एनएमसी विधेयक : मेडिकल शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर फ़ासीवाद की मार

डॉक्टर्स फ़ॉर सोसाइटी

किसी भी देश में मेडिकल शिक्षा को सुचारू रूप से चलाने का काम किसी स्वायत्त संस्था का होता है जो यह सुनिश्चित करती है कि शिक्षा की गुणवत्ता और प्रणाली बेहतर तरीक़े से चलती रहे। अपने देश में यह काम भारतीय चिकित्सा परिषद यानी मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इण्डिया (MCI) करती है। भारत में आधुनिक चिकित्सा की शुरुआत ब्रिटिश राज के दौरान हुई थी। पहले पहल आधुनिक ढंग से चिकित्सा करने वाले चिकित्सक ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेना और अधिकारियों के इलाज का काम करती थी। बाद में जब अंग्रेज़ों ने एक-एक करके अधिकतर भारतीय राज्यों को जीत लिया तो उन राज्यों का प्रशासन कम्पनी चलाने लगी। ऐसे में कम्पनी ने यहाँ आधुनिक अस्पताल और संस्थान खोलने शुरू किये। भारत में पहला आधुनिक अस्पताल 1664 में मद्रास प्रेसिडेंसी के फ़ोर्ट सेण्ट जॉर्ज में खोला गया था। 1691 में पुर्तगालियों ने गोआ में पहला मेडिकल कॉलेज खोला। 1835 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने कलकत्ता और मद्रास में दो मेडिकल कॉलेज खोले। फ्रांसीसियों ने पाण्डिचेरी में 1823 में मेडिकल कॉलेज खोला।

1857 के बाद अधिकतर भारत का शासन सीधा ब्रिटिश सरकार के अधीन आ गया था। लेकिन मेडिकल शिक्षा को रेगुलेट करने का काम 1933 तक नहीं हो पाया था। 1933 में ब्रिटिश सरकार ने इण्डियन मेडिकल काउंसिल एक्ट पास किया और इसके तहत 1934 में भारतीय चिकित्सा परिषद की स्थापना की गयी। आज़ादी के बाद 1956 में भारत सरकार ने इण्डियन मेडिकल काउंसिल एक्ट को दोबारा से रिवाइज किया और मेडिकल काउंसिल का पुनर्गठन किया। तब से अब तक मेडिकल शिक्षा की गुणवत्ता को सुनिश्चित करती है। तो मेडिकल काउंसिल काम क्या करती है? सबसे पहले तो यह पूरे देश में मेडिकल स्नातक शिक्षा के लिए एक समान मानक तय करती है और इन्हें लागू करती है। यह परास्नातक मेडिकल शिक्षा के मानकों को भी तय करती है। यह विदेशी चिकित्सा कोर्सों को भारत में अनुमति प्रदान करती है, भारत में मेडिकल कॉलेजों को मान्यता प्रदान करती है, यह क्वालिफ़ाइड डॉक्टरों को रजिस्टर करती है, रजिस्टर्ड डॉक्टरों की डायरेक्टरी बनाती है।

बहरहाल 2015-16 में भारत सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मन्त्रालय ने देश में मेडिकल शिक्षा प्रणाली की समीक्षा के लिए एक संसदीय समिति गठित की थी। इस समिति ने मार्च 2016 में अपनी रिपोर्ट मंत्रालय को सौंपी थी। रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में मेडिकल एजुकेशन का ढाँचा ख़राब हो चुका है और इसके लिए एमसीआई का मौजूदा संविधान जि़म्मेदार है। जिस समय यह रिपोर्ट तैयार हो रही थी उसी समय सरकार ने नीति आयोग की देखरेख में भारतीय चिकित्सा परिषद एक्ट 1956 की समीक्षा के लिए एक तीन सदस्यीय कमेटी का गठन किया। 7 अगस्त 2016 तक इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट तैयार कर ली। कमेटी ने सुझाव दिया था कि पुराने एमसीआई एक्ट को निरस्त कर दिया जाये और एक राष्ट्रीय मेडिकल आयोग का गठन किया जाये।

वर्ष 2017 में सरकार ने राष्ट्रीय मेडिकल आयोग विधेयक लोकसभा में पेश किया था। इस विधेयक के अनुसार मेडिकल शिक्षा और प्रैक्टिस को रेगुलेट करने के लिए मेडिकल कॉउंसिल की जगह एक राष्ट्रीय मेडिकल आयोग का गठन किया जाना था। यह आयोग प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की 40 प्रतिशत सीटों पर फ़ीस को भी रेगुलेट करने वाला था। इसमें 25 सदस्य होने थे जिनकी नियुक्ति के लिए सरकार द्वारा गठित एक सर्च कमेटी सरकार को सिफ़ारिश करने वाली थी। इस आयोग के तहत स्नातक चिकित्सा शिक्षा, परास्नातक चिकित्सा शिक्षा, मेडिकल संस्थानों की मान्यता और आकलन और इस पेशे की प्रैक्टिस के विनियमन के लिए चार अलग-अलग स्वायत्त बोर्डों का गठन होना था। यह विधेयक एमबीबीएस होने के बाद डॉक्टरों को प्रैक्टिस के लिए लाइसेंस देने हेतु एक राष्ट्रीय लाइसेंस परीक्षा का भी प्रावधान करता था। इसी परीक्षा के आधार पर ही परास्नातक कोर्स में दाख़ि‍ले मिलने थे। डॉक्टरों से सम्बन्धित शिकायतें राज्यों की मेडिकल काउंसिलों को सुननी थी।

नीति आयोग की कमेटी का कहना था मेडिकल कॉउंसिल असल में मेडिकल कॉलेजों के लिए एक बाधा बन गयी थी। मेडिकल कॉलेजों से यहाँ मतलब ज़ाहिरा तौर पर प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों से ही था। कमेटी ने कहा था कि भारतीय मेडिकल कॉउंसिल शिक्षा की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं कर रही है, बल्कि यह सुधार में बाधक बनी हुई है। मेडिकल कॉउंसिल मेडिकल कॉलेजों का निरीक्षण करती है और तय मानकों के अनुसार उन्हें मान्यता प्रदान करती है या फिर मान्यता रद्द भी कर करती है। कमेटी ने कहा था कि निरीक्षण की यह प्रणाली असल में शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान ही नहीं देती। सिर्फ़ इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ध्यान केन्द्रित करती है, जबकि इन्फ्रास्ट्रक्चर से ज़्यादा शिक्षा की गुणवत्ता ज़रूरी है। यहाँ पर नीति आयोग साफ़ तौर पर गुणवत्ता और इन्फ्रास्ट्रक्चर के अन्तर्सम्बन्धों को जानबूझकर अनदेखा कर रहा था। इन्फ्रास्ट्रक्चर में मेडिकल कॉलेज में मौजूद सुविधाओं सहित अस्पताल, लेबोरेटरी, आपरेशन थिएटर, स्वास्थ्य और ट्रेनिंग केन्द्र, पढ़ाने के लेक्चर हाल, सेमिनार हाल, छात्रों के बैठने की जगहें, हॉस्टल, फ़ील्ड प्रैक्टिस एरिया, ओपीडी, वार्ड, हर विभाग में शिक्षकों और डॉक्टरों की एक न्यूनतम संख्या आदि तमाम चीज़ें आती हैं। अगर इनकी तरफ़ ध्यान न दिया जाये तो मेडिकल शिक्षा की गुणवत्ता किस तरह से बढ़ेगी, यह समझ से बाहर की चीज़ है। अगर तय मानकों पर कोई कॉलेज खरा नहीं उतरता तो कुछ मेडिकल कॉलेजों की मान्यता इण्डियन मेडिकल कॉउंसिल रद्द करती आयी थी। कॉउंसिल व्याप्त भ्रष्टाचार के बावजूद। नीति आयोग का मानना था कि यह सब इंस्पेक्टर राज की तरह है और मेडिकल कॉउंसिल को नाजायज शक्तियाँ मिली हुई हैं जिनका प्रयोग वह प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों के ि‍ख़‍लाफ़ करती है। इसलिए नीति आयोग की कमेटी ने सिफ़ारिश की थी कि मान्यता रद्द करना बन्द करके रेटिंग सिस्टम लागू किया जाये। क्योंकि इतनी शक्तियों के कारण मेडिकल कॉउंसिल धौंस तो जमाती ही है साथ में यह भ्रष्टाचार का भी सबसे बड़ा कारण है। निरीक्षण करने गये निरीक्षक मान्यता देने के नाम पर बहुत ज़्यादा भ्रष्टाचार करते हैं। कमेटी की सिफ़ारिश थी कि निरिक्षण की बजाय शिकायत निवारण तन्त्र का निर्माण किया जाये और संस्थानों को ये सभी कमियाँ दूर करने का पूरा मौक़ा दिया जाये। जब कमियाँ दूर न हों तो सम्बन्धित संस्थान को कम रेटिंग दी जाये और उस पर जुर्माना लगाया जाये। लेकिन यह बात बिल्कुल भी गले से उतरने की नहीं है कि मानकों पर खरा न उतरने वाले ख़राब मेडिकल कॉलेज मान्यता रद्द करने की बजाय रेटिंग सिस्टम लागू कर देने से भ्रष्टाचार कैसे कम हो जायेगा? रिश्वत तो अच्छी रेटिंग के लिए भी दी या ली जा सकती है। बहरहाल इस विधेयक में ये सभी सिफ़ारिशें शामिल थी।

एक अन्य सिफ़ारिश जो विधेयक में शामिल थी, वह यह कि प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों को 60 फ़ीसदी सीटों पर अपनी मर्ज़ी से फ़ीस लेने की छूट दी जाये। उन पर से नियंत्रण हटा लिया जाये। इसके पीछे दिया गया तर्क भी बहुत हास्यास्पद था। सरकार का कहना था कि प्राइवेट मेडिकल कॉलेज वाले कैपिटेशन फ़ीस लेते हैं, जिससे काला धन बढ़ता है। इसलिए उस काले धन को ही फ़ीस के रूप में सफ़ेद कर दिया गया। बाक़ी कोई अन्तर नहीं पड़ा, बस कॉलेज मालिकों का काला धन सफ़ेद हो गया।

एक अन्य चीज़ तो इस विधेयक में थी, वह यह कि आयुष चिकित्सक (यानी आयुर्वेदिक, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी के डॉक्टर) भी एक ब्रिज कोर्स करने के बाद आधुनिक चिकित्सा प्रणाली से इलाज कर सकेंगे। इससे यह नुक़सान होना था कि एक तो इन चिकित्सा पद्धतियों के डॉक्टरों ने जो इन पद्धतियों की 5 साल की पढ़ाई की थी, वह बेकार चली जानी थी और दूसरा यह कि कुछ सालों का ब्रिज कोर्स साढ़े पाँच साल के मूल कोर्स का स्थान नहीं ले सकता। इससे मरीज़ों का भी नुक़सान होता और आयुष पद्धतियों का भी।

ख़ैर डॉक्टरों के चौतरफ़ा विरोध के बीच राज्यसभा में बहुमत न होने की वजह से सरकार यह बिल पास नहीं करवा पायी थी। लेकिन अब सरकार के पास लोकसभा और राज्यसभा दोनों में प्रचण्ड बहुमत है। इसलिए अब सरकार 2019 में कुछ संशोधनों के बाद इस बिल को दोबारा लेकर आयी है। लेख लिखे जाने तक यह विधेयक लोकसभा और राज्यसभा दोनों जगह पारित हो चुका था। बस राष्ट्रपति की मंजूरी मिलनी बाक़ी थी। राष्ट्रपति की मंजूरी महज एक औपचारिकता ही होती है। इसलिए जल्द ही यह बिल क़ानून बन जायेगा। बहरहाल अभी बात करते हैं कि संशोधनों के बाद पेश हुए इस बिल के क़ानून बनने के बाद क्या होगा?

यह विधेयक जब क़ानून बन जायेगा तब

  1. भारतीय चिकित्सा परिषद क़ानून 1956 रद्द हो जायेगा।
  2. उसकी जगह एक राष्ट्रीय मेडिकल आयोग गठित होगा जिसमें 25 सदस्य होंगे। इनमें से सिर्फ़ 5 का चुनाव होगा और बाक़ी 20 सरकार द्वारा मनोनीत होंगे।
  3. प्राइवेट कॉलेजों की 50 प्रतिशत सीटों की फ़ीस सरकारी नियंत्रण से बाहर होगी।
  4. एमबीबीएस के बाद एक नेशनल एग्ज़ि टेस्ट होगा जो पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स में दाख़िले और प्रैक्टिस के लिए लाइसेंस का आधार बनेगा।
  5. प्राइवेट मेडिकल कॉलेज अपनी मर्ज़ी से सीटों की संख्या 250 तक बढ़ा सकेंगे और अपनी मर्ज़ी से पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स शुरू कर सकेंगे। इसके लिए किसी मानक आधारित निरीक्षण की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
  6. मान्यता रद्द करने या सालाना निरीक्षण का प्रावधान बन्द कर दिया जायेगा और कॉलेजों का रेटिंग सिस्टम शुरू किया जायेगा।
  7. ब्रिज कोर्स की बजाय अब साढ़े तीन लाख कम्युनिटी हेल्थ प्रोवाइडर यानी सामुदायिक स्वास्थ्य प्रदाताओं की नियुक्ति होगी जो पैरामेडिकल फ़ील्ड से होंगे और 6 महीने के कोर्स के बाद सामुदायिक स्वास्थ्य स्तर पर कुछ विशेष दवाएँ दे सकेंगे।

हमारे लिए चिन्ता के मुख्य विषय यही हैं। इन पर हम एक-एक करके बात करेंगे।

सबसे पहली बात इस आयोग के सदस्यों की। पहले एमसीआई के सभी सदस्यों का चुनाव होता था। और यह एक हद्द तक एक स्वायत्त संस्था थी। लेकिन सरकार को इसकी स्वायत्तता भंग करनी थी, तो अब नया आयोग बना दिया गया है। इसमें लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पूरी तरह से किनारे कर दिया गया और अब सरकार आयोग में अपने ख़ास लोगों को बिठाने की बात कर रही है। इन ख़ास लोगों में भी डॉक्टरों की बजाय ब्यूरोक्रेट बहुमत में रहेंगे। ऐसे में भ्रष्टाचार मिटाने का सरकारी दावा बिल्कुल खोखला सिद्ध हो रहा है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुने लोगों की बजाय मनोनीत लोग किस तरह से भ्रष्टाचार को ख़त्म करेंगे, यह किसी भी तार्किक इंसान की समझ से परे है। दूसरा यह कि मेडिकल शिक्षा के फ़ैसले नॉन-मेडिकल अधिकारी लें, तो वही बात हुई कि इकॉनोमी से जुड़े हुए फ़ैसले ग़ैर-इकॉनोमिक पृष्ठभूमि के लोग लें। और इकॉनोमी के स्तर पर हमारे देश में बिल्कुल यही हो रहा है और देश की अर्थव्यवस्था बैठती जा रही है। मेडिकल शिक्षा का भी यही हाल करने की तैयारी है। वो भी बिल्कुल अलोकतांत्रिक तरीक़े से।

दूसरी बात है प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की फ़ीस के नियंत्रण की। इस बिल के तहत प्राइवेट कॉलेजों की 50 प्रतिशत सीटों की फ़ीस नियंत्रण से बाहर रहेगी। पहली बात तो यह है कि छात्रों को मेडिकल शिक्षा सहित हर तरह की शिक्षा नि:शुल्क उपलब्ध करवाना सरकार की जि़म्मेदारी होनी चाहिए। लेकिन हक़ीक़त इसके बिल्कुल उलट है। एमसीआई और स्वास्थ्य विभाग ने अपने गठन के शुरू से मेडिकल शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का ढाँचा खड़ा करते हुए शहरी ग़रीब और ग्रामीण आबादी की अनदेखी की थी। लेकिन फिर भी बहुत थोड़ी हद तक ही सही, लोगों को सरकार की तरफ़ से स्वास्थ्य सेवाएँ और छात्रों को मेडिकल शिक्षा मिल जाती थी। लेकिन यह ऊँट के मुँह में जीरे के समान था। 1980 के दशक तक भारत में 110 सरकारी और 11 प्राइवेट मेडिकल कॉलेज थे। उसके बाद आया उदारीकरण और भूमण्डलीकरण का दौर। हर क्षेत्र की तरह इस क्षेत्र में भी निजीकरण बड़े पैमाने से शुरू हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि 2018 तक प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की संख्या सरकारी मेडिकल कॉलेजों से कहीं ज़्यादा हो गयी। ऐसा नहीं है कि सरकारी कॉलेजों की संख्या नहीं बढ़ी, लेकिन प्राइवेट कॉलेजों की संख्या तो बेहताशा बढ़ी। इन कॉलेजों में नियंत्रण के बावजूद पहले से ही 13-14 लाख रुपये सालाना वसूल किये जा रहे हैं, 50 प्रतिशत सीटों पर नियंत्रण ख़त्म होने के बाद स्थिति क्या होगी, समझा जा सकता है। आम छात्र को तो यह सपने में भी नहीं मिल सकती। ऊपर से सरकार का दावा यह है कि इससे मेडिकल शिक्षा सबकी पहुँच में हो जायेगी। कैसे? किसी को भी नहीं पता।

तीसरी चीज़ जो इस बिल में सरकार ने की है, वह एग्जिट टेस्ट की है। इसके अनुसार एमबीबीएस की फ़ाइनल परीक्षा का परिणाम और मेरिट ही प्रैक्टिस के लिए लाइसेंस और पीजी कोर्स में दाख़ि‍ले का आधार होगा। अब जबकि प्राइवेट कॉलेजों को इतनी छूट दी जा रही है तो ज़ाहिर है कि इन कॉलेजों के जो छात्र कॉलेज मैनेजमेण्ट को ज़्यादा पैसे दे सकेंगे, उनको फ़ाइनल परीक्षा में अंक भी ज़्यादा दे दिये जायेंगे। प्राइवेट डीम्ड विश्वविद्यालयों में तो पूरा परिणाम ही इनके हाथ में होता है। ऐसे में पीजी कोर्स में दाख़ि‍ले की धाँधली जो अब चोरी-छिपे होती है, फिर बिल्कुल ही खुली हो जायेगी।

चौथी चीज़ प्राइवेट मेडिकल कॉलेज अपनी मर्ज़ी से 250 तक सीटें बिना किसी निरीक्षण के बढ़ा सकेंगे और पीजी कोर्स शुरू कर सकेंगे। अब जबकि न तो निरीक्षण की ज़रूरत है और न ही इन्फ्रास्ट्रक्चर की, तो कॉलेज प्रशासन को क्या पड़ी है सीटें बढ़ाने और पीजी कोर्स शुरू करने के लिए अतिरिक्त फैकल्टी रखने की और इन्फ्रास्ट्रक्चर के मानक पूरे करने की? ज़ाहिर है इससे एक ही पार्टी का फ़ायदा होगा। कॉलेज मालिकों का। उन्हें तो बढ़ी हुई सीटों पर बढ़ी हुई फ़ीस मिलेगी। जबकि छात्रों को मिलने वाली शिक्षा की गुणवत्ता जाये भाड़ में इनकी बला से। यही बात मान्यता रद्द करने की प्रणाली ख़त्म करने पर भी लागू होती है।

आख़ि‍री बात जो सीधे लोगों के स्वास्थ्य से जुड़ी हुई है, वो ये कि पैरामेडिकल पृष्ठभूमि के छात्रों को 6 महीने का कोर्स करवाकर सामुदायिक व प्राथमिक स्वास्थ्य स्तर पर कम्युनिटी हेल्थ प्रोवाइडर बना दिया जाये। सरकार का तर्क यह है कि ऐसा चीन ने भी सफलतापूर्वक किया है। शायद सरकार चीन के बेयरफुट डॉक्टर प्रोग्राम का हवाला दे रही है। क्रान्ति के बाद चीन में बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव था और ग्रामीण इलाक़ों में तो यह बिल्कुल ही नगण्य था। ऐसे में चीनी सरकार ने गाँव के चुने हुए किसानों को स्वास्थ्य की न्यूनतम ट्रेनिंग देकर गाँवों के लोगों के स्वास्थ्य की देखभाल का काम सौंपा था। लेकिन उस समय चीन का पूरा स्वास्थ्य ढाँचा समाजवादी था। और देश में डॉक्टरों की भारी कमी थी। जबकि भारत में एक तरफ़ तो स्वास्थ्य सेवाओं और मेडिकल शिक्षा का निजीकरण लगातार बढ़ता जा रहा है। धड़ल्ले से प्राइवेट मेडिकल कॉलेज खुल रहे हैं, जो छात्रों से बेहताशा फ़ीस वसूल रहे हैं। कुकरमुत्तों की तरह प्राइवेट और कॉरपोरेट अस्पताल खुल रहे हैं जो धड़ल्ले से मरीज़ों को लूट रहे हैं, ऐसे में सरकार सरकारी मेडिकल कॉलेजों और अस्पतालों की संख्या और सीटें बढ़ाने की बजाय इस तरह के जुमले फेंक रही है, मानो उसे लोगों के स्वास्थ्य की बहुत चिन्ता है। रोगों से बचाव और सफ़ाई से सम्बन्धित शिक्षा देकर स्वास्थ्य कार्यकर्ता तैयार करने में हर्ज़ नहीं है, लेकिन सरकारी स्वास्थ्य तंत्र पर ध्यान न देकर निजीकरण को बढ़ावा देने की सरकारी हरकतों से तो ईमानदारी पर सन्देह होना लाजमी है। दूसरी बात ये कि स्वास्थ्य कर्मी रोगों से बचाव के लिए लोगों को बता सकते हैं, स्वास्थ्य शिक्षा दे सकते हैं, लेकिन 6 महीने का कोर्स किया हुआ स्वास्थ्यकर्मी एक क्वालिफ़ाइड डॉक्टर का स्थान नहीं ले सकता। चीन ने तो अपने स्वास्थ्य तंत्र को दुनिया में सबसे बेहतरीन में से एक बनाया था, बेयरफुट डॉक्टरों के साथ-साथ क्वालिफ़ाइड डॉक्टरों की पूरी फ़ौज तैयार की थी। वहाँ तो पूरा मेडिकल शिक्षा और स्वास्थ्य का ढाँचा समाजवादी था। समाजवाद के ख़ात्मे के बाद वहाँ की हालत भी बिगड़ती ही चली गयी और आज पूँजीवादी चीन उस दौर की तमाम उपलब्धियों को गँवा चुका है।

ख़ैर यह तो है कि सरकार को लोगों के स्वास्थ्य या रेडिकल शिक्षा की गुणवत्ता या भ्रष्टाचार से मतलब नहीं है। सरकार को सिर्फ़ पूँजीपतियों को मुनाफ़ा पहुँचाने से मतलब है। हम यह नहीं कहते कि एमसीआई कोई दूध की धुली संस्था थी। यह एक भ्रष्ट संस्था थी जिसने मेडिकल शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य को बहुत नुक़सान पहुँचाया था। लेकिन इसको ख़त्म करके भी सरकार ने पहले से ख़राब प्रणाली को और ज़्यादा ख़राब करने का ही काम किया है। हो भी क्यों न? सरकार को जनता से क्या मतलब? इसे मतलब है तो बस प्राइवेट और कॉर्पोरेट सेक्टर को मुनाफ़ा पहुँचाने से।  बाक़ी बात सिर्फ़ एक सरकार की नहीं है। बात पूरी पूँजीवादी व्यवस्था की है। जब तक यह व्यवस्था रहेगी, तो मेडिकल शिक्षा का सुधार होने वाला है और ही सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का। होगा तो सिर्फ़ यह कि पूँजीपतियों के मुनाफ़े की दर सुधरती जायेगी और जनता के स्वास्थ्य की दर गिरती जायेगी।

 

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2019


 

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