गोबिन्दपुरा ज़मीन अधिग्रहण काण्ड
विकास के नाम पर पूँजीपतियों की सेवा

लखविन्दर

Gobindpura-3इण्डिया बुल्स नाम की एक कम्पनी द्वारा लगाए जा रहे पिऊना थर्मल पावर प्लाण्ट के लिए पंजाब के मानसा जिले के गोबिन्दपुरा गाँव में जबरन ज़मीन अधिग्रहण के घटनाक्रम ने पूँजीवादी हुक्मरानों के बर्बर काले कारनामों में एक और अध्याय जोड़ दिया है। मेहनतकश जनता पर लदी पूँजीवादी तानाशाही पर चढ़ाया गया जनतान्त्रिक लबादा इस घटनाक्रम से एक बार फिर चिथड़े-चिथड़े हो गया है। विकास के नाम पर जनता को लूटा जा रहा है, मारा-पीटा जा रहा है। यह कैसा जनतन्त्र है जहाँ जनता से बिना कुछ बातचीत किये, बिना उससे पूछे, बिना उसकी राय लिये, मनमानी क़ीमतों पर उसकी ज़मीन-सम्पत्ति का फ़ैसला कर दिया जाता है? शान्तिपूर्ण विरोध करने पर उससे अपराधियों की तरह निपटा जाता है।

पिऊना थर्मल पावर प्लाण्ट के लिए जबरन ज़मीन अधिग्रहण के लिए पंजाब सरकार द्वारा चार बार नोटिफ़िकेशन जारी किये गये थे। चारों बार अधिग्रहीत की जा रही ज़मीन बदली जाती रही। चौथे नोटिफ़िकेशन के तहत लगभग 881 एकड़ ज़मीन के अधिग्रहण का ऐलान किया गया। इसमें गोबिन्दपुरा गाँव की लगभग 805 एकड़ ज़मीन आती है। इसमें से 166 एकड़ के मालिक किसान अपनी ज़मीन देना नहीं चाहते। उनका कहना है कि ज़मीन की जो कीमत दी जा रही है वह बहुत कम है और इतनी कम रक़म पर उनका पुनर्वास सम्भव नहीं है। 53 एकड़ ज़मीन के मालिक किसान उसे बेचना ही नहीं चाहते। सबसे अधिक ज़ुल्म इस गाँव के मज़दूरों पर हो रहा है। मज़दूरों के 14 घर भी अधिग्रहण वाली ज़मीन के अन्दर आते हैं। इन ग़रीब मज़दूरों के पास ज़मीन की मिलकियत के कोई लिखित दस्तावेज़ नहीं हैं। इन्हें ज़मीन की क़ीमत और पुनर्वास पैकेज के तौर पर एक पैसा भी हासिल नहीं हो रहा। लेकिन इन पीड़ित मज़दूरों-किसानों की कोई नहीं सुन रहा, न सरकार न कम्पनी।

Gobindpura-1पहले 20 जून की रात को पुलिसिया लाव-लश्कर के साथ कम्पनी ने ज़मीन पर कब्ज़ा करने की कोशिश की। लोगों ने डटकर मुक़ाबला किया और कब्ज़ा नहीं होने दिया और यह वादा लिया गया था कि जबरन ज़मीन नहीं हथियाई जायेगी। लेकिन 23 जुलाई को पंजाब के सिविल और उच्च पुलिस अधिकारी आठ ज़िलों की पुलिस लेकर पहुँच गये। खम्भे लगाकर लोहे के काँटेदार तारों की बाड़ लगा दी गयी। बिजली कनेक्शन काट दिये गये। पंजाब के 17 किसान तथा मज़दूर जनसंगठनों के मंच ने पीड़ितों का साथ देते हुए जबरन कब्ज़े को छुड़वाने के लिए संघर्ष किया तो इस संघर्ष को भी पंजाब सरकार ने बर्बरतापूर्वक कुचलने की नीति अख्तियार की। गोबिन्दपुरा के पीड़ित किसान-मज़दूर किसी से मिल न पायें इसके लिए गोबिन्दपुरा गाँव को पुलिस ने सील कर दिया। जो भी गोबिन्दपुरा गाँव के पीड़ित किसानों-मज़दूरों का हाल-चाल पूछने के लिए भी वहाँ जाना चाहता उसे मिलने नहीं दिया जा रहा था। विरोध करने पर गिरफ़्तार कर लिया जाता। पंजाब के 17 किसान-मज़दूर संगठनों के मंच ने ऐलान किया कि 2 अगस्त को जबरन कब्जे़ वाली ज़मीन से खम्भे और काँटेदार तार उखाड़ दिये जाएंगे। पूरे मानसा जिले में एक तरह से कर्फ्यू लगा दिया गया। गोबिन्दपुरा में तो बाहर से किसी को घुसने देने की पुलिस ने गुंजाइश ही नहीं छोड़ी।

gobindpura farmer agitationआन्दोलनकारियों को मानसा ज़िले में कहीं इकट्ठे होने और गोबिन्दपुरा की तरफ़ जाने से रोकने के लिए हर हथकण्डा अपनाया गया। सारे पंजाब की पुलिस को इस तरह तैनात किया गया कि गोबिन्दपुरा गाँव पंजाब से पूरी तरह कट गया। मानसा ज़िले में आने वाले हर चौपहिया वाहन की रोक-रोक तलाशी ली गई। मानसा-बरनाला ज़िले की सीमा पर स्थित गाँव कोटदून में शाम के समय किसानों का एक काफ़िला गोबिन्दपुरा की तरफ बढ़ने की कोशिश कर रहा था। पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज में भटिण्डा ज़िले के हमीदी गाँव के निवासी बुज़ुर्ग आन्दोलनकारी सुरजीत सिंह की मौत हो गई। अनेक किसान बुरी तरह ज़ख़्मी हो गये। पुलिस ने किसानों के 50 से भी अधिक वाहनों को बुरी तरह से क्षतिग्रस्त कर दिया। कई अन्य जुलूसों पर भी पुलिस ने भारी लाठीचार्ज किया और हज़ारों आन्दोलनकारियों को गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया। गोबिन्दपुरा के पुरुषों को तो पुलिस ने पहले ही उठाकर जेल में डाल दिया था लेकिन गोबिन्दपुरा की लगभग 100 स्त्रियों ने इकट्ठे होकर काँटेदार तारों के कई खम्भे उखाड़ फेंके। इससे कुछ दिन पहले भी गाँव की स्त्रियों ने खम्भे उखाड़े थे। ये खम्भे अभी तक दुबारा नहीं लगाये जा सके हैं।

ज़मीन की बिक्री ख़रीदने वाले और बेचने वाले की आपसी सहमति का मामला है, चाहे ख़रीदार सरकार हो या कोई निजी पूँजीपति। इसलिए क़ानून बनाकर ज़मीन बेचने के लिए मजबूर करना जनवादी अधिकारों का हनन है। भले ही क़ानून में बहुमत की मर्जी की भी बात क्यों न कही गयी हो! ज़मीन के मालिक ही ज़मीन बेचने के लिए सहमत नहीं हैं तो ज़मीन को ज़बरदस्ती बेच दिया जाना सरासर बेइन्साफ़ी है। ज़मीन की क़ीमत, पुनर्वास की रक़म, प्रोजेक्ट में नौकरी तथा अन्य मुआवज़ों या भत्तों की शर्त रखना और किसी भी समझौते के लिए सहमति बनाना या न बनाना ज़मीन के मालिकों का जनवादी अधिकार है। अंग्रेज़ी हुक़ूमत के समय से इस जनवादी अधिकार के हनन के लिए बने क़ानून में कुछ संशोधन करते हुए आज तक आज़ाद भारत के हुक्मरान भी उसी क़ानून को लागू करते आ रहे हैं।

यह भी देखने वाली बात है कि जनहित के नाम पर जिस ज़मीन का अधिग्रहण किया जाता है उसके नये मालिक (सरकार या निजी कम्पनी) द्वारा अकसर उस मक़सद के लिए ज़मीन का इस्तेमाल नहीं किया जाता जिसका बहाना बनाकर अधिग्रहण किया जाता है। यह भी अकसर होता है कि किसान को दी गयी क़ीमत से कहीं ऊँची क़ीमतों पर ज़मीन को आगे बेच दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर 1998 में पंजाब के फ़रीदकोट ज़िले में बाबा फ़रीद विश्वविद्यालय के लिए सरकार ने 122 किसानों से 158 एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किया था। किसानों को प्रति एकड़ साढ़े चार लाख रुपये दिये गये थे। अब पंजाब अर्बन डेवलपमेण्ट अथॉरिटी इसमें से 86 एकड़ ज़मीन रिहायशी कालोनी के लिए चार करोड़ रुपये प्रति एकड़ की क़ीमत पर बेच रही है। बाक़ी की ज़मीन पर विश्वविद्यालय की जगह जेल का निर्माण किया गया है।

पूरे देश में ज़मीन अधिग्रहण के ज़ोरदार विरोध के दबाव में केन्द्र सरकार ज़मीन अधिग्रहण के सम्बन्ध में नया क़ानून पास करने की तैयारी कर रही है। नए क़ानून के मसविदे में कहा गया है कि ग्रामीण इलाक़े में अधिग्रहीत की जाने वाली ज़मीन के लिए बाज़ार क़ीमत की कम से कम छह गुना क़ीमत अदा करनी होगी और शहरी क्षेत्र में दोगुनी। साथ ही ज़मीन बेचने वाले और ज़मीन पर निर्भर परिवार के एक सदस्य को ज़मीन पर लगने वाले प्रोजेक्ट में नौकरी देनी होगी या फिर दो लाख रुपए मुआवज़ा। इसके अलावा भी कुछ अन्य भत्तों की बात इस नये क़ानून के मसविदे में कही गयी है। साथ ही जब तक अधिग्रहीत की जा रही ज़मीन के 80 प्रतिशत मालिक सहमति नहीं देते तब तक ज़मीन का अधिग्रहण किया ही नहीं जा सकता है। बहुफ़सली और सिंचाई वाली ज़मीन का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता। ज़मीन का जनहित में ही अधिग्रहण किया जा सकता है। एक बार तय किया गया जनहित दुबारा बदला नहीं जा सकेगा। अगर पाँच वर्ष के भीतर तय मकसद के लिए ज़मीन का इस्तेमाल नहीं किया जाता तो ज़मीन वापस करनी होगी। यह क़ानून ऊपरी तौर पर जनवादी होने का भ्रम पैदा करता है। यह ठीक है कि पहले के मुक़ाबले इस नये क़ानून में ज़मीन मालिकों को राहत दी गयी है लेकिन यहाँ भी क़ानून की बुनियाद पहले वाली ही है। हमारा कहना यह है कि ज़मीन बेचना या न बेचना और इसकी शर्तें तय करना सरकार का काम नहीं है। यह ज़मीन बेचने वाले और ख़रीदने वाले की आपसी सहमति पर निर्भर करता है। ज़मीन बेचने से मना करने वाले भले ही अल्पमत में ही क्यों न हों, उनके साथ ज़बरदस्ती नहीं होनी चाहिए।

गोबिन्दपुरा ज़मीन अधिग्रहण घटनाक्रम में तो पंजाब सरकार ने बेशर्मी की सारी सीमाएँ पार कर दी हैं। पूरे देश में जबरन ज़मीन अधिग्रहण के ख़िलाफ़ एक लहर उठी हुई है, देश की तथाकथित जनतान्त्रिक व्यवस्था का असल पूँजीपरस्त चेहरा अधिक से अधिक बेनक़ाब होता जा रहा है। इससे घबराकर नया क़ानून बनाने की प्रक्रिया चल रही है और पिछले दिनों ख़ुद सुप्रीम कोर्ट को दख़ल देते हुए जबरन ज़मीन अधिग्रहण की सख़्त शब्दों में निन्दा करनी पड़ी थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सबसे बुरी क़ि‍स्‍म के अपराधियों, क़ानून के पेशेवर उल्लंघनकर्ताओं तक को सुनवाई का अवसर मिलता है लेकिन सरकार किसानों को सुनवाई का अवसर दिये बिना ही उनकी ज़मीन हथिया लेती है।

ज़मीन अधिग्रहण के मुद्दे पर यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि असल नुक़सान अपनी नाम-मात्र की घर-ज़मीन भी गँवा देने वाले मज़दूरों और ग़रीब किसानों का होता है। दूसरे नम्बर पर बड़े हमले का शिकार वे मध्यम किसान होते हैं जो खेतों में ख़ुद काम करते हैं। शहरों में होने वाले ज़मीन अधिग्रहण में भी ग़रीब व निम्न मध्यवर्ग ही नुक़सान झेलता है। पूँजीपतियों और सरकार की थोपी गयी क़ीमत और पुनर्वास मुआवज़े आदि से ग़रीब लोग ही ठगे जाते हैं। यही वे तबक़े हैं जिनके लिए ज़मीन-सम्पत्ति पर जबरन कब्ज़े के खि़लाफ़ लड़ाई ज़रूरी बनती है। धनी किसानों तथा अमीर वर्ग के अन्य लोगों को अगर बाज़ार क़ीमत से कुछ कम पैसा भी हासिल होता है तो भी उन्हें अधिक फ़र्क़ नहीं पड़ता। उनकी जीवन की गाड़ी पहले की तरह मज़े से चलती रहती है।

देश के विभिन्न हिस्सों में आज जबरन भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ किसानों के आन्दोलन उठ रहे हैं। इन आन्दोलनों को सत्ता के बर्बर दमन का भी सामना करना पड़ रहा है। किसानों के उन आन्दोलनों में भले ही बडे़ पैमाने पर ग़रीब तथा मध्यम किसान शिरक़त करते हैं लेकिन इनका नेतृत्व धनी किसानों के संगठन या अवसरवादी संसदीय पार्टियों के नेताओं के हाथो में रहता है। यही इन आन्दोलनों की मुख्य कमज़ोरी है।

ग़रीब तथा मध्यम किसानों के सच्चे मित्र और रहनुमा मज़दूर वर्ग, खास तौर पर औद्योगिक मज़दूर वर्ग का संगठन तथा लड़ाई अभी कमज़ोर है। जब पूँजी की ग़ुलामी के खि़लाफ़ युद्ध में मज़दूर वर्ग संगठित होकर लड़ाई के अग्रिम मोर्चे पर आयेगा तभी ग़रीब तथा मध्यम किसानों के आन्दोलनों को भी सही दिशा मिल पायेगी और संगठित मज़दूर वर्ग के रूप में उन्हें अपनी मुक्ति की लड़ाई में भरोसेमन्द साथी मिल पायेगा।

 

मज़दूर बिगुलअगस्त-सितम्बर 2011

 


 

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