भारतीय उपमहाद्वीप में साम्प्रदायिक उभार और मज़दूर वर्ग

आनन्द सिंह

हाल के दिनों में भारत सहित समूचे दक्षिण एशिया में कई ऐसी घटनाएँ घटीं जिनकी वजह से धार्मिक कट्टरपन्थ की राजनीति में प्राण-संचार सा हो गया गया है। असम के बोडोलैण्ड क्षेत्र में फैली बर्बर क़िस्म की जनजातीय और साम्प्रदायिक हिंसा अभी थमी भी नहीं थी कि मुम्बई के आज़ाद मैदान में इस्लामिक कट्टरपन्थियों ने बोडोलैण्ड में मुसलमानों के ख़िलाफ़ दंगों और और म्यांमार (बर्मा) में रोहिंग्या मुस्लिमों के कथित नरसंहार के विरोध में प्रदर्शन के दौरान जबर्दस्त उत्पात मचाया। इसके बाद दक्षिण भारत के कुछ शहरों खासकर बंगलुरु, चेन्नई और हैदराबाद में ‘एसएमएस’ और ‘सोशल मीडिया’ के ज़रिये फैलायी गयी अफ़वाहों द्वारा पूर्वोत्तर के राज्यों के प्रवासी नागरिकों को डराये-धमकाने जाने के बाद एक अभूतपूर्व स्थिति देखने को आयी जब हज़ारों की संख्या में प्रवासी नागरिक ख़ौफ में आकर आनन-फानन में अपने घरों की तरफ रवाना हो गये। उधर पाकिस्तान में भी अल्पसंख्यक हिन्दुओं के उत्पीड़न की कई ख़बरें मीडिया में छायी रहीं और यह देखने में आया कि इधर कुछ अर्से से हिन्दुओं के पाकिस्तान से भारत की ओर पलायन की प्रक्रिया ने रफ़्रतार पकड़ ली है। इस समूचे घटनाक्रम से भारत के हिन्दू कट्टरपन्थियों की भी बाँछें खिल उठीं हैं और उन्होंने भी पारम्परिक और आधुनिक माध्यमों से भारत में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ विषवमन करने के संगठित अफ़वाह तन्त्र में जबर्दस्त तेजी ला दी है और पूरे देश या यूँ कहें कि समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की एक नयी लहर सी चल पड़ी है। इसके अलावा देश के भीतर क्षेत्रीय फ़ासीवादी ताक़तों के उभार के भी स्पष्ट संकेत मिले जब राज ठाकरे के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के गुण्डों ने एक ओर आज़ाद मैदान की घटना के विरोध में बिना अनुमति के रैली निकाल कर हिन्दुत्व की राजनीति की ओर झुकाव को जगजाहिर किया। वहीं दूसरी ओर मुम्बई में उत्तर भारतीयों और खासकर बिहारियों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने के पुराने कीर्तिमान तोड़कर उनको अपने ही देश में घुसपैठिया क़रार दिया। तमिलनाडु में भी तमिल अन्धराष्ट्रवादी भावनाओं को हवा देने के मक़सद से जयललिता की अन्ना द्रमुक सरकार ने श्रीलंका से आये सिंघलियों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने में सरकारी मशीनरी तक का इस्तेमाल करने से भी परहेज़ नहीं किया। ये सभी घटनाएँ भले ही अलग-अलग क्षेत्रों में और अलग-अलग तात्कालिक कारणों से घटित हुई हों लेकिन अगर ग़ौर से देखा जाये तो ये एक दूसरी से जुड़ी हुई हैं। यह अनायास नहीं है कि धार्मिक कट्टरपन्थ और अन्धराष्ट्रवाद की बयार ऐसे समय पर हिलोरे मार रही है जब पूँजीवादी आर्थिक संकट की लहर अमेरिका और यूरोप से होते हुए भारतीय उपमहाद्वीप तक आ पहुँची है।

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जैसा कि अमूमन देखने में आया है, पू्ँजीवादी आर्थिक संकट से उत्पन्न गहरे सामाजिक असन्तोष और गुस्से से निपटने के लिए शासक वर्ग तरह-तरह के हथकण्डे अपनाकर जनता के विभिन्न हिस्सों को आपस में बाँटने की साज़िश रच रहा है और जनता में समस्याओं के कारणों के प्रति भ्रम फैला रहा है। इसी साज़िश के नतीजे के तौर पर एक ओर खोखले क़िस्म के सामाजिक आन्दोलन (जिनको नौटंकी कहना ज्यादा सटीक होगा) देखने में आये जिन्होंने मौजूदा व्यवस्था के ‘सेफ्टी वाल्व’ का काम बखूबी अंज़ाम दिया है, वहीं दूसरी ओर साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़कर ग़ैर-मुद्दों को मुद्दा बनाया जा रहा है और रोजी-रोटी से जुड़े असली मुद्दों को पृष्ठभूमि में ढकेला जा रहा है। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है कि आर्थिक संकट और जबर्दस्त सामाजिक आक्रोश से लोगों का ध्यान हटाने के लिए शासक वर्ग जंज़ीर में बँधे फ़ासीवादी कुत्तों को जनता की तरफ दौड़ा रहा है। साथ ही साथ मौके का फायदा उठाते हुए देश की सुरक्षा के नाम पर बचे-खुचे बुर्जुआ जनवादी ‘स्पेस’ को भी ज्यादा से ज्यादा सिकोड़ने की कोशिश कर रहा है। तमाम वेबसाइटों और ‘सोशल मीडिया’ पर पाबन्दियाँ लगाना यही दर्शाता है।

साम्प्रदायिकता की इस नयी लहर के उफ़ान पर होने से बुर्जुआ राजनीति के सभी चुनावी मदारियों के चेहरे चमक उठे हैं क्योंकि उनको बैठे-बिठाये एक ऐसा मुद्दा मिल गया है जिसके सहारे वे अपनी डूबती नैया को बचाने की आस लगा रहे हैं। कोई हिन्दुओं का हितैषी होने का दम भर रहा है तो कोई मुसलमानों का रहनुमा होने का दावा कर रहा है और जो ज्यादा शातिर हैं वो धर्मनिरपेक्षता की गोट फेंक अपना हित साध रहे हैं। क़िस्म-क़िस्म के घपलों-घोटालों में आकण्ठ डूबी कांग्रेस को अपनी लूट-पाट से लोगों का ध्यान बँटाने के लिए इससे बेहतर मुद्दा नहीं मिल सकता था। वहीं दूसरी ओर भ्रष्टाचार और अपनी नयी पीढ़ी के नेताओं के बीच की आपसी कलह से त्रस्त भाजपा को भी एक ऐसा मुद्दा सालों बाद मिला है जिसमें उसके कार्यकर्ताओं में पनप रही निराशा को दूरकर एक नयी साम्प्रदायिक ऊर्जा का संचार करने की सम्भावना निहित है। उधर समाजवादी पार्टी को भी उत्तर प्रदेश में अपनी नवनिर्मित सरकार की विफलताओं से जनता का ध्यान हटाने के लिए एक ऐसा मुद्दा मिल गया है जिसकी उसे तलाश थी। ग़ौरतलब है कि असम की हिंसा के ख़िलाफ़ लखनऊ, इलाहाबाद, आज़मगढ़ और बरेली में हिंसात्मक प्रदर्शन हुए।

असम की हिंसा के बाद हैदराबाद के मज़लिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन और दक्षिण भारत के पॉपुलर फ्रण्ट ऑफ इंडिया जैसे इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठनों ने मुस्लिम युवाओं के ”रैडिकलाइजेशन” की तीसरी लहर (पहली लहर बाबरी मस्जिद के गिरने के बाद और दूसरी गुजरात के दंगों के बाद) के आने की चेतावनी दी थी। यह महज़ संयोग नहीं है कि इस चेतावनी के फ़ौरन बाद ही आज़ाद मैदान की घटना घटी और पूर्वोत्तर राज्यों के नागरिकों को ख़ौफ़ज़दा करने के मक़सद से ‘एसएमएस’ और ‘सोशल मीडिया’ के ज़रिये अफ़वाहें उड़ायी गयीं जिसके फलस्वरूप पूर्वोत्तर राज्यों की प्रवासी जनता का बड़ा हिस्सा दक्षिण भारत के महानगरों से पलायन करने को मज़बूर हुआ। ख़बरों के अनुसार अफ़वाहें फैलाने की यह संगठित मुहिम भारत के अलावा पाकिस्तान और सऊदी अरब  से संचालित की गयीं जिसमें असम की समस्या की जटिलता का सरलीकरण करके उसे साम्प्रदायिक रंग दिया गया और म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों के ख़िलाफ़ हुई हिंसा को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया और उसका बदला चुकाने की बात की गयी। इन घटनाओं से यह साफ़ ज़ाहिर है कि मुस्लिम युवाओं के अच्छे-खासे हिस्से पर इस्लामिक कट्टरपन्थी ताक़तों का प्रभाव न सिर्फ क़ायम है बल्कि बढ़ रहा है।

इस्लामिक कट्टरपन्थ की सर्व-इस्लामवादी वहाबी और सलाफ़ी धाराएँ पूरी दुनिया में मुस्लिम युवाओं को प्रभावित कर रही है और अमेरिका पर 2001 में हुए हमले और उसके पश्चात हुए अफगानिस्तान युद्ध और इराक़ युद्ध के बाद से तो और भी तेजी से आगे बढ़ी है। यह एक खुला रहस्य है कि ये धाराएँ पश्चिमी साम्राज्यवाद की उपज हैं, उसके शह पर पली-बढ़ी हैं और आज भस्मासुर की तरह अपने सर्जक को ही मिटाने पर तुली हैं। लेकिन इस क़िस्म की कट्टरपन्थी धाराएँ चाहे जितनी गरमा-गरम बातें करें, चाहे जितना ये साम्राज्यवाद पर हमले करें, अन्तिम विश्लेषण में ये पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के ही हितों को साधती हैं। ग़ौरतलब है कि लेनिन ने तीसरे कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल की दूसरी कांग्रेस में सर्व-इस्लामवाद को एक घनघोर प्रतिक्रियावादी धारा क़रार दिया था क्योंकि यह भूस्वामियों, खानों और मुल्लाओं को मज़बूत करती हैं। लेनिन ने मेहनतकशों की धारा को इसके ख़िलाफ़ खुलकर संघर्ष करने का आह्वान किया था।

इस्लामिक कट्टरपन्थ का उभार हिन्दू कट्टरपन्थियों के लिए मुँहमाँगी मुराद के समान है। इस्लामिक कट्टरपन्थी मुसलमानों के हितैषी होने का कितना भी दम भरें इनकी हरक़तें ग़रीब और बदहाल मुसलमानों को फासीवाद के भारतीय संस्करण के सामाजिक प्रयोगों की भेंट चढ़ाने के लिए ज़मीन तैयार करने से ज्यादा और कुछ नहीं कर सकतीं। एक ऐसे समय में जब राम मन्दिर का मुद्दा बासी पड़ चुका है और भगवा आतंकवाद की परिघटना के सामने आने से हिन्दू कट्टरपन्थियों की साख़ कम हो रही थी, हाल के घटनाक्रम ने भगवा ध्वजाधरियों में मानो नयी जान फूँक दी है। हालाँकि संघी कुनबे के तमाम संगठन हालिया घटनाओं से पहले भी भारतीय मुसलमानों को पाकिस्तान और बांग्लादेश परस्त सिद्ध करने के लिए तमाम घटिया हथकण्डे और साज़िशें रचते आये हैं, लेकिन अभी तक साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़ने के अपने मक़सद में बहुत ज्यादा सफल नहीं हो पा रहे थे। मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए हिन्दुत्ववादियों ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने की अपनी सरगर्मियों में यकायक तेजी ला दी है। इस घटनाक्रम के बाद भाजपा पूर्वोत्तर के राज्यों तक अपनी राजनीतिक पहुँच फैलाने के अपने सपने को हक़ीक़त में बदलने का मौका भी देख रही है।

इस प्रकार असम के बोडोलैण्ड क्षेत्र में महीने भर चली हिंसा, जो वैसे तो असम के चार जिलों तक ही सीमित थी, की अनुगूँजें देखते ही देखते समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में सुनायी पड़ने लगीं। मुख्यत: बोडो जनजाति और मुस्लिम आबादी के बीच हुई इस बर्बर हिंसा में लगभग 100 लोगों की जानें गयीं और 4 लाख से ज्यादा लोग अपने घर-गाँव से विस्थापित होकर बेहद अमानवीय हालात वाले शरणार्थी शिविरों में रहने पर मज़बूर हो गये। इस हिंसा का सबसे त्रासद पहलू यह रहा कि इसके शिकार ज्यादातर लोग बेहद ग़रीब तबके के मेहनतकश लोग थे जिन्हें अपनी जीविका की तलाश में दर-दर भटकने को मज़बूर होना पड़ता है। बोडोलैण्ड क्षेत्र बेहद पिछड़ा हुआ है और इस इलाके में रहने वाली बोडो सहित अन्य जनजातियाँ और मुस्लिम समुदाय की अधिकांश आबादी भूमि पर निर्भर होने के कारण एक ओर तो विपन्नता की ज़िन्दगी बिताने को मज़बूर हैं वहीं दूसरी ओर वो अपनी बदहाली का ज़िम्मेदारी भारतीय राज्य द्वारा उस क्षेत्र में विकास कराने में विफलता पर डालने की बजाय दूसरी जनजातियों और समुदायों पर थोपती आयी हैं। वहाँ के स्थानीय नेता और प्रादेशिक स्तर के नेता भी अपने शासन की विफलताओं पर पर्दा डालने के मक़सद से इस प्रकार की साम्प्रदायिक नफ़रत को हवा देते आये हैं। इस बर्बर हिंसा ने यह भी साबित कर दिया है कि स्वायत्तशासी बोडोलैण्ड टेरिटोरियल काउंसिल जो 2003 में बोडो जनजाति की लम्बे समय से चली आ रही माँग के बाद बनायी गयी थी वह पूरी तरह विफ़ल रही है। यही नहीं इस काउंसिल में चुने गये कई नेता खुले आम इन दंगों का समर्थन करते हुए पाये गये।

साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ाने की अपनी घिनौनी मानसिकता का परिचय देते हुए, दक्षिणपन्थी राजनीति के प्रचारकों और समर्थकों ने इस पूरी हिंसा का सरलीकरण करते हुए इसकी ज़िम्मेदारी बांग्लादेश से हुए गैर-कानूनी आव्रजन और ‘बांग्लादेशी घुसपैठियों’ पर डाली। भारतीय मीडिया के बड़े हिस्से ने भी इस दुष्प्रचार को अनालोचनात्मक दृष्टि से लेते हुए इसे पूरे देश में फैलाने में अपनी भूमिका अदा की कि असम में रहने वाली मुस्लिम आबादी के अधिकांश लोग बांग्लादेशी घुसपैठिये हैं। जबकि सच्चाई यह है कि असम की मुस्लिम आबादी का अधिकांश हिस्सा 1971 से पहले पूर्वी पाकिस्तान और 1947 से पहले पूर्वी बंगाल से पलायित होकर असम में आकर बसे लोग हैं। 1985 के असम समझौते में भी यह माना गया था कि 1971 से पहले भारत की ओर पलायित होने वाली असम की मुस्लिम आबादी को भारत की नागरिकता मिलनी चाहिए। यदि इस विस्थापित आबादी को एक योजनाबद्ध और विकेन्द्रीकृत तरीक़े से बसाया गया होता तो इस क़िस्म की हिंसक घटनाओं पर रोक लगायी जा सकती थी। इसलिए केन्द्र सरकार इस हिंसा के लिए अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती।

जनगणना के आँकड़ों से इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता है कि 1971 के बाद असम की मुस्लिम आबादी में देश के स्तर पर मुस्लिम आबादी की वृद्धि-दर के मुक़ाबले कोई विचारणीय बढ़ोत्तरी हुई है। ऐसे में असम की समूची मुस्लिम आबादी को घुसपैठिया क़रार देना एक साज़िश है और मज़दूर आन्दोलन को इस साज़िश का पर्दाफ़ाश करना होगा।

मज़दूर वर्ग के नज़रिये से देखा जाये तो मज़दूरों का अपना कोई राष्ट्र नहीं होता। राष्ट्र-राज्यों का मौजूदा ढाँचा हमेशा से नहीं रहा है और वह हमेशा नहीं रहेगा। राष्ट्र-राज्यों की परिघटना पूँजीवाद के उदय के साथ अस्तित्व में आयी है और पूँजीवाद के विघटन के साथ ही मौजूदा राष्ट्र-राज्यों का अस्तित्व भी क्रमश: विलुप्त होता जायेगा। पूँजीवाद जहाँ एक ओर राष्ट्र-राज्यों की सीमाओं के आर-पार पूँजी के प्रवाह में आने वाली सारी बाधाओं को ख़त्म करता जा रहा है वहीं दूसरी बड़ी ही बेशर्मी से मज़दूरों की बेरोकटोक आवाजाही पर तमाम बन्दिशें लगाता जा रहा है। दुनिया भर के शासक अपने हितों को साधने के लिए मज़दूरों को आपस में लड़ाने की तमाम साज़िशें करते आये हैं और करते रहेंगे। लेकिन हमें यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए दुनिया के सभी देशों के मेहनतकश नागरिक चाहे वो किसी भी धर्म को मानने वाले हों या कोई भी भाषा बोलने वाले हों, हमारे मित्र हैं और दुनिया के सभी देशों के शासक हमारे शत्रु। इसी सच्चाई को रेखांकित करने के लिए मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक कार्ल मार्क्‍स ने यह अमर नारा दिया था कि ‘दुनिया के मज़दूरो एक हो।’ आज जब शासक वर्ग मज़दूरों को बाँटने की नयी-नयी साज़िशें रच रहा है, यह नारा पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक है।

भगतसिंह के जन्म की 105वीं वर्षगाँठ (28 सितम्बर) के अवसर पर

लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की ज़रूरत है

…लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की ज़रूरत है। ग़रीब मेहनतकश व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी ग़रीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इन यत्नों में तुम्हारा नुक़सान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी ज़ंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी।…

इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों में एक बात बहुत ख़ुशी की सुनने में आयी। वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियनों के मज़दूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारख़ानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे। वर्ग-चेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है।…

1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है, इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए, क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसीलिए गदर पार्टी-जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे।

(भगतसिंह, ‘साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ लेख के अंश, ‘किरती’ पत्रिका के जून 1928 अंक में प्रकाशित)

 

मज़दूर बिगुल, अगस्त-सितम्बर 2012

 


 

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