क्रान्तिकारी चीन में स्वास्थ्य प्रणाली

– डॉ. ऋषि

हर देश में स्वास्थ्य का अधिकार जनता का सबसे बुनियादी अधिकार होता है। यूँ तो हमारे देश के संविधान का अनुच्छेद 21 कहता है कि “कोई भी व्यक्ति अपने जीवन से वंचित नहीं किया जा सकता”। लेकिन सभी जानते हैं कि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में रोज़ाना हज़ारों लोग अपनी जान गँवा देते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार 70 फ़ीसदी भारतीय अपनी आय का बड़ा हिस्सा दवा-इलाज पर ख़र्च करते हैं। मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था ने हर मानवीय सेवा को बाज़ार के हवाले कर दिया है, जानबूझकर जर्जर और ख़स्ताहाल की गयी स्वास्थ्य सेवा को बेहतर करने के नाम पर सभी पूँजीवादी चुनावी पार्टियाँ निजीकरण व बाज़ारीकरण पर एक राय हैं। महाशक्ति होने का दम भरने वाली भारत सरकार अपनी जनता को सस्ती और सुलभ स्वास्थ्य सेवा भी उपलब्ध नहीं कर सकती है। ऐसे में पड़ोसी मुल्क चीन के क्रान्तिकारी दौर (1949-76) की चर्चा करेंगे, जब मेहनतकश जनता के बूते बेहद पिछड़े और बेहद कम संसाधनों वाले “एशिया के बीमार देश” ने स्वास्थ्य सेवा में चमत्कारी परिवर्तन किया, साथ ही स्वास्थ्यकर्मियों और जनता के आपसी सम्बन्ध को भी उन्नत स्तर पर ले जाने का प्रयास किया। आज का पूँूजीवाद चीन भारी पूँजीनिवेश और सख़्त नौकरशाहाना तरीक़ों के दम पर कोरोना के नियंत्रण आदि के काम कर ले रहा है, पर बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी उस सुलभ और मानवीय चिकित्सा सेवा से वंचित हो गयी है जो समाजवाद ने उन्हें कम संसाधनों में भी उपलब्ध करायी थी। डॉ. विक्टर सिडेल और डॉ. रुथ सिडेल की पुस्तक ‘सर्व दि पीपल’ के एक लेख के आधार पर एक अनुभवी चिकित्सक का लिखा यह लेख चीन में हुए स्वास्थ्य सेवा ओं में क्रान्तिकारी बदलावों की एक झलक पेश करता है। – सम्पादक

1949 में क्रान्ति के बाद से ही चीन में स्वास्थ्य सेवाओं में लगातार प्रगति हुई। महान सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान अन्य और क्षेत्रों की तरह ही स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी अद्वितीय प्रयोग किये गये। एक नये प्रकार की स्वास्थ्य सेवा विकसित की गयी और इसकी पहुँच शहरों से लेकर दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों तक विस्तारित की गयी। सामूहिकता और कम्युनिस्ट पार्टी का इसमें बहुत महत्वपूर्ण योगदान था। चीनी चिकित्सा पद्धति और आधुनिक चिकित्सा पद्धति के समन्वय के लिए और साथ ही साथ चिकित्सा शिक्षा (medical education) की समाजवादी प्रणाली विकसित करने के लिए उल्लेखनीय प्रयोग किये गये। नौकरशाही का रोल और दूसरे क्षेत्रों की तरह ही स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी काफ़ी हद तक कम किया गया।

क्रान्ति-पूर्व चीन में स्वास्थ्य की स्थिति

चीन को 20वी सदी के पूर्वार्ध में “एशिया का बीमार आदमी” की उपाधि मिली हुई थी। देश लगभग हर प्रकार की संक्रामक और कुपोषण-जनित बीमारियों से ग्रसित था। बैक्टीरिया से होने वाली बीमारियों में हैज़ा, कुष्ठ रोग, प्लेग, दिमाग़ी बुख़ार, टी.बी., टायफ़ाईड इत्यादि प्रमुख थे। वायरस से होने वाली बीमारियाँ चेचक, जापानी बुख़ार और ट्रेकोमा थी। परजीवियों से होने वाली बीमारियाँ काला-बुख़ार, मलेरिया, हुक-वर्म और शिस्तोसोमिअसिस इत्यादि थीं। यौन रोग बड़े पैमाने पर फैले थे। कुपोषण से सम्बन्धित बीमारियों में लगभग हर प्रकार की बीमारियाँ जैसे कि क्वाशिओर्कर (kwashiorkor) और सूखा रोग (marasmus) व विटामिन की कमी से होने वाली बीमारियाँ जैसे कि बेरी-बेरी, पैलेग्रा, स्कर्वी और रिकेट्स बड़े पैमाने पर व्याप्त थीं। “कुपोषण” एक तरह से भुखमरी का ही दूसरा नाम था। शिशु मृत्यु दर (प्रति 1000 जन्म) लगभग 200 थी। यानी हर पाँच में से एक बच्चा अपने जन्म के प्रथम वर्ष में मरने को अभिशप्त था। बीमारियों के होने का एक मुख्य कारण व्यापक पैमाने पर मौजूद भयंकर ग़रीबी थी और ग़रीबी का एक मुख्य कारण मज़दूरों और किसानों के श्रम की औपनिवेशिक ताक़तों व व्यापारियों के द्वारा जारी नंगी लूट थी। ग़रीबी की इन परिस्थितियों में स्वास्थ्य सेवाएँ (अगर संसाधन पर्याप्त मात्रा में होते भी) थोडा-बहुत फ़र्क़ ही डाल सकती थीं। लेकिन स्वास्थ्यकर्मियों और संसाधनों की भयंकर कमी और अनुपलब्धता इस समस्या को और भी जटिल बना देती थी।

क्रान्ति-पूर्व चीन में स्वास्थ्यकर्मियों व संसाधनों की स्थिति

चीन में मुख्यतः दो तरह के स्वास्थ्यकर्मी होते थे। एक वे जो पारम्परिक चीनी पद्धति का अनुसरण करते थे और दूसरे वे जो आधुनिक चिकित्सा पद्धति का। पारम्परिक डॉक्टरों का इतिहास 2,000 साल से भी अधिक पुराना है जबकि आधुनिक डॉक्टर पहले यूरोपियन देशों से पढ़कर आते थे और बाद में चीन के मेडिकल कालेजों से ही आने लगे। चीन में वर्ष 1949 में, एक अनुमान के मुताबिक, पारम्परिक चीनी पद्धति के डॉक्टरों की संख्या पाँच लाख से ज़्यादा नहीं थी। इसी तरह आधुनिक पद्धति के डॉक्टरों और जनसँख्या का अनुपात 1:50,000 से 1:13000 के बीच में था। ग़ौरतलब बात यह है कि उस समय अमेरिका में यह अनुपात 1:750 था। चीन को उस अनुपात तक पहुँचने के लिए क़रीब सात लाख डॉक्टरों की ज़रूरत पड़ती। हालाँकि 1949 से पहले भी आधुनिक डॉक्टरों की संख्या बढ़ाने की कोशिशें हुईं थीं, लेकिन ज़्यादातर प्रयास डॉक्टरों के प्रशिक्षण को अमरीकी या यूरोपियन मॉडल पर आधारित रखकर किये गये। इसी तरह अस्पतालों की संख्या बहुत कम और हालात ख़स्ता थे। एक अनुमान के मुताबिक़, चीन के अस्पतालों में 1949 में लगभग कुल 90,000 बेड थे। चीन को अमेरिका के उस समय के स्तर पर पहुँचने के लिए लगभग 50 लाख बेड चाहिए थे। उस पर भी ज़्यादातर आधुनिक डॉक्टर और स्वास्थ्य सुविधाएँ का शहरों में ही केन्द्रित रहना समस्या को और भी जटिल बना देता था।
संक्षेप में कहे तो चीन के ग्रामीण इलाक़ों की भारी आबादी और शहरी ग़रीबों की बहुसंख्या को मिलने वाली स्वास्थ्य सेवाएँ सिर्फ़ वे थीं जो कि पारम्परिक डॉक्टरों (जिनमें से काफ़ी पूरी तरह पारंगत भी नहीं थे) द्वारा दी जाती थी। रोग निरोधक(Preventive) चिकित्सा का कोई नामो-निशान नहीं था और ज़्यादातर लोग ग़रीबी, बीमारी और अपंगता (disability) के अनन्त और अवश्यम्भावी कुचक्र में फँसे रहने को अभिशप्त थे।

1949 की ‘नवजनवादी क्रान्ति’ के बाद और ‘सांस्कृतिक क्रान्ति’ के पहले स्वास्थ्य की स्थिति

इन सब हालात को देखते हुए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि माओ ने 1930 के दशक से ही स्वास्थ्य सेवाओं को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और जनमुक्ति सेना की प्राथमिकता-सूची में काफ़ी ऊपर रखा हुआ था। प्रत्येक गाँव के कोमिनतांग या जापान के चंगुल से ‘मुक्त’ होते ही शुरुआती काम भूमि-सुधार, किसानों को संगठित करना और स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करना होता था। 1949 में कम्युनिस्ट पार्टी के सत्ता सँभालने के बाद भी स्वास्थ्य सेवाओं की प्राथमिकता पहले की तरह ही बनी रही। 1950 के दशक के शुरुआती वर्षों में पीकिंग में आयोजित ‘नेशनल हेल्थ कांग्रेस’ में अपनाये गये उसूलों और माओ के दिशा-निर्देशों के संयोजन से स्वास्थ्य सेवाओं के विकास का विचाराधात्मक आधार तैयार हुआ। ये विचार थे :
1. चिकित्सा विज्ञान को श्रमिकों (मज़दूरों, किसानों और सिपाहियों) की सेवा के लिए होना चाहिए।
2. बीमारी की पहले ही रोकथाम करने वाली चिकित्सा को रोग निवारक (इलाज करने वाली) चिकित्सा के मुक़ाबले प्राथमिकता मिलनी चाहिए।
3. पारम्परिक डॉक्टरों और आधुनिक डॉक्टरों को एक दूसरे के साथ जोड़ा जाना चाहिए।
4. स्वास्थ्य से सम्बन्धित कामों को जन-आन्दोलनों से जोड़ा जाना चाहिए।
इसके बाद के 15 सालों में – 1950 से 1965 तक – चीन के 60 करोड़ लोगों के स्वास्थ्य और राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं में बहुत बड़े बदलाव लाये गये जो कि अपनी गति और पहुँच में इतिहास में शायद अद्वितीय थे। हैजा, प्लेग, चेचक और पोषण से सम्बन्धित ज़्यादातर बीमारियाँ लगभग ख़त्म हो गयीं; अफ़ीम की लत का सामुदायिक सहयोग से निर्मूलन किया गया; यौन रोगों में थोडा ज़्यादा समय लगा लेकिन वे भी सामाजिक और चिकित्सकीय तकनीकों के संयोजन से 1960 के दशक के शुरुआती वर्षों तक ख़त्म कर दिये गये।
“महान देशभक्तपिूर्ण स्वास्थ्य आन्दोलन” के द्वारा लोगों को फसलों को नुक्सान पहुँचाने वाले और बीमारी फैलाने वाले चार कीटों (मक्खियाँ, मच्छर, चूहें और गौरैया – बाद में गौरैया की जगह खटमल को शामिल किया गया) के खिलाफ़ गोलबनद किया गया। कह सकते हैं कि “लोगों की पुरानी आदतें और रीति-रिवाज़ बदल दिये गये”, “समाज का नव-निर्माण किया गया” और “स्वच्छता को सम्मान मानने का नज़रिया लोगों के भीतर अपनी जगह बनाने लगा”।
स्वास्थ्यकर्मियों को बड़ी तेज़ी से प्रशिक्षित किया जाने लगा। ओर्लीन्स के मुताबिक़, 1966 के अन्त तक चीन में लगभग डेढ़ लाख आधुनिक डॉक्टर थे – यह 20 सालों में एक लाख डॉक्टरों की बढ़ोतरी थी! अगर 1966 में चीन की जनसंख्या 72.5 करोड़ मानी जाये तो डॉक्टर और जनसंख्या का अनुपात 1:5000 था जो कि पश्चिमी देशों (अमेरिका में 1:750)के मुकाबले अपर्याप्त है। इसके अलावा ये डॉक्टर अभी भी मुख्यतः शहरों में ही केन्द्रित थे यद्यपि नये डॉक्टरों को ग्रामीण इलाक़ों में भेजने की कोशिशें की जा रही थी। स्वास्थ्य मंत्रालय की 1965 की एक रिपोर्ट के अनुसार, 1963 के बैच के 25000 डॉक्टरों में से ज़्यादातर को काउण्टी अस्पतालों और खनन कम्पनियों में भेजा जा चुका था।
स्वास्थ्यकर्मियों की बढ़ती संख्या का एक स्रोत सेकण्डरी मेडिकल स्कूलों का विकास था, हालाँकि इनका विकास भी सोवियत मॉडल पर ही आधारित था। एक अनुमान के अनुसार 1957 में ऐसे स्कूल 170, 1964 में 200 और 1965 में 230 की संख्या में थे। इन स्कूलों में बड़ी संख्या में सहायक डॉक्टर, नर्सें, मिड-वाईफ़, फ़ार्मासिस्ट, रेडियोलॉजी और लेबोरेटरी टैक्नीशियन प्रशिक्षित किये गये। ओर्लीन्स के अनुसार, 1966 में चीन में लगभग 1,72,000 असिस्टेण्ट डॉक्टर, 1,86,000 नर्सें, 42,000 मिड-वाईफ़ और 1,00,000 फ़ार्मासिस्ट थे।
‘नव जनवादी क्रान्ति से लेकर सांस्कृतिक क्रान्ति’ के बीच के समय में पारम्परिक चीनी डॉक्टरों और आधुनिक डॉक्टरों को एकीकृत करने के बहुत प्रयास किये गये लेकिन वे बहुत ज़्यादा फलदायक साबित नहीं हुए। 1966 में 21 पारम्परिक चीनी मेडिकल कालेजों में 10,000 छात्र थे। लेकिन कुल मिलाकर पारम्परिक डॉक्टरों की संख्या में पहले के मुक़ाबले कोई ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ। 1965 में उनकी कुल संख्या 5,00,000 थी जोकि 1949 में उनकी संख्या के बराबर ही थी।
तालिका–1 में 1966 में सांस्कृतिक क्रान्ति के शुरू होने के समय चीन के स्वास्थ्य-कर्मियों की संख्या और अनुपातों का विवरण है। ये संख्या और अनुपात पश्चिमी देशों के मुक़ाबले अभी भी कम थे लेकिन अगर इनकी तुलना 15 साल पुराने आँकड़ों से की जाये तो इतने कम समय में इतनी वृद्धि को आश्चर्यजनक ही कहा जायेगा।
लगभग इतनी ही तेज़ गति से स्वास्थ्य सुविधाओं में बढ़ोतरी हुई। ऍफ़. एवरी जोन्स के मुताबिक़ 1949 और 1957 के बीच में 860 नये अस्पताल बनाए गये जिनमे प्रति अस्पताल औसतन 350 बेड थे। इसका मतलब यह हुआ कि चीन में इन आठ सालों में हर 3.5 दिन में एक नया अस्पताल बना और कुल लगभग तीन लाख बेड उपलब्ध हुए। 1971 में कनाडा के दौरे पर गये चीनी डॉक्टरों के एक दल ने बताया कि 1949 से 1965 के बीच अस्पतालों में बेड की संख्या आठ गुना बढ़ गयी। इसका मतलब यह हुआ कि 1957 से 1965 के बीच बेडों की संख्या में लगभग चार लाख की अतिरिक्त वृद्धि हुई। जून 1965 में स्वास्थ्य मंत्रालय के एक अधिकारी ने बड़े गर्व से बताया कि चीन की हर एक काउण्टी(ज़िले) में एक अस्पताल है।
हालाँकि टेक्नोलोजी पश्चिमी देशों के मुक़ाबले काफ़ी पीछे थी, लेकिन यह तेज़ गति से प्रगति कर रही थी। दवा उद्योगों ने अपने सोवियत साथियों को भी पीछे छोड़ दिया था। कटे हुए अंगों के प्रत्यारोपण और बुरी तरह जले मरीजों का इलाज करने जैसे कठिन और विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई। यहाँ पर भी स्वास्थ्यकर्मियों के टीमवर्क और मरीज़ों को अपनी बीमारी से लड़ने के लिए प्रोत्साहित करने के महत्त्व पर ज़ोर दिया गया। मौलिक अनुसन्धान सीमित थे लेकिन सफल तरीक़ों से इस्तेमाल किये जा रहे था। 1965 में इन्सुलिन का कृत्रिम तरीक़े से उत्पादन इसका एक उदाहरण है। काफ़ी हद तक क्लीनिकल रिसर्च भी जारी थी। कुल मिलकर 1965 के अन्त तक ऐसा प्रतीत हो रहा था की एक समाजोन्मुख, रोकथाम पर बल देने वाली ठीकठाक स्वास्थ्य व्यवस्था विकसित हो गयी है। हालाँकि चीन की सभी ज़रूरतें पूरी करने के लिए एक लम्बा रास्ता तय करना था, लेकिन सेवाओं की गुणवत्ता और उनके वितरण और आम जनता के स्वास्थ्य में उल्लेखनीय इज़ाफ़ा हो चुका था।

सांस्कृतिक क्रान्ति का प्रभाव

संक्षेप में, बाहरी प्रेक्षकों और शायद उस समय के कई चीनी नेताओं को भी यह लगा कि स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपनी ज़िम्मेदारी का काफ़ी अच्छी तरह से निर्वहन किया है। ख़ासकर अगर यह ध्यान में रखा जाए कि उसकी शुरुआत किस बिन्दु से हुई थी और उसके पास काम के हिसाब से संसाधनों की भारी कमी थी। लेकिन 1965 में माओ और उनकी ‘जनदिशा’ को मानने वाले अन्य लोगों के अनुसार मंत्रालय कई मुख्य क्षेत्रों में अपने उद्देश्य प्राप्त करने में विफल रहा था।
1. ग्रामीण इलाक़ों में अतिरिक्त संसाधनों को प्रदान करने के महत्त्व को पहचानने के बावजूद शहरी क्षेत्रों ने सीमित संसाधनों का ज़्यादा बड़ा हिस्सा प्राप्त किया।
2. रोगों की रोकथाम पर ज़ोर देने वाली चिकित्सा का महत्व पहचानने और कई प्रोग्रामों के सफल होने के बावजूद रिसर्च, प्रशिक्षण और स्वास्थ्य सेवाओं में रोग निरोधक चिकित्सा के बजाये रोगनिवारक (इलाज पर ज़ोर देने वाली) चिकित्सा पर ज़्यादा ध्यान दिया गया।
3. पारम्परिक चीनी पद्धति और आधुनिक पद्धति के एकीकरण के महत्त्व को पहचानने के बावजूद और इसमें कुछ हद तक सफलता मिलने के बावजूद पारम्परिक पद्धति पर कम ध्यान दिया गया और इसका स्तर आधुनिक पद्धति से नीचे माना गया।
4. अन्य देशों से लायी गयी तकनीक में चीन की विशेष परिस्थितियों के अनुसार बदलाव लाने, न कि उसे ज्यों का त्यों स्वीकार करने के महत्त्व को पहचानने के बावजूद चिकित्सा शिक्षा, जन-स्वास्थ्य और स्वास्थ्य सेवाओं के प्रशासन के मॉडलों में सीधे सोवियत यूनियन की नक़ल की गयी।
5. सामूहिक नेतृत्व और नीतियाँ लागू करने में ‘दिशानिर्देश’ वाली पद्धति के बजाय शिक्षा और प्रोत्साहन के महत्त्व को पहचानने के बावजूद एक पद सोपान वाली प्रबन्धन संरचना विकसित हो गयी है जिसका शीर्ष स्तर नीचे से दिये गये सुझावों और आलोचनाओं को काफ़ी हद तक अनसुना करता है।
6. संसाधन सीमित होने के बावजूद समाज में प्रत्येक व्यक्ति की उन तक पहुँच है, इस बात का त्वरित आश्वासन देने के महत्त्व को पहचानने के बावजूद जो कुछ उपलब्ध था, उसे सबको सुलभ बनाने के बजाय ‘मानक ऊपर करने’ पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया।
7. आख़िर में और शायद माओ और उनके साथियों की नज़रों में सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण बात कि मैनेजरों को आम जनता के सम्पर्क में रहने और मानसिक श्रम को शारीरिक श्रम से ज़्यादा महत्त्व देने की परम्परा को तोड़ने के महत्त्व को जानने के बावजूद इन माओवादी उसूलों का पालन करने की बजाय उन्हें तोड़ा ज़्यादा गया।
माओ त्से-तुंग ने 26 जून 1965 में स्वास्थ्य मंत्रालय की आलोचना करते हुए एक वक्तव्य दिया। माओ ने कहा क‍ि “स्वास्थ्य मंत्रालय देश की सिर्फ़ 15% आबादी को सेवाएँ प्रदान करता है” और “इस मंत्रालय का नाम बदलकर ‘शहरी स्वास्थ्य मंत्रालय’ रख देना चाहिए।” सह टिप्पणी काफ़ी लोकप्रिय हुई। इस वक्तव्य का आख़िरी वाक्य – “चिकित्सा और स्वास्थ्य के काम में ग्रामीण इलाक़ों पर ज़्यादा ज़ोर दो” – बड़े पैमाने पर प्रकाशित हुआ और ‘जून 26 निर्देश’ के नाम से जाना गया। अपने इस वक्तव्य में माओ ने कई नुस्ख़े दिये :
– मेडिकल शिक्षा पर : स्कूली शिक्षा के बाद मेडिकल स्कूल में तीन साल काफ़ी हैं। मेडिकल स्कूल के बाद छात्रों को लगातार प्रैक्टिस के माध्यम से अपनी दक्षता में सुधार लाना चाहिए।
– मेडिकल रिसर्च पर : चोटी की समस्याओं – बहुत जटिल और लगभग असाध्य रोगों – पर कम और जनता के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी – आम बीमारियों से बचाव और उनके इलाज – पर ज़्यादा व्यक्तियों और संसाधनों को लगाना चाहिए।
– मेडिकल सेवाओं पर : सभी डॉक्टरों, सिवाय उनके जो बहुत दक्ष नहीं हैं, को प्रैक्टिस के लिए गाँवों में जाना चाहिए।
1965 में सांस्कृतिक क्रान्ति शुरू होने के बाद माओ द्वारा तय की गयी लाइन को लागू करने के लिए हर सम्भव प्रयास किये गये। स्वास्थ्य मंत्रालय और चीनी मेडिकल एसोसिएशन को “संघर्ष, आलोचना और बदलाव” का संघर्ष-केन्द्र बनाया गया। इस दौरान मेडिकल स्कूलों में कोई नयी कक्षा शुरू नहीं की गयी और पहले से पढ़ रहे मेडिकल छात्रों को व्याहारिक प्रशिक्षण देकर गाँवों में भेज दिया गया। मेडिकल स्कूलों के फ़ैकल्टी सदस्यों, शोधकर्ताओं और अन्य दूसरे शहरी स्वास्थ्यकर्मियों को भी एक निश्चित समय के लिए ग्रामीण इलाक़ों में भेजा जाता था। वहाँ वे मेडिकल कार्य जैसे कि ‘बेयरफ़ुट डॉक्टरों’ की ट्रेनिंग, मेडिकल और रोगों की रोकथाम सेवाएँ और किसानों को स्वास्थ्य सेवा भूमिका निभाने के लिए गोलबन्द करने के साथ-साथ शारीरिक श्रम भी करते थे। शहरी स्वास्थ्यकर्मियों को या तो निश्चित स्थानों – जैसे काउण्टी अस्पताल और कम्यून अस्पताल या फिर “सचल मेडिकल टीमों” में तैनात किया गया। किसी भी समय हर शहरी अस्पताल का कम से कम एक तिहाई स्टाफ़ गाँवों में होता था। वे छह से लेकर एक साल तक का समय वहाँ बिताते थे और अपने परिवारजनों से मिलने साल में दो बार जा सकते थे। अगर वे और भी ज़्यादा समय वहाँ बिताना चाहते थे तो अपने परिवार को भी साथ रख सकते थे; कहा जाता है क‍ि कुछ शहरी डॉक्टर तो स्थायी रूप से गाँवों में बस भी गये थे।
गाँवों में भेजने का एक और कारण जो दिया गया, वह था कि शहरी डॉक्टर, मेडिकल स्कूलों के टीचर और शोधकर्ता कठिन परिश्रम और किसानों के सम्पर्क के माध्यम से “पुनर्शिक्षित” किये जायें। जो लोग गाँवों में रहे थे, वे बताते थे कि कैसे उन्हें किसानों की कठिन ज़िन्दगी का अन्दाज़ा नहीं था और कैसे किसानों की ज़रूरतों को समझने की वजह से अब उनमे मेडिकल सेवा के प्रति प्रतिबद्धता और बढ़ गयी है। हालाँकि 1965 से पहले भी “सहायकों” के विकास के प्रयास हुए थे लेकिन ‘सांस्कृतिक क्रान्ति’ के दौरान एक नये तरह के स्वास्थ्यकर्मियों का निर्माण हुआ जो कि “रेगुलर” डॉक्टरों और अन्य दूसरे स्वास्थ्यकर्मियों से बहुत अलग थे। इन नये स्वास्थ्यकर्मियों को आँकड़ों में मेडिकलकर्मी नहीं माना जाता था। उनकी गिनती कृषि श्रमिक (बेयरफुट डॉक्टर), उत्पादन श्रमिक (श्रमिक डॉक्टर) या गृहिणी और सेवानिवृत्त लोगों (रेड मेडिकल वर्कर) के तौर पर होती थी और वे भी ख़ुद को यही मानते थे।
इसके अलावा स्वास्थ्य सेवाओं के संगठन में बड़े बदलाव किये गये। इस सम्बन्ध में सबसे बड़ा मुद्दा 1949 के बाद से एक कुलीन मैनेजर और बुद्धिजीवी तबक़े का विकास होना था जिसे माओ और उनके साथी एक प्रतिक्रान्ति झुकाव (trend) मानते थे। 1971 में और संगठनों की तरह ही स्वास्थ्य संगठनों का नेतृत्व भी ‘रिवोल्यूशनरी कमेटियों” के हाथों में आ चुका था। इन कमेटियों में जन मुक्ति सेना के प्रतिनिधि, कैडर सदस्य और स्वास्थ्यकर्मियों के प्रतिनिधि ‘थ्री-इन-वन’ के अनुपात में होते थे।
सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान वेतन, हैसियत और मेडिकलकर्मियों के विभिन्न संस्तरों के बीच के अन्तर को कम किया गया। सांस्कृतिक क्रान्ति से पहले सोवियत मॉडल का अनुसरण करने की वज़ह से अलग-अलग मेडिकल-कर्मियों के वेतन में और सीनियर मेडिकल-कर्मियों और समाज के अन्य लोगों के वेतन में काफ़ी ज़्यादा अन्तर आना शुरू हो गया था। इस क्रान्ति का एक नतीजा यह हुआ कि यह निर्णय लिया गया कि ऊपरी छोर की तनख़्वाहें तब तक के लिए ‘फ़्रीज’ कर दी जायें, जब तक कि निचले छोर की तनख्वाहें बढ़ कर उनके बराबर नहीं हो जाती। जहाँ तक हैसियत और रोल का सवाल है तो ऐसी कोशिशें की गयीं ताकि स्वास्थ्यकर्मियों के बीच परस्पर बातचीत और तालमेल को बढ़ाया जा सके। उदाहरण के लिए, नर्सों ने इलाज की निर्णय-प्रक्रिया में ज़्यादा रोल निभाना शुरू कर दिया और डॉक्टरों के द्वारा नर्सों और दूसरे स्वास्थ्यकर्मियों वाले काम भी किये जाने लगे। इस सबके पीछे उद्देश्य यह था कि स्वास्थ्य संगठनों में व्याप्त पदसोपान वाली संरचना को तोड़ा जाये और एक ऐसी व्यवस्था निर्मित की जाये जिसमे मरीज़ों की भलाई के लिए सभी कर्मी प्रभावी रूप से काम कर सकें।
1971 के अन्त तक मेडिकल स्कूलों में पाठ्यक्रम काफ़ी छोटा हो गया था और उसमें भी ज़्यादा ज़ोर सिद्धान्त के बजाय व्यवहार पर होता था। मेडिकल के छात्र केवल शैक्षणिक आधार पर नहीं चुने जाते थे। यह माना गया कि इस प्रक्रिया से एक कुलीन बुद्धिजीवी तबक़ा पैदा हो रहा था। इसके बजाय उन्हें साथी कर्मियों और किसानों की सिफ़ारिशों (जोकि ख़ुद छात्रों के रवैये और विचारधारा पर आधारित होती थीं) को भी ध्यान में रखकर चुना जाता था।

मज़दूर बिगुल, मई 2021


 

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