कौन लेगा गरीबों की सुध?

प्रेम सागर, झिलमिल, दिल्ली

पिछले दिनों लक्ष्मीनगर, दिल्ली में पांच मंजिला एक इमारत गिरने से 70 लोग अपनी जान गंवा बैठे और 100 से अधिक लोग अभी भी अपना  सामान्य जीवन नहीं जी पा रहे हैं। कहा जाता है कि उस इमारत में छोटे-छोटे 40-45 कमरे थे और हर कमरे में 5-10 लोग रहते थे। कोई कहीं मजदूरी करता था, कोई सब्जी बेचता था, कोई किसी दुकान में काम करता था और कई लोग तो रोजगार ढूँढ रहे थे। ये बेचारे अपने घरों से 1000-1200 किमी दूर आकर काम शौकिया नहीं करते थे बल्कि उनकी यह मजबूरी सरकारी नीतियों की देन है। सरकारी नीतियां शहर केन्द्रित विकास पर जोर देती है। यहीं कारण है कि गांवों में रोजगार के साधन नहीं है, कुछ हैं तो उनसे लगभग 5 फीसदी लोग ही लाभान्वित हो पाते हैं। बाकी 95 फीसदी लोग अपने परिवार का पालन पोषण करने के लिए शहर की ओर पलायन कर रहे हैं। दो जून की रोटी के लिए यह लोग दिल्ली और मुम्बई जैसे नगरों में जिन  हालातों में रहते हैं उसका वर्णन करना मुश्किल है। 6 गुना 6 फ़ुट की झुग्गियों में बाल-बच्चों सहित रहते हैं, वहीं खाना बनाते और खाते हैं, नहाते है और शौच भी करते है। खैर आप लोगों को जानकर हैरानी तो नहीं होगी कि हम लोग जहां पूजा करने जाते है वहां पर मंदिर की जमीन पर महंगे-महंगे टायल लगे होते है, महंगी-महंगी लाईट होती है, भगवान तक तो धूल-मिट्टी पहुंचने का सवाल पैदा नहीं होता है। लेकिन हम जहां रहते है वहां धूल-मिट्टी भरी रहती हैं। देश में करोड़ों लोगों के सिर पर छत न हो, लेकिन सारे धार्मिक स्थल पर छत जरूर होगी क्योंकि उसमें भगवान रहता है जिन्हें हम अपनी किस्मत के लिए दिन-रात कोसा करते हैं। ऊपर से पुलिस वाले और अन्य सरकारी बाबू अवैध झुग्गी के नाम पर हम पर रौब जमाते हैं।

हम एक कमरे में 6-10 लोग रहते है जिससे हम पर किराये का बोझ कम पड़ता हैं क्योंकि हम पाई-पाई जोड़कर साल-छह महीने में कुछ हजार रुपये इकट्ठा कर लेते हैं और उसे गांव में परिवार-जन के लिए भेजते हैं। हम लोग कुछ ज्यादा कमाने के लिए कोल्हू के बैल की तरह काम करते है फ़ि‍र भी बचत के नाम पर कुछ नहीं होता। क्योंकि हमें हमारी मेहनत के अनुसार पैसा भी नहीं मिलता है। आज दिल्ली में हैल्पर के आठ घण्टे काम का वेतन 5278 रु है लेकिन मिलता कितना को है। कहीं पर 2500 या ज्यादा से ज्यादा 3500 रु तक। ऊपर से महंगाई कमर तोड़े रहती है। रोज काम भी नहीं मिलता और कभी शरीर दगा दे देता है। इस हालात में भला हम लोग अपने बच्चों का पेट कैसे भरते होंगे ये तो खुद ही समझने वाली बात है।

अभी कुछ दिनों पहले देश के प्रधानमंत्री मनमोहन जी ने बताया है कि गरीब ज्यादा खाना खा रहे हैं इसलिए महंगाई बढ़ रही है सुना आप लोगों ने! मनमोहन जी का कहना है कि अब हम लोग ज्यादा खाने लगे है अगर कभी वे आपसे मिलते है तो आप उनसे ये जरूर कहना कि ये शब्द कहने से पहले कम से कम एक बार तो गरीबों के घर में झांक लिया होता तो शायद कभी ऐसा नहीं कहते। अरे भई जिन बच्चों को भोजन न मिलने की वजह से कुपोषण का शिकार होना पड़ता हैं वो कहां से आते है। ये भी तो हमारे देश के बच्चे है जिनके मरने के बाद भी उनकी खुली आँखे रोटियों का इन्तजार करती रहती है जैसे मानो उन्हे लग रहा हो अभी उनकी मां या बाबूजी आऐंगे और कहेंगे – बेटा लो रोटी खा लो। शायद उस दर्द की मध्यवर्ग कल्पना भी नहीं कर सकते। क्योंकि वे उन बस्तियों, उन घरों में नहीं रहते जहां हर रोज एक बच्चा रोटी की राह देखते-देखते हमेशा के लिए अपनी मां के गोद में सो जाता है और ये लोग कहते है हमारे ज्यादा खाने की वजह से महंगाई बढ़ रही है। लेकिन ये कभी नहीं कहते कि उनके बच्चों के जन्मदिन पार्टियों या बूढ़ापे में भी अपनी शादी की सालगिरह मनाने में, जो लाखों रुपये पानी की तरह खर्च कर देते है। कितने सरकारी संस्थानों में संगठित क्षेत्रों में कार्य करने वालों की तो समय-समय पर ‘पगार’ बढ़ा दी जाती हैं। फिर भी ये लोग साल डेढ़ साल में वेतन बढ़ाने के लिए हड़ताल करते हैं, विरोध प्रदर्शन करते हैं। सरकार इनकी बातों को सुनती भी है और उस पर निर्णय भी करती है। किन्तु हम मजदूरों की सुध कोई नहीं लेता। यदि सुध ली भी जाती है, तो वह ऊंट के मुँह में जीरे के सामान होती है।

आखिर हम मजदूरों के लिए कोई ऐसी ठोस नीति क्यों नहीं बनाई जाती है कि हमें अपना पेट पालने के लिए घर से 1500 किमी- दूर जाना न पड़े। यदि हमें अपने राज्य में ही रोजगार मिल जाए तो विश्वास कीजिए हम लोग दिल्ली और मुम्बई की संड़ाधभरी हवा और जर्जर मकानों या झुग्गी में रहने के लिए नहीं आऐंगे।

लेकिन सवाल ये है कि ऐसी नीतियां बनाएगा कौन? क्योंकि जिन पर नीतिया बनाने की जिम्मेवारी है उनकी आँखें भारत की 80 फीसदी मेहनतकश आबादी पर टिकती ही नहीं है। उनकी आँखों में विदेशी चकाचौंध छायी रहती है इसलिए वे दिल्ली को पेरिस बनाने का सपना देखते है लेकिन गरीबों के लिए नहीं अमीरजादों के लिए। अगर भविष्य में ये नीतियां नहीं बदल गई तो आम आदमी इसी तरह भटकता रहेगा गरीब और गरीब होता रहेगा, लोग यू हीं ही अपनी जान गंवाते रहेंगे। इसलिए जल्द से जल्द मेहनतकश सत्ता के निर्माण के लिए एकजुट होना होगा। तभी ये हालात बदलेगे।

 

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2011


 

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