“बुरे पूँजीवाद” के ख़िलाफ़ “अच्छे पूँजीवाद” की टुटपूँजिया, मध्यवर्गीय चाहत
केजरीवाल की ‘आम आदमी पार्टी’ और भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन
मज़दूर वर्ग को इस छल से बचना होगा! हमें “सन्त” पूँजीवाद नहीं, पूँजीवाद का क्रान्तिकारी विकल्प चाहिए! और हमें इस विकल्प का खाका पेश करना ही होगा!

सम्‍पादकीय

अन्ततः अरविन्द केजरीवाल एण्ड पार्टी (आम आदमी पार्टी!) ने संसद और विधानसभा के सुअरबाड़े में लोट लगाने की तैयारी कर ही ली। यह एक बहुत अच्छी बात है। क्योंकि पूँजीवादी चुनावी राजनीति के मलकुण्ड में उतरने के बाद केजरीवाल एण्ड पार्टी द्वारा देश की आम ग़रीब जनता के एक हिस्से में पैदा किये गये भ्रम का खुलासा और ख़ात्मा खुद-ब-खुद हो जायेगा। अण्णा हज़ारे और अरविन्द केजरीवाल के रास्ते अलग हो चुके हैं। केजरीवाल ने चुनावी राजनीतिक पार्टी बनाकर संसद और विधानसभा का रास्ता पकड़ने का फैसला किया है, जबकि अण्णा हज़ारे ने अपनी नयी टीम बनाकर अपना जनान्दोलन जारी रखने का फैसला किया है। हालाँकि अण्णा हज़ारे बहुत भ्रमित मानसिक अवस्था में प्रतीत हो रहे हैं। वह तय नहीं कर पा रहे हैं कि केजरीवाल की पार्टी का समर्थन करें या नहीं। दोनों के बीच के सम्बन्ध तय नहीं हैं। अरविन्द केजरीवाल अण्णा की इज़्ज़त करते हैं, और अण्णा बीच-बीच में केजरीवाल के बारे में कुछ शक़ अभिव्यक्त करते हुए दिन के अन्त में उनकी “ईमानदारी” में यक़ीन करते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि दोनों अलग-अलग तरह से अहम भूमिकाएँ निभा रहे हैं। और इन दोनों ही भूमिकाओं की आज की पूँजीवादी राजनीतिक व्यवस्था को ज़रूरत है। अगर केजरीवाल संसद में जाकर उसी प्रकार नंगे हो गये जिस प्रकार तमाम पूँजीवादी पार्टियों के नेता हैं, तो कम-से-कम पूँजीवादी व्यवस्था के पास एक भ्रष्टाचार-विरोधी धर्मयोद्धा अण्णा हज़ारे के तौर पर संसद के बाहर “जनान्दोलन” चलाते हुए मौजूद रहेगा, जो कि जनता को भ्रष्टाचार के नकली मुद्दे को लेकर बेवकूफ बनाने का काम करता रहेगा! फिलहाल, अरविन्द केजरीवाल ने राम की भूमिका अपना रखी है और उनके हनुमान, सुग्रीव, जामवन्त आदि मिलकर भ्रष्टाचारी रावणों, कुम्भकरणों, मेघनादों का पुतला-दहन करने में लगे हुये हैं! बीती रामलीला की तरह इस समकालीन रामलीला की भी मीडिया जमकर कवरेज कर रहा है। हर रोज़ केजरीवाल नये-नये बम फोड़ रहे हैं और सारे चैनलों पर छाये हुए हैं। कभी वह किसी नेता की बनियान उतार देते हैं, तो कभी किसी नेता की लंगोट खींच दे रहे हैं। लंगोट खींचने की इस कबड्डी में अब कुछ लोगों की नज़र केजरीवाल की लंगोट पर भी है, कुछ ने तो उसे छीन लेने के लिए हमले करने भी शुरू कर दिये हैं। भारतीय पूँजीवादी राजनीति का पूरा दृश्य इस समय देखने योग्य है!

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अरविन्द केजरीवाल ‘मैं आम आदमी हूँ’ की टोपी लगाते हैं! यह भी एक मज़ेदार बात है। क्योंकि आम आदमी तो ऐसी कोई टोपी नहीं लगाता। इस देश के आम मेहनतकश ग़रीब का जीवन ही उसकी सच्ची तस्वीर पेश कर देता है। उसे यह यक़ीन दिलाने के लिए कि वह ‘आम आदमी’ है, किसी टोपी की ज़रूरत नहीं पड़ती! ऐसी टोपी की ज़रूरत उन्हें पड़ती है जो कि आम आदमी नहीं हैं, और आम मेहनतकशों को बेवकूफ़ बनाने के लिए आम आदमी दिखने का ढोंग कर रहे हैं। अरविन्द केजरीवाल की पार्टी के घोषणापत्र से भी साफ़ हो जाता है कि उनकी पार्टी वास्तव में खाते-पीते मध्यवर्ग की शिकायतों की नुमाइन्दगी करती है। वास्तविक आम आदमी से उसका कोई लेना-देना नहीं है। हम ‘मज़दूर बिगुल’ के अगले अंक में आम आदमी पार्टी के घोषणापत्र की एक विस्तृत आलोचना रखेंगे। खै़र, अरविन्द केजरीवाल रोज़ टोपी पहले अपने जोकरों के साथ तमाम चुनावी पूँजीवादी पार्टियों के नेताओं के बारे में ‘खुलासे’ कर रहे हैं। वह अपनी जोकर मण्डली के साथ यह बता रहे हैं कि कौन-सा नेता कितना भ्रष्ट है। लेकिन यहाँ कई सवाल उठते हैं। पहला सवाल यह उठता है कि क्या केजरीवाल के आने से पहले लोगों को यह पता नहीं था कि भारतीय पूँजीवादी राजनीति में भ्रष्टाचार का बोलबाला है? क्या लोगों को यह पता नहीं था कि संसद और विधानसभाओं में बैठने वालों और चोरों, उचक्कों, लुटेरों, रहजनों और उठाईगीरों के गिरोह में अब ज़्यादा फर्क नहीं रह गया है? निश्चित तौर पर, देश की आम जनता पहले से ही इस सत्य को जानती थी। ऐसे में, केजरीवाल नया सिर्फ़ इतना कर रहे हैं कि वह इस भ्रष्टाचार के आकार-प्रकार और मात्र का खुलासा कर रहे हैं और अलग-अलग मन्त्रियों के नाम लेकर कर रहे हैं। इस पूरे उपक्रम को मीडिया सनसनीखेज बनाकर पेश कर रहा है। पूँजीवादी राजनीति में ‘तू नंगा-तू नंगा’ का जो खेल पहले टेस्ट मैच की रफ़्तार से चल रहा था वह अब 20-20 का मैच बन गया है! एक दिन केजरीवाल किसी के बारे में कोई खुलासा कर देते हैं तो अगले दिन कांग्रेस के दिग्विजय सिंह केजरीवाल के बारे में कुछ खुलासे कर देते हैं। और जब-जब इस लंगोट-खोल कबड्डी में किसी की “इज़्ज़त” नीलाम होती है तो शहरी मध्यम वर्ग को ऑफिसों और कार्यालयों में मसालेदार चर्चा का एक नया मसला मिल गया है-आज किसने किसको कितना नंगा किया? लेकिन इस पूरे तमाशे से भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला! न ही मुनाफ़े की लूट पर टिकी व्यवस्था पर कोई फ़र्क पड़ने वाला है। होगा बस इतना कि इस मुद्दे को इस हद तक रगड़ दिया जायेगा कि आम जनता के लिए भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी पहले से भी ज़्यादा आम और स्वीकार्य मसले बन जायेंगे। फौरी तौर पर, नेताओं और नौकरशाहों को खूब गालियाँ पड़ेंगी और लोगों का गुस्सा थोड़ा निकल जायेगा; शायद अगले चुनाव में लोग सत्ताधारी पार्टी को कम वोट दें, और किसी अन्य पार्टी को अधिक; लेकिन इससे पूँजीवादी व्यवस्था का बाल भी बाँका नहीं होने वाला। वास्तव में अरविन्द केजरीवाल और उनकी वानर सेना मौजूदा पूँजीवादी मुनाफ़ाखोर व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं पेश करते। वे इसी लुटेरी व्यवस्था के दामन पर से खून के धब्बे साफ़ करके उसे अधिक सुचारू रूप से चलाने की वकालत करते हैं। अब यह बात दीगर है कि पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर भ्रष्टाचार कोई भटकाव नहीं है, बल्कि इसकी अनिवार्य पैदावार है। जब तक निजी मुनाफ़े, लोभ, लालच और लूट पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था रहेगी, तब तक घूसखोरी, भाई-भतीजावाद आदि मौजूद रहेंगे। जब तक पूँजीवादी व्यवस्था कायम रहेगी तब तक भ्रष्टाचार भी रहेगा, बल्कि, यह कहना चाहिए कि पूँजीवादी व्यवस्था स्वयं एक भ्रष्टाचार है। लेकिन अरविन्द केजरीवाल एक ऐसा मूर्खतापूर्ण सपना इस देश के मध्यवर्ग को दिखा रहे हैं जो कि कभी पूरा हो ही नहीं सकता-यानी, भ्रष्टाचार-मुक्त, भला और सन्त पूँजीवाद! इस मूर्खतापूर्ण सपने को ही केजरीवाल ‘व्यवस्था-परिवर्तन’ का नाम देते हैं। इस बात की उम्मीद कम है कि केजरीवाल खुद इस बात की मूर्खता को नहीं समझते हैं। अरविन्द केजरीवाल जानते हैं कि ऐसी कोई पूँजीवादी व्यवस्था हो ही नहीं सकती। ऐसे में, केजरीवाल जो कर रहे हैं, उससे दो मकसद पूरे होते हैं। एक तो जनता का भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के ख़िलाफ़ गुस्सा थोड़ा निकलना चाहिए, और इसके लिए केजरीवाल पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर एक सुरक्षित रास्ता सुझाते हैं! दूसरा काम जो केजरीवाल अपने भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान के नाम पर कर रहे हैं, वह है अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना। केजरीवाल भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जनता के गुस्से की लहर पर सवार होकर संसद के गलियारों में पहुँचना चाहते हैं। लेकिन चाहे जो भी हो केजरीवाल पूँजीवादी व्यवस्था के ध्वंस और उसके विकल्प की बात नहीं करते हैं।

सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि उत्पादन और वितरण की मौजूदा व्यवस्था के कायम रहते क्या भ्रष्टाचार की समस्या का समाधान सम्भव है? इसके बारे में हम ‘मज़दूर बिगुल’ के पिछले अंकों में भी विस्तार में लिख चुके हैं। जब तक एक ऐसी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था कायम है जिसमें पूरा उत्पादन और वितरण तन्त्र समाज की ज़रूरतों के लिए काम नहीं करता बल्कि पूँजीपतियों के निजी मुनाफ़े के लिए काम करता है, तब तक भ्रष्टाचार की समस्या का कोई समाधान नहीं है। जिस सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने की बुनियाद में ही मुनाफ़े, लोभ और लालच की संस्कृति व्याप्त हो, वहाँ का राजनीतिक ढाँचा भी वैसा ही होगा और आप उसमें सन्त नेताओं और नौकरशाहों की उम्मीद नहीं कर सकते। ऐसी किसी भी व्यवस्था में नेताओं और नौकरशाहों का पूरा वर्ग उनकी ही सेवा करेगा जिनके हाथ में पूँजी होगी, यानी कि पूँजीपति वर्ग। मुनाफ़े की हवस कभी भी नियमों-कानूनों के दायरे में नहीं रह सकती। हालाँकि आज के नियम और कानून जिस प्रकार की उत्पादन व्यवस्था की रखवाली करते हैं, वह स्वयं एक भ्रष्टाचार है। बुर्जुआ अर्थशास्त्र भी मानता है कि मानवीय श्रम और प्रकृति ही समस्त संसाधनों को जन्म देते हैं और लिहाज़ा देश के समस्त संसाधन पूरे देश की जनता के मालिकाने के तहत होने चाहिए न कि निजी पूँजीपतियों के मालिकाने में। मूल्य के श्रम सिद्धान्त का जन्म मार्क्स से पहले के क्लासिकीय बुर्जुआ अर्थशास्त्री कर चुके थे। एडम स्मिथ और रिकार्डो भी इस बात को मानते थे कि हर प्रकार के मूल्य के दो ही सम्भव स्रोत हैं-मेहनत और कुदरत। जाहिर है, ऐसे में सबसे न्यायपूर्ण बात यही होगी कि समस्त मेहनतकश वर्ग साझे तौर पर समूचे खेतों-खलिहानों, कल-कारखानों, खानो-खदानों का मालिक हो। तो ज़रा सोचें कि ऐसी कोई भी व्यवस्था जो संसाधनों के 85 फीसदी को ऊपर के 15 फीसदी धनपतियों की निजी सम्पत्ति बनाती हो, और वह भी कानूनी तौर पर, वह स्वयं एक भ्रष्टाचार नहीं तो और क्या है? लेकिन केजरीवाल इसे भ्रष्टाचार नहीं मानते हैं।

केजरीवाल ने हाल में अम्बानी द्वारा गैस की कीमतों को बढ़ाने के लिए सरकार पर दबाव डाले जाने और उस दबाव के कारण “ईमानदार” मन्त्री जयपाल रेड्डी को हटाये जाने के बारे में भण्डाफोड़ करते हुए कहा कि यह “साँठ-गाँठ करने वाला पूँजीवाद” है! यह एक दिलचस्प बयान था! जाहिर है कि केजरीवाल साँठ-गाँठ करने वाले पूँजीवाद के खि़लाफ़ हैं। इसका यही अर्थ है कि वह एक ऐसे पूँजीवाद के ख़िलाफ़ हैं जो साँठ-गाँठ करता हो, यानी भ्रष्ट हो! लेकिन इसी बयान से यह भी साफ़ है कि केजरीवाल ऐसे पूँजीवाद की मुख़ालफत नहीं करते जो भ्रष्टाचारी न हो, साँठ-गाँठ न करता हो! इसीलिए वह अम्बानी-ब्राण्ड पूँजीपतियों की मुख़ालफ़त करते नज़र आ रहे हैं, जो कि चिन्दीचोरी, घपले, और सेंधमारी जैसे तरीकों से भारतीय पूँजीवाद के शिखर पर पहुँचा है। लेकिन टाटा और बजाज जैसे खानदानी पूँजीपतियों का समर्थन केजरीवाल को प्राप्त है! हालाँकि, यह टाटा ही था जिसके कारपोरेट भ्रष्टाचार और सरकार पर दबाव डाल कर ए. राजा को टेलीकॉम मन्त्री बनाये जाने के कृत्य का टाटा-राडिया टेपों के जरिये खुलासा हो चुका है। निश्चित तौर पर, यह एक नग्न और खुला भ्रष्टाचार था। लेकिन केजरीवाल टाटा के बारे में कोई बयान देते नज़र नहीं आते, और टाटा केजरीवाल के भ्रष्टाचार-दलन अभियान का समर्थन करते नज़र आते हैं! केजरीवाल और टाटा के बीच प्यार की आग दोतरफ़ा है! केजरीवाल ने अम्बानी पर भी सवाल सिर्फ़ इसलिए उठाया था क्योंकि उनके सामने कई लोगों ने यह सवाल रख दिया था कि वह पूँजीपतियों के भ्रष्टाचार पर कोई सवाल नहीं उठाते। ऐसे में, अम्बानी ही केजरीवाल को सवाल उठाने के लिए सबसे मुफीद लगा, जिसका कारण हम ऊपर बता चुके हैं। लेकिन केजरीवाल की राजनीति समूची पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ़ नहीं खड़ी है, बल्कि एक भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद की बात करती है। ऐसे में, निश्चित तौर पर, केजरीवाल कोई विकल्प नहीं बन सकते हैं। इस बात का हम बस इन्तज़ार कर सकते हैं कि 2014 के चुनावों में केजरीवाल और उनकी वानर सेना का क्या होता है!

दूसरा सवाल यह है कि क्या केजरीवाल वाकई भ्रष्टाचार के सभी रूपों के खि़लाफ़ हैं? अगर ग़ौर से देखें तो ऐसा लगता नहीं है। भ्रष्टाचार का भी एक वर्ग चरित्र होता है। भ्रष्टाचार के कुछ रूपों से टटपुंजिया और मध्यवर्ग को ही दिक्कत होती है। वास्तव में, मकान का नक्शा पास कराने के लिए विकास प्राधिकरण के कार्यालय में जो रिश्वत देनी पड़ती है, उससे मज़दूर को क्या फर्क पड़ता है? कुछ भी नहीं! वह दो वक्त की रोटी मुश्किल से जुटा पाता है, तो मकान कहाँ से बनवायेगा। उसकी तो सारी ज़िन्दगी अनियमित तौर पर बसायी गयी झुग्गियों में बीत जाती है। इसलिए विकास प्राधिकरण और म्युनिसिपैलिटी के बड़े बाबू के भ्रष्टाचार से मज़दूर बहुत पीड़ित नहीं होता। लेकिन केजरीवाल केवल इसी भ्रष्टाचार पर बोलते हैं, जिससे कि देश का मध्यवर्ग पीड़ित होता है। इसीलिए तो केजरीवाल ने अपनी पार्टी के घोषणापत्र में ही लिख रखा है कि आम आदमी पार्टी के नेता मध्यवर्गीय जीवन बिताएँगे! खै़र, जब केजरीवाल खुद ही अपने आपको और अपनी पार्टी को मध्यवर्गीय बता रहे हैं, तो हमें ज़्यादा कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं है। लेकिन भ्रष्टाचार के जिन रूपों का सबसे ज़्यादा असर मज़दूर वर्ग पर पड़ता है उस पर केजरीवाल साहब कुछ नहीं बोलते! देश में 260 श्रम कानून मौजूद हैं, लेकिन देश के 93 फीसदी मज़दूरों के लिए इन कानूनों का कोई मतलब नहीं है। सरकार भी जानती है कि इन कानूनों का पालन कहीं पर नहीं होता है और केजरीवाल भी जानते हैं। लेकिन इस पर केजरीवाल और उसकी वानर सेना कभी उछल-कूद नहीं मचाती है। जब से केजरीवाल और उसकी वानर सेना भ्रष्टाचार की लंका फतह करने के लिए मीडिया के मैदान में उतरी है, तब से देश में तमाम जुझारू मज़दूर आन्दोलन हो चुके हैं। ये सभी आन्दोलन जायज़ और कानूनी माँगों को लेकर किये जा रहे थे। इन आन्दोलनों को बर्बर दमन किया गया। मारूति सुजुकी के मज़दूर क्या माँग रहे थे? वे महज़ यूनियन बनाने का अधिकार माँग रहे थे जो कि उनका कानूनसम्मत और संविधान-प्रदत्त अधिकार है। लेकिन पूरे पूँजीपति वर्ग ने हरियाणा राज्य सरकार और केन्द्रीय सरकार के साथ मिलकर उनका दमन किया। पहले मारूति सुजुकी के कारखाने में सुनियोजित ढंग से हिंसा करायी गयी और उसके बाद मज़दूरों के ख़िलाफ़ पहले आतंकराज कायम किया गया, पुलिस हिरासत में गिरफ़्तार मज़दूरों को बर्बर यातनाएँ दी गयीं और बाद में अच्छी-ख़ासी संख्या में उन्हें निकाल बाहर किया गया। लेकिन इस अन्याय के खि़लाफ़ न तो अण्णा हज़ारे और उनके चेले-चपाटियों ने एक भी बयान देना ज़रूरी समझा और न ही अरविन्द केजरीवाल और उनकी वानर सेना ने इस पर चूँ तक की! क्यों? क्या मारूति सुजुकी द्वारा श्रम कानूनो का उल्लंघन भ्रष्टाचार नहीं है? भट्टा पारसौल के किसानों से जबरन ज़मीनें छीनने का प्रयास किया गया, उन पर लाठियाँ-गोलियाँ बरसायी गयीं, जो कि सीधे-सीधे सत्ता की तानाशाही थी और किसी भी कानून के खि़लाफ़ था। यह भी तो भ्रष्टाचार था। तब अरविन्द केजरीवाल और उनकी वानर सेना कहाँ थी? जब दक्षिण भारत में यनाम के मज़दूरों का दमन किया जा रहा था जो कि अपनी जायज़ माँगों को लेकर लड़ रहे थे, तब अरविन्द केजरीवाल को भ्रष्टाचार की याद नहीं आयी। जब तिरुपुर के मज़दूर जीने के लिए बुनियादी ज़रूरतों के छीन लिये जाने के कारण आत्महत्याएँ कर रहे थे, तब अरविन्द केजरीवाल ग़ायब रहे। ऐसे मसलों की गिनती करने में दर्जनों पन्ने काले किये जा सकते हैं। लेकिन एक बात साफ़ है-अरविन्द केजरीवाल का भ्रष्टाचार-विरोधी तमाशा मज़दूर वर्ग के खि़लाफ़ हो रहे पूँजीवादी भ्रष्टाचार के प्रति षड्यन्त्रकारी चुप्पी ओढ़े हुए है। वह बस उस भ्रष्टाचार पर शोर मचाता है, जहाँ पूँजीपति वर्ग के ही दो हिस्सों के बीच मुनाफ़े/लूट के माल में हिस्सेदारी को लेकर मारामारी है-एक ओर मालिक वर्ग और उपभोक्ता वर्ग (यानी शहरी और ग्रामीण उच्च मध्य वर्ग) और दूसरी ओर नेता-नौकरशाह वर्ग! जिस भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ लड़ने की अरविन्द केजरीवाल बात कर रहे हैं, वह अव्वलन तो इस व्यवस्था के भीतर ख़त्म हो ही नहीं सकता, और अगर ख़त्म हो भी गया तो इससे देश की आम मेहनतकश आबादी को कुछ भी नहीं मिलेगा। इससे केवल दो वर्गों को लाभ होगा-पहला, देश का कारपोरेट मालिक वर्ग और दूसरा देश का खाता-पीता उच्च मध्य वर्ग। यही दोनों केजरीवाल के अभियान के सबसे महत्वपूर्ण समर्थक वर्ग हैं। इसके अतिरिक्त, निम्न मध्यवर्ग भी भ्रष्टाचारी पूँजीपति वर्ग के खि़लाफ़ अपने गुस्से के कारण इस अभियान की भीड़ में शामिल हो जाता है। लेकिन यह उसकी छद्म चेतना के कारण होता है। उसे भी अरविन्द केजरीवाल के तमाशे के अन्त में बताशा भी नहीं मिलने वाला।

तीसरा सवाल भी महत्वपूर्ण है! अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया जैसे ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ के लोग मुख्य रूप से एन.जी.ओ. चलाने वाले बड़े खिलाड़ी हैं। हाल में हुए खुलासों से पता चला है कि इनके एन.जी.ओ. को पैसा देने वाली दाता एजेंसियों में फोर्ड फाउण्डेशन, एक्शन एड, रैण्ड कारपोरेशन आदि जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा चलायी जाने वाली संस्थाएँ हैं। केजरीवाल के ही एन.जी.ओ. को इन साम्राज्यवादी एजेंसियों से मिलने वाला चन्दा कई करोड़ रुपयों का है! क्या केजरीवाल को पता नहीं है कि ये साम्राज्यवादी एजेंसियाँ वही हैं जिन्होंने भारत और भारत जैसे तमाम देशों की जनता को लूट-खसोटकर अपना मुनाफ़े का साम्राज्य पैदा किया है? क्या केजरीवाल को पता है कि इन एजेंसियों को पैसा देने वाली वे कम्पनियाँ भी हैं, जिनके कारण 50 पैसे की लागत से बनने वाली जीवन-रक्षक दवाइयाँ भारत में कई सौ रुपयों में बिकती हैं, जिनके कारण ग़रीब सड़कों पर तड़प-तड़पकर मरते हैं? केजरीवाल जैसों को क्या यह मालूम नहीं है कि इन साम्राज्यवादी एजेंसियों ने कई लातिन अमेरिकी और अफ्रीकी देशों में जनता द्वारा लोकतान्त्रिक रूप से चुनी गयी सत्ताओं का खूनी तख्तापलट करवाने के लिए अमेरिका के टट्टू सेना जनरलों को अकूत धन और हथियार मुहैया कराये, ताकि अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों के साम्राज्यवादी हितों को कोई नुकसान न पहुँचे? निश्चित तौर पर, केजरीवाल इतने मूर्ख और अज्ञानी नहीं होंगे कि उन्हें यह पता न हो। लेकिन फिर भी इन्हीं साम्राज्यवादी एजेंसियों के फेंके हड्डी के टुकड़ों पर श्रीमान सुथरा यानी अरविन्द केजरीवाल की पूरी राजनीति चलती है! इसी से काफी-कुछ पता चलता है।

अरविन्द केजरीवाल के “आन्दोलन” को जिन वर्गों का समर्थन प्राप्त है, उनमें से सबसे महत्वपूर्ण है शहरी उच्च मध्यवर्ग। यह वह वर्ग है जो पूँजीवादी व्यवस्था के लिए सबसे अहम उपभोक्ता वर्ग है। 22 वर्षों की नवउदारवादी नीतियों ने इस वर्ग को काफ़ी-कुछ दिया है। दुनिया भर के ब्राण्ड इस वर्ग की पहुँच में हैं। इस वर्ग ने पश्चिमी आधुनिकता का स्वाद चखा है लेकिन इसने अपनी अन्धराष्ट्रवादी (अक्सर धार्मिक कट्टरपंथ के साथ) सोच को बनाये रखा है। यह वह वर्ग है जो हॉलीवुड की फिल्मों में दिखायी जाने वाली दुनिया चाहता है-साफ-सुथरे पार्क, चमकते शॉपिंग मॉल, नागरिकों की सेवा करने वाली पुलिस और नौकरशाही (जाहिर है कि उसके लिए नागरिक का अर्थ उपभोक्ता है), बढ़िया स्कूल और कॉलेज, सुपर-स्पेशियैलिटी अस्पताल, एक सैन्य रूप से शक्तिशाली देश, सशक्त उच्च मध्य वर्ग आदि। यह एक विशिष्ट और निश्चित छवि है, जिसकी आकांक्षा इस उच्च मध्यवर्ग को है। उसके पास आर्थिक शक्ति आयी है और अब वह कुछ राजनीतिक शक्ति चाहता है। केजरीवाल का “आन्दोलन” उसे आकर्षित करता है क्योंकि वह एक ऐसी ही पूँजीवादी व्यवस्था का सपना उसे दिखाता है, जो भ्रष्टाचार-मुक्त होगा, साथ-सुथरा होगा, जिसमें हर चीज़ सलीके से चलेगी, कुछ गड़बड़ नहीं होगा! एक अहम बात यह भी है कि देश के मेहनतकश वर्गों को अगर इतनी ही सुविधाएँ और अधिकार न मिले तो उसे कोई दिक्कत नहीं है। उसके लिए ये अक्षम और कामचोर लोग हैं और व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिसमें योग्यता और ‘मेरिट’ की पूछ हो! किसी भी किस्म के कल्याणवाद का यह वर्ग समर्थन नहीं करता। अपने वर्ग स्वभाव से वह नवउदारवादी बाज़ार पूँजीवाद का समर्थक है, बशर्ते कि वह भ्रष्टाचार-मुक्त हो!

चाहे जो भी हो, एक बात तो बिल्कुल साफ़ है-अरविन्द केजरीवाल और उनके टोपीधारी चेले-चपाटियों की नौटंकी से इस देश की मेहनतकश जनता को कुछ भी नहीं मिलने वाला है। यह एक भ्रम है, एक छलावा है, जिसमें देश का टटपुंजिया और निम्न मध्यवर्ग कुछ समय तक फँसा रह सकता है। लेकिन केजरीवाल एण्ड पार्टी के संसद और विधानसभा के मलकुण्ड में उतरने के बाद यह भ्रम भी समाप्त हो जायेगा। मज़दूर वर्ग तो एक दिन भी इस भ्रम का ख़र्च नहीं उठा सकता है। हर जगह जहाँ मज़दूर दबाये-कुचले जा रहे हैं, सघर्ष कर रहे हैं, लड़ रहे हैं, वे जानते हैं कि केजरीवाल एण्ड पार्टी उनके लिए कुछ भी नहीं करने वाली। यह पढ़े-लिखे, खाते-पीते मध्यवर्ग के लोगों की नेताओं-नौकरशाहों के प्रति शिकायत को दर्ज़ कराने वाली पार्टी है और यह वास्तव में शासक वर्ग के ही दो हिस्सों के बीच देश में पैदा हो रहे अधिशेष के बँटवारे की कुत्ताघसीटी में उच्च मध्यवर्ग के हितों की नुमाइन्दगी कर रही है। मज़दूर वर्ग को इस भ्रम और छलावे में एक पल को भी नहीं पड़ना चाहिए। उसे समझ लेना चाहिए कि उसे बेहतर, अच्छा, भला या सन्त पूँजीवाद नहीं चाहिए (वैसे यह सम्भव भी नहीं है!), उसे पूँजीवाद का विकल्प चाहिए! उसे क्रान्तिकारी लोकस्वराज्य चाहिए!

 

मज़दूर बिगुल, नवम्‍बर-दिसम्‍बर  2012

 


 

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