाती जा रही है। पूँजीपति तो कोई भी काम मुनाफ़े के लिए ही करता है तो ज़ाहिर है कि स्वास्थ्य सेवाएँ महँगी तो होनी ही हैं। और महँगी होने के बाद भी जान नहीं बचती। परिणाम हमारे सामने है।

अच्छे दिन और विकास के लोकलुभावन नारे उछालने वाली और झूठे राष्ट्रवाद के नाम पर नफ़रत की राजनीति करने वाली सरकारों को आम आदमी की सेहत का कोई ख़्याल नहीं रहता है। जो बीमारियाँ दुनिया के ज़्यादातर देशों से ग़ायब हो गयीं उनसे भी हमारे देश में आम लोग मरते रहते हैं। बीमारी के सही इलाज के इन्तज़ाम करना, उससे बचाव के बारे में लोगों को जागरूक करना और किसी आपातस्थिति से निपटने की पूरी तैयारी रखना सरकार को ही सुनिश्चित करना चाहिए। इनके लिए ज़रूरी बजट हर हाल में उपलब्ध होना चाहिए। साथ में यह भी सुनिश्चित होना चाहिए कि यह बजट सही समय पर सही जगह लग जाये। लेकिन इनमें से कोई भी चीज़ नहीं होती और इसी तरह से मरीज़ मौत का शिकार हो जाते हैं। बजट की बात करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार किसी भी देश को अपनी जीडीपी का कम-से-कम 5 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य क्षेत्र में लगाना चाहिए। भारत की सरकारों ने पिछले दो दशक के दौरान लगातार 1 प्रतिशत के आसपास ही इसमें लगाया है। 11वीं पंचवर्षीय योजना में 2 प्रतिशत का लक्ष्य रखा गया था और केवल 1.09 प्रतिशत ही लगाया गया। 12वीं योजना के पहले सरकार ने उच्च स्तरीय विशेषज्ञों का एक ग्रुप बनाया था जिसने इस योजना में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जीडीपी का 2.5 प्रतिशत निवेश करने की सिफ़ारिश की थी, लेकिन सरकार द्वारा लक्ष्य रखा गया सिर्फ़ 1.58 प्रतिशत। पिछले बजट में भी यह डेढ़ प्रतिशत के आसपास ही रहा है। भारत में स्वास्थ्य सेवाओं में निजी क्षेत्र द्वारा किया गया निवेश इस क्षेत्र में किये गये कुल निवेश का 75 प्रतिशत से भी ज़्यादा है। पूरी दुनिया में स्वास्थ्य सेवाओं के अन्तर्गत निजी क्षेत्र की होने वाली सबसे बड़ी भागीदारियों में एक नाम भारत का भी है। ज़ाहिर है कि निजी क्षेत्र की ये कम्पनियाँ लोगों के स्वास्थ्य से खेलते हुए पैसे बना रही हैं। इनकी दिलचस्पी लोगों के स्वास्थ्य में नहीं बल्कि अपने मुनाफ़े में होती है और जब इनको लगता है कि मुनाफ़ा कम होने लगा है या उसमें कोई अड़चन आ गयी है तो ये ऐसा ही करती हैं जैसे पुष्पा सेल्स नाम की कम्पनी ने गोरखपुर में ऑक्सीजन सप्लाई रोककर किया था। और यह सब सरकार की शह पर होता है।

देश के हर नागरिक को स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित होनी चाहिए। सही समय पर सही अस्पताल, डॉक्टर और इलाज मुहैया हो यह ज़िम्मेदारी भी सरकार की ही है। मानकों के अनुसार हमारे देश में हर 30,000 की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, हर एक लाख की आबादी पर 30 बेड वाला एक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र और हर सब-डिवीज़न पर 100 बेड वाला सामान्य अस्पताल होना चाहिए, लेकिन यह भी सिर्फ़ काग़ज़ों पर है। और ये काग़ज़ों के मानक भी सालों पुराने हैं जिनमें कोई बदलाव नहीं किया गया है। बदलाव करना तो दूर की बात, इन्हीं मानकों को सही ढंग से लागू नहीं किया जाता, जबकि पिछले दो दशक में कुकुरमुत्तों की तरह प्राइवेट और कॉरपोरेट अस्पताल ज़रूर उग आये हैं, जिनमें जाकर मरीज या तो बीमारी से मर जाता है या फिर इनके भारी-भरकम ख़र्चे की वजह से।

टीआरपी की खोज में टीवी चैनलों के कैमरे कुछ दिनों तक मुज़फ़्फ़रपुर के अस्पताल में मँडराने के बाद लौट जायेंगे। मीडिया और नेताशाही-अफ़सरशाही के लिए मुज़फ़्फ़रपुर के ये बच्चे वैसे ही भुला दिये जायेंगे जैसे पिछले वर्ष इसी शहर में मासूम बच्चियों के बलात्कार की वहशी घटनाओं को भुला दिया गया। वैसे ही जैसे गोरखपुर के सैकड़ों मासूमों की मौत को भुला दिया गया। मगर हमें इन मौतों को याद रखना होगा। अगर अब भी आपके दिल में इन हत्यारों के प्रति नफ़रत और ग़ुस्सा नहीं फूट पड़ता, तो आपको इलाज की ज़रूरत है। वरना, अगर इन्सान हैं, तो जाग जाइए, और इन आदमख़ोरों से अपने बच्चों को, अपने समाज को, अपने मुल्क को बचाने के लिए आवाज़ उठाइए।


 

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