दिल्ली के चुनावों में आम मेहनतकश जनता के सामने क्या विकल्प है?

दिल्ली में विधानसभा चुनाव आने ही वाले हैं और चुनावों में कांग्रेस से लेकर आम आदमी पार्टी झोला भरकर वायदा कर रहे हैं तो भाजपा वायदों के साथ नफ़रत का ज़हर लोगों के दिमाग़ में घोलकर सत्ता में पहुँचने की तैयारी कर रही है। मोदी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में चुनावी सभा में कहा कि वह दिल्ली की अनधिकृत कॉलोनियों को पक्का करने का अधिकार देकर दिल्ली की जनता की सेवा कर रहा है। जबकि असल में इससे झुग्गियों में रहने वाली छोटी मकान मालिक आबादी को ही फ़ायदा मिलेगा और यह भी अभी काग़ज़ पर हुआ है जब ज़मीन पर लागू होगा तो इसकी हक़ीक़त सामने आयेगी। डीडीए की वेबसाइट पर इस योजना के ज़रिये पक्के मकान मिलने की बात से इन्कार किया गया है।

लेकिन यह भाजपा के प्रचार के गौण बिन्दू हैं और इस समय भाजपा पूरा प्रयास कर रही है कि सीएए, एनआरसी और एनपीआर के ख़िलाफ़ चल रहे आन्दोलन को साम्प्रदायिक रूप देकर दंगों को भड़काये जिससे कि चुनाव को मुसलमान घुसपैठियों बनाम भाजपा का रंग देकर जीता जा सके। सोशल मीडिया में वायरल वीडियो में यूपी, बिहार और कर्नाटक में यह काम ख़ुद पुलिस करते हुए दिख रही है। हमें यह पता होना चाहिए कि यह मोदी सरकार मज़दूरों के लिए मौजूद श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर मज़दूरों की मेहनत की लूट को आसान बना रही है ताकि अनाजमण्डी सरीखे कारख़ाने बिना क़ानूनी रोकटोक के चल सकें और इस वजह से ही अनाजमण्डी अग्निकाण्ड होते रहें। फ़ासीवादी संघी सरकार मज़दूर विरोधी नीतियों को लागू करने में नम्बर एक है। यह मज़दूरों-मेहनतकशों की दुश्मन नम्बर एक पार्टी है यह बात हमें आगामी चुनावों में कभी भी नहीं भूलनी चाहिए।

आम आदमी पार्टी भी ज़ोर लगा रही है कि इस चुनाव में फिर से केजरीवाल की ग़रीब पक्षधर छवि पेश की जाये लेकिन हमें पता होना चाहिए कि यह ठग है जो पिछले विधानसभा चुनाव में मज़दूरों-मेहनतकशों के वोट से मुख्यमंत्री बना परन्तु इसने दिल्ली के छोटे पूँजीपतियों, दूकानदारों पर सेल्स टेक्स के छापे लगवाने बन्द करवा दिये परन्तु मज़दूरों और आम जनता से किये वायदों – यानि ठेका प्रथा ख़त्म करना, न्यूनतम वेतन लागू करवाना और झुग्गी वालों को पक्का मकान देना, नये स्कूल खुलवाना, रोज़गार की सुविधा करना आदि से मुकर गया। आज कुछ सब्सिडी देकर यह फिर से अपनी लोकलुभावन राजनीति की दुकान चला रहा है परन्तु दिल्ली में जब मज़दूर जलकर मरते हैं तो इसकी कलई खुलकर सामने आती है। पूरे दिल्ली में चल रहे लाखों कारख़ानों की दिल्ली सरकार के श्रम विभाग द्वारा कोई जाँच नहीं हुई है। हर साल इन फ़ैक्टरियों में गुमनाम तरीक़े से मज़दूर मारे जाते हैं परन्तु इस पर कोई बवाल नहीं होता है। अनाजमण्डी अग्निकाण्ड में हुई मौतें ठण्डी मौतें हैं जिनका हिसाब अनाजमण्डी के मालिक भी लगाकर रखते हैं। इन मौतों की क़ीमत श्रम विभाग के कर्मचारियों, पुलिस, बिजली विभाग, अग्निशमन विभाग और लाइसेंस देने वाली म्युनिस्पैलिटी को पहले ही अदा की जा चुकी होती है। श्रम विभाग द्वारा इन फ़ैक्टरियों की कोई जाँच नहीं होती है। दिल्ली सरकार ही इन हत्याओं की मुख्य ज़िम्मेदार है जिसका श्रम मंत्रालय श्रम क़ानूनों का उल्लंघन करने पर मालिकों की पीठ में खुजली तक नहीं करता है। दिल्ली सरकार के श्रम मंत्री गोपाल राय के झूठ बार-बार सबके सामने नंगे हुए हैं।

इस अग्निकाण्ड के अगले महीने फिर से किराड़ी में 9 मज़दूरों की मौत हुई जिस पर केजरीवाल कुछ भी नहीं बोला। इस चुनाव में मज़दूरों को इस ठग को झाड़ू से मारकर भगा देना होगा। वहीं कांग्रेस भी चुनाव से पहले तमाम लोकलुभावन वायदे कर रही है। लेकिन क्या इन वायदों पर भरोसा किया जा सकता है? यह वही पार्टी है जिसने अपने 60 साल के राज में ‘ग़रीबी हटाओ’ जैसे लोकलुभावन नारे देकर देश की सम्पदा को टाटा-बिड़ला जैसे पूँजीपतियों के हाथों बेचा है। यही वह पार्टी है जिसने निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों को 1991 में खुले तौर पर शुरू करके मज़दूरों की ज़िन्दगी को तबाहो-बर्बाद करने का काम किया था। भाजपा इन्हीं नीतियों को और भी ज़्यादा बेशर्मी और नंगई से आगे बढ़ा रही है। दिल्ली में नकली वाम पार्टियाँ भी इन चुनावों में अपना भाग्य आज़माने और जनता को बरगलाने के लिए ज़रूर पहुँचेंगी। 8 जनवरी को होने जा रही हड़ताल के ज़रिये साल में एक बार अभियानों में जागने वाली इनकी यूनियनें इस व्यवस्था की सुरक्षा पंक्ति की भूमिका निभाते हुए चुनावों में संसदीय प्रणाली में यक़ीन का प्रचार करेंगी। कुछ चुनावी क्षेत्रों में बसपा जातिवादी राजनीति के बूते अपने वोट को रख पाने में सक्षम होगी और अपने खाये-पिये-अघाये आरक्षण प्राप्त दलित तबक़े की मुख्य पार्टी के रूप में अपना दावा पेश करेगी परन्तु जब दिल्ली के सीवरों में दलित मज़दूर मरते हैं तो ये पार्टी चुप रहती है, दलित विरोधी नागरिकता संशोधन क़ानून और एनआरसी के ख़िलाफ़ बसपा सड़क पर नहीं उतरती है। दलितों की 90 फ़ीसदी आबादी भूमिहीन व मज़दूर आबादी है, जिसके पास अपनी नागरिकता साबित करने के लिए कोई दस्तावेज़ नहीं है। ऐसे में, उनके लिए नागरिकता साबित करना ही बेहद मुश्किल होगा। साफ़ है कि बसपा मज़दूर-मेहनतकश दलितों का प्रतिनिधित्व नहीं करती है।

तो क्या ये सभी पार्टियाँ दिल्ली की जनता को कोई विकल्प दे पाने में सक्षम हैं? नहीं, कतई नहीं। ये सभी पार्टियाँ सत्ता में मौजूद बुर्जुआ वर्ग के अलग-अलग तबक़ों का प्रतिनिधित्व करती हैं। मज़दूर और मेहनतकश जनता की लूट को क़ानूनी जामा पहनाने और इसे स्वीकार्यता देने के काम के लिए ही सरकार में इनका दावा पेश किया जाता है। आर्थिक मन्दी के इस दौर में जब अर्थव्यवस्था डाँवाडोल है पूँजीपतियों ने अपना पूरा दाँव फ़ासीवादी भाजपा पर लगाया है जो मज़दूर-विरोधी और जनविरोधी क़ानूनों को धड़ल्ले से लागू कर रही है तो दूसरी तरफ़ सीएए और एनपीआर-एनआरसी सरीखे क़ानूनों के ज़रिये हमें साम्प्रदायिक आग में झोंक रही है। परन्तु, भाजपा के अलावा कोई अन्य चुनावबाज़ पार्टी भी विधानसभा चुनाव में हमारी प्रतिनिधि नहीं हो सकती है क्योंकि ये भी कॉरपोरेट घरानों, व्यापारियों, छोटे फ़ैक्टरी मालिकों, बड़े किसानों के चन्दे पर चलने वाली पार्टियाँ हैं जिन तबक़ों की शोहरत मज़दूर-मेहनतकश वर्ग की लूट पर आधारित है।

आप ख़ुद ही इन सवालों का जवाब दीजिए कि क्या कोई पार्टी मज़दूरों के श्रम क़ानूनों को बचाने के लिए सड़क पर उतरी है? क्या किसी पार्टी ने कार्यस्थल पर सुरक्षा के क़ानूनों के लिए वाक़ई में जनता के बीच संघर्ष चलाया है? क्या रोज़गार के हक़ को लेकर कोई पार्टी सड़कों पर मौजूद है? एक दिवसीय प्रदर्शन में अपनी पीपनी बजाने वाली नकली लाल झण्डे वाली पार्टियों की ट्रेड यूनियनें फ़ैक्टरी इलाक़ों में मालिकों के साथ समझौते और दलाली ही करती रही हैं। चाहे होण्डा का आन्दोलन हो या वज़ीरपुर में मज़दूर की मौत पर समझौता कराना हो, ये नकली लाल झण्डे वाली पार्टियाँ, भाकपा, माकपा और भाकपा (माले), मज़दूर वर्ग की ग़द्दार पार्टियाँ हैं। सभी पूँजीवादी पार्टियाँ जनता के रोज़गार, आवास, श्रम क़ानून सरीखे मसलों पर चुप रही हैं। मज़दूरों और मेहनतकशों की एक आवाज़ के रूप में भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी मौजूद रही है। यही पार्टी दिल्ली के अनाजमण्डी भीषण अग्निकाण्ड में मज़दूरों के हक़ों के लिए आवाज़ उठा रही थी।

दिल्ली में मज़दूरों और मेहनतकशों की विरोधी व साम्प्रदायिक क़ानून, नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी एक सशक्त आवाज़ बनकर उभरी है। भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के ही वॉलण्टियर और सदस्य अश्फ़ाक़ और बिस्मिल का सन्देश आम जनता के बीच लेकर गये थे जब उन्हें गिरफ़्तार किया गया। दिल्ली के आगामी चुनावों में भी मज़दूरों के स्वतंत्र क्रान्तिकारी पक्ष का प्रतिनिधित्व करने वाली एकमात्र पार्टी भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी है। आम मेहनतकश आबादी को चुनावों में क्या करना चाहिए? हमें भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के साथ जुड़ना चाहिए, उसका वॉलण्टियर बनना चाहिए और जहाँ कहीं भी उसके उम्मीदवार खड़े हों वहाँ उन्हें उसे एकजुट होकर वोट देना चाहिए। विधानसभा चुनावों में आरडब्ल्यूपीआई की विजय के ज़रिये मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसान आबादी अपने हक़ों के संघर्ष को आगे ले जा सकती है। केवल ऐसे मज़दूर वर्गीय विधायकों की विधानसभा में मौजूदगी ही आपके क्षेत्र में मज़दूर और मेहनतकश आबादी के लिए तमाम सुविधाओं जैसे पीने के पानी, बिजली, शौचालय व साफ़-सफ़ाई, आदि का इन्तज़ाम कर सकती है और साथ ही यह सुनिश्चित कर सकती है कि श्रम क़ानूनों को लागू किया जाये। केवल ऐसे मज़दूर प्रतिनिधियों की विधानसभा में मौजूदगी के ज़रिये हम ठेका प्रथा को समाप्त करने, कार्यस्थल पर सुरक्षा के इन्तज़ामात करने, न्यूनतम मज़दूरी को कम से कम 20 हज़ार रुपये करने और उसे लागू करवाने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। इसलिए आरडब्ल्यूपीआई को जिताने के लिए आम मेहनतकश आबादी को एकजुट होकर वोट देना चाहिए और कांग्रेस, भाजपा, इनेलो, आम आदमी पार्टी जैसी पूँजीवादी चुनावी पार्टियों को सबक़ सिखाना चाहिए।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2020


 

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