मज़दूरों के ख़िलाफ़ एकजुट हैं पूँजी और सत्ता की सारी ताक़तें
सरकारी शह से मारुति सुज़ुकी ने 2000 मज़दूरों को निकाला
इस हमले का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए व्यापक मज़दूर एकता क़ायम करनी होगी

सम्पादक मण्डल

पिछली 18 जुलाई को देश की सबसे बड़ी कार कम्पनी मारुति सुज़ुकी के मानेसर स्थित कारख़ाने में हुई हिंसा और उसके बाद हुई घटनाओं ने देश के पूँजीवादी विकास के हिंस्र मज़दूर विरोधी चेहरे को एकदम नंगा कर दिया है। कारख़ाने में भड़की हिंसा और उसमें एक मैनेजर की मौत के असली कारणों पर पर्दा डालने और मज़दूरों को ही अपराधी व हत्यारा साबित करने की हर कोशिश के बावजूद अब यह बात साफ़ हो चुकी है कि इस घटना के लिए वास्तविक दोषी ख़ुद कम्पनी का मैनेजमेण्ट है। मगर इसकी गाज पूरी तरह मज़दूरों पर गिरी है। सैकड़ों मज़दूरों को बेरोज़गार कर दिया गया है, करीब 150 मज़दूर जेल में हैं, अनेक अब भी छिपते फिर रहे हैं, उनकी यूनियन ख़त्म कर दी गयी है और अब कारख़ाने में रोमन ग़ुलामों की तरह हथियारबन्द पहरेदारों के आतंक के तले काम कराने की शुरुआत हो चुकी है।

मारुति सुज़ुकी जैसी घटना न देश में पहली बार हुई है और न ही यह आख़िरी होगी। न केवल पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में, बल्कि पूरे देश में हर तरह के अधिकारों से वंचित मज़दूर जिस तरह हड्डियाँ निचोड़ डालने वाले शोषण और भयानक दमघोंटू माहौल में काम करने और जीने को मजबूर कर दिये गये हैं, ऐसे में इस प्रकार के उग्र विरोध की घटनाएँ कहीं भी और कभी भी हो सकती हैं। इसीलिए इन घटनाओं के सभी पहलुओं को अच्छी तरह जानना-समझना और इनके अनुभव से अपने लिए ज़रूरी सबक़ निकालना हर जागरूक मज़दूर के लिए, और सभी मज़दूर संगठनकर्ताओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।

करीब एक महीने की तालाबन्दी के बाद 21 अगस्त को जब कारख़ाना दुबारा खुला तो लगभग 2000 मज़दूरों को काम से बाहर किया जा चुका था। लगभग 1000 स्थायी मज़दूरों में से 500 को सीधे बर्ख़ास्त कर दिया गया और 2000 से अधिक ठेका मज़दूरों को भी काम पर नहीं लिया गया। कहा गया है कि इनमें से कुछ को स्थायी तौर पर भर्ती किया जायेगा लेकिन ज्यादातर को निकाला जाना तय है। हिंसा का बहाना लेकर मैनेजमेण्ट ने फैक्ट्री के भीतर एकदम फौजी अनुशासन लागू कर दिया है जिसमें हरियाणा सरकार उसकी पूरी मदद कर रही है। रैपिड एक्शन फोर्स के 600-700 जवान हर समय फैक्ट्री के भीतर तैनात हैं और कम्पनी अलग से हथियारबन्द पूर्व सैनिकों की एक फोर्स खड़ी कर रही है जो मज़दूरों पर निगरानी करेगी। घटना के तुरन्त बाद ही मैनेजमेण्ट और उसके भोंपू का काम करने वाले बुर्जुआ मीडिया ने सभी मज़दूरों को हिंसा पर उतारू भीड़ और अपराधियों के रूप में पेश करना शुरू कर दिया था। कम्पनी राज्य सरकार पर ज्यादा से ज्यादा मज़दूरों को गिरफ्तार करने के लिए दबाव डाल रही थी और ऐसा न होने पर अपना कारख़ाना हरियाणा से बाहर ले जाने की धमकी दे रही थी। हरियाणा पुलिस ने चन्द दिनों के भीतर ही 150 से भी ज्यादा मज़दूरों को गिरफ्तार कर लिया था जिनमें से ज्यादातर अब भी जेल में हैं। उन पर हत्या, हत्या का प्रयास, तोड़फोड़ जैसे संगीन जुर्मों की धाराएँ लगायी गयी हैं। मुक़दमों की पेशी के लिए अदालत लाये जाने के समय मज़दूरों को देखकर साफ़ ज़ाहिर होता है कि उन्हें बुरी तरह मारा-पीटा और यातनाएँ दी गयी हैं।

घटना के बाद शासक वर्गों के विभिन्न धड़ों की प्रतिक्रियाएँ उनके भीतर मज़दूरों के प्रति गहरी नफरत को साफ़ कर देती हैं। विप्रो कम्पनी के मालिक और ”समाजसेवी” के रूप में विख्यात अज़ीम प्रेमजी ने बयान दिया कि सरकार को मज़दूरों के साथ ”निर्ममतापूर्वक” निपटना चाहिए। उद्योगपतियों की लगभग सभी संस्थाओं ने भी कमोबेश इसी तरह की भाषा में मज़दूरों को सबक़ सिखाने की माँग की। पूँजीवादी मीडिया का बड़ा हिस्सा, ख़ासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया तो पहले से ही मज़दूरों को अपराधी घोषित करने में जुटा हुआ था। मानेसर के आसपास के गाँवों की तथाकथित महापंचायत में कम्पनी का भरपूर समर्थन करते हुए ऐलान किया गया कि इस इलाक़े में ”लाल झण्डे वालों” का प्रवेश बन्द कर दिया जायेगा। स्पष्ट है कि इस पंचायत में इन गाँवों के आम मेहनतकश नहीं बल्कि कुलकों-फार्मरों के प्रतिनिधि और उन नवधनाढ्यों की बड़ी जमात शामिल थी जिन्हें अमीर बनाने में मारुति सुज़ुकी जैसी कम्पनियों की बड़ी भूमिका रही है। ये वे लोग हैं जो कम्पनियों के ठेकेदार, लेबर सप्लायर, सिक्योरिटी कम्पनी चलाने वाले, ट्रांसपोर्टर और मज़दूरों के लॉज चलाने जैसे धन्‍धे से लाखों की कमाई करते हैं। शासक वर्गों की तमाम पार्टियों का रुख भी कम्पनी के ही पक्ष में था। हरियाणा सरकार तो शुरू से ही मज़दूरों के आन्दोलन का दमन करने में कम्पनी के एजेण्ट की तरह काम कर रही थी। उसके एक मन्त्री रणजीत सिंह सुरजेवाला ने तो मज़दूरों के स्वत:स्फूर्त गुस्से के विस्फोट को माओवादियों की साज़िश करार दिया। केन्द्र सरकार ने भी बिना किसी जाँच के घोषणा कर दी कि इस घटना के पीछे माओवादियों का हाथ है।

मानेसर की घटना आज देश में मज़दूरों के हालात को बताने वाली एक प्रातिनिधिक घटना है। इसने न सिर्फ देश के कारख़ानों के घुटनभरे माहौल और मज़दूरों में सुलगते आक्रोश को उजागर किया है, बल्कि सरकार, प्रशासनिक तन्त्र, पुलिस मशीनरी और कारपोरेट मीडिया के असली चेहरे को भी उघाड़कर नंगा कर दिया है। लेकिन मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों का संघर्ष और जुलाई की घटना देश के मज़दूर आन्दोलन के लिए भी एक महत्वपूर्ण घटना है और मज़दूर वर्ग के लिए इससे बेशक़ीमती सबक़ निकलते हैं। केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें हमेशा की तरह अपनी दुकानदारी बचाये रखने के लिए कुछ रस्मी क़वायदें कर रही हैं और अपने को वामपन्थी क्रान्तिकारी कहने वाले ज्यादातर संगठन और बुद्धिजीवी एक बार फिर तमाम तरह के भ्रमों और भटकावों के शिकार हैं। इन पर हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे। लेकिन पहले इस घटना और इसकी पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बातें करना ज़रूरी है।

मानेसर फैक्ट्री में हुई हिंसा के लिए मैनेजमेण्ट ज़िम्मेदार है, मज़दूर नहीं

18 जुलाई को हिंसा की जो घटना हुई वह किसी भी तरह से पूर्व नियोजित नहीं थी जैसाकि मैनेजमेण्ट और सरकार का दावा है। तमाम ब्यौरों से यह स्पष्ट है कि घटना की शुरुआत 18 जुलाई की सुबह तब हुई जब वेतन वृद्धि में हो रही देरी को लेकर बहस के दौरान एक सुपरवाइज़र ने एक दलित मज़दूर को जातिवादी गाली दी जिसका उस मज़दूर ने प्रतिवाद किया। जब मैनेजमेण्ट ने उस मज़दूर को सस्पेण्‍ड कर दिया लेकिन सुपरवाइज़र के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गयी तो मज़दूरों ने इसका सामूहिक विरोध करना शुरू कर दिया। उन्होंने मारुति सुज़ुकी वर्कर्स यूनियन (एम.एस.डब्ल्यू.यू.) पर हस्तक्षेप करने के लिए दबाव डाला और यूनियन नेताओं तथा मैनेजमेण्ट के अफसरों के बीच बातचीत शुरू हुई। बातचीत के दौरान मैनेजमेण्ट लगातार अड़ियल रवैया अपनाये रहा और घण्टों तक कोई नतीजा न निकलते देखकर मज़दूरों में असन्तोष बढ़ रहा था। उन्हें यह भी लग रहा था कि इस घटना को मज़दूरों को और अधिक प्रताड़ित करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। उनकी आशंका अनायास नहीं थी क्योंकि पिछले साल अक्टूबर में हुए समझौते के बाद से ही मज़दूरों को तरह-तरह से परेशान और प्रताड़ित करने का सिलसिला चल रहा था। मज़दूरों का कहना है कि दोपहर करीब तीन बजे मैनेजमेण्ट ने सैकड़ों भाड़े के गुण्डों (बाउंसरों) को बुला लिया जिन्होंने मज़दूरों के साथ मारपीट शुरू कर दी। इसके बाद मज़दूरों ने भी जवाबी कार्रवाई की और औज़ारों तथा कार के पुर्जों सहित जो भी उनके हाथ लगा उसे लेकर गुण्डों और उनका साथ दे रहे सुपरवाइज़रों तथा स्टाफ के अन्य लोगों पर पिल पड़े। यह मज़दूरों में महीनों से सुलग रहे गुस्से का विस्फोट था। ‘आउटलुक’ और ‘फ्रंटलाइन’ जैसी पत्रिकाओं ने बाउंसरों की मौजूदगी की पुष्टि की है। विभिन्न रिपोर्टों से साफ़ हो चुका है कि हिंसा को भड़काने और फैलाने के लिए मैनेजमेण्ट ज़िम्मेदार था। कई प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार मैनेजरों से कहीं अधिक संख्या में मज़दूर घायल हुए थे। मगर इनकी कहीं चर्चा तक नहीं हुई। अब तक किसी ने इन ब्यौरों का खण्डन नहीं किया है। हालाँकि अगर मैनेजमेण्ट का दावा सही होता तो उसे फैक्ट्री में चप्पे-चप्पे पर लगे कैमरों की रिकार्डिंग सार्वजनिक कर देनी चाहिए थी। गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा की पूरी औद्योगिक पट्टी में बाउंसरों और गुण्डों को भाड़े पर रखना मैनेजमेण्ट की एक आम नीति है। उन्हें हड़ताल तोड़ने, अगुआ मज़दूरों और यूनियन कार्यकर्ताओं पर हमले करवाने, मज़दूरों को आम तौर पर डरा-धमकाकर रखने तथा किसी भी तरह से आवाज़ उठाने से रोकने के लिए लगभग सभी कारखानों में इस्तेमाल किया जाता है।

पिछले वर्ष मारुति में जून से लेकर अक्टूबर तक तीन चरणों में चले लम्बे आन्दोलनों के दौरान मज़दूरों की तरफ से हिंसा की एक भी घटना नहीं हुई थी। जून में 13 दिन तक मज़दूर कारख़ाने के अन्दर थे, फिर सितम्बर में 33 दिन तक कारख़ाने के बाहर मज़दूर डेरा डाले रहे और अक्टूबर में एक बार फिर कई दिनों तक प्लाण्ट के कई हिस्से मज़दूरों के कब्ज़े में रहे। मैनेजमेण्ट के उकसावों के बावजूद कभी तोड़-फोड़ और हिंसा की एक भी घटना नहीं हुई। फिर आख़िर मज़दूरों का आक्रोश इस कदर क्यों फूट पड़ा? पिछले वर्ष अक्टूबर में मैनेजमेण्ट ने जिस तरह से पैसे, सरकारी दबाव और झूठे वायदों के मेल से समझौता कराया था और मारुति सुज़ुकी इम्प्लाइज़ यूनियन के पूरे नेतृत्व को ख़रीदकर यूनियन को ख़त्म कर दिया था, उसी से स्पष्ट हो गया था कि उसके इरादे नेक नहीं हैं। लगातार हो रहे नुकसान को रोकने के लिए वह किसी तरह हड़ताल ख़त्म कराना चाहता है लेकिन मज़दूरों की माँगों का पूरा करने की उसकी कोई मंशा नहीं है। उसके बाद से बार-बार के वायदों के बावजूद वेतन बढ़ाने के सवाल को मैनेजमेण्ट ने तरह-तरह के बहानों से लटकाकर रखा था। मज़दूरों पर काम का जो भयंकर बोझ पहले से था उसे कम करने के बजाय बढ़ाया जा रहा था और तरह-तरह से उनका उत्पीड़न लगातार बढ़ रहा था। सुपरवाइज़रों और मैनेजरों द्वारा गाली-गलौच, धमकाना और तरह-तरह से मानसिक उत्पीड़न का सिलसिला जारी था। पिछली यूनियन को मैनेजमेण्ट द्वारा ख़त्म कर देने के बाद मज़दूरों ने जो नयी यूनियन बनायी थी उसके नेतृत्व को बहुत से मज़दूर समझौतापरस्त या कमज़ोर मानते थे और वह उनकी लड़ाई पुरज़ोर ढंग से लड़ने में अक्षम दिख रही थी। मैनेजमेण्ट भी यूनियन के नेताओं को मज़दूरों की नज़र में नीचा गिराने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ता था। यही वे परिस्थितियाँ थीं जिनके चलते मज़दूरों में हताशा और असन्तोष गहराता जा रहा था और 18 जुलाई को मैनेजमेण्ट की हरकतों ने उसे बढ़ाने और फिर एक उग्र, अराजक विस्फोट के रूप में फट पड़ने के लिए बाध्य किया।

इस पूरे घटनाक्रम में पुलिस की भूमिका कम्पनी के भाड़े के एजेण्ट जैसी रही है। 18 जुलाई को दोपहर में ही कम्पनी ने पुलिस बुला ली थी और एक डी.एस.पी. के नेतृत्व में पुलिस के करीब 300 जवान फैक्ट्री के भीतर मौजूद थे। लेकिन हिंसा को रोकने के लिए पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की। अब उसी डी.एस.पी. को, जिसका आचरण स्पष्ट सन्देह के घेरे में है, इस मामले की जाँच की ज़िम्मेदारी दे दी गयी है। चौतरफा माँग के बावजूद हरियाणा सरकार ने इस मामले की उच्च स्तरीय जाँच का आदेश नहीं दिया है। मारुति सुज़ुकी के मैनेजमेण्ट को ख़ुश करने में लगी सरकार के दबाव में पुलिस शिकारी कुत्तों की तरह मज़दूरों की धरपकड़ करने, उन्हें टॉर्चर करने और उनके घरवालों को डराने-धमकाने में लगी रही है। पूरे गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा औद्योगिक इलाक़े में पहले से ही क़ानून नाम की कोई चीज़ नहीं है। सारे क़ानून फैक्ट्री मालिकों और इलाक़े के नवधनाढ्यों की जेब में रहते हैं। हरियाणा में करीब तीन दशक पहले बंसीलाल की सरकार के दौरान पूँजीपतियों को निवेश के लिए आमन्त्रित करने के लिए यह लुभावना प्रस्ताव दिया गया था कि यहाँ ट्रेड यूनियन गतिविधियों पर कसकर लगाम रखी जायेगी और किसी भी तरह से श्रमिक अशान्ति पैदा नहीं होने दी जायेगी। तब से राज्य की पुलिस और प्रशासनिक तन्त्र इस काम में माहिर हो चुके हैं और समय-समय पर पूँजीपतियों के प्रति अपनी वफादारी का बर्बर प्रदर्शन करते रहे हैं। 2005 में होण्डा के मज़दूरों पर हुए पाशविक दमन को कौन भूल सकता है?

 

इस महत्वपूर्ण आन्दोलन पर संजीदगी से विचार करना और आगे की लड़ाई के लिए सबक़ निकालना ज़रूरी है

मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों का संघर्ष हमारे समय का एक महत्वपूर्ण आन्दोलन है। एक तो इसलिए कि यह पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के एक बहुत अहम सेक्टर, ऑटोमोबाइल उद्योग, के मज़दूरों का आन्दोलन है जिसमें आज देश के करीब एक करोड़ मज़दूर लगे हुए हैं। दूसरे, यह आन्दोलन एक ऐसे समय में उभरा है जब देश में आम तौर पर मज़दूरों की लड़ाई बिखरी हुई है और मज़दूर आन्दोलन हताशा और ठहराव का शिकार है। राजधानी के नज़दीक और एक बहुत बड़ी औद्योगिक पट्टी के बीचोबीच होने के नाते भी इसने पूरे देश ही नहीं, दुनिया भर में लोगों का ध्यान खींचा है और व्यापक समर्थन भी हासिल किया है। इसके चलते मीडिया से लेकर सरकार तक को अपना रुख कुछ बदलना पड़ा है। अनेक बुर्जुआ अख़बारों में मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों की काम की भयंकर स्थितियों और शोषण की तस्वीर उजागर करने वाली रिपोर्टें प्रकाशित हुई हैं और उद्योगपतियों के कुछ संगठन भी अब कह रहे हैं कि कम्पनी को अपने मज़दूरों की हालत पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। केन्द्र सरकार के मन्त्री और केन्द्रीय श्रम मन्त्रालय के आला अफसर भी फरमा रहे हैं कि मज़दूरों के उग्र संघर्षों की बढ़ती घटनाओं की जड़ में कम्पनियों का बढ़ता लालच और अधिकाधिक काम ठेका मज़दूरों से कराने की प्रवृत्ति है। कहने की ज़रूरत नहीं कि इन लोगों का अचानक हृदय परिवर्तन नहीं हो गया है और वे मज़दूरों के हितैषी नहीं बन गये हैं। इनके बदले रुख का सीधा कारण यह है कि बेलगाम शोषण-दमन-उत्पीड़न और अपमान के विरुद्ध देशभर में जगह-जगह मज़दूरों के उग्र विरोध फूट पड़ने की घटनाओं से वे घबराये हुए हैं।

इन सभी घटनाओं में एक और अहम बात यह है कि दशकों से पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पंक्ति का काम बख़ूबी कर रहे नकली वामपन्थियों की ट्रेड यूनियनें मज़दूरों के आक्रोश पर पानी के छींटे डालने और उन्हें बरगला-फुसलाकर शान्त रखने में ज्यादा से ज्यादा नाकाम और अप्रासंगिक होती जा रही हैं। इसलिए भी शासक वर्गों के दूर तक सोचने वाले नुमाइन्दे ज्यादा चिन्तित हैं। मारुति सुज़ुकी ने भी कहा है कि धीरे-धीरे कम्पनी में ठेके की व्यवस्था समाप्त की जायेगी, या अधिकतर मज़दूरों को स्थायी अनुबन्ध पर रखा जायेगा। तय है कि मारुति के मज़दूरों के जुझारू संघर्ष की बदौलत लम्बे दौर में मज़दूरों को कुछ उपलब्धियाँ ज़रूर हासिल होंगी। कोई भी लड़ाकू संघर्ष पूरी तरह निष्फल कभी नहीं होता है, भले ही तात्कालिक तौर पर उसे कुचल दिया जाये।

पूँजी और श्रम की ताक़तों के बीच लम्बी लड़ाई में मज़दूर जीतने से पहले कई बार हारते हैं। ख़ासकर ऐसे समय में, जब शासक वर्ग पूँजी की ताक़तों के पक्ष में एकजुट और आक्रामक हो, तो ऐसे संघर्षों में तात्कालिक हार कतई अप्रत्याशित नहीं है। लेकिन ऐसी हारों को जीत में बदलने के लिए ज़रूरी है कि सच को स्वीकार किया जाये और आन्दोलन को एक संजीदा, वैज्ञानिक नज़रिये से समझा जाये, इसकी कमियों-कमज़ोरियों और मज़बूत पक्षों की गहरी आलोचनात्मक दृष्टि से पड़ताल की जाये। यह काम आज इसलिए भी बेहद ज़रूरी हो गया है क्योंकि मज़दूर वर्ग की स्वत:स्फूर्तता का गैर-आलोचनात्मक उत्सव मनाने की प्रवृत्ति देखी जा रही है। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन के कुछ हिस्सों के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के राजनीतिक नौदौलतिये भी मंच से वीर रस की कविता पढ़ने वाले सड़कछाप कवियों की तरह मानेसर में हुई हिंसा को मज़दूरों के संघर्ष के एक रूप की तरह महिमामण्डित करने में लगे हुए हैं। अपने जानलेवा हालात के विरुद्ध मज़दूरों के अराजक, अनियोजित विस्फोट तो उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से ही होते रहे हैं और जहाँ भी मज़दूर आन्दोलन अच्छी तरह संगठित नहीं है वहाँ होते ही रहेंगे। मज़दूरों के हिरावल दस्ते, यानी क्रान्तिकारियों का काम उन्हें यह बताना है कि संगठित संघर्ष ही एकमात्र रास्ता है। 18 जुलाई को मज़दूरों ने जो किया उसके लिए उन्हें मजबूर कर दिया गया था, अपने ऊपर होने वाले हमले पर उन्हें जवाबी कार्रवाई तो करनी ही थी। लेकिन जो लोग भावविह्वल होकर इसका स्वागत कर रहे हैं, जैसे यह संघर्ष का कोई रूप हो, वे राजनीतिक रूप से दिवालिये हैं और ऐसे ”जनता के मित्र” मज़दूर आन्दोलन को नुकसान ही पहुँचायेंगे। मज़दूरों की स्वत:स्फूर्तता की यह पूजा हमेशा ही अन्तत: दो दिशाओं में जाती है। एक रास्ता अर्थवाद और ट्रेडयूनियनवाद की ओर जाता है और दूसरा अराजकतावाद की दिशा में। दोनों की तार्किक परिणतियाँ एक ही होती हैं जो मज़दूर आन्दोलन को विनाश के गड्ढे में ले जाती हैं।

स्वत:स्फूर्तता की पूजा की इस प्रवृत्ति के कारणों को समझना मुश्किल नहीं है। इसका एक पहलू निश्चित ही राजनीतिक समझ की कमी का है और दूसरा पहलू आन्दोलन के ठहराव-बिखराव से पैदा हुई निराशा और पस्तहिम्मती का है। जिन लोगों के पास मज़दूर वर्ग को जागृत, संगठित, गोलबन्द करने के लम्बे और श्रमसाध्य काम को व्यवस्थित ढंग से करने की न तो समझ है और न ही कोई योजना या कार्यक्रम, वे ही अधकचरे, भाववादी क्रान्तिकारियों की तरह ऐसे संघर्षों से अभिभूत हो उठते हैं और एक ज़िम्मेदार हिरावल की भूमिका निभाने की कोशिश करने की जगह उनका यशगान करने को ही अपना कर्तव्य मान लेते हैं। विज्ञान पर पकड़ न होने के कारण वे ख़ुद मज़दूरों को व्यापक संघर्षों के लिए संगठित कर पाने के आत्मविश्वास की कमी से ग्रस्त हैं और मज़दूरों की स्वत:स्फूर्त कार्रवाइयों में आशा के स्रोतों की तलाश करते रहते हैं। ऐसे लोगों को स्वत:स्फूर्तता के पीछे भागने की प्रवृत्ति के विरुद्ध लेनिन के लेखन को ग़ौर से पढ़ना चाहिए।

 

मारुति के आन्दोलन की कमज़ोरियाँ और वाम क्रान्तिकारियों के दृष्टिदोष

मारुति का आन्दोलन आज जिस मुकाम पर पहुँचा है उसे पिछले वर्ष तीन चरणों में चले आन्दोलन के दौरान हुई ग़लतियों से काटकर नहीं समझा जा सकता। मारुति के मज़दूरों का आन्दोलन उसी ट्रेडयूनियनवादी राजनीति के दायरे में बँधा रह गया जिसने पिछले कई दशकों में भारत के मज़दूर आन्दोलन को कमज़ोर करते-करते पंगु बना डाला है। मज़दूर कभी इस तो कभी उस केन्द्रीय ट्रेड यूनियन (एटक, सीटू, एचएमएस) के प्रभाव में रहे और उनके बीच से उभरा नया नेतृत्व भी जल्दी ही एक नयी क़िस्‍म की ट्रेड यूनियन नौकरशाही में ढल गया। वे अपने आन्दोलन को अपनी फैक्ट्री की सीमाओं में बाँधकर ही देखते रहे और अपनी लड़ाई की कठिनाइयों को समझने में विफल रहे। इसी वजह से वे पूरे इलाक़े के मज़दूरों के साथ व्यापक वर्ग एकता क़ायम करने और अपने आन्दोलन को बहुत व्यवस्थित तथा योजनाबद्ध ढंग से चलाने की ज़रूरत को समझने में भी चूक गये।

‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ ने जून में हुई पहली हड़ताल के समय से ही लगातार मज़दूरों के बीच इस बात का प्रचार किया कि आन्दोलन को चरणबद्ध ढंग से संचालित करने के लिए एक ठोस कार्यक्रम होना चाहिए और आन्दोलन को गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल के पूरे ऑटोमोबाइल बेल्ट में विस्तारित किया जाना चाहिए। दस्ता के कार्यकर्ता मारुति सुज़ुकी इम्प्लाइज़ यूनियन (एम.एस.ई.यू.) के नेतृत्व और आम मज़दूरों को बार-बार बताते रहे कि उनकी लड़ाई प्रबन्धन के कुछ भ्रष्ट अधिकारियों और स्थानीय श्रम विभाग से नहीं थी, जैसा कि बहुतेरे मज़दूर सोचते थे। उनकी लड़ाई सुज़ुकी कम्पनी, हरियाणा सरकार और केन्द्रीय सरकार तथा नवउदारवादी नीतियों से है। जापानी कम्पनियाँ दुनियाभर में अपनी फासीवादी प्रबन्धन तकनीकों के लिए कुख्यात हैं और मज़दूरों को कुचलने के लिए वे किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहती हैं। हरियाणा को विदेशी निवेश की पसन्दीदा जगह बनाने के लिए, राज्य सरकार ने हमेशा ही अपना नंगा मज़दूर-विरोधी चेहरा दिखाया है, चाहे वह 2006 में होण्डा मज़दूरों की हड़ताल रही हो या अन्य हालिया मज़दूर संघर्ष। भारत सरकार जिन आर्थिक नीतियों को थोप रही है वे मज़दूरों के अतिशोषण के बिना लागू ही नहीं की जा सकती हैं। पूरी दुनिया के पैमाने पर मज़दूरों के अधिकारों, जिसमें यूनियन बनाने का अधिकार भी शामिल है, पर हमले किये जा रहे हैं। इसलिए मारुति के मज़दूरों पर इस हमले का मुकाबला केवल मज़दूरों की व्यापक वर्ग एकता और संघर्ष को सुनियोजित और संगठित ढंग से चलाकर ही किया जा सकता है। बिगुल के साथियों ने आन्दोलन को चरणबद्ध ढंग से चलाने के लिए कई ठोस सुझाव भी उनके सामने रखे। उन्होंने मारुति के साथियों को बताया कि उनके समर्थन में मानेसर-गुड़गाँव में पर्चे बाँटते और सभाएँ करने के दौरान उनका अनुभव यह रहा है कि व्यापक मज़दूर आबादी उनके आन्दोलन का समर्थन करती है मगर इस मौन समर्थन को संघर्ष की एक प्रबल शक्ति में तब्‍दील करने के लिए सक्रिय प्रयासों और संघर्ष के योजनाबद्ध कार्यक्रम की ज़रूरत है। मारुति के आन्‍दोलन में उठे मुद्दे गुड़गाँव के सभी मजदूरों के साझा मुद्दे हैं  लगभग हर कारख़ाने में अमानवीय वर्कलोड, जबरन ओवरटाइम, वेतन से कटौती, ठेकेदारी, यूनियन अधिकारों का हनन और लगभग ग़ुलामी जैसे माहौल में काम कराने से मजदूर त्रस्‍त हैं और समय-समय पर इन माँगों को लेकर लड़ते रहे हैं। बुनियादी श्रम क़ानूनों का भी पालन कहीं नहीं होता। इन माँगों पर अगर मारुति के मजदूरों की ओर से गुडगाँव, मानेसर, धारूहेड़ा, बावल बेल्‍ट के लाखों मज़दूरों का आह्वान किया जाता तो एक व्‍यापक जन-गोलबन्‍दी की जा सकती थी और राज्य पर भारी दबाव बनाया जा सकता था। ख़ासकर सितम्बर 2011 में 33 दिन तक चली तालाबन्दी के दौरान मारुति के हज़ारों युवा मज़दूर खाली बैठे थे क्योंकि उनके पास आन्दोलन का कोई काम नहीं था। गेट पर पारी बाँधकर धरना देने के लिए कुछ सौ मज़दूर पूरी मुस्तैदी से तैनात रहते थे। लेकिन उनके अलावा एक बड़ी संख्या ऐसी थी जिसकी टीमें बनाकर व्यापक प्रचार अभियान चलाया जा सकता था। एमएसईयू का नेतृत्व इस काम के महत्व को कितना कम करके देखता था इसे इस तथ्य से ही समझा जा सकता है कि इतने लम्बे चले आन्दोलन के दौरान उनकी ओर से कोई पर्चा या पोस्टर तक नहीं निकाला गया।

केन्द्रीय यूनियनों की तो जुझारू संघर्ष की नीयत ही नहीं थी और न अब उनमें ऐसा करने का माद्दा रह गया है। वे अपने पार्टी मुखपत्रों और ट्रेड यूनियन बुलेटिनों में मारुति के मज़दूरों के बारे में बस लम्बे-चौड़े लेख लिखते रहे और उनकी स्‍थानीय इकाइयों के लोग नेतृत्व हथियाने की आपसी होड़ा-होड़ी में लगे रहे। मगर वाम क्रान्तिकारी संगठन और बुद्धिजीवी भी न केवल इस बात को समझने में नाकाम रहे कि फैक्ट्री की सीमाओं से बँधे रहकर आन्दोलन मैनेजमेण्ट और राज्य की सम्मिलित शक्ति से लड़कर जीत नहीं पायेगा, बल्कि उल्टे उन्होंने ‘बिगुल’ पर आरोप लगाया कि ये लोग मज़दूरों को हतोत्साहित कर रहे हैं। उनका कहना था कि जब कोई संघर्ष चल रहा हो तब उसके प्रति आलोचनात्मक बातें नहीं की जानी चाहिए। इनकी बात का यही मतलब निकलता था कि अगर कहीं लड़ रहे मज़दूर ग़लतियाँ भी कर रहे हों तो उस वक्त क़ेवल किनारे खड़े होकर थपड़ी पीटना और आह-वाह करना चाहिए और जब वह आन्दोलन अपनी कमज़ोरियों के कारण असफलता का शिकार हो जाये तब उसकी आलोचना और मीनमेख करनी चाहिए (जैसाकि ऐसे कुछ लोग अब कर रहे हैं)! मारुति के यूनियन नेतृत्व की कोई कमज़ोरी ऐसे लोगों को तब नज़र ही नहीं आ रही थी। सोनू गुज्जर और शिव कुमार जैसे एमएसईयू के नेताओं का भारत में मज़दूर वर्ग के संघर्ष के नये पथप्रदर्शकों के रूप में यशगान किया जा रहा था। जब पूरा यूनियन नेतृत्व आन्दोलन की पीठ में छुरा भोंककर लाखों रुपये लेकर कम्पनी ही छोड़ गया तब भी ये लोग उसे केवल कम्पनी और सरकार द्वारा आज़माये गये साम-दाम-दण्ड-भेद के हथकण्डों का नतीजा बताते रहे और शुरू से मौजूद रही कमज़ोरियों की ओर से आँखें मूँदे रहे।

 

अराजक विस्फोट नहीं हो सकते हैं मज़दूर वर्ग का रास्ता

आज संकटग्रस्त पूँजीवाद और राज्यसत्ता की बढ़ती आक्रामकता के ख़िलाफ मज़दूरों के ग़ुस्से के विस्फोट की घटनाएँ जगह-जगह हो रही हैं। मारुति की घटना से पहले तमिलनाडु के श्रीपेरम्बुदूर, आन्ध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम, एनसीआर के साहिबाबाद आदि जगहों पर दमन-उत्पीड़न के खिलाफ मज़दूरों के हिंसक विरोध की घटनाएँ हुई हैं। गुड़गाँव में भी पिछले अप्रैल महीने में एक के बाद एक दो बड़ी घटनाएँ हुईं जिनमें हज़ारों मज़दूरों ने कम्पनी के अफसरों और पुलिस बल को खदेड़कर रख दिया। मगर मज़दूर भी अपने अनुभवों से जानते हैं कि ग़ुस्से के ऐसे अन्धे विस्फोटों से आगे का कोई रास्ता नहीं निकलता। दूसरी ओर यह भी सच है कि आज जिन हालात में मज़दूर जी रहे हैं और काम कर रहे हैं वे उन्हें ऐसी बग़ावतों की ओर लगातार धकेल रहे हैं। अगर मज़दूर वर्ग को पूँजीवादी लूट के ख़िलाफ दूरगामी लड़ाई के लिए और साथ ही मज़दूर वर्ग की तात्कालिक आर्थिक और राजनीतिक माँगों के लिए सही ढंग से संगठित नहीं किया जायेगा और योजनाबद्ध तैयारी के साथ संघर्षों में नहीं उतारा जायेगा तो ऐसी छोटी-छोटी बग़ावतें होती रहेंगी और कुचली जाती रहेंगी।

हम व्यापक जन विद्रोहों के तूफानों का स्वागत करते हैं लेकिन व्यापक जन विद्रोह स्वत:स्फूर्त तरीक़े से पैदा नहीं हो जाते बल्कि इसके लिए तैयारी करनी पड़ती है। मेहनतकश जनता के जीने के हालात जब कठिन से कठिनतर होते जायें और कोई क्रान्तिकारी विकल्प सामने मौजूद न हो तो अक्सर जनउभारों के रूप में जनता का ग़ुस्सा फूट पड़ता है जो कभी-कभी पूरे देश या बड़े इलाक़े में फैल जाते हैं। निश्चित ही क्रान्तिकारी ताक़तों को ऐसे जनउभारों की लहरों में कूद पड़ना चाहिए और उसे क्रान्तिकारी दिशा देने की पूरी कोशिश अपनी ताक़त के हिसाब से करनी चाहिए। लेकिन एक जनउभार और स्वत:स्फूर्त ढंग से एक ही कारखाने में होने वाले विद्रोह के बीच फर्क किया जाना चाहिए।

मज़दूरों ने पूँजीवादी शोषण के ख़िलाफ शताब्दियों की अपनी लड़ाई के दौरान क़दम-ब-क़दम अपने अनुभवों से लड़ना सीखा है। शुरू-शुरू में जब उन्हें पूँजीवादी शोषण की समझ नहीं थी तो वे अक्सर मशीनों को ही अपनी बर्बादी का कारण समझ लेते थे और मशीनों की तोड़फोड़ या कारखानों को आग लगा देने के रूप में उनका विद्रोह सामने आता था। लेकिन जल्दी ही उन्हें लग गया कि इससे उनकी समस्याओं का हल नहीं होगा और उन्होंने संगठित होकर लड़ने की ज़रूरत को समझ लिया। मार्क्‍सवाद के रूप में एक वैज्ञानिक विचारधारा से लैस होने के बाद मज़दूर वर्ग को वह हथियार मिल गया जिसके बूते पर वह अपनी लड़ाई को अंजाम तक यानी कि पूँजीवाद को ख़त्म कर समाजवाद लाने तक पहुँचा सकता था। मज़दूर आन्दोलन के लम्बे इतिहास के अनुभवों से समृद्ध इस विज्ञान ने मज़दूर वर्ग को अपने दोस्तों और दुश्मनों की सही-सही पहचान करने, अपनी लड़ाई की रणनीति और रणकौशल चुनने और सही ढंग से संगठित होने का ज्ञान दिया है। भारत जैसे देशों में पूँजीवाद के बर्बर शोषण और उत्पीड़न का सामना कर रहा मज़दूर वर्ग आज वैचारिक रूप से निहत्था खड़ा है क्योंकि उसे वैज्ञानिक विचारधारा से लैस करने का ज़िम्मा जिन शक्तियों के कन्धे पर था वे अपनी ज़िम्मेदारी निभाने में नाकाम रही हैं। ऐसे में किसी-किसी कारखाने में मज़दूरों के क्रोध का फूट पड़ना स्वाभाविक है। लेकिन अगर इससे मज़दूर वर्ग के लिए आवश्यक सबक़ न निकाले जायें और अनालोचनात्मक ढंग से इसे ”क्रान्तिकारी हिंसा” के रूप में महिमामण्डित किया जाये, इसे वर्ग संघर्ष का एक रूप बताया जाये, तो यह मज़दूर वर्ग को भ्रमित करना ही होगा।

आज तमाम अग्निमुखी बुद्धिजीवियों की बातें सुनकर हमें याद आता है कि रूस में 1905-07 के दौरान बहुत सारे भावुक निम्न पूँजीवादी बुद्धिजीवी मार्क्‍सवादी बन गये थे। लेनिन ने भी इसकी चर्चा की है कि जब क्रान्ति कुचल दी गयी तो ऐसे तमाम भाववादी ”मार्क्‍सवादी” निम्न पूँजीवादी बुद्धिजीवी भाग खड़े हुए और बौद्धिक अरण्यरोदन करते हुए मज़दूरों, क्रान्तिकारियों, सरकार और पूरी दुनिया को कोसने लगे। आज भी कुछ ऐसा ही दृश्य दिख रहा है जब चारों ओर आन्दोलन ठहराव और बिखराव के शिकार हैं और क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति लहर हावी है, क्रान्तिकारी शक्तियाँ वैचारिक विभ्रम में हैं, तो कुछ लोग विश्लेषण के नाम पर अनर्गल बुद्धिविलास में लगे हुए हैं। मज़दूर वर्ग के हिरावल अगर ईमानदारी से अध्ययन-मनन करेंगे और क्रान्तिकारी व्यवहार से जुड़े रहेंगे तो वे तो देर-सबेर सही रास्ते की तलाश कर लेंगे, लेकिन ऐसे बात-बहादुरों का क्या हश्र होगा, यह इतिहास पहले कई बार बता चुका है।

आज पूँजीवाद का संकट लगातार गहरा रहा है। लगातार फैलती मन्दी की मार से पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाएँ सिकुड़ रही हैं और भारत की अर्थव्यवस्था भी संकट के दलदल में धँस रही है। ऐसे में हमेशा की तरह संकट की सबसे अधिक मार मज़दूरों को ही झेलनी है। उत्पादन की पूरी लागत में मज़दूरी का हिस्सा लगातार घटता जा रहा है और आने वाले समय में मज़दूरों के अधिकारों पर और भी चोट पड़नी है। आज भी 95 प्रतिशत से अधिक मज़दूरों को न्यूनतम क़ानूनी अधिकार तक हासिल नहीं हैं। पूँजीवादी सरकारें लोकतन्त्र के तमाम मुखौटे उतारकर पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी की भूमिका पूरी बेशर्मी से निभा रही हैं। ऐसे में मज़दूर वर्ग के सामने एक ही रास्ता है कि वह दलाल नेतृत्व को धता बताकर योजनाबद्ध तरीक़े से संगठित होने की शुरुआत करे और छोटी-छोटी लड़ाइयों से सीखते हुए बड़ी लड़ाई की तैयारी में जुट जाये।

…जो कोई भी मज़दूर आन्दोलन की स्वयंस्फूर्ति की पूजा करता है, जो कोई भी ”सचेतन तत्व” की भूमिका को, सामाजिक-जनवाद (मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी राजनीति — सं.) की भूमिका को कम करके आँकता है, वह चाहे ऐसा करना चाहता हो या न चाहता हो, पर असल में वह मज़दूरों पर बुर्जुआ विचारधारा के असर को मज़बूत करता है। — लेनिन (‘क्या करें?’ पुस्तक से)

 

मज़दूर बिगुल, अगस्त-सितम्बर 2012

 


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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