पॉलिथीन कारख़ानों के मज़दूरों की हालत

मोती, दिल्ली

दिल्ली के बादली, समयपुर, लिबासपुर आदि इलाक़ों में प्लास्टिक की पन्नी बनाने के अनेक छोटे-छोटे कारख़ाने हैं। बड़े उद्योगों में पैकिंग की ज़रूरतों से लेकर घरों तक में पॉलिथीन की खपत जिस तरह बढ़ रही है उसके चलते पन्नी की माँग भी बढ़ती जा रही है। लेकिन बड़े सप्लायरों ने इसके उत्पादन का काम छोटे-छोटे कारख़ानों में बाँट रखा है। अगर केवल इसी इलाक़े में चलने वाली सारी मशीनों को जोड़ा जाये तो सैकड़ों मज़दूर इन पर काम करते हैं। अगर ये मशीनें किसी बड़े कारख़ाने में चलतीं तो बड़ी संख्या में मज़दूर एकजुट होकर अपनी हालत सुधारने की आवाज़ उठा सकते थे। लेकिन छोटी-छोटी इकाइयों में बिखरे होने के कारण अपने कारख़ाने में वे लड़ पाने की हालत में ही नहीं होते और बहुत बुरी स्थितियों में काम करने के लिए मजबूर होते हैं।

इन कारख़ानों में पन्नी बनाने की पूरी प्रक्रिया मज़दूर के लिए बहुत तकलीफ़देह होती है। पहले प्लास्टिक का दाना गर्म करके माड़े हुए आटे की तरह बनाया जाता है। फिर उस माड़न को दूसरी मशीन पर चढ़ाते हैं जिससे पन्नी की लाइन चलने लगती है। ये लाइन आगे जाकर हीटर द्वारा काट दी जाती है। जिस साइज़ की पन्नी चाहिए उस साइज़ की पन्नी के बण्डल बाँध-बाँधकर बोरी में डालते रहते हैं। हीटर की वजह से फ़ैक्ट्री का तापमान हमेशा 40 सेंटीग्रेड से भी ऊपर रहता है क्योंकि दोनों मशीनों पर करीब 12 हीटर लगे होते हैं। जनवरी की कड़ाके की ठण्ड के समय भी इन फैक्ट्रियों का तापमान इतना रहता है कि लोग कच्छा-बनियान पहनकर काम कर सकते हैं। गर्मियों के दिनों में आये दिन लोगों को बुखार, पेटदर्द, उल्टी-दस्त, चक्कर आना, कमज़ोरी आदि बीमारी लगी रहती है। फ़ैक्ट्री में एक-दो पंखे हैं भी मगर उसकी हवा नहीं खा सकते क्योंकि पंखा चलने से पन्नी उड़ती है और प्रोडक्शन में बाधा पड़ती है। प्लास्टिक गलाने से निकलने वाली ज़हरीली गैस से भी सेहत को नुकसान पहुँचता है। ज़्यादा समय तक इन कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों को साँस की तकलीफ़ भी होने लगती है।

पन्नी लाइन में ज़्यादातर मशीनें ठेके पर ही चलती हैं। एक किलो पन्नी बनाने का ठेकेदार को 70 पैसा मिलता है। 24 घण्टे लगातार दो मशीनें चलने पर करीब 1800 किलो दाने की खपत होती है जिससे करीब 1200 रुपये का काम 24 घण्टे में हो पाता है। एक मशीन पर दो लोग रहते हैं। दो हेल्परों को 12 घण्टे के हिसाब से 6000 रुपये महीना (बिना छुट्टी के) देने पर रोज़ का 400 रुपये निकल जाता है। ठेकेदारी में एक आदमी को 12 घण्टे काम के लगभग 400 रुपये बच जाते हैं। अगर 4 छुट्टी काटकर 26 दिन तक काम लगातार चले तो करीब 8-9 हज़ार रुपये बच जाते हैं। 4 छुट्टी करने पर 12 घण्टे तो सिर्फ़ मशीन गर्म करने में ही चले जाते हैं क्योंकि ठण्डी मशीन को गर्म करने में करीब 3 घण्टे का समय लगता है। इसके अलावा ठेकेदार की सरदर्दी ये भी रहती है कि माल की खपत नहीं हुई तो बैठे रहो, मशीन ख़राब हो जाये तो बैठे रहो। कभी-कभार तो ऐसा भी होता है कि ख़राब मशीन को सही करते-करते 8-9 दिन लग जाते हैं। माल की खपत कम होने की वजह से मालिक को भी बहाना मिल जाता है। इन दिनों में भी ठेकेदार व लेबर को खाली बैठना पड़ता है। मालिक को न तो काम करवाने की सरदर्दी, न हिसाब-किताब, लेखा-जोखा की सरदर्दी, न फण्ड-बोनस, ई.एस.आई. की सरदर्दी। कोई दुर्घटना हो जाये तो भी मालिक साफ़ हाथ झाड़ लेता है। बस महीने में ठेकेदार अपना ब्योरा बताता है कि इस महीने में इतने टन माल बनाया और मालिक 70 पैसा प्रति किलो के हिसाब से भुगतान कर देता है। इस असुरक्षा में मारा जाता है मज़दूर।

आज अकेले-अकेले लोग अपनी समस्याओं से उबरने के जितने रास्ते निकालते हैं, उतना ही मज़दूर समस्याओं के भँवर में फँसता जाता है। हल सिर्फ़ एक ही है कि अपनी वर्ग एकता को पहचानो और एकजुट होकर अपना हक़ लेने की लड़ाई लड़ो। तभी हमारी समस्याओं का समाधान होगा।

मज़दूर बिगुल, अक्‍टूबर 2012

 


 

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