मारुति सुज़ुकी वर्कर्स यूनियन के आह्वान पर दिल्ली में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के ऑटो मज़दूरों का जुझारू प्रदर्शन और सम्मेलन
मारुति सुज़ुकी मज़दूरों का आन्दोलन इलाक़ाई मज़दूर उभार की दिशा में

अभिनव सिन्हा

पूँजी की एकजुट ताक़तों के खि़लाफ़ लम्बे संघर्ष के तजुरबे के बाद अब मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों का आन्दोलन सही दिशा में कदम उठा चुका है। पिछले वर्ष आन्दोलन के पहले दौर में मालिकान और प्रबन्धन के पक्ष का पलड़ा भारी रहा, और मज़दूरों के हाथ निराशा लगी; लेकिन मज़दूरों ने हार नहीं मानी। वे कारखाने के भीतर संघर्ष करते रहे और मज़दूरों की यही दृढ़ता प्रबन्धन को गवारा नहीं थी। नतीजतन, 18 जुलाई को एक षड्यन्त्र के तहत मारुति सुज़ुकी के मानेसर संयंत्र में तोड़-फोड़ और आगज़नी की घटना हुई; प्रबन्धन ने गुण्डों को कारख़ाने के भीतर बुलवाकर मज़दूरों पर हमला करवाया। मज़दूरों ने भी आत्मरक्षा के लिए कदम उठाये। इसी बीच रहस्यमय परिस्थितियों में एक सुपरवाइज़र की आग में जलकर मौत हो गयी। स्वतन्त्र और निष्पक्ष संगठनों की जाँच में जो नतीजे सामने आये हैं वे इस बात की ओर इशारा करते हैं कि इस अफ़सोसनाक घटना के पीछे भी प्रबन्धन की साज़िश थी। लेकिन कम्पनी, प्रबन्धन, केन्द्र और हरियाणा सरकार, और हरियाणा पुलिस प्रशासन ने तुरन्त ही मज़दूरों को दोषी ठहरा दिया। यही तो कम्पनी चाहती थी! और इसके बाद मीडिया भी मज़दूरों को ‘अपराधी’, ‘ख़ूनी’ और ‘वहशी’ करार देते हुए पूरे देश की जनता के बीच मज़दूर-विरोधी पूँजीवादी प्रचार में लग गया। पूरे देश में ऐसा माहौल पैदा किया गया कि कोई भी मज़दूरों के पक्ष के साथ हमदर्दी न रखे और पुलिस द्वारा उनके दमन और उत्पीड़न पर उँगली न उठाये। जब रास्ते के सारे रोड़े साफ़ कर दिये गये तो हरियाणा पुलिस ने गुड़गाँव-मानेसर को मज़दूरों के लिए एक यातना-शिविर में तब्दील कर दिया। आने वाले एक माह तक मज़दूरों की धरपकड़ जारी रही और 149 मज़दूरों को गिरफ़्तार कर लिया गया। इसके बाद न्यायपालिका ने भी पूँजी का पक्ष लेते हुए मज़दूर नेताओं को पुलिस हिरासत में भेज दिया। पुलिस हिरासत में मज़दूर नेताओं को बर्बर यातनाएँ दी गयीं लेकिन वे टूटे नहीं और उनका हौसला बुलन्द रहा। सरकार ने 215 मज़दूरों के खि़लाफ़ आरोप-पत्र तैयार किया और उन्हें बिना किसी जाँच-पड़ताल के ही कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया गया। इस बात की कोई जाँच क्यों नहीं हुई कि 18 जुलाई के दिन कारख़ाने के अन्दर गुण्डे क्या कर रहे थे? इस बात की तफ़्तीश क्यों नहीं की गयी कि संयंत्र के भीतर के सभी सीसीटीवी कैमरे बन्द क्यों कर दिये गये थे? प्रबन्धन का इरादा क्या था? जाहिर है कि 18 जुलाई को हुई घटना की साज़िशाना तैयारी मालिकान और प्रबन्धन ने पहले ही कर रखी थी। 21 सितम्बर को मारुति सुज़ुकी ने गाजे-बाजे के साथ अपना संयंत्र खोला, अखबारों में उसके विज्ञापन दिये और ऐलान किया कि उत्पादन शुरू हो गया है। लेकिन उस विज्ञापन में यह कहीं नहीं बताया गया कि उसने अपने 546 मज़दूरों को काम से निकाल दिया है! यह भी नहीं बताया गया कि जब सरकार ने महज़ 215 मज़दूरों के ख़िलाफ़ आरोप-पत्र दायर किया है, तो कम्पनी ने 546 को बर्ख़ास्‍त क्यों किया? जब भारत का श्रम मन्त्री पहले ही बोल चुका था कि मारुति कम्पनी द्वारा बनायी गयी आचार-संहिता असंवैधानिक है, तो उसके आधार पर कम्पनी ने सैंकड़ों मज़दूरों को बर्खास्त क्यों किया? इन सवालों का कम्पनी और प्रबन्धन के पास कोई जवाब नहीं है! उसे जवाब देने की कोई ज़रूरत भी आज तक महसूस नहीं हुई है, क्योंकि जब पूरी सरकार, पुलिस और प्रशासन उनके पक्ष में है तो भला जवाबदेही किस बात की?

लेकिन 7-8 नवम्बर को बर्ख़ास्‍त और गिरफ़्तार मज़दूरों ने फिर से आन्दोलन का बिगुल फूँक दिया। 7 नवम्बर को मज़दूरों ने भूख हड़ताल की। उनके पक्ष में जेल में बन्द मज़दूरों ने भी भूख हड़ताल की, हालाँकि पुलिस प्रशासन ने उन्हें काफ़ी डराया-धमकाया था। 8 नवम्बर को मज़दूरों ने एक रैली निकालकर नेताओं और नौकरशाहों को अपना माँगपत्रक और ज्ञापन सौंपा। इस प्रदर्शन के दौरान ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ की ओर से वितरित पर्चे में मज़दूरों के साथ एकजुटता का आह्वान किया गया और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अनेक मज़दूर कार्यकर्ता इस रैली में शामिल भी हुए। इसके बाद, 12 नवम्बर को मारुति सुज़ुकी वर्कर्स यूनियन ने हरियाणा के उद्योग मन्त्री रणदीप सुरजेवाला के निर्वाचन क्षेत्र कैथल में एक रैली रखी। ज्ञात हो कि सैंकड़ों मारुति के मज़दूरों के घर जीन्द और कैथल जिले में ही हैं। इस रैली में ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ ने एक चार पृष्ठ का पर्चा ‘आगे का रास्ता क्या हो?’ का वितरण किया जिसमें यह आह्वान किया गया था कि मारुति सुज़ुकी के संघर्षरत मज़दूरों को गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल के समस्त मज़दूरों के साथ इलाकाई एकता कायम करनी होगी क्योंकि ऐसी व्यापक इलाक़ाई एकजुटता के बिना संघर्ष का सफल हो पाना मुश्किल होगा। इस रैली में भी सैंकड़ों की संख्या में मज़दूर शामिल हुए। यहाँ पर भी उन्होंने अपने माँगपत्रक और ज्ञापन नेताओं-नौकरशाहों को सौंपे। लेकिन अब तक की लड़ाई से एक बात स्पष्ट होने लगी थी। वह यह थी कि जब तक मारुति सुज़ुकी के मज़दूर अपने संघर्ष को अपने कारख़ाने की चौहद्दी से बाहर नहीं ले जायेंगे, तब तक उनके सामने कई सीमाएँ बनी रहेंगी।

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12 नवम्बर के प्रदर्शन के बाद भी मारुति सुज़ुकी वर्कर्स यूनियन का प्रतिनिधि-मण्डल लगातार हरियाणा सरकार के प्रतिनिधियों से मुलाकात करता रहा। लेकिन सरकार के मन्त्री और नौकरशाह उन्हें एक दरवाज़े से दूसरे दरवाज़े तक दौड़ाते रहे। इसके बाद 26 नवम्बर को फरीदाबाद में श्रम मन्त्री शिवचरण शर्मा के आवास पर यूनियन की ओर से प्रदर्शन भी किया गया। लेकिन यहाँ भी कोरे वायदे ही मिले। हरियाणा सरकार और प्रशासन भी यह समझ रहा है कि कुछ सौ मज़दूर यदि अपने कारख़ाने की लड़ाई को कारख़ाने की चौहद्दी के भीतर ही कैद रखेंगे तो वह उन्हें एक दर से दूसरे दर तक दौड़ाते रहेंगे और अन्त में मज़दूर खुद ही थककर घर बैठ जायेंगे और कोई अन्य रोज़गार खोजना शुरू कर देंगे और इस तरह कम्पनी और प्रबन्धन अपनी तानाशाही को जारी रखने में कामयाब हो जाएँगे। इस दौरान भी ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ लगातार दो प्रस्ताव रखता रहा था। पहला यह कि आन्दोलन को संयंत्र के दायरे से बाहर निकालकर पूरी ऑटोमोबाइल औद्योगिक पट्टी में फैलाना होगा। ऑटोमोबाइल पट्टी के अधिकांश कारख़ानों में वही मुद्दे हैं जो कि मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों के सामने हैं और अगर समस्त ऑटोमोबाइल मज़दूरों के मुद्दे एक हैं, तो उनका संघर्ष भी एक होना चाहिए, क्योंकि पूँजी की ताक़तें कारख़ानों के आधार पर नहीं बँटी हैं। वे एकजुट होकर मज़दूर वर्गों के हितों पर हमला कर रही हैं, और सरकार और प्रशासन पूरी तरह उनके साथ है। ऐसे में, मज़दूर भी कारख़ानों के आधार पर बँटे रहकर अपनी लड़ाई नहीं जीत सकते हैं। दूसरा प्रस्ताव यह था कि मारुति सुज़ुकी मज़दूरों को नयी दिल्ली में जन्तर-मन्तर पर एक बड़ा प्रदर्शन करना चाहिए। इसके ज़रिये तीन लक्ष्य पूरे होंगे। पहला, अगर मारुति सुज़ुकी के मज़दूर दिल्ली की सड़कों पर उतरेंगे तो उनका पक्ष दिल्ली की आम जनता के बीच जायेगा, जिसके बीच अब तक पूँजीवादी मीडिया ने यह प्रचार किया है कि मारुति के मज़दूर अपराधी हैं। दूसरा, राष्ट्रीय मीडिया मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों के प्रदर्शन को दिखलाने के लिए बाध्य होगा क्योंकि अगर सैकड़ों मारुति सुज़ुकी मज़दूर नयी दिल्ली की सड़कों पर उतरेंगे तो मीडिया इसकी उपेक्षा नहीं कर सकता है, क्योंकि उसकी निष्पक्षता पर हाल में पहले ही कई सवाल खड़े हो चुके हैं और अगर उसे अपनी साख बचानी है तो उसे मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों के आन्दोलन को दिखलाना होगा। मीडिया में ह्युण्डई समर्थक लॉबी वैसे भी मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों के प्रदर्शन को ज़रूर अपने अख़बारों और चैनलों में जगह देगी, और अगर कुछ चैनल और अख़बार भी मारुति सुज़ुकी मज़दूर आन्दोलन को कवरेज देते हैं, तो बाकियों को भी कवरेज देने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। तीसरा लक्ष्य जो दिल्ली में प्रदर्शन से पूरा होगा वह यह कि केन्द्र सरकार और प्रशासन पर भारी दबाव पड़ेगा कि वह मारुति सुज़ुकी मज़दूरों की बात को सुने और उनकी माँगों पर कुछ कार्रवाई करे।

इलाक़ाई उभार और दिल्ली में संघर्षरत मज़दूरों के प्रदर्शन के प्रस्ताव को दबाने की कई प्रतिकूल ताक़तों ने पर्याप्त कोशिश की। लेकिन अन्ततः मारुति सुज़ुकी वर्कर्स यूनियन ने 2 दिसम्बर को इलाक़ाई मज़दूर एकता का आह्वान करने और 9 दिसम्बर को दिल्ली में ऑटो मज़दूरों की जुटान करने का निर्णय लिया। आखि़री समय तक कुछ प्रतिकूल ताक़तें यह कोशिश करती रहीं कि अम्बेडकर भवन, नयी दिल्ली में तय ऑटो मज़दूर सम्मेलन को प्रदर्शन में तब्दील न किया जा सके। लेकिन अन्ततः मारुति सुज़ुकी वर्कर्स यूनियन के नेतृत्व में मज़दूरों की शक्ति की विजय हुई और 9 दिसम्बर को अम्बेडकर भवन में सम्मेलन के बाद समस्त मज़दूर एक विशाल जुलूस की शक्ल में झण्डेवालान, पहाड़गंज, कमला मार्केट और बाराखम्बा रोड होते हुए करीब 5 किलोमीटर की दूरी तय करके जन्तर-मन्तर पहुँचे और वहाँ प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन के दबाव के कारण रविवार के दिन भी प्रधानमन्त्री कार्यालय को मारुति सुज़ुकी वर्कर्स यूनियन के प्रतिनिधि मण्डल से मुलाकात करके उनका ज्ञापन और माँगपत्रक स्वीकार करना पड़ा। यह मज़दूरों की इलाक़ाई एकजुटता और देश की राजधानी की सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन करने का फैसला ही था जिसके कारण यह विजय हासिल हुई थी। इसके एक दिन बाद ही हरियाणा के मुख्यमन्त्री भूपेन्द्र हुड्डा के पुत्र दीपेन्द्र हुड्डा ने यूनियन के नेतृत्व की मुलाकात लेबर कमिश्नर से करायी और अब ऐसी उम्मीद बन रही है कि मज़दूरों की माँगों की सुनवाई होगी।

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लेकिन अभी यह संघर्ष जीत से बहुत दूर है। अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। इस समय जो बात हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण है वह है एक दीर्घकालिक योजना का होना। बिना योजना के कभी किसी प्रशासनिक कार्यालय, किसी मन्त्री के आवास या दफ़्तर तो कभी किसी सार्वजनिक स्थान पर प्रदर्शन कर देने मात्र से हमारा आन्दोलन जीत नहीं सकता है। मारुति सुज़ुकी मज़दूरों के आन्दोलन को जीतने के लिए एक ऐसी दीर्घकालिक योजना की ज़रूरत है जो कदम.दर-कदम संघर्ष के उन्नततर रूपों को अपनाये और एक सलीके से सीढ़ी-दर-सीढ़ी आगे बढ़ता जाये। जन्तर-मन्तर पर प्रदर्शन और प्रधानमन्त्री को ज्ञापन देना हमारे लिए पहली सीढ़ी थी। अब हमें उस ज्ञापन पर कार्रवाई करवाने के लिए दबाव डालना होगा और इसके लिए हमें एक दिन नहीं बल्कि दो या तीन दिन के जुझारू धरने के जरिये केन्द्र सरकार और हरियाणा सरकार को अल्टीमेटम देना होगा। यह अल्टीमेटम पूरा न होने पर हमें दो या तीन दिवसीय प्रतीकात्मक भूख हड़ताल, लम्बी क्रमिक भूख हड़ताल, अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल और फिर आमरण अनशन और मज़दूर सत्याग्रह तक के रूप अपनाने पड़ सकते हैं। यदि मज़दूर अपने हक़ों के लिए संगठित और एकजुट होकर पूरे हौसले के साथ लड़ने को तैयार हैं तो हम इस रास्ते से अपने संघर्ष की विजय तक पहुँच सकते हैं। प्रार्थनाओं, याचिकाओं और ज्ञापनों का दौर अब बीत चुका है। अब लड़ाई को सड़कों पर आगे बढ़ाने का काम करना है और इसे ऑटो मज़दूरों के व्यापक मज़दूर सत्याग्रह तक ले जाना ही एकमात्र रास्ता है। इस पूरे संघर्ष के दौरान हमें मारुति सुज़ुकी और ईस्टर्न मेडिकेट के मज़दूरों के मुद्दों को तो उठाना ही होगा, लेकिन साथ ही हमें पूरे गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल की औद्योगिक पट्टी के मज़दूरों का एक साझा माँगपत्रक तैयार कर उसे भी सरकार और प्रशासन के सामने रखना होगा। इस पूरी औद्योगिक पट्टी के मज़दूरों की सहानुभूति मारुति सुज़ुकी वर्कर्स यूनियन के संघर्ष के साथ है। इस सहानुभूति को सक्रिय एकजुटता में बदलने के लिए हमें उनकी माँगों को भी अपने माँगपत्रक में शामिल करना होगा। इसमें हमें स्वतन्त्र यूनियन बनाने के हक़ और ऑटोमोबाइल सेक्टर में ठेका प्रथा को समाप्त करने की माँग को सबसे ऊपर रखना होगा। निश्चित तौर पर हमारे आन्दोलन की तात्कालिक माँगें मारुति सुज़ुकी के गिरफ़्तार मज़दूरों की रिहाई और बर्ख़ास्‍त मज़दूरों की बहाली, और ईस्टर्न मेडिकेट के मज़दूरों की माँगें होंगी, क्योंकि इस समय आन्दोलन की आग इन्हीं जगहों पर जल रही है। लेकिन इन  तात्कालिक और ठोस माँगों को रखने के साथ ही हमें समस्त ऑटोमोबाइल मज़दूरों के साझा माँगपत्रक को भी सरकार और प्रशासन के सामने रखना होगा। यह गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा- बावल के समस्त मज़दूरों के बीच एक दीर्घकालिक इलाक़ाई वर्ग एकजुटता का बीज डालेगा। इस बीज के अंकुरण और इसके एक शक्तिशाली वृक्ष में तब्दील होने में समय लग सकता है। लेकिन हमें इसकी शुरुआत आज ही करनी होगी, हमें बीज आज ही डालना होगा। यह न सिर्फ आज के जारी संघर्ष को जीतने के लिए ज़रूरी है बल्कि भविष्य में इस पूरी औद्योगिक पट्टी के सभी भावी संघर्षों के लिए ज़रूरी है। सन् 2000 में मारुति के निजीकरण की शुरुआत के साथ ही इस पूरी औद्योगिक पट्टी में मज़दूर आन्दोलनों की एक श्रृंखला शुरू हुई है जो होण्डा, रिको, ओरियेण्ट क्राफ़्ट के संघर्षों से होते हुए आज मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों के संघर्ष तक पहुँच चुकी है। इस एक दशक से जारी संघर्ष के अनुभवों का निचोड़ हमें क्या बताता है? हमें दो औज़ारों की ज़रूरत है-पहला, इलाक़ाई मज़दूर वर्ग एकजुटता और इलाक़ाई मज़दूर उभार, और दूसरा, एक सूझबूझ वाला क्रान्तिकारी राजनीतिक नेतृत्व। अगर हम आने वाले समय में अपने ये दो औज़ार गढ़ सके तो यह न सिर्फ इस औद्योगिक पट्टी के मज़दूर आन्दोलन के लिए एक मिसाल बन जायेगी, बल्कि पूरे देश के मज़दूर आन्दोलन के सामने एक अनुकरणीय उदाहरण बन जायेगा। हम चुनावी पार्टियों (चाहे उनके झण्डे का रंग कोई भी हो!) की केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों पर भरोसा नहीं कर सकते। अब तक उनपर भरोसा करने का सबक क्या रहा है? सिर्फ और सिर्फ धोखा! हमें अपना व्यापक, शक्तिशाली और सूझबूझ वाला नेतृत्व स्वयं विकसित करना होगा। मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों का संघर्ष वह दहनभट्ठी बन सकता है, जिसमें तपकर इस पूरे इलाक़े के मज़दूरों का नेतृत्व उभर सकता है। आने वाले समय में, चाहे हमारे मौजूदा संघर्ष का नतीजा कुछ भी निकले, हमें समस्त ऑटोमोबाइल मज़दूरों की एक यूनियन बनाने की ओर आगे बढ़ना होगा, यानी कि हमें इस पूरे औद्योगिक सेक्टर के मज़दूरों की एक शक्तिशाली यूनियन बनाने की ओर आगे बढ़ना होगा। और इसके साथ ही हमें एक इलाक़ाई पैमाने की मज़दूर यूनियन को संगठित करने की तैयारी भी इस पूरी औद्योगिक पट्टी की मज़दूर बस्तियों में करनी होगी, जिसमें न सिर्फ ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूर शामिल हों, बल्कि इस पूरे औद्योगिक क्षेत्र के समस्त उद्योगों के मज़दूर शामिल हों। यानी हमें एक ओर तो मज़दूरों की सेक्टरगत यूनियनों का निर्माण करना होगा, वहीं हमें इस समूचे औद्योगिक क्षेत्र के सभी उद्योगों के मज़दूरों की एक इलाक़ाई यूनियन का निर्माण भी करना होगा। ये हमारे दूरगामी कार्यभार हैं। लेकिन तात्कालिक कार्यभारों को पूरा करते हुए हमें अपने दूरगामी कार्यभारों पर भी निगाह रखनी होगी और क्रमिक प्रक्रिया में उस ओर आगे बढ़ना होगा।

उपरोक्त तात्कालिक कार्यभारों और दूरगामी कार्यभारों को समझकर उसके अनुरूप योजना बनाये बग़ैर हम आगे नहीं बढ़ सकते। हमारे दुश्मन, यानी कि पूँजी की ताक़तें आगे के 20 साल के बारे में सोचकर योजना बनाती हैं, और उस योजना को एकजुट होकर अमल में उतारती हैं। लेकिन हम कहीं न कहीं अपनी तात्कालिक माँगों, तात्कालिक रणनीति और रणकौशल और तात्कालिक हितों तक ही सीमित रह जाते हैं। हम भी यदि आने वाले लम्बे समय की योजना बनाकर और दिशा तय करके नहीं चलेंगे, तो अगर हम कुछ लड़ाइयाँ जीत भी जायें तो हमारा आन्दोलन बहुत आगे नहीं जा पायेगा। यह लड़ाई श्रम की शक्तियों और पूँजी की शक्तियों के बीच लम्बे राजनीतिक संघर्ष का एक हिस्सा है। हमें उस लम्बे राजनीतिक संघर्ष को भी समझना होगा ताकि हम तात्कालिक योजना के लिए भी सही दिशा को अपना सकें।

 

मज़दूर बिगुल, नवम्‍बर-दिसम्‍बर  2012

 


 

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