असली मुद्दा ख़नन की वैधता या अवैधता का नही बल्कि पूँजी द्वारा श्रम और प्रकृति की बेतहाशा लूट का है।

उत्तर प्रदेश के नोएडा (गौतमबुद्धनगर) में हिण्डन और यमुना नदी में चल रहे अवैध खनन का मुद्दा सुखि़र्यों में है। इसके पूर्व कर्नाटक, केरल, गोवा, आन्ध्रा, झारखण्ड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और राजस्थान यानी लगभग पूरे देश में चल रही खानों-खदानों की लूट (जिसमें लोहा, कोयला, बॉक्साइट, अभ्रक, कीमती पत्थर, नाभिकीय खनिज आदि शामिल हैं) की ख़बरें पूँजीवादी मीडिया में सुर्खि़याँ बटोरती रही हैं। मीडिया और सरकार इसका ठीकरा भ्रष्टाचार के सिर फोड़ते रहे हैं। इसमें थोड़ी-बहुत सच्चाई भी है। लेकिन आधा सच झूठ के बराबर है। यह झूठ सोच-समझकर फैलाया जाता है ताकि असली मुज़रिम को बचाया जा सके। देश की मेहनतकश मज़दूर आबादी और निम्न मध्यवर्ग के लिए यह मुद्दा भारी महत्व का है। ख़नन चाहे वैध हो या अवैध, इसके साथ लाखों मज़दूरों के मेहनत की लूट का सवाल तो जुड़ा ही है, साथ ही साथ प्रकृति के विनाश का मसला भी जुड़ा हुआ है।

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अर्थव्यवस्था के खनन सेक्टर में काम करने वाले मज़दूरों के हालात बेहद ही ख़राब हैं। अकेले राजस्थान के खनन उद्योग में बीस लाख से भी ज़्यादा मज़दूर काम कर रहे हैं। इनमें से तीन लाख पचहत्तर हज़ार (3,75,000) बच्चे हैं। कर्नाटक में दो लाख बच्चों से खानों में काम करवाया जाता है। अवैध खनन भी भारी पैमाने पर चल रहा है। वर्ष 2010 में देश में लगभग 82,330 (बयासी हज़ार तीन सौ तीस) अवैध खनन के मामले सामने आये थे। महाराष्ट्र में 25 प्रतिशत और राजस्थान में 50 प्रतिशत पत्थर ख़दानें अवैध हैं। ख़दानों में काम करने वाले मज़दूर जिनमें पुरुष, महिलायें और बच्चे सभी शामिल हैं, ख़दानों के प्रदूषण की चपेट में आकर घातक बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। काम के दौरान होने वाली दुर्घटनाओं में लाखों की संख्या में मज़दूर मारे जाते हैं या अपंग हो जाते हैं। सरकारें और ख़दान मालिकान इनका रिकॉर्ड तक नहीं रखते। शारीरिक शक्ति से अधिक काम कराये जाने और बीमारियों के कारण मज़दूरों की कम उम्र में ही मौत हो जाती है। बच्चे अनपढ़ और कुपोषित रहते हैं। ख़दान मज़दूरों की औसत मज़दूरी 40 से 150 रुपये तक है।

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पूँजीवादी अदालतें और मीडिया अवैध खनन को वैध तरीके से चलाने की पुरज़ोर वकालत करते हैं। लेकिन मज़दूरों, मेहनतकशों के सामने तो असली सवाल यह है कि जहाँ यह ख़नन वैध तरीके से चल रहा है क्या वहाँ श्रम की लूट और प्रकृति का विनाश रुक गया है? अगर नहीं तो क्या वजह है कि सरकार, अदालतें और मीडिया मज़दूरों के श्रम की लूट के मुद्दे को एकदम गोल कर जाते हैं? उनका कुल ज़ोर ख़दानों को कानूनी बनाने पर ही क्यों रहता है। इस सवाल का जवाब ढूँढने के लिए हम रेत-खनन का ठोस उदाहरण लेते हैं।

आप जानते हैं रेत-खनन उद्योग दूसरे कई उद्योगों से जुड़ा हुआ है। हमारे देश में अवरचना निर्माण उद्योग (यानी सड़कें, पुल, बाँध आदि का निर्माण) और भवन निर्माण उद्योग में हर साल लाखों टन रेत की ख़पत होती है। अर्थव्यवस्था के इन दो महत्वपूर्ण सेक्टरों का कुल सालाना कारोबार करीब चार लाख करोड़ रुपये है। इसके अलावा काँच उद्योग और इलेक्ट्रॅानिक सामानों में लगने वाली सिलीकॉन चिप के उत्पादन के लिए भी एक विशेष क़िस्म की रेत (जिसे सिलिका कहते हैं) का कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल होता है। अकेले काँच उद्योग का सालाना कारोबार 1350 करोड़ रुपये है। यह शुद्ध रूप से वैध कारोबार के आँकड़े हैं। इसमें अवैध तरीके से होने वाला व्यापार शामिल नहीं है। लेकिन तस्वीर के इतने हिस्से से एक बात साफ़ हो जाती है कि पूँजीपति वर्ग तथाकथित वैध तरीके से भी मज़दूरों के श्रम और प्रकृति के संसाधनों को लूटकर अपने लिए निजी सम्पत्ति पैदा कर रहा है। कानून, सरकार और संविधान सिर्फ़ इतना करते हैं कि इस लूट पर टैक्स लगाकर इसे कानूनी बना देते हैं। जब पूँजीपति वर्ग का एक हिस्सा अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए टैक्स चोरी कर सरकार को धोखा देने लगता है तब इसमें आश्चर्य कैसा! जब एक बार कोई समाज-व्यवस्था श्रम की लूट को कानूनी मान्यता देती है तो उसमें भ्रष्टाचार का कीड़ा तो पैदा होगा ही। चूँकि तमाम संस्थायें जैसे सरकार, मीडिया, अदालतें आदि मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण की हिफ़ाजत ही करती हैं इसीलिए वे इस असली सवाल पर हमेशा चुप्पी लगाये रहती हैं और सारा दोष भ्रष्टाचार के माथे मढ़कर पूँजीवादी शोषण पर पर्दा डालने का काम करती हैं।

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प्रकृति के विनाश का मसला भी बहुत महत्वपूर्ण है। अगर हम केवल रेत-ख़नन से होने वाले नुकसान को ही देखें तो एक अनुमान के मुताबिक नदियों में रेत की आवक के मुक़ाबले उसका उठान (ख़नन) चालीस गुना तेजी से हो रहा है। इसके कारण नदियों का रास्ता बदल रहा है। पानी के बहाव की रफ़्तार तेज़ हो रही है। इससे नदी किनारों और पुश्तों के कटान की समस्या पैदा हुई है। इसने बाढ़ की समस्या को विकराल बना दिया है। रेत प्राकृतिक तौर पर पानी का भण्डारण भी करती है और बहुत से जीव-जन्तुओं का आवास भी है। अँधाधुँध खुदाई से मछलियों की बहुत सी प्रजातियाँ या तो ख़त्म हो गयी हैं या उनकी संख्या बहुत थोड़ी ही रह गयी है। इसने मछुआरों को बड़े पैमाने पर काम से उजाड़ा है और उन्हें बेरोज़गारों की फ़ौज में खड़ा कर दिया है। इसका एक और दुष्परिणाम यह है कि भूगर्भ के पानी के भण्डार भी लगातार छीनते जा रहे हैं। साफ़ पीने का पानी मिलना लगातार मुश्किल होता जा रहा है। पूँजीपतियों ने अपने द्वारा पैदा की गई इस समस्या से भी मुनाफ़ा कमाने की जुगत ढूँढ ली है। नोएडा की मज़दूर बस्तियों तक में पीने का बोतलबन्द पानी बिकने लगा है।

मज़दूरों-मेहनतकशों के श्रम की लूट और प्रकृति का विनाश पूँजीवादी उत्पादन के अनिवार्य परिणाम हैं। इन समस्याओं को कानूनी बदलावों से हल नहीं किया जा सकता। यह तो तभी सम्भव है जब निजी सम्पत्ति के नींव पर खड़ी पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्था की जगह मज़दूर वर्ग आपसी सहकार, भाईचारे और संसाधनों के सामूहिक स्वामित्व के आधार पर एक नई व्यवस्था का निर्माण करे।

 

मज़दूर बिगुलअगस्‍त  2013

 


 

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