मोदी सरकार की वापसी : मेहनतकश जनता पर नये कहर की शुरुआत

 

यह हताश-निराश होने का नहीं बल्कि फासीवाद-विरोधी संघर्ष के नये दौर की शुरुआत करने का समय है!

सम्पादक मण्डल

पूँजीपति वर्ग की खुली तिजोरियों की ताक़त, झूठे राष्‍ट्रवाद के अन्‍धाधुन्‍ध प्रचार और चुनाव में तमाम तरह के हथकण्‍डों-घोटालों के दम पर मोदी सरकार एक बार फिर सत्ता में आ गयी है। संसद में मोदी के सद्भावना से भरे भाषण को भूल जाइये, इस सरकार ने महीने भर से भी कम समय में दिखा दिया है कि पिछले पाँच वर्ष के दौरान देश की मेहनतकश जनता पर मुसीबतों का जो कहर टूटा, आने वाले दिन उससे भी बुरे होने वाले हैं।

 

पिछले 45 साल का रिकॉर्ड तोड़ रही बेरोज़गारी की जिस ख़बर को झुठलाने में पूरी सरकार जुट गयी थी, सरकार बनते ही उसे बेशर्मी के साथ स्‍वीकार कर लिया गया। मोदी के आर्थिक सलाहकार रहे अरविन्‍द सुब्रमण्‍यम ने कलई खोल दी कि जीडीपी बढ़ने के जो गुलाबी आँकड़े पेश करके सरकार जनता को आने वाले अच्छे दिनों के हसीन सपने दिखा रही थी, वे फ़र्ज़ी आँकड़े थे। पुलवामा में आतंकवादी हमले में सैनिकों की मौत को बेशर्मी से चुनाव जीतने में इस्‍तेमाल करने और देश को “सुरक्षित रखने” का दावा करने वाले मोदी के दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में ही एक के बाद एक कई आतंकवादी हमले हो चुके हैं, मगर अब कोई सवाल नहीं उठता। चुनाव ख़त्‍म होते ही मज़दूरों की बेहिसाब छँटनी का सिलसिला शुरू हो चुका है। महँगाई तेज़ी से बढ़ने लगी है। मुज़फ़्फ़रपुर में कुपोषण और बीमारी से इलाज के अभाव में मरते बच्‍चों ने विकास के सारे दावों को एक घिनौना मज़ाक बना दिया है।

मोदी की दूसरी जीत ने प्रगतिशील, वाम और उदारवादी बुद्धिजीवियों के साथ ही आम मेहनतकशों, अल्‍पसंख्‍यकों और दलित-वंचित समुदायों के एक बड़े हिस्‍से में भी निराशा पैदा की है जो पिछले पाँच वर्षों के पागलपन और ज़ुल्‍म से निजात पाने की उम्‍मीद लगाये हुए थे। हालाँकि उन बुद्धिजीवियों के लिए यह सदमा ज़्यदा गहरा है जो इतिहास के सभी अनुभवों की अनदेखी करते हुए चुनावों में हराकर फ़ासीवाद को पीछे धकेल देने का मुगालता पाले हुए थे। ऐसे तमाम लोग अब जनता को ही कोसने और गालियाँ देने में लगे हैं कि उसने क्‍यों फ़ासिस्‍टों को दोबारा सत्ता सौंप दी। वे यह भूल गये कि यही जनता थी जो बंगाल, केरल और त्रिपुरा में वाम मोर्चा सरकारों को बार-बार चुनती रही थी। इसी जनता ने भाजपा के शासन के बाद यूपीए को भी दो बार सत्ता सौंपी थी–एक बार वाम के समर्थन से और एक बार उसके बग़ैर। ऐसे बुद्धिजीवियों से तो यही कहा जा सकता है कि उन्‍हें बेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट की कविता को याद करके अपने लिए नयी जनता चुन लेनी चाहिए।

मोदी की दोबारा जीत क्‍यों मुमकिन हुई?

क्‍या कारण है कि पिछले पाँच वर्षों में बेरोज़गारी और भ्रष्‍टाचार के सारे कीर्तिमान ध्‍वस्‍त होने के बाद भी भाजपा को ऐसी जीत मिली है? बहुत से लोगों को उम्‍मीद थी कि आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार के पूरी तरह नाकाम होने के बाद उसकी हार पक्‍की होगी। बेशक, ऐसा हो सकता था, अगर जनता के सामने कोई वास्‍तविक विकल्‍प मौजूद होता। मगर यह सोच सही नहीं थी कि नोटबन्‍दी, जीएसटी जैसी विनाशकारी नीतियों और महँगाई, बेरोज़गारी में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी के कारण के कारण जनता की तबाही अपनेआप राजनीतिक असन्‍तोष और मोदी के विरुद्ध मतदान में तब्‍दील हो जायेगा। इसे समझने के लिए हमें लेनिन की वह बात याद करनी चाहिए कि अन्‍तत: राजनीति निर्णायक होती है, न कि अर्थशास्‍त्र। दोनों के बीच बेशक़ रिश्‍ता होता है, लेकिन आर्थिक कारकों का असर राजनीतिक रूप से प्रकट हो, यह बहुत से कारकों पर निर्भर करता है।

इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि मौजूदा चुनावी नतीजों का तार्किक विश्‍लेषण किया जाय और फ़ासीवाद को हराने की ठोस रणनीति बनायी जाये। पिछले पाँच वर्षों में मज़दूरों, किसानों, युवाओं, दलितों, स्त्रियों व आदिवासियों की अभूतपूर्व तबाही के बावजूद, मोदी सरकार को फिर से चुनाव में विजय प्राप्‍त होने के कारणों का विश्‍लेषण आवश्‍यक है, ताकि क्रान्तिकारी ताक़तें आने वाले पाँच वर्षों में फ़ासीवादी हमलों से निपटने और अन्‍तत: फ़ासीवादी उभार को परास्‍त करने की दूरगामी रणनीति पर कारगर तरीके से काम कर सकें।

आर्थिक असन्‍तोष अपनेआप राजनीति असन्‍तोष में तब्‍दील नहीं होता। इसके लिए समाज में कोई ऐसी राजनीतिक ताक़त होनी चाहिए जो बिखरे हुए आर्थिक असन्‍तोष को संगठित राजनीतिक प्रतिरोध में बदल सके। ऐसी राजनीतिक शक्ति के अभाव में नतीजे बिल्‍कुल उलट हो सकते हैं। ऐसी राजनीतिक शक्ति के बिना, जनता का, ख़ासकर निम्‍न मध्‍यवर्ग का बिखरा हुआ आर्थिक असन्‍तोष उन्‍हें फ़ासीवादी प्रतिक्रिया की गोद में भी धकेल सकता है। जैसाकि हमने इस चुनाव में देखा।

चूँकि भारत में इस समय ऐसी कोई ताक़त मौजूद नहीं है जो जनसाधारण के बिखरे हुए आर्थिक असन्‍तोष को एक मज़बूत राजनीतिक प्रतिरोध में ढाल सके, इसलिए भाजपा लोगों को अन्धराष्‍ट्रवाद और साम्‍प्रदायिकता की लहर में बहाने में सफल रही और मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण पाँच वर्षों में बेपनाह आर्थिक परेशानियाँ झेलने के बावजूद जनता के एक बड़े हिस्‍से ने मोदी को फिर वोट दे दिया।
मोदी की जीत के पीछे दूसरा सबसे बड़ा कारण है लगभग समूचे बड़े पूँजीपति वर्ग का एकमत समर्थन। एक बार फिर से साबित हुआ है कि पूँजीवादी जनवाद के तहत चुनावों में अन्‍तत: विजय उसी की होती है, जिसके पीछे बड़े पूँजीपति वर्ग का समर्थन होता है। हम सभी जानते हैं कि पिछले पाँच वर्षों में भारत के सभी बड़े पूँजीवादी घरानों ने भाजपा को सर्वाधिक चन्‍दा दिया है। यह राशि हज़ारों करोड़ में है। ज्ञात तौर-तरीकों के अलावा चुनावी बॉण्‍डों के ज़रिये भी देशी-विदेशी पूँजीपति अपनी पूरी आर्थिक शक्तिमत्‍ता के साथ भाजपा के पीछे खड़े थे। अन्‍य पूँजीवादी दल भी इस दौड़ में कहीं पीछे छूट गये।

सेंटर फ़ॉर मीडिया स्‍टडीज़ की रिपोर्ट के अनुसार इस लोकसभा चुनाव में कुल 60,000 करोड रुपये ख़र्च हुए जिसमें भाजपा ने अकेले 27,000 करोड़ रुपये ख़र्च किये। यह रकम बाक़ी सभी पार्टियों के कुल ख़र्च से भी बढ़कर है। पूँजीपतियों की थैलियों के दम पर भाजपा ने बुर्जुआ मीडिया को अपने भोंपू में पहले ही बदल डाला था, इस चुनाव में उसे मीडिया का भरपूर फ़ायदा मिला। जब जनता ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई और भ्रष्‍टचार से थकी और बेहाल हो, उसमें वर्ग चेतना का अभाव हो, और उनके बीच सच्‍चाई को उजागर करने वाली कोई मज़बूत शक्ति मौजूद न हो, तो ऐसे में झूठ और प्रोपेगैण्‍डा को लगातार दोहराये जाना बहुत असरकारी हो जाता है। पूरा सरकारी और कॉरपोरेट मीडिया मोदी की अगुवाई में फ़ासिस्‍टों के आगे साष्‍टांग दण्‍डवत था। मीडिया की बेहयाई और धोखाधड़ी भारत के इतिहास में इतनी नंगई के साथ कभी नहीं दिखायी दी थी। पिछले सात दशकों के दौरान आर.एस.एस. ने राज्‍य मशीनरी और मीडिया में व्‍यवस्थित ढंग से जो घुसपैठ की है, उसका पूरा लाभ उसे अब मिल रहा है। सिर्फ़ मोदी-शाह की जोड़ी द्वारा मीडिया को ख़रीदने का ही यह नतीजा नहीं है, बल्कि मीडिया में संघ के वैचारिक और राजनीतिक वर्चस्‍व ने उसे इस हाल में पहुँचाया है।

चुनाव प्रचार में, वोटों की खरीद-फ़रोख्‍त में, फ़र्ज़ी उम्‍मीदवार खड़ाकर अपने विरोधी के वोट काटने में, पैसे और दारू बँटवाने में, ईवीएम के साथ बेहद संठित तरीक़ों से छेड़छाड़ करवाने या बदलवाने में, नौकरशाहों और न्‍यायपालिका तक को ख़रीदने में और धमकाने में बड़े पैमाने पर पैसों की ज़रूरत होती है। भाजपा के पास जितना धनबल है, भारतीय पूँजीवादी जनवाद के पूरे इतिहास में किसी भी पूँजीवादी दल के पास ऐसा धनबल नहीं रहा है। भाजपा इस धनबल के बूते उपरोक्‍त सभी तिकड़मों को अंजाम देने में सफल रही है। वहीं कांग्रेस, सपा-बसपा गठबन्‍धन, तृणमूल कांग्रेस आदि जैसे तमाम दल इस दौड़ में कहीं दिखायी नहीं पड़ते। धनबल के अलावा इसमें एक कारण भाजपा का सुसंगठित फ़ासीवादी तंत्र, संगठन और कार्यसंस्‍कृति भी है। लेकिन सबसे बड़ा कारक भाजपा को बड़े पूँजीपति वर्ग का एकमत समर्थन ही है। इस एकमत समर्थन का कारण पूरी दुनिया भर में पूँजीवादी व्‍यवस्‍था का संकट है जो कि मुनाफ़े की गिरती दर में प्रकट हो रहा है। मुनाफ़े की दर को बढ़ाने के लिए पूँजीपति वर्ग पूरी दुनिया में मज़दूर वर्ग की मज़दूरी को घटाने, काम के घण्‍टों को क़ानूनी या ग़ैर-क़ानूनी तरीक़ों से बढ़ाने और श्रम की सघनता को बढ़ाने का प्रयास कर रहा है। पूँजीपति वर्ग को पता है कि इन प्रयासों के विरुद्ध मज़दूर वर्ग चुप नहीं बैठेगा और प्रतिरोध व आन्‍दोलन करेगा। ऐसे में, पूँजीपति वर्ग को तमाम देशों में ऐसी सत्‍ता की ज़रूरत है जो कि तानाशाहाना तरीके से इस प्रतिरोध को कुचले और जनता को आपस में बाँटकर प्रतिरोध को बिखरा दे। यही कारण है कि पूँजीपति वर्ग अमेरिका, तुर्की, फिलिप्‍पींस, इण्‍डोनेशिया, यूनान, हंगरी और साथ ही भारत जैसे तमाम देशों में धुर दक्षिणपंथी व फ़ासीवादी शक्तियों को अपना एकमत समर्थन दे रहा है। भाजपा को भी इसी वजह से समूचे कारपोरेट जगत से भारी वित्‍तीय समर्थन प्राप्‍त हुआ है।

भाजपा की जीत का तीसरा प्रमुख कारण है इस पार्टी का अन्‍य पूँजीवादी पार्टियों से अन्‍तर – यह कोई सामान्‍य पूँजीवादी पार्टी नहीं है, बल्कि एक फ़ासीवादी पूँजीवादी पार्टी है। इसके पीछे काडरों का एक विशाल ढाँचा है, जिसे हम राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के नाम से जानते हैं। फ़ासीवादी विचारधारा पर आधारित यह काडर ढाँचा भाजपा की सबसे बड़ी शक्ति है। अन्‍य तमाम पूँजीवादी दल, चाहे वह कांग्रेस हो, सपा-बसपा हो, राकांपा हो या तृणमूल, तेदेपा आदि हों, वे एक सचेतन विचारधारा पर आधारित और काडर-आधारित पार्टियाँ नहीं हैं। यही कारण है कि उनका सांगठनिक ढाँचा कभी भी भाजपा व संघ परिवार के सांगठनिक ढाँचे जितना अनुशासित और प्रभावी नहीं हो सकता है। भाजपा अपने अन्‍धराष्‍ट्रवादी और साम्‍प्रदायिक प्रचार को जितनी प्रभाविता से तृणमूल धरातल पर पहुँचा सकती है, कोई सामान्‍य पूँजीवादी दल उतनी प्रभाविता से यह कार्य आम तौर पर नहीं कर पाता है। भाजपा का प्रचार तंत्र असफल तब होता है, जबकि विभिन्‍न वस्‍तुगत और मनोगत कारकों के चलते, मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी और साथ ही आम मध्‍य वर्ग की आर्थिक बदहाली और तबाही उनके राजनीतिक मत को निर्धारित करने लगती है। यानी कि जब जनता अपने हालात के प्रति राजनीतिक तौर पर सचेत हो और इस चेतना को प्रभावी बनाने वाली राजनीतिक शक्तियाँ मौजूद हों। विपक्षी पूँजीवादी दल यह काम करने में इस बार पूरी तरह असफल रहे, हालाँकि ऐसा करने की वस्‍तुगत शर्तें मौजूद थीं। वे असफल क्‍यों रहे, इसका सबसे प्रमुख कारण बड़े पूँजीपति वर्ग के समर्थन का अभाव था, जिस पर हम ऊपर बात कर चुके हैं, लेकिन साथ ही एक काडर-आधारित ढाँचे का अभाव भी इसमें एक भूमिका निभाता है।

मोदी की जीत की चौथी ख़ास बात सशस्‍त्र बलों, पुलिस, नौकरशाही और न्‍यायपालिका सहित राज्‍य तंत्र के सभी अंगों में संघ की गहरी और व्‍यवस्थित घुसपैठ का नतीजा है। चुनाव के दौरान निर्वाचन आयोग, सुप्रीम कोर्ट, पुलिस से लेकर सशस्‍त्र बलों तक का भाजपा के पक्ष में किया गया आचरण सभी के सामने है। सबने देखा कि किस तरह से राज्‍य के ये संस्‍थान भाजपा की जीत के लिए खुलकर काम कर रहे थे। ईवीएम में छेड़छाड़ के अनेक गहरे सन्‍देहों की जाँच करने से लेकर मोदी-शाह द्वारा चुनाव आचार संहिता के खुले उल्‍लंघन पर कार्रवाई नहीं करने तक से ज़ाहिर था कि ईवीएम ही नहीं, पूरा चुनाव आयोग ही हैक हो चुका है। उल्‍लेखनीय है कि केवल तीन पक्षों ने वीवीपैट पर्चियों के 100 प्रतिशत मिलान का विरोध किया – भाजपा, चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट! वीवीपैट मशीनों पर हज़ारों करोड़ ख़र्च करने के बावजूद, चुनाव आयोग ने 50 प्रतिशत पर्चियों का मिलान करने, या वीवीपैट को पहले गिनने की हर माँग को ठुकरा दिया।

बेशक़, इन धाँधलियों के बिना भाजपा शायद अपने दम पर बहुमत न हासिल कर पाती। फिर भी हो सकता है कि वह सबसे बड़ा दल बनकर आती और दूसरी पार्टियों के साथ मिलकर सरकार बना लेती। लेकिन तब मोदी-शाह की जोड़ी के लिए आगे की राह इतनी आसान नहीं होती।

इस चुनाव की पाँचवी विशेषता इक्‍कीसवीं सदी में फ़ासीवाद के उभार की ख़ासियतों को दर्शाती है। पिछले सत्तर वर्षों में संघ परिवार ने समाज की पोर-पोर में जो अपनी घुसपैठ बनायी है, वह अब रंग ला रही है। भारत में हिन्‍दुत्‍व फ़ासीवाद का उभार कई प्रक्रियाओं का नतीजा है जो अक्‍सर साथ-साथ चलती रही हैं। पहली प्रक्रिया 1910 से लेकर 1940 तक चली जिसमें सावरकर, हेडगेवार और फिर गोलवलकर द्वारा फ़ासीवाद के हिन्‍दुत्‍व अवतार की वैचारिक बुनियाद रखी गयी। इसके साथ ही 1920 के दशक से दूसरी प्रक्रिया शुरू हुई जिसमें एक मज़बूत काडर-आधारित संगठन खड़ा किया गया। यह प्रक्रिया 1940 के दशक में मुकम्‍मल हो चुकी थी हालाँकि इसमें लगातार इज़ाफ़ा होता रहा है। तीसरी प्रक्रिया है आर.एस.एस. द्वारा संस्‍थाओं का विकास जिनके ज़रिये वह समाज में मिथकों को कॉमन सेंस के रूप में स्‍थापित करके, मुसलमानों और अन्‍य अल्‍पसंख्‍यकों के रूप में एक नकली दुश्‍मन खड़ा करके समाज में एक साम्‍प्रदायिक फासिस्‍ट आम सहमति तैयार करता है। शाखाओं, स्‍कूलों, सांस्‍कृतिक संस्‍थाओं, प्रकाशनों आदि का व्‍यापक नेटवर्क 1930 के दशक में शुरू हुई इसी प्रक्रिया का नतीजा है। चौथी प्रक्रिया 1920 में ख़ुद संघ की स्‍थापना के साथ शुरू हुई थी। यह प्रक्रिया संघ द्वारा व्‍यापारिक टुटपूँजिया वर्ग के बीच छोटे मगर मज़बूत समर्थन आधार के निर्माण की प्रक्रिया थी। लेकिन आज़ादी के पहले संघ के लिए निम्‍न पूँजीपति वर्ग का प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्‍दोलन खड़ा कर पाना सम्‍भव नहीं था क्‍योंकि निम्‍न पूँजीपति वर्ग की व्‍यापक आबादी कांग्रेस के नेतृत्‍व में आज़ादी की लड़ाई का समर्थन कर रही थी जिससे आर.एस.एस; ने हमेशा दूरी बनाये रखी और अंग्रेज़ हुक़ूमत से साँठगाँठ करते रहे। आज़ादी के बाद भी महात्‍मा गाँधी की हत्‍या के कारण आर.एस.एस. 1960 के दशक की शुरुआत तक लगभग समाज के हाशिए पर ही रहा। 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय कम्‍युनिस्‍ट-विरोधी प्रचार के साथ ही संघ की किस्‍मत बदलने लगी। कांग्रेस की सरकार भी इससे खु़श थी और उसने आर.एस.एस को कम्‍युनिस्‍टों के विरुद्ध अपना गन्‍दा कुत्‍सा-प्रचार चलाने की खुली छूट दी। फिर 1967 में राज्‍यों में ग़ैर-कांग्रेसी सरकारें बनने के साथ आर.एस.एस. वापस मुख्‍यधारा की राजनीति में लौट आया जिसका श्रेय राममनोहर लोहिया के नेतृत्‍व में सोशलिस्‍टों को जाता है। 1970 के दशक की शुरुआत से संघ ने निम्‍न पूँजीपति वर्ग का प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्‍दोलन खड़ा करने के प्रयास शुरू कर दिये थे लेकिन उनकी कोशिशों का नतीजा 1980 के दशक की शुरुआत में सामने आने लगा।

भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को 1980 के दशक में अपनी चपेट में लेने वाला आर्थिक संकट सार्वजनिक क्षेत्र के पूँजीवाद का संकट था। जिस राज्‍य एकाधिकारी पूँजीवाद ने जनता के पैसों से खड़े किये गये सार्वजनिक क्षेत्र की बदौलत भारत के निजी पूँजीपति घराने अपने पैरों पर खड़े हो सके थे, वही अब उनके लिए बाधा बनने लगे था। निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के साथ भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को नेहरू काल के आर्थिक ढाँचे से मुक्‍त करने और निजी पूँजीपतियों को खुली छूट देने का जो दौर शुरू हुआ उसी समय संघ परिवार का प्रभाव तेज़ी से बढ़ा। 1986 से शुरू होकर 1992 में बाबरी मस्जिद के ढहने तक चला राम जन्‍मभूमि आन्‍दोलन भारत में हिन्‍दुत्‍ववादी फ़ासीवाद के तीव्र उभार का पहला दौर था। तीव्र उभार का दूसरा दौर था मोदी की अगुवाई में 2002 का गुजरात जनसंहार। तीसरा ऐसा दौर आया 2011 में हुए तथाकथित भ्रष्‍टाचार-विरोधी आन्‍दोलन के साथ जिसमें अन्‍ना हज़ारे ने संघ की कठपुतली की भूमिका निभायी और अरविन्‍द केजरीवाल जानबूझकर संघ के हाथों में खेलते रहे। इसकी परिणति 2014 में मोदी की जीत से हुई जिसके साथ ही पूर्ण बहुमत वाली पहली फासिस्‍ट सरकार सत्‍ता में आयी।

यह प्रक्रिया निम्‍न पूँजीपति वर्ग और लम्‍पट सर्वहारा वर्ग का एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्‍दोलन खड़ा करने की प्रक्रिया थी जो देशी-विदेशी बड़े पूँजीपति वर्ग के हितों को पूरा करता था। 1970 के दशक में शुरू हुई यह प्रक्रिया मोदी की दोबारा जीत के साथ अपने चरम मुकाम पर पहुँची है।

बीसवीं सदी में जिस प्रकार फ़ासीवाद का अचानक उभार हुआ और फिर वह नष्‍ट हो गया, आज का फ़ासीवाद उससे अलग है। आज फ़ासीवाद के लिए अचानक तबाह हुए बिना सत्‍ता में आना और फिर सत्‍ता से बाहर हो जाना सम्‍भव है। पूँजीवाद और साम्राज्‍यवाद को आज फ़ासीवाद और धुर-दक्ष्रिाणपंथ के दूसरे रूपों की पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरत है। फ़ासीवाद जब सत्‍ता में न रहे तब भी मज़दूर वर्ग के आन्‍दोलन के विरुद्ध बुर्जुआ वर्ग की “अनौपचारिक राज्‍य सत्‍ता” का काम करता है। वह बुर्जुआ वर्ग के हाथों में ज़ंजीर से बँधे शिकारी कुत्‍ते की तरह जिसकी ज़ंजीर बुर्जुआ वर्ग कभी कसकर रखता है तो कभी जनता को डराने-धमकाने के लिए खुली छोड़ देता है।

मोदी की जीत से यह भी साफ़ हुआ है कि तमाम किस्‍म के उदार-वामपंथी और वाम-उदारपंथी किसी भी सूरत में फ़ासीवादी उभार का मुकाबला नहीं कर सकते हैं। जिग्‍नेश मेवाणी से लेकर कन्‍हैया कुमार तक, तमाम इस प्रकार के अवसरवादी नेतागण यह सोचते रहे कि किसी प्रकार का जोड़तोड़ का समीकरण बनाकर भाजपा को हराया जा सकता है। इनमें से अधिकांश दलित, मुस्लिम, आदिवासी, अतिपिछड़े का योगात्‍मक समीकरण बनाने के चक्‍कर में थे। ऐसे तथाकथित वामपंथी या प्रगतिशील नेतागण अम्‍बेडकरवादी विचारधारा और राजनीति के समक्ष समर्पण करके और पहचान की राजनीति का तुष्टिकरण करके जीतने का सपना पाले हुए थे। उनको भी यह समझना चाहिए कि इस रास्‍ते से फ़ासीवाद को कभी परास्‍त नहीं किया जा सकता है। फ़ासीवाद का जवाब केवल और केवल क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍ट रास्‍ते से ही दिया जा सकता है। आज की ज़रूरत है एक देशव्‍यापी क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी का निर्माण जो कि मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी विचारधारा पर दृढ़ता से अमल करती हो, काडर-आधारित हो और बोल्शेविक अनुशासन पर टिकी हो। एक ऐसी पार्टी के नेतृत्‍व में एक जुझारू क्रान्तिकारी जनान्‍दोलन का निर्माण ही फ़ासीवाद को निर्णाय‍क शिकस्‍त दे सकता है। यह एक लम्‍बा कार्यभार है जिसमें बहुत श्रम, बहुत रक्‍त, बहुत पसीना, बहुत क़ुर्बानी देनी होगी। लेकिन जो भी इस लम्‍बे रास्‍ते की बजाय कोई छोटा शॉर्टकट तलाश करने की फ़िराक़ में होगा, उसे नाउम्‍मीदी और नाकामयाबी ही मिलेगी।

भारत की नकली कम्युनिस्‍ट पार्टियों यानी संशोधनवादी पार्टियों का जो हश्र हुआ है, वह सम्‍भावित था। क्रान्ति का रास्‍ता छोड़ सुधारवाद और अर्थवाद के रास्‍ते पर जा चुकी माकपा, भाकपा और भाकपा (माले) लिबरेशन जैसी पार्टियों की स्थिति पहले हमेशा से ज्‍यादा ख़राब है। पश्चिम बंगाल में देखा जा सकता है कि वाम मोर्चे का समूचा सामाजिक आधार भाजपा के पक्ष में चला गया। भाजपा को तृणमूल कांग्रेस के आधार में सेंध लगाने का अवसर उतना नहीं मिला जितना कि वाम मोर्चा के आधार को छीनने का मिला। वास्‍तव में, पश्चिम बंगाल में भाजपा के अभूतपूर्व प्रदर्शन के पीछे यही प्रमुख कारण था। कई जगह तो वाम मोर्चा के कार्यकर्ता और नेतागण बाकायदा तृणमूल कांग्रेस को हराने के लिए भाजपा को जिताने में लगे हुए थे! ऐसा बर्ताव किसी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी का नहीं बल्कि संशोधनवादी पार्टी का ही होता है; ऐसा सामाजिक आधार भी किसी कम्युनिस्‍ट पार्टी का नहीं बल्कि संशोधनवादी पार्टी का ही होता है। कारण यह कि ये संशोधनवादी पार्टियाँ अवसरवादी तरीके से अर्थवाद और सुधारवाद पर ही अमल करती हैं, न कि क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार और कार्रवाई पर। नतीजतन, इनका सामाजिक आधार कोई जैविक रूप से राजनीतिक सामाजिक आधार नहीं होता और वह किसी मौके पर खिसक कर सीधे दक्षिणपंथ और फ़ासीवाद के पक्ष में भी जा सकता है। पश्चिम बंगाल में यही हुआ है। केरल में भी कांग्रेस-नीत यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रण्‍ट द्वारा माकपा-नीत लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ़्रण्‍ट के सफ़ाये का एक दूसरे रूप में यही कारण है। एक रूप में संशोधनवाद का यह ध्‍वंस क्रान्तिकारी कम्युनिस्‍ट राजनीति के लिए बेहतर है। जनता के बीच राजनीतिक विभ्रम की स्थिति को यह समाप्‍त करेगा और क्रान्तिकारी शक्तियों के लिए राजनीतिक प्रचार और संगठन को आसान बनायेगा। आज माकपा और भाकपा जैसी तमाम संशोधनवादी पार्टियों में और विशेष तौर पर उनके छात्र मोर्चे में काम करने वाले ईमानदार और प्रतिबद्ध कम्‍युनिस्‍ट कार्यकर्ताओं को संशोधनवाद और उसकी मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी को समझना होगा और क्रान्तिकारी कम्‍युनिज़्म को अपनाना होगा।

हम एक बार फिर इस बात को दुहराना चाहते हैं कि फ़ासीवाद-विरोधी मोर्चे का सवाल चुनावी मोर्चे का सवाल नहीं है! फ़ासीवाद को चुनाव में हराकर पीछे धकेलना नामुमकिन है। इसके विरुद्ध व्यापक मेहनतकश जनसमुदाय का जुझारू सामाजिक आन्दोलन सड़कों पर खड़ा करना होगा। इसके लिए इस्पाती कैडर ढाँचे वाली क्रान्तिकारी पार्टी खड़ी करनी होगी और मज़दूरों और सभी मेहनतक़शों के रैडिकल संगठनों, आन्दोलनों और मंचों का व्यापक संयुक्त मोर्चा बनाना होगा। आज की दुनिया में, पूँजीवाद के विरुद्ध क्रान्तिकारी संघर्ष को नए सिरे से संगठित करते हुए, उसके एक अंग के तौर पर ही फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ लड़ा जा सकता है। दूसरा कोई भी मुग़ालता पालना या किसी शॉर्टकट की तलाश करना न सिर्फ़ भ्रामक होगा, बल्कि आत्मघाती भी होगा!


 

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