सालों से उपेक्षित बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था की असलियत और कोरोना महामारी में उजागर होते उसके भयावह नतीजे!

– वारुणी पूर्वा

जिस प्रकार देश में कोरोना महामारी की स्थिति को छुपाने में मोदी सरकार लगी हुई है, उसी प्रकार जदयू-भाजपा की गठबन्धन सरकार बिहार की ज़मीनी हक़ीक़त को दबाने की पूरी कोशिश कर रही है! कोरोना से हुई मौत के आँकड़ों में हेरफेर कर असली आँकड़ों को दबाने की पूरी कोशिश की गयी परन्तु सच्चाई किसी से नहीं छुपी है।
बिहार के बक्सर ज़िले में गंगा में बहते शवों की तस्वीर ने सबको हिलाकर रख दिया था। पटना हाई कोर्ट में 17 मई को राज्य के मुख्य सचिव और पटना प्रमंडल आयुक्त ने बक्सर में मौतों के सम्बन्ध में अलग अलग आँकड़े पेश किये। राज्य के मुख्य सचिव के अनुसार 1 मई तक बक्सर जिले में सिर्फ़ 6 मौतें हुई थीं और पटना प्रमंडल आयुक्त द्वारा पेश एफ़िडेविट में बताया गया था कि सिर्फ़ 5 मई से 14 मई तक में 789 मृत लोगों का अन्तिम संस्कार किया गया है। यह भी सिर्फ़ एक घाट पर हुए अन्तिम संस्कार का आँकड़ा है! ठीक यही स्थिति पटना में भी थी। बिहार स्वास्थ्य विभाग के अनुसार 1 अप्रैल से 30 अप्रैल तक पटना में 293 मौतें हुई लेकिन पटना नगर निगम के अनुसार इतने ही दिनों में सिर्फ़ बाँसघाट में 939 शवों को कोविड प्रोटोकॉल के तहत जलाया गया। इसके अलावा गुलाबी घाट में 441, खाजेकलां में 107 व शाहगंज में 35 मृत लोगों की संख्या पायी गयी। मीडिया द्वारा इस पर सवाल उठाये जाने के बाद ही पटना हाई कोर्ट ने मामले में दखल दिया और मौत के आँकड़ों के ऑडिट का आदेश जारी किया।
सरकारी रिपोर्ट में 8 जून तक बिहार में हुई मौतों की संख्या 5,500 बताई जा रही थी जोकि बढ़ कर 9 जून को अचानक 9,429 हो गयी! असलियत यह थी कि यह एक दिन की मौतों का आँकड़ा नहीं था बल्कि ऑडिट के बाद मौतों की असल संख्या पता चली तब उसे सरकारी रिपोर्ट में दर्ज किया गया! ‘द वायर’ के एक संवादाता के अनुसार अकेले पटना में 1 अप्रैल से 20 मई तक जितनी मृतकों की संख्या रिपोर्ट की जा रही थी, असल में उससे 452.4% ज़्यादा की संख्या में शवों को घाटों पर जलाया गया था। हालाँकि 9 जून के ये सरकारी आँकड़े भी बिहार में मौतों के ताण्डव की पूरी सच्चाई उजागर नहीं करते। इनमें वे मौतें शामिल नहीं हैं जो दूरदराज़ के गाँवों में हुईं जहाँ न तो कोई स्वास्थ्य केन्द्र है और न ही कोरोना जाँच की सुविधा। इनमें वे मौतें भी शामिल नहीं जो होम आइसोलेशन में हुईं या फिर अस्पताल ले जाते वक़्त रास्ते में ही जिनकी मौत हो गयी। बिहार में कई जगह से ऐसी भी ख़बरें आयीं कि कोरोना पॉज़िटिव रिपोर्ट आने के बाद भी मृत्यु प्रमाण पत्र में कोरोना से हुई मौत को नहीं दर्ज किया जा रहा है। ये सब गुमनाम मौतें हैं जो कहीं भी दर्ज नहीं हुईं।

कोरोना महामारी में बिहार के शहरों व गाँव की स्थिति

अप्रैल माह में बिहार के शहरों में कोरोना संक्रमण की स्थिति बेहद गम्भीर हो गयी थी और एक के बाद एक मौतों का सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा था। लोग ऑक्सीजन, बेड, दवा के लिए बिलखते हुए इधर से उधर भाग रहे थे। आर्थिक रूप से सक्षम लोग कुछ हद तक अपने परिजनों को बचाने में कामयाब रहे लेकिन ग़रीब आबादी के पास ख़स्ताहाल सरकारी अस्पतालों के अलावा कोई विकल्प नहीं था। बिहार के सबसे जाने-माने अस्पताल पी.एम.सी.एच. के कोरोना वार्ड की ऐसी स्थिति थी कि मरीज को पूरे सप्ताह तक डॉक्टर देखने हीं नहीं आते थे। लोगों को मरने के लिए उनके हाल पर छोड़ दिया गया था। बिहार के दूसरे सबसे बड़े अस्पताल दरभंगा मेडिकल अस्पताल की हालत यह थी कि भारी बारिश के बाद पूरा अस्पताल नाले के गन्दे पानी में डूबा हुआ था और उसी पानी में खड़े-खड़े डॉक्टर मरीज़ का इलाज करने को मजबूर थे! अप्रैल माह में बिहार के ज़िलों के ज़्यादातर अस्पतालों में कोई ख़ाली आई.सी.यू. बेड नहीं मिल रहे थे। पी.एम. केयर फण्ड से जो 100 वेंटीलेटर आये थे, उनमे से मुश्किल से 10 वेंटीलेटर काम कर रहे थे। ऐसी हालत इसलिए थी क्योंकि वेंटीलेटर को चलवाने के लिए बिहार सरकार के पास स्टाफ़ ही नहीं था। अस्पताल और स्वास्थ्य व्यवस्था इस महामारी से निपटने के लिए किस हद तक तैयार थी, इस बात का अंदाज़ा सिर्फ़ मौत के आँकड़ों से ही नहीं बल्कि अस्पतालों की पंगु हालत से भी लगाया जा सकता है। शहरों के अस्पतालों में मरीज़ों की भीड़ और ज़्यादा इसलिए भी थी क्योंकि गाँवों के लोग शहर आकर इलाज कराने को मजबूर थे क्योंकि गाँव या पास के क़स्बे में इलाज की कोई व्यवस्था नहीं थी।
शहरों में कोरोना के प्रकोप और सरकारी बदइन्तज़ामी तो मीडिया के ज़रिए सामने आ भी जा रही थी लेकिन बिहार के गाँवों की स्थिति की ख़बर भी नहीं बन रही थी। लगभग हर गाँव से यही सुनने को मिल रहा है कि ज़्यादातर लोगों में बुखार, सर्दी, खाँसी जैसे कोरोना के लक्षण मौजूद हैं। कहीं कोई टेस्टिंग की सुविधा नहीं है और ना ही कोरोना के इलाज की व्यवस्था है। लोग सीधे मर रहे हैं या फिर ज़्यादा गम्भीर होने पर पास के शहर में इलाज के लिए भाग रहे हैं। ज़्यादातर लोग आस-पास किसी गाँव के ही डॉक्टर को दिखा रहे हैं, कुछ घरेलू उपचार से काम चला रहे हैं। इनमें से जिनके शरीर में लड़ने की क्षमता ज़्यादा थी, वह जीवित है और जिनका शरीर नहीं लड़ पाया वे सही समय पर इलाज नहीं मिलने के कारण मारे जा रहे हैं। हर गाँव में स्थिति भयावह है।
विशेषज्ञों द्वारा पहले ही दूसरी लहर आने की चेतावनी दी जा चुकी थी और ख़ास तौर पर बिहार के पंगु स्वास्थ्य व्यवस्था को देख यहाँ और बड़े स्तर पर इंतज़ाम करने की ज़रूरत थी। लेकिन सरकार ने उल्टा रुख अपनाया। राज्य के बाहर से आने वाले यात्रियों के लिए पिछले साल जो पहले क्वारंटाइन सेंटर बनाये गये थे, वे सब बन्द कर दिये गये। बाहर से गाँव में प्रवेश करने वाले लोगों की कोई कोरोना जाँच नहीं करायी गयी। इस लापरवाही ने संक्रमण को फैलने का मौका दिया। पिछले 5-6 महीने के दौरान स्वास्थ्य सम्बन्धी जो व्यवस्थाएँ की जा सकती थीं, उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया। इन्हीं सब का नतीजा था कि कोरोना की दूसरी लहर में बिहार में लाशें बह रही थीं और नितीश सरकार आँखों पर पट्टी बाँधे झूठ पर झूठ बोल रही थी।
बिहार में सरकार की आपराधिक लापरवाही के अलावा इतनी अधिक मौतों का एक बहुत बड़ा कारण यहाँ की बुरी तरह बदहाल और निकम्मी स्वास्थ्य व्यवस्था भी रही। यही कारण है कि अन्य राज्यों के मुकाबले यहाँ कम संक्रमण दर होने के बावजूद डॉक्टरों की सबसे बड़ी संख्या में मृत्यु बिहार में हुई? इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के अनुसार बिहार में 84 डॉक्टर कोरोना की दूसरी लहर में मारे गये जबकि पिछले साल करीब 30 डॉक्टरों की कोरोना से मृत्यु हुई थी। इतनी बड़ी संख्या में डॉक्टरों की मौत का कारण साफ़ है। सरकार द्वारा सुरक्षा व्यवस्था के कोई इंतज़ाम नहीं किये गये थे—पी.पी.ई किट की कमी, चौतरफ़ा बदइन्तज़ामी और पूरे राज्य में डॉक्टरों की कम संख्या होने के कारण एक-एक डॉक्टर पर कोरोना मरीज़ों के केस का ज़्यादा भार होना। पिछले साल कोरोना योद्धा के नाम पर फूल बरसाने वाली और 50 लाख का मुआवज़े की घोषणा करने वाली मोदी सरकार की तरफ से अभी तक इन डॉक्टरों को कोई मुआवज़ा नहीं मिला है! बिहार सरकार द्वारा भी 4 लाख रुपये देने की घोषणा की गयी थी लेकिन अभी तक सिर्फ़ एक डॉक्टर को मुआवज़ा मिला है।
चिकित्सा क्षेत्र के विशेषज्ञों ने पहले ही चेता दिया था कि बिहार कोरोना की दूसरी लहर को नहीं सँभाल सकता। और यही हुआ भी! कोरोना की पहली लहर में सरकार ने तीन स्तर के कोरोना सेंटर खड़ा करने की योजना बनायी थी । पहला, कोविड केयर सेंटर, जिसमें बहुत हलके लक्षण वाले कोरोना मरीजों की देखभाल की जाती, दूसरा, डेडिकेटेड कोविड हेल्थ सेंटर, जिसमें उन मरीजों का इलाज होता जो ज़्यादा गम्भीर नहीं हैं लेकिन जिन्हें ऑक्सीजन पर रखने की ज़रूरत पड़ सकती है और तीसरा, डेडिकेटेड कोविड अस्पताल, जिसमें कोरोना के गम्भीर मरीज़ों का इलाज होता और जहाँ आई.सी.यू. बेड से लेकर वेंटीलेटर आदि हर चीज़ की सुविधा उपलब्ध होती। मगर स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार बिहार के ज़्यादातर ज़िलों में सिर्फ़ हलके लक्षणों का इलाज करने वाले कोविड केयर सेंटर ही मौजूद हैं, जिनके पास न ऑक्सीजन उपलब्ध हैं और न कोई डॉक्टर। पूरे राज्य में मात्र 12 ऐसे डेडिकेटेड कोविड हॉस्पिटल हैं जो कोरोना के गम्भीर मरीजों का इलाज कर सकते हों। पटना, भागलपुर, दरभंगा, गया, मधेपुरा, मुज़फ़्फ़रपुर, नालन्दा और पश्चिमी चम्पारण के अलावा और कहीं भी गम्भीर कोरोना मरीज़ों का इलाज करने के लिए अस्पताल मौजूद नहीं हैं! ऐसे में समझा ही जा सकता है कि गाँव में लोग क्यों सीधे मारे जा रहे हैं!
बिहार में गाँव पंचायत के स्तर पर स्वास्थ्य व्यवस्था की तस्वीर यह है कि यहाँ पर मात्र 524 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं और वे महीनों बन्द रहते हैं। बहुत नसीब हुआ तो कभी-कभार डॉक्टर इन केन्द्रों पर दिख जाते हैं लेकिन इनमें कोरोना के इलाज की कोई सुविधा नहीं है। पिछले साल कोरोना के संक्रमण को देखते हुए सरकार ने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र को अपग्रेड कर 176 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र तो बना दिया लेकिन वह मात्र एक ढाँचा बनकर रह गया है! इतने केन्द्रों को चलाने के लिए 10,736 डॉक्टर और दूसरे कर्मियों की ज़रूरत है लेकिन अभी सिर्फ़ 2992 कर्मियों से ही काम चलाया जा रहा है। 7744 पद ख़ाली पड़े हैं। बिहार में गाँव स्तर पर टेस्टिंग की कोई सुविधा तो उपलब्ध नहीं ही है, कुल 23 ज़िला अस्पतालों में से 16 अस्पतालों में सी.टी. स्कैन की भी व्यवस्था नहीं है जिससे कि वक़्त रहते लोगों में कोरोना संक्रमण का पता चल सके। बिहार के 38 में से 16 ज़िलों में आई.सी.यू. बेड मौजूद ही नहीं हैं! 2011 की जनगणना के अनुसार इन 16 ज़िलों की कुल जनसंख्या करीब 4 करोड़ 39 लाख है, ऐसे में हम समझ सकते हैं कि पूरे कोरोना काल में बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था आखिर किस प्रकार मरते लोगों को वेंटीलेटर और इलाज मुहय्या करा रही होगी!
बिहार में लम्बे समय से डॉक्टर व मेडिकल स्टाफ़ के हजारों पद ख़ाली पड़े रहे हैं जिनकी भरती पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। बिहार सरकार द्वारा पटना हाई कोर्ट में दिये शपथपत्र से यह पता चला कि यहाँ 11,645 पदों में केवल 2877 पदों पर बहाली हुई है, बाक़ी 8768 पद ख़ाली पड़े हैं! उसमें भी 5674 पद ग्रामीण इलाक़ों में ख़ाली हैं। यहाँ हर 8,645 लोगों पर एक अस्पताल बेड है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुसार हर 1000 व्यक्ति पर एक डॉक्टर होना चाहिए परन्तु यहाँ पूरे राज्य में मात्र 2,792 सरकारी डॉक्टर हैं, यानी हर 43,788 लोगों पर एक सरकारी डॉक्टर है! बिहार में नर्स व पैरा मेडिकल स्टाफ़ की भी करीब 75 प्रतिशत पोस्ट ख़ाली पड़ी हैं। यही कारण है कि नीति आयोग के अनुसार 2017-18 और 2019-20 के बीच स्वास्थ्य के मामले में देश के 28 राज्यों में से बिहार 25वें स्थान पर था।
इस राज्य में आज भी हज़ारों लोग उन बीमारियों से मरते रहते हैं जिनका इलाज दशकों पहले खोजा जा चुका है। स्वास्थ्य व्यवस्था की असलियत तो यहाँ की ग़रीब आबादी पहले से ही जानती है और उससे उपजी तबाही हर बार झेलती है लेकिन इस महामारी ने मध्यम वर्ग से आने वाले लोगों के सामने भी चिकित्सा व्यवस्था पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। बिहार में स्वास्थ्य पर ख़र्च का 75 प्रतिशत हिस्सा आम आबादी को ख़ुद उठाना होता है और मात्र 25 प्रतिशत सरकार ख़र्च करती है। राज्य के कुल अस्पतालों में सरकारी अस्पतालों की संख्या मात्र 30 प्रतिशत है, बाकी 70 प्रतिशत अस्पताल निजी हैं। ऐसे में उन लोगों को ही बेहतर चिकित्सा नसीब होती है, जिनके पास इलाज में ख़र्च करने के लिए लाखों रुपए है। जिनके पास पैसे नहीं हैं, इस मुनाफाख़ोर व्यवस्था में उनकी जान की कोई क़ीमत नहीं होती। इस महामारी में भी निजी अस्पतालों की लूट का कारोबार जारी था। तमाम जगह दवाओं व ऑक्सीजन सिलिंडर की कालाबाज़ारी चालू थी और सरकार कोई करवाई नहीं कर रही थी। इस महामारी ने एक बार यह साबित किया है कि मुनाफ़े पर टिकी इस मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था में लोगों की जान की कोई क़ीमत नहीं होती।

मज़दूर बिगुल, जून 2021


 

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