हमें मज़दूर बिगुल क्यों पढ़ना चाहिए?

मनु, गुड़गाँव

मै गुड़गाँव की एक फैक्टरी में काम करता हूँ और पिछले तकरीबन एक साल से मज़दूर बिगुल पढ रहा हूँ। अक्सर जब मैं अपने मज़दूर साथियों से मज़दूर बिगुल पढ़ने को कहता हूँ तो आमतौर पर  उनका पहला सवाल होता है इसको पढ़ने से क्या फायदा? इसको पढ़ने से हमें क्या हासिल होगा? लेकिन  साथियों क्या कारखाने में 15-16 घंटे जानवरों की तरह सोमवार से शनिवार तक काम करने के बाद रविवार के दिन गोविंदा, संजय दत्त की फिल्म देखने से कुछ मिलता है? क्या दारू पीकर मालिक को गाली निकालकर कुछ मिलता है? अगर कुछ मिलता भी है तो बस कुछ देर का मानसिक सुकून। लेकिन इससे जिन खराब हालातों में हम काम करने और रहने को हम मजबूर है उसमे  कोई फर्क नही पड़ता है। पर ऐसा भी नही है कि हमेशा ऐसा ही चलता रहेगा, हालात बदलेंगे लेकिन अपने आप नही बदलेंगे उनको बदलने के लिए हमे खुद से पहल करनी पड़ेगी और इसके लिए जरूरी है कि सबसे पहले  हम अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो, 1871 के प्रथम पेरिस कम्यून से लेकर 1917 की रूसी क्रांति और चीन की महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति तक मज़दूर वर्ग का जो शानदार क्रांतिकारी इतिहास रहा है उसके बारे में जानें, भारत समेत पूरी दुनिया में चल रहे विभिन्न मज़दूर आन्‍दोलनो के बारे में जानकारी हासिल करें और अपने बाकी साथियों से इसे साझा करे।

आज भारत की 88 प्रतिशत  मेहनतकश आबादी जो हर चीज अपनी मेहनत से पैदा करती है जिसके दम पर यह सारी शानौ-शौकत है वो खुद जानवरों सी जिन्‍दगी जीने को मजबूर है। आये दिन कारखानों में मज़दूरों के साथ दुर्घटनाएँ होती रहती हैं और कई बार तो इन हादसों में मज़दूरों को अपनी जान तक गँवानी पड़ी है, पर किसी भी दैनिक अखबार में इन हादसों को लेकर  कोई भी खबर नही छपती है। अगर कोई इक्का-दुक्का अखबार इन खबरों को छाप भी दे तो वह  भी इसे महज एक हादसा बता अपना पल्ला झाड़ लेता है जबकि यह कोई हादसे नहीं है बल्कि मालिकों द्वारा ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा कमाने की हवस मे मज़दूरों की लगातार की जा रही निर्मम हत्याएँ हैं। दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण और इन  जैसे ही अन्य अखबार कभी भी मज़दूरों कि माँगों और उनके मुद्दों से संबंधित ख़बरें नही छापेंगे क्योंकि यह सब पूँजीपतियों के पैसे से निकलने वाले अखबार है और यह हमेशा मालिकों का ही पक्ष लेगे। मज़दूरों की माँगो, मुद्दों और उनके संघर्षों से जुड़ी ख़बरे तो एक क्रान्तिकारी मज़दूर अखबार में ही छप सकती हैं और ऐसा ही प्रयास मज़दूर बिगुल का भी है जो मज़दूरों के लिए मज़दूरों के अपने पैसे से निकलने वाला हमारा अपना अखबार है, जिसका मुख्य उद्देश्य मज़दूरों के बीच क्रान्तिकारी प्रचार प्रसार करते हुए उन्हे संगठित करना है।

worker-reading-bookसाथियों जब तक हम अपने अधिकारों के बारे मे जागरूक नही होंगे और अपनी मांगों को लेकर संघर्ष नही करेंगे तब तक मालिक और रात-दिन उनकी चाकरी करने वाले तमाम धँधेबाज चुनावी पार्टियों के नेता हमारा इसी तरह शोषण करते रहेंगे। लेकिन अगर हम अपने अधिकारों को जानते हैं और एकजुट हो उसके लिए लड़ने को तैयार हैं तो इतिहास इस बात का गवाह है कि बड़ी से बड़ी ताकत को भी हमने घुटने टेकने को मजबूर किया है। इसलिए मैं हमेशा अपने मज़दूर साथियों से एक ही बात कहता हूँ कि अगर हम पान, बीड़ी, गुटके पर रोज 5-10 रुपए खर्च कर सकते है जो फायदा करने के बजाय नुक्सान ही करता है तो क्या हम महीने में एक बार पाँच रुपये खर्च बिगुल अखबार नही पढ़ सकते जो हमारी माँगो और अधिकारों की लड़ाई लड़ रहा है। इसलिए साथियो, भले ही अपने वेतन में हर महीने कुछ कटौती करनी पड़े लेकिन जिस उद्देश्य को लेकर यह अखबार निकाला जा रहा है, उसमें हमें भी अपना सहयोग जरूर देना चाहिए।

 

मज़दूर बिगुलदिसम्‍बर  2013

 


 

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