लेनिन कथा के दो अंश…

शीत प्रासाद पर क़ब्ज़ा

अस्थायी सरकार अपने हिमायतियों के साथ शीत प्रासाद में डेरा डाले हुई थी। शीत प्रासाद का एक अग्रभाग नेवा नदी की ओर था और दूसरा विशाल द्वोर्त्सोवाया स्क्वायर की ओर। वह सफे़द स्तम्भों और मूर्तियों से सजा हुआ था। कार्निसों पर बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ और कलश बने हुए थे। शिखर पर पंख फैलाये हुए बहुत बड़ी सुनहरी चील बनी हुई थी। पहले इस महल में ज़ार रहता था।

लेनिन सैनिक-क्रान्तिकारी समिति के अध्यक्ष पोद्वोइस्की से बोले :

“सारा पेत्रोग्राद हमारे अधिकार में है, पर शीत प्रासाद पर अभी क़ब्ज़ा नहीं हो पाया है। उस पर भी यथाशीघ्र क़ब्ज़ा करके अस्थायी सरकार को गिरफ़्तार करना है।”

25 अक्टूबर को, अक्टूबर क्रान्ति की पहली सुबह को, लोगों ने लेनिन की ‘रूस के नागरिकों से’ अपील पढ़ी।

उसमें लेनिन ने लिखा था कि अस्थायी सरकार को अपदस्थ करके सोवियतों ने सत्ता अपने हाथों में ले ली है। क्रान्ति विजयी रही है।

बात सचमुच ऐसी ही थी। अस्थायी सरकार के हाथों में कोई सत्ता नहीं रह गयी थी। मगर उसके मन्त्रियों ने ख़ुद को शीत प्रासाद में बन्द कर लिया था।

“यह क्या बात है?” लेनिन ने कड़ाई से पोद्वोइस्की से पूछा।

“घबराइये नहीं। शीत प्रासाद आज हमारा हो जायेगा,” सैनिक-क्रान्तिकारी समिति के अध्यक्ष ने जवाब दिया।

लाल गार्ड टुकड़ियों और क्रान्तिकारी दस्तों को शीत प्रासाद घेरने का आदेश दे दिया गया।

मज़दूरों और सैनिकों ने शीत प्रासाद के आसपास की सड़कों और पहुँच-मार्गों पर अधिकार कर लिया। शीत प्रासाद चारों ओर से घिर गया। ख़ास-ख़ास जगहों पर तोपें लगा दी गयीं। तारपीडो नौकाओं ने धीरे-धीरे नेवा में प्रवेश कर शीत प्रासाद के सामने लंगर डाल दिया।

नेवा में ही खड़े रणपोत ‘अव्रोरा’ की तोपें भी शीत प्रासाद की ओर तन गयीं। नाकेबन्दी पूरी हो गयी। यह 25 अक्टूबर (7 नवम्बर) 1917 की रात की बात है।

लोगों को 1905 का ख़ूनी रविवार याद था। तब यहाँ, इसी प्रासाद के सामने के विशाल, भव्य प्रांगण में पीटर्सबर्ग के कल-कारख़ानों के हज़ारों मज़दूर शान्तिपूर्ण ढंग से और देव-प्रतिमाएँ लिये हुए इकट्ठे हुए थे। वे “पितातुल्य” ज़ार से सहायता की प्रार्थना करने, रोटी की भीख माँगने आये थे। मगर बदले में उन्हें मिलीं गोलियाँ। उस रविवार को शीत प्रासाद के सामने स्क्वायर में हज़ारों निहत्थे, निरीह मज़दूरों का ख़ून बहा।

इसलिए इस बार, अक्टूबर 1917 में, मज़दूर यहाँ देव-प्रतिमाओं के साथ नहीं आये।

शीत प्रासाद, अबके देखना हमारी ताक़त!

कमिसार और सैनिक-क्रान्तिकारी समिति के सदस्य कारों और घोड़ों पर मोर्चाबन्दियों का निरीक्षण कर रहे थे।

“साथियो, धीरज धारिये! थोड़ी-सी ताक़त और बढ़ा लें। साथी लेनिन क्रान्ति का नेतृत्व कर रहे हैं।”

“लेनिन!” मज़दूरों और सैनिकों की मोर्चाबन्दियाँ गूँज गयीं।

स्मोल्नी में लेनिन को लगातार रिपोर्टें मिल रही थीं कि शीत प्रासाद के घेराव का काम कैसे चल रहा है। वह पेंसिल हाथ में लिये हुए नक़्शे पर झुके हुए थे। इन सड़कों पर अमुक-अमुक टुकड़ियाँ तैनात हैं, अमुक टुकड़ी यहाँ है… यहाँ आदमियों की संख्या बढ़ानी होगी। क्रोत्श्ताइत से जहाज़ी आ गये हैं। रणपोत ‘अव्रोरा’ तैयार खड़ा है…

“साथियो, समय हो गया है। हमला शुरू कर दीजिये!” लेनिन ने आदेश दिया।

शहर में ठण्डी साँझ उतर आयी थी। हवा चल रही थी। घरों के दरवाज़े़ बन्द हो चुके थे। प्रकाशरहित खिड़कियाँ अपरिचित-सी लग रही थीं। सड़कों पर जगह-जगह अलाव जले हुए थे। हवा में कड़वा धुआँ मिला हुआ था।

शीत प्रासाद का घेरा कसता जा रहा था।

उधर प्रासाद में भी लोग हाथ पर हाथ धारे नहीं बैठे थे। वे भी लड़ाई की तैयारी कर रहे थे। युंकरों और अफ़सरों ने लकड़ियों के बैरिकेड खड़े कर प्रासाद के सभी रास्ते बन्द कर दिये। बैरिकेडों के बीच मशीनगनें तैनात थीं।

शीत प्रासाद के इर्दगिर्द अशुभ नीरवता छायी हुई थी।

स्मोल्नी से सैनिक-क्रान्तिकारी समिति को पुनः लेनिन का सन्देश मिला :

“देर करना अब ठीक नहीं। शीत प्रासाद पर हमला तुरन्त शुरू करिये।”

और रात के अँधेरे में, ख़ामोशी में नेवा के ऊपर का आसमान तोपों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा, हवा थर्रा गयी।

यह ‘अव्रोरा’ की तोपों ने हमला शुरू करने का संकेत दिया था।

समुद्र की विकराल लहरों की तरह लाल गार्ड और सैनिक शीत प्रासाद की ओर बढ़ चले। पास की सड़कों से तोपें गोले बरसाने लगीं। मशीनगनों से गोलियों की बौछार शुरू हो गयी। शीत प्रासाद के गिर्द खड़े लकड़ी के बैरिकेडों पर आग बरसाती हुई बख़्तरबन्द गाड़ी घड़घड़ाती हुई प्रासाद स्क्वायर की ओर बढ़ी। युंकर हथियार फेंक प्रासाद के अन्दर भागे।

“हुर्रा! मज़दूर क्रान्ति ज़िन्दाबाद!” युंकरों और अफ़सरों का पीछा करते हुए लाल गार्ड और सैनिक चिल्लाये।

लाल सैनिकों की टुकड़ियाँ प्रासाद में दाखि़ल हुईं। पहली बार उसे अन्दर से देखकर आँखें चकाचौंध हो गयीं : सैकड़ों कमरे और हॉल, बिल्लौर के फ़ानूस, मख़मल, रेशम, तस्वीरें, मूर्तियाँ, क़ीमती फ़र्नीचर, बड़े-बड़े दर्पण…

किसी लाल गार्ड ने सुनहरे फ़्रेम से मढ़े दर्पण पर संगीन से चोट की और झनझनाकर काँच के टुकड़े ज़मीन पर बिखर गये।

“पागल हो गये हो क्या?” साथियों ने उसे डाँटा। “आज से यह ज़ार की नहीं, हमारी, जनता की सम्पत्ति है।”

बन्दूक़ें ताने हुए लाल गार्ड और सैनिक आगे, और आगे बढ़ते गये। उनका नेतृत्व कर रहे थे अन्तोनोव-ओव्सेयेन्को, येरेमेयेव, पोद्वोइस्की, आदि। गोटा किनारी वाली नीली वर्दियाँ पहने प्रासाद के नौकरों की डर के मारे घिग्घी बँध गयी थी। अस्थायी सरकार के सभी मन्त्रियों ने अपने को एक हॉल में बन्द कर लिया था और युंकर इस हॉल की रक्षा कर रहे थे।

“युंकरो, अफ़सरो, हथियार डाल दो! और श्रीमान मन्त्री लोगो, आप गिरफ़्तार हैं!”

रात बहुत हो चुकी थी, मगर स्मोल्नी की सभी खिड़कियाँ तेज़ उजाले से जगमगा रही थीं। सीढ़ियों, गलियारों और कमरों में लोगों की भीड़ लगी हुई थी। सभी बेहद उत्तेजित थे। और बेचैनी से शीत प्रासाद के समाचारों का इन्तज़ार कर रहे थे।

ज़ोर-ज़ोर से बूट बजाते हुए चलते सैनिक-क्रान्तिकारी समिति के अध्यक्ष पोद्वोइस्की ने कमरे में प्रवेश किया।

अक्टूबर महीने की ठण्ड और हवा से उनका चेहरा कठोर-सा हो गया था।

“साथी लेनिन! शीत प्रासाद पर क़ब्ज़ा कर लिया गया है,” सैनिक ढंग से सैल्यूट करते हुए उन्होंने कहा।

लेनिन झटके से खड़े हुए और पोद्वोइस्की को कसकर गले लगा लिया।

खम्भों वाला सफ़ेद हॉल

पहले यहाँ उत्सव मनाये जाते थे। संगीत गूँजता था। नृत्य होते थे। लकड़ी के पालिशदार फ़र्श पर स्मोल्नी विद्यालय की लड़कियों की रेशम जैसी चमकीली जूतियाँ फिसला करती थीं।

ओरलोव इलाक़े से आये ग़रीब सिपाही ने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी वह भी इस खम्भों वाले सफ़ेद हॉल में पैर रखेगा। तब उसे स्मोल्नी के नज़दीक भी नहीं फटकने दिया जाता।

और अब…अब वह इस हॉल में हो रही सोवियतों की दूसरी कांग्रेस में भाग ले रहा था।

स्मोल्नी का सफ़ेद हॉल लोगों से खचाखच भरा हुआ था। उनमें कांग्रेस में भाग लेने वाले भी थे और दर्शक तथा दूसरे लोग भी, जैसे धारीदार क़मीज़ें और नीली जैकेटें पहने और कमर पर हथगोले लटकाये जहाज़ी, कल शीत प्रासाद पर क़ब्ज़ा करने वाले हथियारबन्द लाल गार्ड, दूर-दूर के गाँवों से सोवियतों के प्रतिनिधियों के तौर पर आये हुए दढ़ियल किसान और कल-कारख़ानों के मज़दूर।

कुर्सियों और बेंचों के अलावा बहुत-से लोग फ़र्श और खिड़कियों पर भी बैठे हुए थे। बहुत-से बैठने की जगह न मिलने की वजह से खड़े थे। सभी की छातियों पर लाल फ़ीतियाँ लगी हुई थीं। सारा हॉल तम्बाकू के धुएँ और शोर-ग़ुल से भरा हुआ था।

“हम जीत गये हैं! बुर्जुआ वर्ग मुर्दाबाद! सारी सत्ता सोवियतों को!”

ओरलोव इलाक़े से आया सैनिक उत्सुकता-भरी आँखों से सबकुछ देख रहा था। विशाल हॉल की ऊँची छतों को भी, संगमरमर के खम्भों को भी और सामने की दीवार पर टँगे सुनहरे, आदमक़द फ्रे़म को भी। उसमें से ज़ार का चित्र हटा दिया गया था। इसलिए अब वह ख़ाली था।

मगर सिपाही बड़ी व्याकुलता के साथ लेनिन के आने का इन्तज़ार भी कर रहा था।

तभी आसपास लोग चिल्लाये :

“लेनिन! लेनिन!”

बहुत-से उन्हें अच्छी तरह देखने के लिए अपनी जगह से खड़े हो गये। अध्यक्षमण्डल के सदस्यों ने हॉल में प्रवेश किया और मंच पर रखी मेज़ के पीछे बैठ गये। उसमें से एक काले चमड़े की जैकेट और कमानीरहित चश्मा पहने था। देखने वाला उसे सैनिक भी कह सकता था और नहीं भी। पर वह लगता बड़ा दृढ़निश्चयी था।

“स्वेर्दलोव हैं,” किसी ने सिपाही को बताया।

और फिर उसे ऊँचे क़द के और दुबले-पतले जुझारू बोल्शेविक फ़ेलिक्स एदमुन्दोविच द्जे़र्जीन्स्की और चौकन्नी तथा भेदती हुई निगाहों वाले सैनिक क्रान्तिकारी समिति के अध्यक्ष निकोलाई इल्यीच पोद्वोइस्की भी दिखाये गये।

अध्यक्ष ने कांग्रेस का उद्घाटन किया और साथी लेनिन को भाषण के लिए आमन्त्रित किया।

सिपाही पंजों के बल खड़ा हो गया। ताकि अच्छी तरह देख सके कि लेनिन नाम का यह आदमी कैसा है। उसने पाया कि वह गठीले बदन और मँझोले क़द के हैं। भौंहें बीच में एकाएक उठती हुई कनपटियों को छू रही हैं। और आँखें ऐसी कि मानो सीधे आपके दिल में झाँक रही हों…

लेनिन तेज़ी से मंच पर चढ़े। हॉल में बैठे सभी लोग खड़े हो गये। टोपियाँ हवा में उछलने लगीं।

“लेनिन ज़िन्दाबाद!”

मंच पर खड़े होकर, सबसे पहले लेनिन ने सारे हॉल पर दृष्टिपात किया। उनके सामने ख़ुशी से जगमगाते चेहरों, सादे और ग़रीबी के सूचक कपड़े पहने लोगों, आम लोगों का सागर था। यहाँ फ़्रॉक कोट और सफ़ेद क़मीज़ें पहले सम्भ्रान्त पुरुष और फ़ैशनेबुल पोशाकों वाली भद्र महिलाएँ नहीं थीं। यहाँ थे मज़दूरों, किसानों और सैनिकों के प्रतिनिधि, यानी सिर्फ़ मेहनतकश लोग। लेनिन ने अनुभव किया कि वह इन लोगों के सुख और भाग्य के लिए उत्तरदायी हैं।

लेनिन ने हाथ ऊपर उठाया। वह भाषण शुरू करने की इजाज़त माँग रहे थे। शनैः शनैः सारे हॉल में ख़ामोशी छा गयी। लेकिन लोग बैठे नहीं। वे खड़े-खड़े ही लेनिन का भाषण सुनते रहे।

लेनिन ने शान्ति की चर्चा की। उन्होंने कहा कि मज़दूर और किसान युद्ध नहीं चाहते। सोवियत सरकार भी युद्ध नहीं चाहती। युद्ध का अन्त करना चाहिए। आम लोग शान्ति से रहना चाहते हैं। और तब उन्होंने अपनी शान्ति सम्बन्धी आज्ञप्ति पढ़कर सुनायी। यह आज्ञप्ति उन्होंने उसी सुबह बोंच- ब्रुयेविच के घर से स्मोल्नी लौटने पर लिखी थी।

कांग्रेस में उपस्थित लोगों ने लेनिन को बड़े ध्यान से सुना। जर्मनों के साथ लड़ाई चार साल से चल रही थी। लोग उससे तंग आ गये थे।

“तो यह है हमारी सोवियत सरकार, जनता के हित की सोचने वाली न्यायप्रिय सरकार!” ओरलोव इलाक़े से आये सैनिक ने सोचा।

सारा हॉल “हुर्रा!” के उद्घोषों से गूँज गया। श्वेत हॉल के मरमरी खम्भों ने “हुर्रा!” का ऐसा गगनभेदी उद्घोष पहले कभी नहीं सुना था। शत-शत कण्ठ एक स्वर में गा रहे थे –

उठ अब, ज़ंजीरों में जकड़े

भूखों, दासों के संसार!

हम नया जगत बनायेंगे,

सर्वहारा सबकुछ पायेंगे!

बाद में लेनिन ने भूमि सम्बन्धी आज्ञप्ति पढ़कर सुनायी, जिसे उन्होंने पिछली रात लिखा था। और प्रतिनिधियों ने, विशेषतः किसान प्रतिनिधियों ने, पुनः लेनिन की आज्ञप्ति का जोशीले स्वरों में समर्थन किया।

25 और 26 अक्टूबर, 1917 को स्मोल्नी के हॉल में हुई सोवियतों की दूसरी कांग्रेस एक महान, ऐतिहासिक घटना थी। इस कांग्रेस में लेनिन ने सोवियत सत्ता की स्थापना की घोषणा की थी।

इसी कांग्रेस में उन्होंने शान्ति और भूमि सम्बन्धी आज्ञप्तियाँ भी पढ़कर सुनायीं और कांग्रेस ने एकस्वर से उनका अनुमोदन किया।

कांग्रेस ने जन-कमिसारों की परिषद निर्वाचित की और व्लादीमिर इल्यीच लेनिन को उसका अध्यक्ष नियुक्त किया।

इस तरह पहली सोवियत सरकार बनी।

कांग्रेस ख़त्म हुई, तो लेनिन ने उसमें भाग लेने के लिए आये मज़दूरों, किसानों और सैनिकों से कहा :

“साथियो, अब आपको शीघ्रातिशीघ्र घर लौटना है, लोगों को हमारी विजय के बारे में बताना है। मज़दूर क्रान्ति जीत गयी है। अब हमारी अपनी सोवियत सरकार है। जाइये, सारे रूस में सोवियत सत्ता को मज़बूत बनाइये!”

 

 

नहीं जानते तो सीखेंगे

स्मोल्नी के दरवाज़े़ पर सन्तरी खड़ा था।

“आपका अनुमति-पत्र!”

और उसने बन्दूक़ आगे कर तीनों मज़दूरों को रोक दिया। दो कुछ बड़े और दाढ़ियों वाले थे। तीसरा जवान था। उसका नाम था रोमान।

“अनुमति-पत्र कहाँ देते हैं?” एक ने बन्दूक़ को हटाते हुए शान्ति से पूछा।

“ऐ-ऐ…आगे बढ़ने की कोशश न करना!” सन्तरी चिल्लाया। “अनुमति-पत्र कमाण्डेट देता है।”

तभी स्मोल्नी का कमाण्डेण्ट, भूतपूर्व जहाज़ी मल्कोव ख़ुद दरवाज़े़ पर आ गया।

“आपको किससे मिलना है?”

“लेनिन से मिलना है। ज़रूरी काम है,” रोमान ने जवाब दिया।

“बहुत ज़रूरी काम है,” दूसरे ने भी उसका साथ दिया।

“देखो तो इन्हें! मल्कोव ने उन्हें ऊपर से नीचे तक देखते हुए कहा। “अक्टूबर के दिनों में कहाँ थे?”

“शीत प्रासाद पर हमला करने वालों के साथ। और कहाँ?”

पन्द्रह मिनट बाद तीनों जन-कमिसार परिषद के स्वागत कक्ष में खड़े थे। कमरा काफ़ी बड़ा था, पर फ़र्नीचर बहुत साधारण था। बस बीच में लकड़ी की दो बेंचें और उनके दोनों ओर एक-एक मेज़ और कुछ कुर्सियाँ।

मज़दूरों ने कमरे पर निगाह दौड़ायी। “बिल्कुल हमारे घरों जैसा है!”

तभी सेक्रेटरी ने दरवाज़ा खोला :

“आइये, साथी लेनिन आपका इन्तज़ार कर रहे हैं।”

ख़ुद लेनिन ने खड़े होकर उनका स्वागत किया। मज़दूरों ने ग़ौर किया कि लेनिन छोटे क़द के तथा फुर्तीले हैं और उनकी सजीव आँखों में एक अद्भुत चमक है।

“नमस्ते, साथियो। बैठिये।”

उन्हें बिठाकर लेनिन ख़ुद भी बैठ गये। मेज़ के उस तरफ़ नहीं, बल्कि उन्हीं की बग़ल में। उनके हाथ में पेंसिल थी, जिसे हिलाते हुए वह जल्दी-जल्दी पूछ रहे थे :

“किस कारख़ाने से आये हैं? क्या पेशा है? कारख़ाने का कामकाज कैसा चल रहा है? कच्चा माल है? मज़दूर-नियन्त्रण काम कर रहा है? यहाँ किस काम से आये हैं? देखिये, झिझकिये मत!”

और फिर मुस्कुरा पड़े।

लेनिन की मुस्कुराहट से रोमान की हिम्मत बँधी और वह बिना किसी लाग-लपेट के बताने लगा कि वे यहाँ किस काम से आये हैं। रोमान और उसके साथी लेनिन को कारख़ाने के बारे में बताना चाहते थे, पर वे अब वहाँ काम नहीं करते थे। उन्हें जन-कमिसारियतख में काम करने भेज दिया गया था। ज़ारशाही के ज़माने के कर्मचारी सोवियत सरकार के साथ काम नहीं करना चाहते थे, इसलिए नौकरी छोड़कर भाग गये थे। और जो नहीं भागे थे, वे बेगार टाल रहे थे, इसलिए मज़दूरों को भेजा गया…

“क्या सोवियत सरकार की सहायता के लिए?” व्लादीमिर इल्यीच ने बीच में टोका। “तो क्या हुआ?”

व्लादीमिर इल्यीच ने आँखों को कुछ सिकोड़ा और ग़ौर से रोमान को देखते रहे। रोमान संकोच के मारे अपने हलके भूखे बालों में हाथ फेरने लगा।

“लेकिन हमसे निभ नहीं पा रहा है, व्लादीमिर इल्यीच। इसलिए हमें वापस भेजने के लिए कह दीजिये। कारख़ाने में हम कुछ काम तो करते थे, लेकिन यहाँ जन-कमिसारियत में हमारी स्थिति बिल्कुल अन्धों जैसी है।”

“आप सोचते हैं कि मेरे लिए राज्य का संचालन करना आसान है?” जवाब के बदले व्लादीमिर इल्यीच ने सवाल किया। “आप समझते हैं कि मुझे इसका कोई अनुभव है? मैं भी तो पहले कभी जन-कमिसारों की परिषद का अध्यक्ष नहीं था और हमारे दूसरे जन-कमिसार भी पहले कभी जन-कमिसार नहीं थे।”

एक मज़दूर ने मानो फिर भी सहमत न होते हुए सिर हिलाया :

“हमारे लिए सबकुछ अपरिचित है, नया है।”

“मगर पुराने को तो हमने और आपने जड़ से ख़त्म कर दिया है! ऐसे में आप ही बताइये, नये का निर्माण कौन करेगा?”

लेनिन मज़दूरों के और पास खिसक आये और समझाने लगे कि यह सही है कि मज़दूरों को जानकारी, अनुभव के बग़ैर जन-कमिसारियतों में कठिनाई हो रही है मगर सर्वहारा के पास एक तरह की जन्मजात समझ-बूझ है। जन-कमिसारियतों में हमारी अपनी, पार्टी की, सोवियतों की नीति पर अमल करवाने की ज़रूरत है। यह काम अगर मज़दूर नहीं करेंगे, तो और कौन करेगा? सब जगह मज़दूरों के नेतृत्व, मज़दूरों के नियन्त्रण की ज़रूरत है।

“और अगर ग़लती हो गयी तो?”

“ग़लती होगी, तो सुधारेंगे। नहीं जानते तो सीखेंगे। इस तरह साथियो,” खड़े होते हुए व्लादीमिर इल्यीच ने दृढ़तापूर्वक कहा, “कि पार्टी ने अगर आपको भेजा है, तो अपना कर्त्तव्य निभाइये।” और फिर अपनी उत्साहवर्धक मुस्कान के साथ दोहराया, “नहीं जानते तो सीखेंगे।”

लेनिन के साथ ऐसी बातचीत के बाद मज़दूरों का सारा संकोच जाता रहा। अब, जब तक वे सारा काम नहीं सीख जाते, सुबह से शाम तक वे जन-कमिसारियत में डटे रहेंगे।

“साथी लेनिन, हम वायदा करते हैं कि अपना कर्त्तव्य पूरी तरह निभायेंगे,” मज़दूरों ने कहा।

जन-कमिसारों की परिषद के अध्यक्ष के कमरे से निकलते हुए वे आपस में कह रहे थे कि व्लादीमिर इल्यीच ने ठीक ही कहा कि मज़दूर-किसानों की सरकार हमारी सरकार है और हमें ही उसका सारा बोझ उठाना है।

 

मज़दूर बिगुलजुलाई  2013

 


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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