मज़दूरों की सेहत से खिलवाड़ – आखिर कौन ज़िम्मेदार?

डा. अमृतपाल, मज़दूर क्लिनिक, लुधियाना

 

कुछ महीने पहले रामप्रकाश अपने दूसरे साथी मज़दूरों की तरह रोज लुधियाना की एक फ़ैक्ट्री में काम करने जाता था और जैसे-तैसे परिवार का पेट पाल रहा था। फिर एक दिन उसको तेज़ बुखार हुआ और साथ में खाँसी, और यहीं से शुरू हो गई उसके दुख की कहानी। वह बीमारी से डरा हुआ वापिस उत्तर प्रदेश में अपने गाँव चला गया क्योंकि लुधियाना में रुकने का मतलब था बिना काम के खाने का और इलाज का बन्दोबस्त करना जो कि किसी हाल में सम्भव नहीं था। घर से थोड़ा-बहुत ठीक होने के बाद वो वापिस लुधियाना आ गया और फिर से काम करने लगा। मगर बुखार और खाँसी अभी भी उसका पीछा नहीं छोड़ रही थी। उसने एक-दो झोला-छाप डाक्टरों को दिखाया, इसी में एक ने उसको टीबी की बीमारी बताकर बिना कोई टेस्ट करवाये टीबी का इलाज शुरू कर दिया। असल में चाहिए तो ये था कि रामप्रकाश को टीबी की सम्भावना थी भी, तो भी उसको सरकारी टीबी सेंटर भेजा जाता मगर झोला-छाप डाक्टर ने अपनी कमाई के लिए रामप्रकाश को वो दवाएँ जो सरकारी सेंटर से मुफ़्त मिलती हैं, बाज़ार से खरीदने के लिए कहा। मगर रामप्रकाश की मुश्किल यहीं नहीं रुकी। जिस डाक्टर ने टीबी का इलाज शुरू किया था, उसको टीबी के इलाज के आधुनिक तरीके के बारे कुछ पता न था। उस ने बिना कोई जाँच-पड़ताल किये ऐसी दवा के इंजेक्शन देने शुरू कर दिये जो आज के समय बहुत कम टीबी के मरीजों को दिये जाते हैं। इन इंजेक्शनों के कुछ बेहद ख़तरनाक साइड इफ़ैक्ट होते हैं – जैसे सुनने की शक्ति और चलते समय शरीर का सन्तुलन बनाये रखने की क्षमता का चले जाना और गुर्दे का काम करना बन्द कर देना। इंजेक्शन लगते हुए एक महीना भी नहीं हुआ था कि रामप्रकाश को सरदर्द, उलटी और चक्कर आने शुरू हो गये जो साफ़ तौर पर इंजेक्शन के साइड इफ़ैक्ट को बता रहे थे। लेकिन झोला-छाप डाक्टर को दवा के बारे में कुछ पता नहीं था, नतीजतन उसने इंजेक्शन लगाने जारी रखे। जब तक इंजेक्शन लगने बन्द हुए, तब तक दवा के बुरे असर ने रामप्रकाश के शरीर को बुरी तरह प्रभावित कर दिया था। चलते समय शरीर का सन्तुलन बनाए रखने की उसकी क्षमता लगभग ख़त्म हो चुकी थी। वो थोडा भी चलने की कोशिश करता, तो पूरा शरीर झूलने लगता और चक्कर खाकर गिर पड़ता। अब चार महीने के बाद दवा के बुरे प्रभाव का असर कम होना शुरू हो गया है और रामप्रकाश कुछ चलने-फिरने योग्य हुआ है, मगर अब भी उसे बहुत सावधानी से चलना पड़ता है। लेकिन दवा का ये बुरा असर ऐसा है कि पूरी तरह ठीक होने के लिए एक साल और कई बार तो दो साल का समय लग जाता है, और अक्सर ऐसा होता है कि दवा का बुरा प्रभाव पूरी तरह ठीक होता ही नहीं, इसलिए इसके शिकार हुए आदमी को बाकी ज़िन्दगी ऐसे ही काटनी पड़ती है।

रामप्रकाश जैसे ही कुछ चलने के लायक हुआ है, उसने काम ढूँढना शुरू कर दिया। पहले वो कारीगर का काम करता था, अब उसे कोई कम मेहनत वाला काम करना पड़ेगा और उसमें भी कम तनख़्वाह पर काम करने के लिए मानना पड़ेगा। ऐसे पता नहीं कितने रामप्रकाश हैं जो अपना इलाज ठीक से न करवा पाने और झोला-छाप डाक्टरों का शिकार हो कर सालों के लिए और कई बार तो उम्र भर के लिए नाकारा हो जाते हैं। लेकिन सवाल उठता है कि रामप्रकाश जैसे मेहनतकश लोगों की ज़िन्दगी के साथ ऐसे खिलवाड़ का ज़िम्मेदार कौन है?

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अक्सर मज़दूर बीमार होने पर वापिस अपने गाँव चले जाते हैं क्योंकि इलाज का खर्चा उठाना और काम छोड़कर कमरे पर बैठना उनके लिए सम्भव नहीं होता। इसलिए सबसे पहले तो फ़ैक्ट्री मालिक दोषी हैं जो मज़दूरों का ई.एस.आई. कार्ड नहीं बनाते जिस से मज़दूर अपना इलाज मुफ़्त और अच्छी तरह से करवा पायें और इलाज के दौरान आधी दिहाड़ी पर छुट्टी ले सकें। साथ ही, वो अधिकारी दोषी हैं जो सरकार से तनख़्वाह तो फैक्ट्रियों की चैकिंग और मज़दूरों की भलाई के नाम पर लेते हैं लेकिन चापलूसी मालि‍कों की करते हैं, घूस खाकर मज़दूरों को उनके अधिकारों से वंचित रखते हैं। बाकी सभी औद्योगिक इलाकों की तरह, लुधियाना में भी ज़्यादातर मज़दूर ठेका-पीसरेट पर काम करते हैं और फैक्ट्रियों में श्रम कानून सफे़द हाथी बने रहते हैं। मालिक मज़दूरों की जमकर लूट करते हैं और बदले में बहुत थोड़ी तनख़्वाह देते हैं। सरकारी मशीनरी मालिकों का पक्ष लेती है और सब कुछ अनदेखा कर देती है। नतीजतन मज़दूरों के पास मुफ़्त इलाज की कोई सुविधा नहीं होती और इलाज करवाने के लिए पैसे नहीं होते, उन्हें मजबूर होकर घरों को लौटना पड़ता है। लेकिन घर में भी वो पूरा इलाज नहीं करवा पाते, क्योंकि थोडा सा ही ठीक होने पर वो काम पर लौटने की कोशिश करते हैं, आखिर मज़दूर काम करेगा तो ही अपना तथा अपने परिवार का पेट पालेगा!

दूसरा, मज़दूर इलाकों में झोला-छाप डाक्टरों की भरमार है। ये झोला-छाप डाक्टर बीमारी और दवाओं की जानकारी न होने के बावजूद सरेआम अपना धन्धा चलाते हैं। इनका हर मरीज़ के लिए पक्का फार्मूला है – ग्लूकोज़ की बोतल लगाना, एक-दो इंजेक्शन लगाना, बहुत ही ख़तरनाक दवा (स्टीरॉयड) की कई डोज़ हर मरीज़ को खिलाना और साथ में दो-चार किस्म की गोली-कैप्सूल थमा देना। छोटी-मोटी बीमारी के लिए भी ये धन्धेबाज़ मज़दूरों की जेबों से न सिर्फ अच्छे-ख़ासे रुपये निकाल लेते हैं, बल्कि लोगों को बिना ज़रूरत के ख़तरनाक दवाएँ खिलाते हैं। दवाओं की दुकानों वाले कैमिस्ट डाक्टर बने बैठे हैं और अपना धन्धा चलाने के लिए आम लोगों को तरह-तरह की दवाएँ खिलाते-पिलाते हैं। मज़दूर के पास जो थोड़ी-बहुत बचत होती भी है, वो ये झोला-छाप डाक्टर हड़प जाते हैं और बाद में इलाज के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ती है तो मज़दूर के पास कुछ नहीं बचा होता। नतीजतन, या तो मज़दूर घर भागता है, या फिर बिना इलाज के काम जारी रखता है जिसके नतीजे भयंकर निकलते हैं। सरकार के सेहत विभाग के पास इसकी जानकारी न हो, ये असम्भव है। असल में ये सब सरकारी विभागों-अफसरों की मिली-भगत से चलता है!

अब कोई कहेगा कि मज़दूर पहले ही क्यों नहीं अच्छे डाक्टर के पास जाते, वो झोला-छाप डाक्टरों पास जाते ही क्यों हैं? योग्यता रखने वाले डाक्टर मज़दूर इलाकों से बहुत दूर हैं, फीस बहुत वसूलते हैं और बहुत महँगी दवा लिखते हैं। सरकारी अस्पताल/डिस्पेंसरी और ई.एस.आई. अस्पताल/डिस्पेंसरी की गिनती ही बहुत कम है और मुख्य ई.एस.आई. अस्पताल मज़दूर इलाकों से दूर पॉश इलाके में है। पूरे लुधियाना में यह एक ही ई.एस.आई. अस्पताल है हालाँकि लुधियाना में मज़दूरों की गिनती 15-20 लाख तक है। इस अस्पताल का काम करने का तरीका कुछ ऐसा है (जिसके बारे में मज़दूर अक्सर शिकायत करते हैं) और इसकी मज़दूर इलाकों से दूरी के चलते वहाँ दवा लेने जाने का मतलब है 2-3 दिन तक काम से छुट्टी लेना, और मज़दूर के लिए अक्सर ये सम्भव ही नहीं होता। ई.एस.आई. डिस्पेंसरियों की गिनती भी बहुत कम है। दूसरा, ई.एस.आई. कार्ड भी बहुत कम मज़दूरों के पास हैं, बहुतेरे मज़दूरों के कार्ड या तो मालिक ई.एस.आई. विभाग से मिलीभगत करके बनने ही नहीं देते, या फिर मज़दूरों को खुद ही इसके बारे में पता नहीं है। ई.एस.आई. अस्पताल के अलावा, एक बड़ा सरकारी सिविल अस्पताल है जिसके सहारे पूरे लुधियाना की आम आबादी है। इस तरह सेहत सुविधाएँ देने के लिए सरकार की तरफ से बहुत कम प्रबन्ध है। सरकारों की इन नीतियों की वजह से प्राइवेट अस्पताल एवं क्लीनिक खूब कमाई कर रहे हैं और संख्या में भी बढ़ रहे हैं। और आम आदमी को मजबूरन इनकी लूट का शिकार होना पड़ रहा है।

वैज्ञानिक तरीके से स्‍वास्‍थय सुविधाएँ देने वाला पूरा प्रबन्ध मज़दूरों और आम लोगों की पहुँच से बाहर हो चुका है, सरकारों ने उनको झोला-छाप डाक्टरों या फिर तांत्रिक-ओझाओं के लिए छोड़ दिया है और लोगों द्वारा चुने होने की नौटंकी करते हुए सरकारें पूरी तरह बड़े डाक्टरों-प्राइवेट अस्पतालों की सेहत-वृद्धि के लिए काम कर रही हैं। दूसरी तरफ, मज़दूर इलाकों की रहने की हालतें इतनी भयंकर और अमानवीय बन चुकी हैं कि हर समय वहाँ पर बीमारी फैलने का ख़तरा तो रहता ही है, वहाँ पर रहते हुए कोई भी आदमी सेहतमन्द रह ही नहीं सकता। आम लोगों को सेहत के बारे में जागरूक करने और सरकार की तरफ से जो थोड़ा-बहुत आम लोगों के लिए किया जाता है (जैसे टीबी की दवा सरकारी अस्पतालों में अभी निशुल्क मिल रही है और इस बारे में बहुतेरे लोगों को पता तक नहीं है) उसके बारे में लोगों को बताने के लिए सरकारी तन्त्र की ओर से कुछ नहीं किया जाता। बीमारी फैलने से रोकने के लिए प्रबन्ध करना जैसे मच्छर मारने के लिए छिड़काव करना, पानी साफ़ करने के लिए क्लोरीन की गोलियाँ बाँटना, बीमारी की हालत में प्राथमिक उपचार के बारे में बताना आदि, ये सब सरकारें कर सकती हैं लेकिन उनकी कोई मंशा नहीं है क्योंकि सरकार पूँजीपतियों के हाथों बिक चुकी है, या कहा जाये कि सरकार उन्हीं की होती है। सरकार के लिए भी आम लोग कीड़े है जो अगर कुछ गिनती में मर भी जायेंगे तो सरकार की और पूँजीपतियों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। दूसरा, सरकार के लिए आम लोगों की सेहत पर खर्चा करने की जगह पूँजीपतियों के लिए टैक्स छूट देना, उनको बेल-आउट पैकेज देना ज़्यादा जरूरी है, आम लोग जायें भाड़ में। ऊपर से दवा कम्पनियों की लूट अलग से है। इन सबके बारे में अलग से कभी फिर, फिलहाल इतना ही। मगर ये बात साफ़ है कि अगर मज़दूर और आम लोग अपने और अपनों के लिए सेहत सुविधाएँ चाहते हैं तो सरकारों का मुँह ताकते रहने से कुछ नहीं होने वाला। इसके लिए उनके आगे आन्दोलन के अलावा कोई रास्ता नहीं है।

 

मज़दूर बिगुलअप्रैल-मई  2013

 


 

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