आज़ादी के बाद का सबसे बड़ा जनउभार है सीएए-एनआरसी विरोधी आन्दोलन
इसे सुसंगठित बनाने और दिशा देने की ज़रूरत है

– सम्पादकीय

देश की जनता को बाँटने और एक बडी आबादी को सरमायेदारों को दोयम दर्जे का निवासी और सरमायेदारों का गुलाम बना देने के इरादे से देश पर थोपे जा रहे सीएए-एनआरसी के विनाशकारी ‘प्रयोग’ के विरुद्ध देशव्‍यापी आन्‍दोलन सत्ता के सारे हथकण्‍डों के बावजूद मज़बूती से डटा हुआ है और इसका देश के नये-नये इलाक़ों में विस्‍तार हो रहा है। दिल्‍ली का शाहीन बाग इस आन्‍दोलन का एक प्रतीक बन गया है और दिनो-रात के धरने का उसका मॉडल पूरे देश में अपनाया जा रहा है। भाजपा और संघ गोदी मीडिया के भोंपुओं की मदद से यह साबित करने के लिए पूरा जोर लगाये हुए हैं कि केवल मुसलमान विरोध कर रहे हैं, पर शाहीन बाग सहित हर जगह बडी संख्‍या में हिन्‍दू, सिख, ईसाई और अन्‍य समुदायों के लोग भी आन्‍दोलन में शिरकत कर रहे हैं। इससे सरकार की बौखलाहट बढती जा रही है और वह किसी न किसी तरह से इसे बदनाम करने और कुचलने की कोशिश में लगी है। दिल्‍ली विधानसभा चुनाव के बाद ये कोई भारी दमनात्‍मक कदम भी उठा सकते हैं।

यह आन्‍दोलन मोदी-शाह-संघ की पिछले 6 साल की कारगुजारियों से उपजे गहरे असन्‍तोष और जनाक्रोश की भी अभिव्‍यक्ति है। इस समय पूरे देश का ध्‍यान सीएए-एनआरसी के विरोध पर है, लेकिन मोदी सरकार देश को बर्बादी की राह पर धकेलने क राह पर लगातार बढ रही है। अर्थव्‍यवस्‍था तबाही के कगार पर है, बेरोजगारी सारे रिकॉर्ड तोड रही है, महंगाई ने आम जनता का जीना दूभर कर दिया है। सरकार रिजर्व बैंक तक से सवा दो लाख करोड रुपये हडपने के बावजूद घाटे में है और एक-एक करके सार्वजनिक क्षेत्र के मुनाफे में चल रहे उपक्रमों को भरी बेच डाल रही है।

सीएए-एनआरसी को पूरी तरह से रद्द करने तक इसे जारी रखना जरूरी है। आन्‍दोलन के दबाव में सरकार अब कह रही है कि पूरे देश में एनआरसी लागू नहीं किया जायेगा। मगर सरकार सिर्फ छल कर रही है। एनआरसी को बस नाम बदलकर लागू कराश जा रहा है। 1 अप्रैल से जनगणना के साथ-साथ एनपीआर यानी राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर तैयार करने का भी काम शुरू हो जाएगा। यह एनपीआर और कुछ नहीं, पिछले दरवाज़े से एनआरसी लागू करने की ही एक कोशिश है। एनपीआर के डेटा से ही एनआरसी तैयार किया जाएगा। (यह देश के सभी गरीबों और मेहनकतकशों के लिएकितना विनाशकारी है, इसे जानने के लिए इस अंक में भीतर के पृष्‍ठों पर विस्‍तृत सामग्री देखिए।)

सरकार यह सारी कवायद इसलिए कर रही है कि देश भर में शाहीन बाग़ जैसे जो धरने चल रहे हैं, वे किसीतरह से ख़तम हो जायें। इसलिए ज़रूरी है कि ऐसे धरने न सिर्फ़ जारी रहें बल्कि उनको शहर-शहर, गाँव-गाँव क फैलाया जाये। सरकार इन आन्दोलनों में विध्वंसक तत्व घुसाने, तोड़फोड़ करने, जनता को थकाने और मौक़ा पाते ही दमन-चक्र चलाने की रणनीतियों पर काम कर रही है। इन कुचक्रों को क्रान्तिकारी जन-चौकसी और फौलादी एकजुटता के दम पर ही नाक़ाम किया जा सकता है। स्वतःस्फूर्त ढंग से उठ खड़ा हुआ यह जन-उभार समय बीतने के साथ ही ठण्डा न पड़े जाने और बिखराव का शिकार न हो, इसके लिए ज़रूरी है कि इस आन्दोलन के दहन-पात्र में एक नये क्रान्तिकारी नेतृत्व के ढलने की प्रक्रिया शुरू हो, जन-समुदाय स्वयं संगठित होकर लड़ने का प्रशिक्षण ले और संघर्ष के नेतृत्वकारी दस्ते प्रशिक्षित हों।

भारत की क्रान्तिकारी मजदूर पार्टी (आर.डब्‍ल्‍यू.पी.आई.) के साथी दिल्‍ली में शाहीन बाग, जामिया, चांद बाग और खजूरी सहित विभिन्‍न जगहों पर धरनों में सक्रिय भागीदारी कर रहे हैं। मुम्‍बई के मानखुर्द-गोवंडी में मजदूर पार्टी की पहल पर धरना जारी है, हालांकि पुलिस बार-बार दमन करके इसे हटाने की कोशिश कर रही है। इसके अलावा, दिल्‍ली, मुम्‍बई, इलाहाबाद, पटना और लखनऊ में नौजवान भारत सभा, दिशा छात्र संगठन और स्‍त्री मुक्ति लीग के साथी शुरू से ही धरनों में बढचढकर हिस्‍सेदारी कर रहे हैं। इन संगठनों का मानना है कि इस आन्‍दोलन की कामयाबी की शर्त है व्‍यापक एकजुटता और इसके सेक्‍युलर चरित्र को बनाये रखना। इसी नजरिए से सभी जगहों पर व्‍यापक पर्चा वितरण और जनसम्‍पर्क अभियान चलाया जा रहा है जिसमें आम लोगों को सीएए-एनआरसी के विनाशकारी प्रोजेक्‍ट के बारे में विस्‍तार से समझाते हुए आन्‍दोलन से जुडने के लिए कहा जा रहा है।

यह याद रखना होगा कि मौजूदा संघर्ष फासीवाद के ख़िलाफ़ लम्बे संघर्ष की एक कड़ी है और एक दौर है।। किसी मुद्दा-विशेष पर उठ खड़े हुए जन-उभारों से निरन्तरता में चलने वाले सामाजिक आन्दोलन स्वतः नहीं पैदा हो जाते। इसके लिए वैकल्पिक जन-संस्थाओं का निर्माण ज़रूरी होता है। कई बार जाग्रत जन-पहलकदमी के चलते ऐसा स्वतः भी होने लगता है, पर यह प्रक्रिया टिकाऊ और विकासमान तभी हो सकती है जब इसके पीछे सचेतन प्रयास हों।

यह एक बहुत रचनात्मक प्रयोग है कि कई जगहों पर धरना-स्थलों पर पुस्तकालय चल रहे हैं, बच्चों को पढ़ाया जा रहा है, अस्थायी क्लीनिक चल रहे हैं, सांस्कृतिक कार्यक्रम नियमित चल रहे हैं और कार्यशालाएँ चल रही हैं। बेहतर होगा कि रात्रि-पाठशालाएँ भी चलायी जायें और लोगों को उनके क़ानूनी और संवैधानिक अधिकारों के बारे में बताया जाये तथा इतिहास के हवालों से आन्दोलनात्मक कार्रवाइयों की शिक्षा दी जाये। इन सभी कामों को संगठित करने के लिए नागरिकों की संघर्ष कमेटियाँ गठित की जानी चाहिए और इनके बीच आदान-प्रदान के लिए तालमेल कमेटियाँ बनायी जानी चाहिए। आन्दोलन के व्यापक समर्थन-आधार से वित्त जुटाने और वित्तीय प्रबन्धन के लिए विविध स्तरों पर वित्तीय कमेटियाँ और उप-कमेटियाँ बनानी होंगी जो पूरी पारदर्शिता के साथ लोगों की आम सभा में आमदनी और खर्च के ब्योरे नियमित तौर पर प्रस्तुत करती रहें। स्वयंसेवकों की टीमों के भी प्रभारी और उनकी नेतृत्व-कमेटियाँ ज़रूर बनाई जानी चाहिए।

यह काम जटिल और दिक्कतों से भरा हुआ होगा, लेकिन इसे अगर धीरज और सूझबूझ के साथ चलाया जाये तो इस प्रक्रिया में बुर्जुआ राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं वाले निहित स्वार्थी तत्वों की और ख़ानाबदोश तथा अराजक आन्दोलनपंथियों की छँटाई हो सकती है और एक खरा, ईमानदार, जुझारू, मेहनती नेतृत्व तप-निखरकर और परीक्षित होकर सामने आ सकता है। साथ ही बस्तियों, मुहल्लों और गाँवों के तृणमूल स्तर से लोक-पंचायतों जैसी वैकल्पिक जन-संस्थाएँ भी अस्तित्व में आ सकती हैं। ऐसी संस्थाओं के मजबूत स्तम्भों पर खड़े किसी जन-प्रतिरोध को कोई फासिस्ट या बुर्जुआ सत्ता दमन और आतंक के हथकण्डों से कुछ समय के लिए पीछे भले धकेल दे, लेकिन कुचल नहीं सकती। राज्यसत्ता की हथियारबन्‍द ताकत तभी तक अपराजेय लगती है जबतक कि लोकशक्ति संगठित नहीं होती।

मौजूदा देशव्यापी जन-उभार एक ही साथ प्राइमरी स्कूल से लेकर एक ‘ओपन यूनिवर्सिटी’ तक सबकुछ है, जिसमें हमें लगन के साथ काम करते हुए जनता से सीखना है। यह वह प्रयोगशाला है जिसमें संघर्षों के नए-नए जन-सृजित रूप कच्‍चे रूप में हमारे सामने आयेंगे जिनका परिष्कार करके और प्रभावी बनाकर जनता को सौंपने का काम क्रान्तिकारियों का है। जो यह कर सकेगा वही जनता का सच्चा अगुवा होगा।

इतिहास बार-बार यह सिखाता रहा है कि किसी भी स्वतःस्फूर्त संघर्ष में क्रान्तिकारी शक्तियाँ अगर सही सोच और दिशा के साथ भागीदारी करती हैं तो भविष्य के लिए बहुमूल्य अनुभवों और परिपक्वता से समृद्ध होकर आगे आती हैं। व्यवस्था-परिवर्तन का संघर्ष सीधी रेखा में नहीं, बल्कि ज्वार और भाटे की तरह, लहरों के रूप में आगे बढ़ता है और कब कौन-सी लहर निर्णायक चोट करे, यह अभी नहीं कहा जा सकता।

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2020


 

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