मारुति सुज़ुकी मज़दूर आन्दोलन की सफ़लता का एक ही रास्ता
आन्दोलन को कारख़ाने की चौहद्दी से बाहर निकालो!

आन्दोलन को इलाक़ाई मज़दूर उभार का रूप दो!

सम्पादकीय अग्रलेख

 

18 जुलाई की घटना और पूँजीपति वर्ग की सरकारी मशीनरी द्वारा क़ायम “आतंक का राज्य”

21 अगस्त को जब मारुति सुज़ुकी प्रबन्धन ने मानेसर संयंत्र को फिर से खोला तो मारुति सुज़ुकी के मज़दूर आन्दोलन के एक नये चरण की शुरुआत हुई। 18 जुलाई को प्रबन्धन की साज़िश के नतीजे के तौर पर हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद से, जिसमें मारुति के एक मैनेजर की मौत भी हो गयी थी, मानेसर संयंत्र को कम्पनी ने बन्द कर दिया था। इस घटना के बाद पूरे देश में मीडिया और प्रशासन के ज़रिये ऐसा माहौल बनाया गया मानो मज़दूर अपराधी हों। प्रबन्धन और प्रशासन ने हर सम्भव पैंतरे अपनाये ताकि मज़दूरों को अपराधी सिद्ध किया जा सके। मज़दूर शुरू से यह माँग कर रहे थे कि 18 जुलाई की घटना की निष्पक्ष व उच्चस्तरीय जाँच करायी जाये। लेकिन बिना किसी जाँच के मज़दूरों के ख़िलाफ़ हरियाणा पुलिस ने धरपकड़ शुरू कर दी। इस धरपकड़ अभियान के परिणामस्वरूप अभी तक 149 मज़दूर सलाखों के पीछे हैं, जब कि उन पर कोई जुर्म साबित नहीं हुआ है। जिन इलाक़ों में मज़दूर रहते थे उनमें पुलिस ने आतंक का माहौल क़ायम कर दिया। इसके बाद जब 21 सितम्बर को मारुति सुज़ुकी ने संयंत्र को दोबारा खोला, तो 546 स्थायी मज़दूरों को नौकरी से निकाल दिया गया। कम्पनी का यह कदम पूरी तरह ग़ैर-कानूनी और अन्यायपूर्ण था क्योंकि मज़दूरों पर अभी कोई दोष सिद्ध नहीं हुआ था। लेकिन एकतरफ़ा तरीके से इन मज़दूरों को काम से बाहर कर दिया गया। इनमें से क़रीब 146 मज़दूर जेल में हैं। न्यायपालिका ने भी पूरी तरह से पूँजी का पक्ष लेते हुए मज़दूर आन्दोलन के नेताओं को पुलिस हिरासत में भेज दिया। पुलिस हिरासत का मतलब एक बच्चा भी जानता है। इसका साफ़ अर्थ होता है बर्बर यातनाएँ देकर जुर्म क़ुबूल करवाने की पूरी छूट! एक निष्पक्ष जनवादी अधिकार संगठन की जाँच ने साफ़ तौर पर यह सच उजागर कर दिया कि पुलिस हिरासत में भेजे गये मज़दूरों को पुलिस ने असहनीय यातनाएँ दी हैं। लेकिन इसके बावजूद पुलिस पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी। वास्तव में, मज़दूरों के दमन की इस पूरी प्रक्रिया में कम्पनी प्रबन्धन, हरियाणा सरकार, केन्द्र सरकार और देश की न्यायपालिका साथ हैं और यह पूरा काम 18 जुलाई की घटना से ही सोची-समझी योजना के तौर पर किया जा रहा है। और ऐसा क्यों किया जा रहा है? ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों ने अपने जायज़ क़ानूनी हक़ों को पूरा करने की माँग उठायी थी।

पूँजीपति वर्ग का देश और राष्ट्र” और हमारा देश

जब 21 सितम्बर को मानेसर संयंत्र फिर से खुला तो सभी राष्ट्रीय अख़बारों में मारुति सुज़ुकी कम्पनी ने पूरे-पूरे पेज का विज्ञापन दिया। इस विज्ञापन में कम्पनी ने कहा कि ‘मारुति सुज़ुकी एक परिवार है’ और हर परिवार की तरह इस परिवार को भी कुछ दिक्‍़क़तों और चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, लेकिन अब संयंत्र फिर से शुरू हो रहा है और अब कम्पनी ने उन चुनौतियों और दिक्‍़क़तों पर विजय पा ली है! जाहिर है, इस ‘मारुति सुज़ुकी परिवार’ में मज़दूरों का कोई स्थान नहीं है। इसमें कम्पनी के मालिकान, प्रबन्धन, कम्पनी के शेयरहोल्डर और कारें ख़रीदने वाला देश का खाता-पीता मध्यवर्ग शामिल है। मज़दूरों का स्थान तो ग़ुलामों का है जिन्हें मुँह बन्द करके चुपचाप खटते रहना चाहिए! कम्पनी और सरकार ने कहा कि मज़दूरों द्वारा “अशान्ति फैलाये जाने” (यानी, अपने क़ानूनी और जायज़ हक़ माँगने!) के कारण देश में निवेश का माहौल ख़राब हो रहा है! मीडिया ने जनता को यक़ीन दिलाने का प्रयास किया कि मज़दूर आन्दोलन “देश और राष्ट्र के हितों और विकास” का दुश्मन है! यहाँ पर भी साफ़ जाहिर है कि सरकार, पूँजीवादी मीडिया और कम्पनी के “देश और राष्ट्र” में मज़दूरों का स्थान क्या है! उनके “देश और राष्ट्र” में मज़दूरों का स्थान है मज़दूरी पाने वाले ग़ुलामों का! वे जब तक ज़ुबान पर ताला लगाये ग़ुलामों की तरह इस “देश और राष्ट्र” (यानी, पूँजीपति वर्ग और उच्च मध्य वर्ग) के लिए मुनाफ़ा पैदा करते रहें, ऐशो-आराम के सामान बनाते रहें, तब तक वे भले हैं! लेकिन जैसे ही मज़दूर अपने क़ानूनी और जायज़ हक़ों (जैसे यूनियन बनाने का हक़, न्यूनतम मज़दूरी का हक़, काम की जगह पर जायज़ सुविधाओं का हक़, डबल रेट से ओवरटाइम का हक़, और ई.एस.आई.-पी.एफ. आदि का हक़) की बात करते हैं, वैसे ही उन्हें “देश और राष्ट्र” का दुश्मन घोषित कर दिया जाता है और उनसे सरकार और प्रशासन ऐसा बर्ताव करते हैं मानो वे अपराधी हों! समझा जा सकता है कि यह “देश” धनपतियों का देश है, हमारा नहीं। यह ‘इण्डिया इंक-’ है; यह ‘ब्राण्ड इण्डिया’ है; हमारे देश ने तो कभी तरक्‍़क़ी देखी नहीं! हमारा देश तो बेरोज़गारी, महँगाई, बेघरी, भुखमरी, कुपोषण, असुरक्षा और अनिश्चितता के बोझ तले दबा हुआ है! पुलिस उनकी है, फौज उनकी है, अदालतें उनकी हैं, सरकारें उनकी हैं, नेताशाही और नौकरशाही भी उनकी है! गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल से लेकर भिवाड़ी और खुशखेड़ा तक के कारख़ानों में ग़ुलामों जैसे हालात में खट रहे मज़दूर पूँजीपतियों के “देश और राष्ट्र” की सच्चाई को अच्छी तरह समझते हैं, और मारुति सुज़ुकी के मज़दूर पिछले दो वर्षों से इस हक़ीक़त से लगातार रूबरू हो रहे हैं।

मारुति सुज़ुकी के मज़दूर आन्दोलन के नये दौर की शुरुआतः आगे का रास्ता क्या हो?

21 सितम्बर को 546 मज़दूरों को निकाले जाने के साथ मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों की लड़ाई का दूसरा चरण शुरू हो गया। इस चरण का सबसे अहम मुद्दा है निकाले गये मज़दूरों की बहाली और गिरफ़्तार बेगुनाह 149 मज़दूरों की रिहाई। 7 और 8 नवम्बर को हड़ताल और रैली के साथ मारुति सुज़ुकी के निकाले गये मज़दूरों ने फिर से आन्दोलन का बिगुल फूँक दिया है। जब भूख हड़ताल और रैली का आह्वान किया गया तो गिरफ़्तार मज़दूरों ने भी जेल के भीतर भूख हड़ताल करने का ऐलान किया। इसके जवाब में पुलिस प्रशासन ने उन्हें और अधिक बर्बर यातनाएँ देने की धमकी दी। इसके बावजूद जेल में बन्द मज़दूर साथी टूटे नहीं। कारख़ाने के भीतर भी मज़दूरों ने आन्दोलनकारी मज़दूरों से एकजुटता जाहिर की और दोपहर के खाने का बहिष्कार किया। उन्हें भी तोड़ने के लिए कम्पनी और प्रशासन ने हर प्रकार के हथकण्डे अपनाये लेकिन असफल रहे। मारुति सुज़ुकी के संघर्षरत मज़दूरों ने दिखला दिया है कि प्रशासन और प्रबन्धन की दमनकारी नीतियों के आगे वे घुटने टेकने वाले नहीं हैं। लेकिन संघर्ष के इस नये दौर के शुरू होते ही हमारे सामने यह जलता हुआ सवाल आ खड़ा हुआ है-आगे संघर्ष का रास्ता क्या हो? संघर्ष के सामने आज कई चुनौतियाँ हैं। फिलहाल संघर्ष निकाले गये और गिरफ़्तार किये गये स्थायी मज़दूर चला रहे हैं। ठेका मज़दूरों की अच्छी-ख़ासी आबादी अभी संघर्ष से कट गयी है। कम्पनी ने तमाम ठेका मज़दूरों को ‘होल्ड’ पर रखा है। उन्हें स्थायी करने के बहाने कम्पनी ने साक्षात्कार के लिए बुलाया था लेकिन उनसे साक्षात्कार में सिर्फ़ यह जानने की कोशिश की गयी कि 18 जुलाई की घटना के दिन वे कहाँ थे और आन्दोलन में उनकी क्या भूमिका है! फिलहाल कम्पनी ने उन्हें स्थायी करने का आश्वासन देकर छोड़ दिया है, ताकि वे अधर में लटके रहें और तब तक किसी भी प्रकार की आन्दोलनात्मक गतिविधि में शिरकत न करें। कम्पनी की यह चाल एक हद तक कामयाब भी रही है और आन्दोलन के सामने यह चुनौती मौजूद है कि फिर ठेका मज़दूरों की अच्छी-ख़ासी आबादी की आन्दोलन में शिरकत किस प्रकार बने। लेकिन यह आन्दोलन के सामने मौजूद एकमात्र चुनौती नहीं है। इससे बड़ी चुनौतियाँ आन्दोलन का इन्तज़ार कर रही हैं। सवाल यह है कि अब आन्दोलन आगे कैसे बढ़े और अपनी माँगों को पूरा कैसे करवाये?

गुड़गाँव में 7-8 नवम्बर को भूख हड़ताल और रैली के दौरान मारुति सुज़ुकी के मज़दूर

गुड़गाँव में 7-8 नवम्बर को भूख हड़ताल और रैली के दौरान मारुति सुज़ुकी के मज़दूर

मारुति सुज़ुकी के आन्दोलनरत मज़दूर संघर्ष के अपने अब तक के अनुभव से जानते हैं कि हरियाणा सरकार, केन्द्र सरकार और यहाँ तक कि न्यायपालिका तक कम्पनी और प्रबन्धन के पक्ष में खुले तौर पर खड़ी हैं। पुलिस से लेकर नौकरशाही तक हर क़दम पर मज़दूर-विरोधी कार्रवाइयाँ कर रहे हैं। मज़दूरों और उनके परिवारों को डराने-धमकाने और प्रताड़ित करने का सिलसिला लगातार जारी है। चुनावी पार्टियों से जुड़ी तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की भूमिका भी मज़दूर अच्छी तरह समझ चुके हैं। वे जान चुके हैं उनकी भूमिका मालिकों के पक्ष में समझौता करवाकर आन्दोलन को समाप्त करने वाले दलालों की है, न कि मज़दूरों के जुझारू संगठन की। ऐसे में, जबकि सरकार, प्रशासन, न्यायपालिका, और केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें तक पूँजी के पक्ष में खड़ी हैं, तो मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों के पास क्या ताक़त है, जिससे कि वे पूँजी की इन संगठित ताक़तों के ख़िलाफ़ लड़ सकें? वह ताक़त है मज़दूरों की वर्ग एकजुटता की ताक़त। और यहाँ हम महज़ मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों की वर्ग एकता की बात नहीं कर रहे हैं। हम यहाँ समूचे गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल के औद्योगिक क्षेत्र के समस्त मज़दूरों की वर्ग एकता की बात कर रहे हैं। आज मारुति सुज़ुकी मज़दूर आन्दोलन के समक्ष जो सबसे बड़ी चुनौती खड़ी है वह है इस पूरे औद्योगिक क्षेत्र के मज़दूरों के साथ वर्ग एकजुटता क़ायम करना। वास्तव में, इस औद्योगिक क्षेत्र के अधिकांश कारख़ानों, और विशेषकर ऑटो- मोबाइल सेक्टर के कारख़ानों के मज़दूर मारुति सुज़ुकी मज़दूर आन्दोलन के साथ हमदर्दी रखते हैं और उसका सक्रिय समर्थन करना भी चाहते हैं। लेकिन इन कारख़ानों में जो ट्रेड यूनियनें हैं वे उन्हीं केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघों से जुड़ी हैं जिनका काम मज़दूर आन्दोलनों में मालिकों के पक्ष से दलाली करना होता है। नतीजतन, मारुति सुज़ुकी मज़दूरों के संघर्ष के हर प्रदर्शन या हड़ताल में इन कारख़ानों की ट्रेड यूनियनों के नेता ज़ुबानी समर्थन देने तो आ जाते हैं, लेकिन इन कारख़ानों के मज़दूरों को मारुति सुज़ुकी मज़दूरों के आन्दोलन के समर्थन में कुछ भी नहीं करने देते। 7 और 8 नवम्बर को हुई भूख हड़ताल और रैली में भी गुड़गाँव के मारुति सुज़ुकी कारख़ाने के मज़दूर शामिल होना चाहते थे, लेकिन वहाँ की यूनियन ने ऐसा नहीं होने दिया। इससे साफ़ तौर पर पता चलता है कि मारुति सुज़ुकी के आन्दोलनरत मज़दूरों को अन्य कारख़ानों के मज़दूरों से समर्थन लेने का सीधा रास्ता अपनाना पड़ेगा। जब तक वे इन कारख़ानों की यूनियनों की नेताशाही-नौकरशाही के रास्ते उन मज़दूरों का समर्थन लेंगे, तब तक उन्हें इन यूनियनों के नेताओं के हवाई गोले, यानी समर्थन का ज़ुबानी जमाख़र्च, ही मिलेगा। अगर मारुति सुज़ुकी के आन्दोलनरत मज़दूर सीधे इन कारख़ानों के मज़दूरों से समर्थन माँगें तो उन्हें एक अच्छी-ख़ासी मज़दूर आबादी का सक्रिय समर्थन और भागीदारी हासिल हो सकती है।

हमारे हित, समस्याएँ और माँगें साझा हैं! हमारा संघर्ष भी साझा होना चाहिए!

गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल से लेकर भिवाड़ी और खुशखेड़ा तक के कारख़ानों, और विशेषकर ऑटोमोबाइल सेक्टर के कारख़ानों, के मज़दूर मारुति सुज़ुकी मज़दूर आन्दोलन का समर्थन इसलिए करते हैं क्योंकि मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों ने जिन माँगों, मुद्दों और समस्याओं को लेकर अपने आन्दोलन की शुरुआत की थी, वे सिर्फ़ उनकी ही माँगें नहीं हैं। वे समूचे ऑटोमोबाइल सेक्टर, बल्कि गुड़गाँव-मानेसर- धारूहेड़ा-बावल की पूरी औद्योगिक पट्टी के मज़दूरों की माँगें हैं। इस पूरी औद्योगिक पट्टी में मज़दूर दलाल ट्रेड यूनियनों से अलग अपनी स्वतन्त्र ट्रेड यूनियनें नहीं बना सकते, क्योंकि मालिकान और प्रबन्धन स्वतन्त्र ट्रेड यूनियनों से डरते हैं। उनके लिए दलाल ट्रेड यूनियनों के ज़रिये मज़दूरों के आन्दोलन को दबाकर रखना और उसे अपनी जेब में रखना आसान रास्ता लगता है। मज़दूर अगर स्वतन्त्र ट्रेड यूनियन बनाने का प्रयास करते हैं तो उन्हें दबाने और कुचलने के सभी हथकण्डे अपनाये जाते हैं। अगर मज़दूर चुनावी पार्टियों की दलाल ट्रेड यूनियनों से अलग क्रान्तिकारी संगठनों की सहायता से संगठित होने का प्रयास करते हैं, तो ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें नंगे शब्दों में मज़दूरों को चेतावनी देती हैं कि वे क्रान्तिकारी संगठनों का साथ छोड़ दें! असुरक्षा के कारण मज़दूर इस धमकी के समक्ष कई बार झुक भी जाते हैं, क्योंकि उन्हें इस बात का डर सताता है कि कहीं ऐसा न हो कि उनकी हिमायत और मदद करने वाला कोई न रहे! लेकिन यह एक आधारहीन भय है क्योंकि वैसे भी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के ज़रिये मज़दूर पिछले दो-तीन दशक में अपना कौन-सा संघर्ष जीत पाये हैं? मज़दूर कब इन दलाल ट्रेड यूनियनों के नेतृत्व में अपनी जायज़ माँगें मनवा पाये हैं? जिन भी आन्दोलनों के नेतृत्व में ये ट्रेड यूनियन संघ रहे हैं, अन्त में उसमें हार मिली है और कोई ऐसा समझौता हुआ है, जिसमें मालिकों के दोनों हाथ में लड्डू रहे हैं, और मज़दूरों के दोनों ही हाथ ख़ाली! नोएडा के आई-ई-डी- से लेकर एलाइड निप्पन, गुड़गाँव के होण्डा से लेकर रिको के आन्दोलन तक में क्या हमने इन यूनियनों की सच्चाई को नहीं देखा है?

समूचे गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा -बावल औद्योगिक पट्टी में मज़दूर कारख़ाना प्रशासन की तानाशाही, काम की ख़राब स्थितियों, न्यूनतम मज़दूरी, 8-घण्टे के कार्यदिवस, डबल रेट से ओवरटाइम से लेकर ई.एस.आई.-पी.एफ. तक के श्रम क़ानूनों के लागू न होने के कारण परेशान हैं। उनके भीतर ग़ुस्सा और नफ़रत है। चुनावी पार्टियों और विशेषकर संसदीय वामपंथियों की दलाल ट्रेड यूनियनों से अलग अपनी यूनियन बनाने के मुद्दे से लेकर उपरोक्त सभी अधिकारों के हनन के कारण उनकी स्थिति मज़दूरी के बदले में ग़ुलामी करने वाले ग़ुलामों जैसी हो गयी है। हालिया वर्षों में, इस पूरी औद्योगिक पट्टी में मज़दूरों के जो आन्दोलन विस्फोट की तरह एक के बाद एक फूटे हैं, उसके पीछे ये ही कारण हैं। मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों ने जो संघर्ष छेड़ा है उसने ये ही सारे मसले उठाये हैं, और इसीलिए इस क्षेत्र के सभी कारख़ानों के मज़दूर इस आन्दोलन का दिल से समर्थन करते हैं, लेकिन अपने-अपने कारख़ानों की ट्रेड यूनियन नेताशाही-नौकरशाही के कारण सीधे आन्दोलन के समर्थन में नहीं आते। सरकार, प्रशासन, कम्पनियाँ, पुलिस, न्यायपालिका, नौकरशाही, दलाल ट्रेड यूनियनें, संसदीय वामपंथियों समेत सभी पूँजीवादी चुनावी पार्टियाँ और मीडिया सभी मज़दूरों के इस शोषण और उत्पीड़न में एक साथ हैं। पूँजी की इन सभी संगठित शक्तियों के निशाने पर महज़ मारुति सुज़ुकी के मज़दूर नहीं हैं, बल्कि समूचा मज़दूर वर्ग है। मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों के आन्दोलन के निशाने पर भी वास्तव में समूची पूँजीवादी व्यवस्था है। इस बात को मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों से बेहतर कौन समझता है, जिन्होंने खुद अपनी आँखों से देखा कि किस तरह जब उन्होंने अपनी जायज़ माँगों को लेकर कम्पनी के मालिकान और प्रबन्धन के ख़िलाफ़ संघर्ष शुरू किया, तो समूची सरकारी मशीनरी, पुलिस, अदालतें, खुफ़िया विभाग और मीडिया उन पर टूट पड़ा। क्या अब भी उन्हें कोई भ्रम है? हमें नहीं लगता!

इसलिए जब इस समूचे औद्योगिक क्षेत्र के मज़दूरों के मुद्दे एक हैं, उनकी समस्याएँ एक हैं, उनकी माँगें एक हैं, तो क्या उनका संघर्ष भी एक नहीं होना चाहिए? निश्चित तौर पर, आज मारुति सुज़ुकी कम्पनी में मुद्दा उठा है; 2005 में मुद्दा होण्डा में उठा था; उसके बाद रिको में; यह सूची अन्तहीन है! कल को मुद्दा किसी और कारख़ाने में होगा। लेकिन मुद्दे वही हैं! आज ज़रूरत इस बात की है कि मारुति सुज़ुकी के मज़दूर सीधे अन्य कारख़ानों के मज़दूरों का सक्रिय समर्थन हासिल करें! अन्य कारख़ानों के अपने साथियों के पास हमें दलाल ट्रेड यूनियनों के नेताओं-नौकरशाहों के ज़रिये जाने की कोई ज़रूरत नहीं है। उनके पास जाने से हमें एक बार फिर से नपुंसक ज़ुबानी समर्थन मिल जायेगा, जिसका अब तक के हमारे आन्दोलन में कोई अर्थ नहीं रहा है। मारुति सुज़ुकी के संघर्षरत मज़दूरों को प्रचार टोलियाँ बनाकर अन्य कारख़ानों के मज़दूरों के बीच सीधे प्रचार के लिए जाना चाहिए, उन्हें बताना चाहिए कि हमारी समस्याएँ और माँगें एकसमान हैं; उन्हें बताना चाहिए कि आज मसला मारुति सुज़ुकी में उठा है, लेकिन कल यह उनके कारख़ानों में भी उठेगा; यह समझना चाहिए कि अगर आज से ही हम कारख़ाना-पारीय, सेक्टर-पारीय मज़दूर एकजुटता स्थापित नहीं करते, तो आज न तो मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों का संघर्ष जीता जा सकता है, और न ही कल अन्य किसी भी कारख़ाने के मज़दूरों का; उन्हें यह बताना चाहिए कि आज मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों के आन्दोलन को उनकी सक्रिय भागीदारी और समर्थन की ज़रूरत है क्योंकि इसके बिना यह आन्दोलन जीता नहीं जा सकता; उन्हें यह भी बताना होगा कि आज मारुति सुज़ुकी मज़दूर आन्दोलन की हार का अर्थ इस समूची औद्योगिक पट्टी के मज़दूरों की हार होगी! हमें पूरा यक़ीन है कि मारुति सुज़ुकी के आन्दोलनरत मज़दूर यदि इस प्रकार का सीधा प्रचार अभियान चलायें तो गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल के औद्योगिक क्षेत्र की एक बड़ी मज़दूर आबादी का प्रत्यक्ष और सक्रिय समर्थन और भागीदारी उन्हें मिल सकती है। इसके बिना, यह आन्दोलन अपने मुक़ाम तक नहीं पहुँच सकता, और इसके बिना इस क्षेत्र का कोई भी भावी आन्दोलन शायद ही सफलता हासिल करे।

मारुति सुज़ुकी के मज़दूर आन्दोलन को कारख़ाने की चौहद्दी से आगे जाना होगा!

इस समय हरियाणा की सरकार मज़दूरों के दमन में पूरे देश में नयी-नयी मिसालें कायम कर रही है। इतने खुले और नग्न तौर पर शायद ही किसी राज्य की सरकार पूँजीपतियों के पक्ष में दमन करती हो, जितना कि हरियाणा की हुड्डा सरकार करती है। मारुति सुज़ुकी में 18 जुलाई की घटना के बाद ही हरियाणा सरकार के उद्योग मन्त्री रणदीप सिंह सुरजेवाला के बयानों को टी.वी. चैनलों और अख़बारों में देखा-सुना जा सकता था; ऐसा लगता था मानो मारुति सुज़ुकी कम्पनी का कोई प्रबन्धक बोल रहा हो! एक सरकारी मन्त्री सीधे, बिना किसी निष्पक्ष जाँच के मज़दूरों को दोषी घोषित कर रहा था, उन्हें आतंकवादी और “माओवादी” करार दे रहा था। 18 जुलाई की घटना के बाद जिस तरीक़े से मज़दूरों का नग्न और बर्बर दमन किया गया, जिस प्रकार न्यायपालिका से लेकर नेताशाही- नौकरशाही तक एक सुर में मज़दूरों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैला रहे थे, उससे साफ़ ज़ाहिर है कि हरियाणा सरकार आगे भी मज़दूरों के किसी भी आन्दोलन का ऐसा ही नग्न दमन करेगी। ऐसे में, यह सोचने की बात है कि क्या एक-एक कारख़ाने की लड़ाइयों को जीता जा सकता है? मारुति सुज़ुकी इस पूरे औद्योगिक क्षेत्र के बड़े कारख़ानों में से एक है; अगर इस कारख़ाने के मज़दूरों के आन्दोलन को भी इस प्रकार के दमन का सामना करना पड़ता है, और हम इसके जवाब में कोई विशेष प्रभावी कार्रवाई नहीं कर पाते, हालाँकि हम हार भी नहीं मानते और अपना आन्दोलन जारी रखते हैं, तो यह सोचने की बात है कि क्या अलग-अलग कारख़ानों के संघर्षों को अलग-अलग रहकर जीता जा सकता है? यह निश्चित तौर पर बेहद मुश्किल है। अलग-अलग कारख़ानों के संघर्षों के विजय की सम्भावनाएँ आज बेहद कम होती जा रही हैं। इसके दो कारण हैं: पहला, सरकार का नग्न होता बर्बर दमनकारी चरित्र; और दूसरा, पूरी पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया को लगातार विखण्डित किया जाना। मारुति सुज़ुकी ने भी अपनी पूरी उत्पादन प्रक्रिया को काफ़ी हद तक विकेन्द्रित किया है, और उसके कई पुरज़ों का उत्पादन सैकड़ों वेंडर कम्पनियों और सहायक औद्योगिक इकाइयों में होता है। यह प्रक्रिया आगे और बढ़ेगी। गुड़गाँव-मानेसर- धारूहेड़ा-बावल और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अन्य औद्योगिक क्षेत्रों के संघर्षों से ही नहीं, बल्कि पूरे देश के सभी हिस्सों के हालिया मज़दूर आन्दोलनों ने इस बात को साबित किया है कि मज़दूरों के इलाक़ाई संगठन और उभार के ज़रिये ही कारख़ानों के आन्दोलन भी विजयी हो सकते हैं। अधिकांशतः, कारख़ानों के संघर्ष निश्चित तौर पर कारख़ानों में ही शुरू होंगे, लेकिन इनमें से जो भी कारख़ानों के भीतर ही क़ैद रह जायेंगे और संघर्ष को कारख़ानों की चौहद्दी के पार विकसित नहीं करेंगे, उनकी सफलता की उम्मीद कम है। यह समझना आज देश के मज़दूर आन्दोलन के लिए केन्द्रीय महत्व की बात है।

इसलिए मारुति सुज़ुकी के आन्दोलनरत मज़दूरों को भी यह समझना होगा कि उनका आन्दोलन जब तक कारख़ानों की चौहद्दी में कैद रहेगा, जब तक उसे अन्य कारख़ानों का “समर्थन” इन कारख़ानों की दलाल ट्रेड यूनियन नौकरशाही-नेताशाही के ज़ुबानी जमाख़र्च के तौर पर मिलेगा, और जब तक वे अपने आन्दोलन को इलाक़ाई तौर पर फैलायेंगे नहीं, तब तक इसके सफलता की उम्मीद कम रहेगी। ज़रा सोचिये! क्या 546 मज़दूर और उनके परिवारों के संघर्ष (चाहे वह कितना भी बहादुराना और जुझारू क्यों न हो) के बूते मारुति सुज़ुकी के मालिकान और प्रबन्धन के ख़िलाफ़ हम अपनी लड़ाई जीत सकते हैं, जिनके पीछे समूची सरकारी मशीनरी खड़ी है? क्या हम अपने संघर्ष की सफलता के लिए चुनावी पार्टियों से जुड़ी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों पर भरोसा कर सकते हैं? ऐसे भरोसे से आपको अब तक क्या हासिल हुआ है? क्या हमें अपने मज़दूर साथियों के समर्थन के लिए दलाल ट्रेडयूनियनों की नौकरशाही को ‘बाई-पास’ करके सीधे मज़दूरों के पास नहीं जाना चाहिए? हम मारुति सुज़ुकी के संघर्षरत साथियों से अपील करेंगे कि वे इन सवालों पर सोचें!

जज और जेलर तक उनके…सभी अफसर उनके

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट के एक नाटक के गीत की ये पंक्तियाँ आज एकदम मौजूँ हैं। एक अन्य भ्रम है जिसका असर कुछ साथियों पर बना हुआ है। वह है क़ानूनी भ्रम। हालाँकि अधिकतर मज़दूर साथी इस बात को समझने लगे हैं कि अपने गिरफ़्तार साथियों की रिहाई से लेकर बर्ख़ास्‍त मज़दूरों की बहाली के सवाल तक, क़ानूनी लड़ाई की एक सीमा है, लेकिन फिर भी कुछ साथियों में यह उम्मीद बनी हुई है कि श्रम न्यायालय में चल रहे मुक़दमे के रास्ते कुछ हो सकता है। पिछले तीन दशकों का अनुभव साफ़ तौर पर बताता है कि मज़दूरों के पक्ष को श्रम न्यायालयों में चलने वाले क़ानूनी संघर्षों में तभी विजय मिली है, जब इन क़ानूनी संघर्षों को बाहर चलने वाले आन्दोलनात्मक संघर्षों का समर्थन प्राप्त हुआ है। हमें श्रम न्यायालय में अपने पक्ष को लगातार मज़बूती के साथ रखते रहना होगा, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। जब तक आप अपनी कारख़ाना-पारीय और सेक्टर-पारीय इलाक़ाई एकता की शक्ति के बूते प्रशासन और न्यायपालिका को अपनी बात सुनने के लिए मजबूर नहीं करेंगे तब तक श्रम न्यायालय में चलने वाले संघर्ष को भी किसी मुकाम तक नहीं पहुँचाया जा सकता है। इसलिए क़ानूनी संघर्ष को आपके जुझारू आन्दोलनात्मक वर्ग संघर्ष का साथ मिलना ही चाहिए। इस सवाल पर भी हम मारुति सुज़ुकी के संघर्षरत साथियों से सोचने की अपील करते हैं।

मारुति सुज़ुकी के मज़दूर आन्दोलन के मौजूदा कार्यभार

‘मज़दूर बिगुल’ इस आन्दोलन के आरम्भ से ही इस बात को कहता रहा है कि मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों के आन्दोलन को एक इलाक़ाई आन्दोलन और उभार का रूप दिया जा सकता है और दिया जाना चाहिए। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह आज हमारे आन्दोलन के विजय की पूर्वशर्त बन गया है। आज हमारे सामने अपने आन्दोलन को एक व्यापक रूप देने के लिए कुछ ठोस कार्यभार हैं।

सबसे अहम काम है, गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल से लेकर भिवाड़ी और खुशखेड़ा के औद्योगिक क्षेत्र के मज़दूरों तक अपने संघर्ष और एकता के सन्देश को ले जाया जाये; उन्हें जोड़ा जाये और एक इलाक़ाई वर्ग एकजुटता के आधार पर मज़दूरों का एक इलाक़ाई संगठन और आन्दोलन खड़ा किया जाये। इस एकता के बग़ैर मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों का आन्दोलन शायद ही अपनी जीत के मुकाम तक पहुँच पाये। यहाँ यह स्पष्ट कर देना भी ज़रूरी है कि यह एकता महज़ जारी आन्दोलन को विजय तक पहुँचाने तक ही सीमित नहीं रहेगी। इस आन्दोलन के बाद भी यह ज़रूरी होगा कि इस पूरे इलाक़े के सभी मज़दूरों की साझा माँगों को चिन्हित किया जाये और इन माँगों के आधार पर एक साझा माँगपत्रक तैयार किया जाय; इस माँगपत्रक के पक्ष में समूची मज़दूर आबादी का समर्थन जुटाया जाये और उसके आधार पर एक दूरगामी संघर्ष की तैयारी की जाये; क्योंकि इस पूरे क्षेत्र में मज़दूरों के शोषण और दमन-उत्पीड़न का जो कुचक्र हरियाणा सरकार के सहयोग-समर्थन से पूँजीपति वर्ग ने चला रखा है, वह बन्द नहीं होने वाला है; और इसीलिए आज मारुति सुज़ुकी में यह मसला सामने आया है, कल यह अन्य कारख़ानों में भी सामने आयेगा ही आयेगा। ऐसे में, अगर हम एक इलाक़ाई संगठन और एकता कायम कर लेते हैं, तो हर बार हमें अपने संघर्ष की शुरुआत शून्य से नहीं करनी होगी! हमारे पास अपनी व्यापक इलाक़ाई एकजुटता का हथियार मौजूद होगा जिससे कि हम पूँजी की संगठित ताक़तों के हमलों के ख़िलाफ़ लड़ सकेंगे।

दूसरा अहम कार्यभार है तमाम चुनावी पार्टियों से सम्बद्ध केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के असली चरित्र को समझना और समूचे मज़दूर वर्ग में इनका भण्डाफोड़ करना। मज़दूर आन्दोलन का जितना नुकसान दलालों ने किया है, उतना तो मालिकान, प्रबन्धन और सरकार ने भी नहीं किया है। अपने जयचन्दों, विभीषणों और मीर जाफरों से निपटे बग़ैर हम अपनी लड़ाई कतई नहीं जीत सकते। आज मज़दूर आन्दोलन को क्रान्तिकारी राजनीतिक नेतृत्व देने का काम क्रान्तिकारी संगठन ही कर सकते हैं। मज़दूरों को इन दलाल ट्रेड यूनियनों से स्वतन्त्र अपनी ट्रेड यूनियनें बनानी होंगी और क्रान्तिकारी शक्तियों को इन यूनियनों से जुड़ना होगा। कुछ लोग यह कह रहे हैं कि बिना किसी राजनीतिक संगठन और क्रान्तिकारी नेतृत्व के “स्‍वतन्त्र- स्‍वायत्त” ट्रेड यूनियनें खड़ी की जानी चाहिए! हमें कम-से-कम सोनू गुर्जर और शिवकुमार के त्रासद अनुभव के बाद यह समझ लेना चाहिए कि बिना राजनीतिक नेतृत्व और क्रान्तिकारी कार्यक्रम के कोई भी ट्रेड यूनियन आन्दोलन वैसा ही होगा जैसे कि सिर के बिना आदमी! जब हम स्वतन्त्र क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियनों को खड़ा करने का आह्वान करते हैं तो उसका अर्थ यह नहीं कि बिना किसी क्रान्तिकारी राजनीतिक नेतृत्व के ट्रेड यूनियनें बनायी जानी चाहिए; हमारा अर्थ क्रान्तिकारी राजनीति से “स्‍वतन्त्र” ट्रेड यूनियनें खड़ी करना नहीं है! हमारा अर्थ है चुनावी पार्टियों से सम्बद्ध दलाल केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघों से स्वतन्त्र क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियनें खड़ी करना। यह समझना बेहद ज़रूरी है कि मज़दूर वर्ग की विचारधारा “मज़दूरवाद” नहीं है; मज़दूर वर्ग की विचारधारा मार्क्सवाद-लेनिनवाद है। हर वर्ग को हिरावल की ज़रूरत होती है, और मज़दूर वर्ग के आन्दोलन को भी हिरावल की ज़रूरत है। सुरजेवाला, हुड्डा, मोण्टेक, मनमोहन, चिदम्बरम जैसे लोग पूँजीपति वर्ग के हिरावल ही तो हैं! इन “हिरावलों” के बिना पूँजीपति वर्ग का शासन कुछ वर्ष भी नहीं चल सकता! पूँजीपतियों को इनका मार्गदर्शन और निर्देशन प्राप्त न हो, तो वे ऐसी नग्न, बर्बर और खुली लूट मचायेंगे कि जनता सड़कों पर उमड़ पड़ेगी और इस पूरी व्यवस्था को तबाह कर डालेगी, भले ही वह कोई नयी व्यवस्था न बना पाये! इन शातिर पूँजीवादी राजनीतिज्ञों के निर्देशन में ही पूँजीपति वर्ग शासन करता है और ये ही उसके हिरावल हैं! स्पष्ट है कि जब पूँजीपति वर्ग अपने हिरावल के बिना शासन नहीं करता तो क्या मज़दूर वर्ग अपने हिरावल के बिना पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ सकता है? क्या वर्ग समाज के पूरे इतिहास में किसी भी वर्ग ने अपने हिरावल के बिना संघर्ष या शासन किया है? नहीं! लेकिन कुछ लोग आज मज़दूर वर्ग की विचारधारा को अपनाने की बजाय मध्यमवर्गीय “मज़दूरवाद” का प्रचार कर रहे हैं, जिससे पूरे आन्दोलन को नुकसान ही होगा। आज इस ख़तरनाक रुझान को भी मज़दूरों को समझना होगा!

तीसरा अहम कार्यभार जो आज मारुति सुज़ुकी के मज़दूर आन्दोलन के सामने खड़ा है, वह है उन ठेका मज़दूरों और अप्रेण्टिसशिप पर काम करने वाले मज़दूरों से फिर से सम्पर्क साधना जो इस आन्दोलन से फिलहाली तौर पर कट गये हैं। याद रहे कि इन मज़दूरों ने आन्दोलन के प्रथम चरण में, यानी 18 जुलाई से पहले, बेहद जुझारू और शानदार भूमिका निभायी थी। ये मज़दूर आज बिखर गये हैं। हो सकता है कि वे अन्य कारख़ानों में भी काम करने लगे हों। लेकिन फिर भी हमें उनके सहयोग-समर्थन को सुनिश्चित करना होगा। हमें यह बताना होगा कि यह कम्पनी की एक चाल है कि वह उन्हें ‘होल्ड’ पर रखकर आन्दोलन से दूर कर रही है। वे अगर आन्दोलन में शिरकत न भी करें, तो इस बात की कम ही उम्मीद है, कि कम्पनी उन्हें स्थायी मज़दूर के तौर पर बहाल करेगी। कम्पनी का मकसद है कि वह अपने श्रमिकों की बड़ी तादाद को बाहर कर नयी श्रमशक्ति की भरती करे, जिसे वह दबाकर रख सके। अगर वह कुछेक मज़दूरों को काम पर रखती भी है, तो उन्हें ग़ुलामों की तरह खटाया जायेगा, बेइज़्ज़त किया जायेगा और दबाकर रखा जायेगा। ऐसे में, हमें सभी ठेके पर और अप्रेण्टिस के तौर पर काम करने वाले मज़दूरों की भागीदारी को फिर से सुनिश्चित करना होगा।

‘मज़दूर बिगुल’ का स्पष्ट मानना है कि इन कार्यभारों को पूरा करके हम मारुति सुज़ुकी के मज़दूर आन्दोलन को मज़बूत बना सकते हैं, उसे आगे बढ़ा सकते हैं और उसे जीत के मुकाम तक पहुँचा सकते हैं। हम मारुति सुज़ुकी के अपने सभी संघर्षरत साथियों के जज़्बे और बहादुरी को सलाम करते हैं और उनका आह्वान करते हैं कि वे इस लेख में उठाये गये ज़रूरी सवालों पर सोचें और चर्चा करें। ‘मज़दूर बिगुल’ इस साहसपूर्ण संघर्ष में हर कदम पर उनके साथ है!

मज़दूर बिगुल, अक्‍टूबर 2012

 


 

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