राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ की देशभक्ति का सच

आरएसएस और उसकी पार्टी, यानी भाजपा, इस समय देशभक्ति के सबसे बड़े ठेकेदार बने हुए हैं। मोदी सरकार की कारगुज़ारियों के ख़ि‍लाफ़ अगर इस देश का कोई भी नागरिक आवाज़ उठाता है, तो उसे “देशद्रोही” करार दिया जाता है। मगर ख़ुद इनकी देशभक्ति की सच्‍चाई क्‍या है? पिछले छह वर्षों में मोदी सरकार ने किस तरह से देश की जनता के ख़ि‍लाफ़ काम किया है, और किस तरह से मुटद्यठीभर देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हाथों इस देश की सम्‍पदा को बेचा है, उसकी बात तो हम करते ही रहे हैं। मगर आज बात-बात पर देशभक्ति का प्रमाण-पत्र बाँटने वाले संघ-भाजपा गिरोह की असलियत जानने के लिए हमें एक बार स्वतन्त्रता आन्दोलन में इनकी करतूतों के इतिहास पर भी नज़र डाल लेनी चाहिए।

स्वतन्त्रता आन्दोलन से आरएसएस का विश्वासघात

1925 में विजयदशमी के दिन अपनी स्थापना से लेकर 1947 तक संघ ने अंग्रेजों के खिलाफ चूँ तक नहीं किया। जब अंग्रेजों के खिलाफ देश की जनता लड़ रही थी तब संघी लोगों को लाठियाँ भाँजना सिखा रहे थे और वह भी अंग्रेजों के खिलाफ नहीं बल्कि अपने ही देशभाइयों के खिलाफ़। आरएसएस के संस्थापक सरसंघचालक केशव बलिराम हेडगेवार, दूसरे सरसंघचालक एम- एस- गोलवलकर और हिन्दुत्व के प्रचारक विनायक दामोदर सावरकर ने आजादी की लड़ाई से लगातार अपने को दूर रखा। यही नहीं जब भगतसिंह और उनके साथी अंग्रेज सरकार से यह माँग कर रहे थे कि उन्हें फाँसी नहीं बल्कि गोली से उड़ा दिया जाये तब सावरकर अंग्रेजी हुकूमत को माफ़ीनामे पर माफ़ीनामे लिख रहे थे। जब देश में लाखों लोगों की चेतना में आज़ादी की लड़ाई में शरीक होने का विचार सबसे प्रमुख था, उस समय आरएसएस ने न तो स्वतंत्रता आन्दोलन में भागीदारी की और न ही भागीदारी करने की चाहत रखने वालों को ही प्रोत्साहित किया। संघ के कार्यकर्ता और भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी तो गोरी हुकूमत का विरोध करने वालों की मुखबिरी में शामिल थे। सोचने वाली बात है कि आज इन्हें लोगों को देशभक्ति के प्रमाणपत्र बाँटने का ठेका किसने दे दिया?

आरएसएस की आजादी के संघर्ष से विश्वासघात को समझने के लिए हम एक बार उसी के नेताओं के लेखन और भाषणों को देखें। असहयोग आन्दोलन (1920-21) भारत की आजादी में एक बड़ा आन्दोलन था जिसने एक बार देश की जनता की आजादी की चाह को मुखर अभिव्यक्ति दी लेकिन ‘गुरूजी’ के नाम से जाने जाने वाले सरसंघचालक गोलवलकर इस संघर्ष में शामिल नौजवानों के पक्ष की जगह कानून और व्यवस्था की चिंता जाहिर करते हैं। जैसे कोई अंग्रेज अधिकारी या शासक की चिन्ता हो। वह कहते हैं:

‘संघर्ष के बुरे परिणाम हुआ ही करते हैं। 1920-21 के आन्दोलन (असहयोग आन्दोलन) के बाद लड़कों नें उद्दण्ड होना आरम्भ किया, यह नेताओं पर कीचड़ उछालने का प्रयास नहीं है। परन्तु संघर्ष के बाद उत्पन्न होने वाले ये अनिवार्य परिणाम हैं। बात इतनी ही है कि उन परिणामों को काबू में रखने के लिए हम ठीक व्यवस्था नहीं कर पाये। सन् 1942 के बाद तो कानून का विचार करने की आवश्यकता ही नहीं, ऐसा प्रायः लोग सोचने लगे’। (‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-4,पृष्ठ 41,भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981)

गोलवलकर  के अनुसार  ‘संघर्ष के परिणाम बुरे’ ही होते हैं। तो क्या भारतीय जनता आजादी के लिए संघर्ष नहीं करती? अपने ऊपर जुल्म ढाहने वाले कानूनों के प्रति भारतीय नौजवान चुप बैठते? उनका सम्मान करते? अंग्रेजों के कानून और व्यवस्था की चिन्ता करने वाले गोलवलकर कम से कम यही राय रखते हैं। गोलवलकर ने संघ की स्वतन्त्रता आन्दोलन से अलग रहने की नीति पर मुस्तैदी से अमल किया। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय भी उन्होनें यही रुख अपनायाः

‘1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आन्दोलन था। उस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया। परंतु संघ के स्वयंसेवकों के मन में उथल-पुथल चल ही रही थी। संघ यह अकर्मण्य लोगों की संस्था है, इनकी बातों में कुछ अर्थ नहीं, ऐसा केवल बाहर के लोगों ने ही नहीं, कई अपने स्वयंसेवकों ने भी कहा। वे बड़े रुष्ट भी हुए।’ (‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-4, पृष्ठ 40, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981)

1942 के आन्दोलन के समय गोलवलकर संघ संचालक थे। जब देश की जनता का देशप्रेम, आजादी के संघर्ष में अपना सबकुछ बलिदान करने की तीव्र इच्छा थी। लोग गुलामी की जंजीरों को तोड़कर आजाद होने के लिए लड़ रहे थे तो संघ ने क्या किया? ‘संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया’। क्योंकि अंग्रेज भक्ति ही उनकी देशभक्ति थी। 9 मार्च 1960 को इंदौर, मध्यप्रदेश में आरएसएस के कार्यकर्ताओं की एक बैठक को सम्बोधित करते हुए गोलवलकर ने कहाः

“नित्यकर्म में सदैव  संलग्न रहने के विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है। समय-समय पर देश में उत्पन्न परिस्थितियों के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती ही रहती है। सन् 1942 में ऐसी उथल-पुथल हुई थी। उसके पहले सन् 1930-31 में भी आन्दोलन हुआ था। उस समय कई लोग डाक्टर जी (हेडगेवार) के पास गये थे। इस ‘शिष्टमंडल’ ने डाक्टर जी से अनुरोध किया कि इस आन्दोलन से स्वातंत्र्य मिल जायेगा और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिए। उस समय एक सज्जन ने जब डाक्टर जी से कहा कि वे जेल जाने के लिए तैयार हैं, तो डाक्टर जी ने कहा – “जरूर जाओ। लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलायेगा ?’’ उस सज्जन ने बताया- ‘दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं तो आवश्यकता अनुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने कर रखी है।’ तो डाक्टर जी ने कहा, ‘आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए निकलो।’ घर जाने के बाद वह सज्जन न जेल गये न संघ का कार्य करने के लिए बाहर निकले।’’ (श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-4, पृष्ठ 39-40, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981)

दरअसल आरएसएस के संस्थापक हेडगेवार, गोलवलकर या  ‘हिन्दुत्व’ के प्रचारक इस गिरोह का कोई भी नेता हो उसने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में एक ओर तो खुद भाग नहीं लिया वहीं दूसरी ओर उन्होंने आम भारतीय को भी जो इनके सम्पर्क में था अपनी तरफ से पूरी कोशिश की कि वह अंग्रेजों के खिलाफ स्वतन्त्रता आन्दोलन में शरीक न ही हो। हेडगेवार ने एक बार संघ की तरफ से नहीं परंतु व्यक्तिगत रूप से नमक सत्याग्रह में भाग लिया, लेकिन इसके बाद उन्होंने आजादी के लिए चल रहे किसी संघर्ष में भाग नहीं लिया। गोलवलकर अंग्रेज शासकों को विजेता मानते थे और उनकी दृष्टि में विजेताओं का विरोध न करके उनके साथ अपनापन रखना चाहिए।

“एक बार एक प्रतिष्ठित वृद्ध सज्जन अपनी शाखा में आये। वह संघ के स्वयंसेवकों के लिए एक नूतन सन्देश लाये थे। उनको शाखा के स्वयं सेवकों के सम्मुख बोलने का अवसर दिया गया तो अत्यन्त ओजस्वी स्वर में वे बोले- ‘अब तो केवल एक काम करो। अंग्रेजों को पकड़ो और मार-मार कर निकाल बाहर करो। इसके पश्चात फिर देखा जायेगा।’ इतना ही कहकर बैठ गए। इस विचारधारा के पीछे है- राज्यसत्ता के प्रति द्वेष तथा क्षोभ की भावना एवं द्वेषमूलक प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्ति। आज की राजनैतिक भावविपन्नता का यही दुर्गुण है कि उसका आधार है प्रतिक्रिया, द्वेष तथा क्षोभ, और अपनापन छोड़कर विजेताओं का विरोध।” (‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-4, पृष्ठ 109-110, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981)

गोलवलकर की नजर में, जो कि आरएसएस के ‘दार्शनिक- गुरू’ की तरह माने जाते हैं, ब्रिटिश हुकूमत के प्रति भारतीय जनता के मन में द्वेष रखना ठीक नहीं है!! ये सज्जन न ही उनका विरोध करने को कहते हैं, तो क्या अपने ऊपर जोर-जुल्म करने वाली अंग्रेजी सत्ता से भारत की जनता प्यार करती, उन्हें गले लगाती?

आजादी के संघर्ष के दौरान जब आरएसएस ने लगातार लोगों को आजादी की लड़ाई से दूर रखने और खुद संघर्ष में भाग नहीं लेने का फैसला लिया उसी समय शहीद भगतसिंह और उनके साथी देश के नौजवानों से आजादी के लिए अलख जगाने और क्रान्ति का संदेश देश के हर कोने तक पहुँचाने की अपील कर रहे थे।

हिन्दुत्व के प्रचारक और आरएसएस के करीबी संघ-भाजपा गिरोह के पूज्य सावरकर अंगेजों को माफ़ीनामे पर माफ़ीनामे लिख रहे थे। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जेल से देश के नौजवानों के नाम यह संदेश भेजा जो 19 अक्टूबर 1929 को पंजाब छात्र संघ के दूसरे अधिवेशन में पढ़कर सुनाया गया जिसकी अध्यक्षता नेताजी सुभाष चन्द्र बोस कर रहे थे। उन्होंने नौजवानों से अपील कीः

“नौजवानों को क्रान्ति का यह संदेश देश के कोने-कोने में पहुँचाना है, फैक्ट्री कारखानों के क्षेत्रों में, गन्दी बस्तियों और गाँवों की जर्जर झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रान्ति की अलख जगानी है जिससे आजादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।” (‘भगतसिंह और उनके साथियों के उपलब्ध सम्पूर्ण दस्तावेज’, सं- सत्यम, पृष्ठ- 359)

आज यही संघ-भाजपा गिरोह एक ओर लोगों को देशप्रेम का प्रमाणपत्र दे रहा है वहीं दूसरी ओर देश के सच्चे शहीदों के विचारों को जनता से दूर रखने की कोशिश कर रहा है और खुद को सबसे बड़ा ‘राष्ट्रवादी’ बता रहा है। देश की आम जनता इतनी मूढ़ नहीं है। देश के नौजवान इस संघ द्वारा बोले जाने वाले इस झूठ पर कभी भी यकीन नहीं करेंगे।

… … …

आरएसएस के “देशप्रेम” का सच

जिस बात को एक आम भारतीय समझता है उससे संघ इनकार करता है। आज एक आम आदमी से आप पूछिए कि इस देश में हिन्दू- मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद, के नाम पर बाँटना क्या ठीक है? तो उसका उत्तर होगा कि लोगों का आपसी भाईचारे से रहना ही इन झगड़ों का विकल्प है, कुछ लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए ये दंगे भड़काते हैं, जनता को बाँटते है। जब आजादी के समय से लेकर आज तक ‘हिन्दू मुस्लिम सिक्ख इसाई सब आपस में भाई-भाई’ की बात सबको जँचती है। जब क्रान्तिकारी शहीदों ने आजादी के समय लोगों को साम्प्रदायिकता के खतरे से आगाह करते हुए लोगों को मिलकर आजादी की लड़ाई के लिए संघर्ष करने की अपील की तो उस समय संघ अपनी कट्टर हिन्दू साम्प्रदायिक नीति का प्रचार कर रहा था, और आज भी कर रहा है। संघ के लिए देश का मतलब कट्टर हिन्दू साम्प्रदायिक लोगों का देश है और इसके दायरे में अन्य धर्मों को मानने वाले तो दूर स्वयं व्यापक आम हिन्दू आबादी भी नहीं है। आदिवासी और दलित आबादी, महिलाएँ भी संघ के कट्टर हिन्दू राष्ट्र की नीति में कहीं नहीं हैं। क्योंकि संघ के लिए जो ‘मनुस्मृति’ सबसे बेहतर संविधान है उसमें दलितों और महिलाओं की स्थिति गुलाम की स्थिति से अधिक कुछ नहीं है।

भारत में राष्ट्र की अवधारणा औपनिवेशिक गुलामी से आजादी के लिए उसके संघर्ष करने के दौरान विकसित हुई है। सामान्य आदमी भी जानता है कि पहले भारत में राजे रजवाड़े और अलग- अलग रियासतें थीं- प्राचीन भारत में भी जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म को मानने वाले लोग थे। हिन्दू धर्म में भी अनेकों सम्प्रदाय थे और हैं जो अलग अलग मूल्यों को मानते थे और आज भी मानते हैं। कोई एकाश्मी मानकीकृत संस्कृति के बजाय विभिन्न संस्कृतियाँ प्राचीन काल से अब तक बनी और चली आ रही हैं। लेकिन संघ अपनी झूठी और गढ़ी हुई राष्ट्र की परिभाषा में नंगी आँखों से दिखने वाली समाज की भौतिक सच्चाई को नकारते हुए एक ‘हिन्दू राष्ट्र’ की बात करता है जो ऐतिहासिक सच्चाइयों से न सिर्फ दूर है बल्कि पूरे मुल्क को बाँटने, टुकड़े-टुकड़े करने और दंगों की आग में झोंककर आज पूँजीपतियों की सेवा पर आमादा है।

आरएसएस का कौन सा राष्ट्र?

भारत के बारे में गोलवलकर शहीदों के विचारों के विपरीत जाते हुए एक अलग ही राग अलापते हैं। वही साम्प्रदायिक सोच, अलगाव पैदा करने की सोच उनकी राष्ट्र की परिभाषा में भी दिखाई देती है। वे कहते हैं:

“इस प्रकार अपनी वर्तमान स्थितियों में राष्ट्र की आधुनिक समझ लागू करते हुए जो अप्रश्नेय निष्कर्ष हमारे सामने आता है वह यह है कि इस देश, हिन्दुस्थान में हिन्दू नस्ल अपने हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू भाषा (संस्कृति का स्वाभाविक परिवार और उसकी व्युत्पत्तियाँ) से राष्ट्रीय अवधारणा को परिपूर्ण करती हैं।” (गोलवलकर, ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाईन्ड’ भारत पब्लिकेशन नागपुर, 1939 के हिन्दी अनुवाद ‘हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा’ पृष्ठ-148)

इसी तरह हिन्दू महासभा के 19वें अधिवेशन (सन् 1937, अहमदाबाद) में सावरकर ने अपने भाषण में कहाः

“फिलहाल हिन्दुस्तान में दो प्रतिद्वंदी राष्ट्र पास-पास रह रहे हैं… हिन्दुस्तान में मुख्य तौर पर दो राष्ट्र हैं- हिन्दू और मुसलमान” (समग्र सावरकर वांग्मय, पूना, 1963, पृष्ठ- 296)

भारत विभाजन के लिए गाँधी और मुस्लिम लीग को गाली देने वाला आरएसएस स्वयं मुस्लिम लीग की तरह कैसे धर्म के आधार पर भारत को बाँटने का पक्षधर था इससे साफ प्रकट होता है।

संघ जब पूरे देश में धर्म के नाम पर बाँटने की अपनी घृणित राजनीति कर रहा था तो शहीद भगतसिंह और उनके साथियों ने देश की आजादी के लिए जनता को एकजुट होने और साम्प्रदायिक झगड़ों से निपटने का यह रास्ता सुझाया। साम्प्रदायिक दंगों पर सन् 1938 में ‘किरती’ में उनका लेख छपा। उन्होंने लिखाः

“लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की जरूरत है। गरीब, मेहनतकश व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हे इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का यत्न करो।”

शहीद भगतसिंह जहाँ धर्म, जाति और रंग के झगड़े मिटाकर दुनियाभर के मेहनतकश लोगों को एक होने की अपील कर रहे हैं वहीं आरएसएस व हिन्दू महासभा लोगों को धर्म के नाम पर बाँट रहें हैं। आज उसी नीति पर चलते हुए भाजपा के प्रधानमन्त्री मोदी दुनियाभर के पूँजीपतियों और देशी पूँजीपतियों की सेवा में लगे हैं तो संघ लोगों को बाँटने की और दंगे कराने की नीति पर मुस्तैद हो गया है। हमें तय करना ही होगा कि हमें भगतसिंह की बातों को मानना है या संघ की।

(नौजवान भारत सभा द्वारा प्रकाशित पुस्तिका ‘कौन देशभक्‍त, कौन देशद्रोही’ से साभार)

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2020


 

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