दिल्ली के ‘मास्टरों’ के प्लान में ग़रीब मेहनतकश आबादी कहाँ है?

– भारत

दिल्ली को दुनिया का सबसे स्मार्ट शहर बनाने के लिए डी.डी.ए द्वारा बीते महीने मास्टर प्लान 2041 पेश किया गया। दिल्ली को आधुनिक और विकसित शहर बनाने के लिए यह चौथा मास्टर प्लान है। इससे पहले 1962, 2001 और 2021 तक दिल्ली में अलग-अलग मास्टर प्लान लागू हो चुके हैं। डी.डी.ए का मास्टर प्लान पर्यावरण को बेहतर बनाने, परिवहन को सुविधाजनक बनाने तथा आधारभूत संरचना को मज़बूत बनाने की बात पर ज़ोर देता है।
पर सबसे अहम सवाल यह उठता है कि आख़िर डी.डी.ए के 2041 मास्टर प्लान में दिल्ली की मेहनतकश आबादी के लिए क्या है? इसका जवाब है – कुछ नहीं!
मास्टर प्लान का मतलब है चमचमाती हुई दिल्ली जहाँ बड़ी-बड़ी इमारतें हों, मॉल हों, सड़कें हों, मेट्रो हो, जो हर किसी को अपनी ओर आकर्षित कर सकें। पर मास्टर प्लान में दिल्ली में रहने वाली मेहनतकश आबादी, जो दिल्ली को चलाती है, कारख़ानों से लेकर कोठियों तक में काम करती है, जो झुग्गियों में रहती है, जो रेहड़ी-खोमचा लगाती है, लेबर चौक पर खटकर अपना पेट पालती है, जो बेघर है, उनका कोई ज़‍िक्र तक नहीं है। उन्हें तलछट में ही रख छोड़ा है और उनके लिए चमचमाती दुनिया की इस स्मार्टसिटी में कोई जगह नहीं है, सिवाय इसके कि वे अपनी ही लाशों के ढेरों के ऊपर अमीरज़ादों की इस चमचमाती दुनिया को खड़ा करें और खड़ा करने के बाद इस स्वर्ग से विदा होकर शहर की परिधियों पर बसी अपनी गन्दी झुग्‍गी-बस्तियों में वापस लौट जायें।
पिछले मास्टर प्लान की अगर बात करें तो उसका मक़सद भी यही था कि मेहनतकश आबादी को दिल्ली से कैसे बाहर फेंक दिया जाये। उन्हें स्पष्ट कर दिया जाये कि विकसित होती दिल्ली में उनके लिए कोई जगह नहीं है। मास्टर प्लान 2001 के दौरान दिल्ली के कई इलाक़ों से झुग्गियों को तोड़ा गया और दिल्ली के अलग-अलग किनारों पर फेंक दिया गया क्योंकि ये झुग्गियाँ ऐसे इलाक़ों के आसपास बसी थीं, जहाँ अमीर रहते हैं। दूसरी तरफ़ दिल्ली के केन्द्र से औद्योगिक केन्द्रों को भी हटाकर दिल्ली के छोर पर औद्योगिक क्षेत्र स्थानान्तरित किया जा रहा था जहाँ मज़दूरों की भी ज़रूरत थी। इस कारण से भी दिल्ली के अलग-अलग इलाक़ों से हज़ारों झुग्गियों को तोड़कर उन्हें नरेला, पीरागढ़ी, बवाना के आस-पास बसाया गया जो कि औद्योगिक इलाक़े हैं। ग़ौरतलब है कि जितनी झुग्गियाँ तोड़ी गयीं उसमें से बहुत ही कम को पुनर्वास दिया गया। एम.सी.डी के 2007 के एक सर्वे के अनुसार 1990 के बाद से 2007 तक 217 झुग्गी बस्तियों को तोड़ा गया, जिससे क़रीब 65,000 परिवार प्रभावित हुए (याद रखें, यह सरकारी आँकड़ा है; असल संख्या इससे कहीं ज़्यादा है)। इससे ही पता चलता है कि 2001 और 2021 के मास्टर प्लान में ग़रीबों के लिए क्या था। आज विकसित दिल्ली का दम भरा जा रहा है और मेहनतकशों को और अधिक अँधेरे में फेंका जा रहा है। आपको याद ही होगा कि जब 2010 में दिल्ली में राष्ट्रमण्डल खेल हुए थे, तब भी दिल्ली को आलीशान बनाने के नाम पर लोगों को बेघर किया गया था। उस समय क़रीब ढाई लाख लोग सिर्फ़ इसलिए बेघर हुए थे ताकि बाहर देश से आये लोगों को दिल्ली ‘सबसे अच्छा फ़र्स्ट क्लास’ शहर लग सके।
दिल्ली के एल.जी अनिल बैजल ने लोगों से डी.डी.ए मास्टरप्लान 2041 के प्रस्ताव को बेहतर बनाने के लिए सुझाव माँगे। क़रीब 40,000 सुझाव आये भी। पर मेहनतकश आबादी के लिए या उनसे कोई बात नहीं की गयी। दिल्ली के असंगठित क्षेत्र में क़रीब 50 लाख से भी ज़्यादा लोग काम करते हैं, जो कि दिल्ली की कार्यक्षमता का 70 प्रतिशत है। इनमें से सिर्फ़ छोटे व मँझोले कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों की संख्या लाखों में है, हालाँकि पंजीकृत कारख़ानों और मज़दूरों की संख्या सरकार बेहद कम करके 1 लाख बताती है। इसमें 2 लाख कूड़ा बीनने वाले से लेकर 5 लाख घरेलू कामगार तक हैं। इतनी बड़ी आबादी के लिए मास्टर प्लान में कुछ नहीं है। कहने के लिए डी.डी.ए आधारभूत संरचना को मज़बूत करने की बात कर रही है, वहीं दूसरी तरफ़ 2011 के आँकड़ों के मुताबिक़ दिल्ली की ज़मीन के 0.5 प्रतिशत हिस्से पर 20 लाख लोग यानी दिल्ली की 10.8 प्रतिशत आबादी रहती है, जो कि झुग्गीवासी हैं। ये दस साल पहले का आँकड़ा है, सोचिए अब उतने ही हिस्से में क़रीब 30 लाख आबादी तो रहती ही होगी। इनको बेहतर रिहायश देना दिल्ली के मास्टर प्लान का हिस्सा नहीं है। उनके लिए बड़ी समस्या पार्किंग की है, जिसका ज़‍िक्र डी.डी.ए ने अपनी 400 पन्नों की रिपोर्ट में किया है। पर एक गाड़ी की पार्किंग जितनी जगह पर लोग परिवार सहित रहते है, इसके बारे में कोई ठोस योजना नहीं है।
अब बात करते हैं कि क्या डी.डी.ए से उम्मीद की जा सकती है कि वह अपनी योजना में दिल्ली की मेहनतकश आबादी को शामिल करेगी? पहले ही स्पष्ट कर दें नहीं!
डी.डी.ए को केन्द्र सरकार संचालित करती है और आज जो फ़ासिस्ट सत्ता में बैठे हैं, वह एक-एक करके लोगों का ख़ून निचोड़कर अपने मालिकों की सेवा में करने यक़ीन रखते हैं। कहने के लिए तो मोदी सरकार ने बड़े-बड़े वायदे किये कि ‘जहाँ झुग्गी वहाँ मकान’ और ना जाने कितने वायदे जो अगर लिखने बैठ जायें तो कई दिन कम पड़ जायेंगे। इसलिए चाहे देश हो, दिल्ली हो या डी.डी.ए., ये विकास के नाम पर सिर्फ़ विनाश करने में माहिर हैं। इसी की एक बानगी अभी खोरी गाँव में देखने को मिली, जहाँ पर्यावरण को बचाने के नाम पर कुछ ही दिनों के भीतर 10-20 हज़ार झुग्गियों को तोड़ दिया गया, पर उसी जगह पर बसे बड़े-बड़े आलीशान होटलों को छोड़ दिया गया।
दूसरी तरफ़ केजरीवाल भी राग अलाप रहा है कि डी.डी.ए हमारे हाथ में नहीं है, होती तो हम ग़रीबों को भी साथ लेते। पर इस ‘साफ़-सुथरे’ व्यापारियों-मालिकों के पैरोकार की सच्चाई कुछ और ही है। इसने भी दिल्ली की सत्ता में आने के बाद से सिर्फ़ मालिकों और उनके दलालों को ही ‘आम आदमी’ मानकर उनका ही विकास किया है। मज़दूर-मेहनतकश आबादी आज भी दिल्ली के अन्दर बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। घरेलू कामगारों से लेकर असंगठित क्षेत्र के मज़दूर अभी तक श्रम क़ानून के दायरे में नहीं आये हैं, और जो मज़दूर कारख़ानों में खटते हैं, वहाँ कोई श्रम क़ानून लागू नहीं होता। जबकि यह नौटंकीबाज़ केजरीवाल के हाथ में है। यहाँ तक कि आम आदमी पार्टी के नेताओं में ही छोटी और मँझोली फ़ैक्ट्रियों के मालिक और व्यापारी भरे हुए हैं। ज़ाहिर है, ऐसे में आम आदमी पार्टी के लिए ‘आम आदमी’ भी छोटा मालिक, ठेकेदार और व्यापारी ही हो सकता है, लाखों-लाख आम मेहनतकश-मज़दूर आबादी नहीं।
ऐसे में हमें समझना होगा कि सरकारों और उनकी संस्थाओं के लिए हमेशा विकसित शहर का मतलब सिर्फ़ अमीरों और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने से है, न कि मेहनत करने वाले लोगों के जीवन में बेहतरी से। इसीलिए डी.डी.ए ने भी अपना मास्टर प्लान मेहनतकशों की पीठ पर पैर रखकर उन्हें नीचे दबाकर खड़ा किया है ताकि 2041 में दिल्ली में कोई ग़रीब न दिखे। पर सच्चाई यह है कि दिल्ली, देश और दुनिया को जो मेहनतकश चलाते हैं, उन्हें हमेशा दबाकर नहीं रख सकते। आज दिल्ली के मेहनतकश-मज़दूरों को अच्‍छे से समझ लेना चाहिए कि उनके दुश्मन कौन हैं। निश्चित तौर पर, मोदी सरकार एक फ़ासीवादी सरकार होने के नाते मज़दूरों और ग़रीबों की सबसे बड़ी दुश्मन है। लेकिन केजरीवाल भी छोटा मोदी बनने के प्रयास में आरएसएस का कच्छा पहन चुका है और मज़दूरों को सबसे ज़्यादा बेरहमी से लूटने वाले छोटे मालिकों, ठेकेदारों-जॉबरों और व्यापारियों का नुमाइन्दा है। कांग्रेस स्वयं बड़े पूँजीपतियों की ही नुमाइन्दगी करती है, लेकिन मोदी सरकार द्वारा नंगई और बेशर्मी से पूँजीपतियों की सेवा करने के कारण वह फ़िलहाल भारतीय राजनीति में पहले के मुक़ाबले कुछ अप्रासंगिक दिख रही है। ये सभी पूँजीवादी चुनावी पार्टियाँ पूँजीपति वर्ग के ही अलग-अलग हिस्सों की नुमाइन्दगी करती हैं और उनसे हम मज़दूर-मेहनतकश कोई भी उम्मीद रखकर ख़ुद को ही मूर्ख बनायेंगे। हमें ज़रूरत है कि हम अपना स्वतंत्र राजनीतिक विकल्प खड़ा करें, यानी मज़दूरों-मेहनतकशों की अपनी नयी इन्क़लाबी पार्टी। मास्टरों के प्लान तब धरे के धरे रह जायेंगे और अपनी दुनिया और अपने शहर की प्लानिंग हम ख़ुद कर लेंगे।

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2021


 

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