अदम्य बोल्शेविक – नताशा – एक संक्षिप्त जीवनी (पहली किश्त)

एल. काताशेवा
अनुवाद: विजयप्रकाश सिंह

रूस की अक्टूबर क्रान्ति के लिए मज़दूरों को संगठित, शिक्षित और प्रशिक्षित करने के लिए हज़ारों बोल्शेविक कार्यकर्ताओं ने बरसों तक बेहद कठिन हालात में, ज़बर्दस्त कुर्बानियों से भरा जीवन जीते हुए काम किया। उनमें बहुत बड़ी संख्या में महिला बोल्शेविक कार्यकर्ता भी थीं। ऐसी ही एक बोल्शेविक मज़दूर संगठनकर्ता थीं नताशा समोइलोवा जो आख़िरी साँस तक मज़दूरों के बीच काम करती रहीं। हम ‘बिगुल‘ के पाठकों के लिए उनकी एक संक्षिप्त जीवनी का धारावाहिक प्रकाशन कर रहे हैं। हमें विश्वास है कि आम मज़दूरों और मज़दूर कार्यकर्ताओं को इससे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। – सम्पादक 

स्कूल और कॉलेज के दिन 

adamya bolshevik natashaपेशेवर क्रान्तिकारी बोल्शेविक कंकोर्डिया निकोलायेव्ना ग्रोमोवा-समोइलोवा हमारी पार्टी से उस समय जुड़ीं जब लेनिन के नेतृत्व में पुराने बोल्शेविकों की बुनियादी कतारें ढाली जा रही थीं। कम्युनिज्म के इतिहास में उनका नाम एक ऐसे व्यक्ति के रूप में दर्ज रहेगा जिसने इस लेनिनवादी सिद्धान्त पर कुशलता से अमल किया कि सर्वहारा के सबसे पिछड़े तबके को लड़ाकों की कतार में शामिल करना, सर्वहारा स्त्रियों को सक्रिय संघर्ष से जोड़ना आवश्यक है।
कामरेड समोइलोवा एक पादरी की बेटी थीं, और हालाँकि उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि सर्वहारा के अन्तरराष्ट्रीय और धर्मविरोधी विचारों के प्रतिकूल थी, इसके बावजूद वह साइबेरिया के इर्कुत्स्क, जहाँ उनका जन्म हुआ था, के रूसी जीवन के स्पष्ट अन्तरविरोधों से प्रभावित हुए बिना न रह सकीं।
हाईस्कूल के दौरान ही, कामरेड समोइलोवा युवा क्रान्तिकारियों के एक समूह के सम्पर्क में आ गयीं। हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए सेण्ट पीटर्सबर्ग गयीं। वह फौरन उन ‘राजद्रोही’ छात्रों की जमात में शामिल हो गयीं जिनसे जारशाही बड़े ही हिंसक ढंग से लड़ रही थी।
वह क्रान्तिकारी उभार के उस दौर में सेण्ट पीटर्सबर्ग पहुँची थीं जब मज़दूर तबका क्रान्तिकारी संघर्ष (1896 की सेण्ट पीटर्सबर्ग की हड़तालें) के मंच पर पहली बार सामान्य से अधिक ऊर्जा के साथ उभरा था, जब ज़ारशाही सरकार ने क्रान्तिकारी छात्रों की माक्र्सवादी विचारधारा के रूप में अकस्मात एक नये दुश्मन की शिनाख्त की थी।
कामरेड समोइलोवा ख़ुद को आम युवा आन्दोलन से अलग नहीं रख सकीं। जिज्ञासु चेतना और दृढ़ चरित्र की धनी कामरेड समोइलोवा तत्काल ही योद्धाओं की कतार में शामिल हो गयीं।
पीटर और पॉल के किले में हुई एक भयावह घटना के बाद 1897 में सारे छात्र उग्र क्षोभ से भड़क उठे थे। एक राजनीतिक कैदी एम. एफ. वेत्रोवा ने एक लैम्प के मिट्टी के तेल से अपने कपड़े गीले करके आग लगा ली और बुरी तरह जल जाने से उनकी दर्दनाक मौत हो गयी। सशस्त्र पुलिस द्वारा सभी घटनाओं के बारे में इसी प्रकार की कहानी बतायी जाती थी, लेकिन विदेशों में ऐसी बातें की जा रही थीं कि दुर्व्‍यवहार के बाद वेत्रोवा को ज़िन्दा जला दिया गया था। इस भयावह घटना ने समोइलोवा पर गहरा प्रभाव डाला। छात्राओं ने इसके विरोध में प्रदर्शन करने और सभी विश्वविद्यालयों के तमाम छात्रों को जगाने का संकल्प किया। एक व्याख्यान कक्ष में बैठक बुलायी गयी। एक ”समझदार” छात्रा ने विरोध प्रदर्शन आयोजित करने के ख़िलाफ भाषण दिया। तत्काल एक दूसरी छात्रा, जिसके बारे में कुछ ही लोग जानते थे और जो तब तक उतनी नामचीन नहीं थी, फौरन मंच पर आयी। विरोध प्रदर्शन का आह्नान करते हुए उसने ऊँचे और उत्तोजित स्वर में बोलना शुरू किया। वह समोइलोवा थीं। उनके जोशीले भाषण ने श्रोताओं को उद्वेलित कर दिया। सबने विरोध प्रदर्शन के पक्ष में वोट दिया।
समोइलोवा की जुझारू भावना ने स्वयं को अभिव्यक्त कर दिया था। अपने जीवन में पहली बार वह सार्वजनिक तौर पर बोली थीं, जो खुद उनके लिए भी अनपेक्षित था।
उस पहले भाषण ने उनका भावी जीवन तय कर दिया। उन्होंने पूँजीवादी विज्ञान के ”गम्भीर अध्‍ययन” को त्याग दिया जिसे विश्वविद्यालयों के ज़ारशाही समर्थक प्राध्‍यापकों ने मृत और जीवन से काटकर अलग कर दिया था।
सरकार ने 1901 में इस आशय का कानून पारित किया कि गड़बड़ी करने वाले छात्रों को अनिवार्य भर्ती के तहत फौरन सेना में भर्ती किया जाये। उस विशाल देश में जहाँ शिक्षित लोग अज्ञान और अशिक्षा के सागर में बूँद की तरह थे, इस कानून ने छात्रों के मन में गुस्से की आग भड़का दी। प्रतिरोध करने वालों में समोइलोवा भी शामिल थीं।
नतीजतन उनके कमरे पर छापा मारा गया, गिरफ्तार करके उन्हें जेल भेजा गया और विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया।
फरवरी 16, 1901 को सेण्ट पीटर्सबर्ग में छात्र आन्दोलन जारी रखने के मुद्दे पर चर्चा करने के लिए छात्रा फोकिना के कमरे में आयोजित प्रतिनिधियों की एक बैठक से समोइलोवा को गिरफ्तार कर लिया गया। समोइलेवा के कमरे की तलाशी के दौरान क्रावचिंस्की का प्रतिबन्धित उपन्यास ‘आन्द्रे कुझुखोव’, चेर्नीशेव्स्की का उपन्यास ‘क्या करें?’ और एक रिवॉल्वर मिली।
आरोप लगाये जाने पर समोइलेवा ने स्वीकार किया कि वह फोकिना के कमरे में इसलिए नहीं गयी थीं कि उससे परिचित थीं बल्कि इसलिए गयी थीं कि उन्हें पता था कि छात्र वहाँ जमा होते थे। उस बैठक में उन्होंने छात्र आन्दोलन को जनता और प्रेस से पर्याप्त समर्थन न मिलने पर चर्चा की। उन्हें वे किताबें एक छात्रा से मिली थीं और रिवॉल्वर वह साइबेरिया से ले आयी थीं जहाँ उन्होंने उसे सुरक्षा के लिए रखा था। उन पर लगाये गये आरोप तीन महीने बाद ख़ारिज हो गये, इस बीच समोइलेवा को हिरासत में रखा गया; लेकिन उन्हें विश्वविद्यालय छोड़ना पड़ा।
तीन महीने की इस प्रारम्भिक कैद ने समोइलेवा को यह देखने का मौका दिया कि ज़ारशाही की असलियत क्या थी, और इसमें सन्देह नहीं कि इस अनुभव ने क्रान्ति के लिए अपना जीवन समर्पित करने के उनके फैसले को और भी मज़बूत किया। उन्होंने विदेश जाने और अलग और अपेक्षाकृत अधिक मुक्त परिस्थितियों में अपना अध्‍ययन जारी रखने का निश्चय किया, जिसमें इतना बर्बर व्यवधान पड़ गया था।
अक्तूबर 11, 1902 को वह पेरिस के लिए रवाना हुईं। पेरिस में फ्री रशियन स्कूल ऑफ सोशल साइन्सेज़ नाम का एक स्कूल था। उसका संचालन बुर्जुआ उदारवादी प्राध्‍यापकों का एक समूह करता था, उदार विचारों की वजह से रूसी विश्वविद्यालयों में उनके पढ़ाने पर पाबन्दी लगा दी गयी थी। रूसी विश्वविद्यालयों में ठहराव आ जाने के बाद ज्ञान के भूखे नौजवानों के झुण्ड इस स्कूल में पहुँचते थे।
उन दिनों लेनिन का अखबार इस्क्रा (”चिंगारी”) पेरिस से प्रकाशित होता था और लेनिन और इस अखबार के उनके सहकर्मी उन सबसे ज़हीन युवाओं को, जिन्होंने ज़ारशाही का दमन झेला था और उससे बचने के लिए पेरिस आ गये थे, उन उदारवादी प्राध्‍यापकों के प्रभाव से निकालने के लिए व्यग्र थे। लिहाजा वे भी इस स्कूल में लेक्चर देते थे और उसका उपयोग रूस में क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवादी मज़दूर समुदाय में काम करने के लिए प्रचारकों के प्रशिक्षण के छोटे-छोटे कोर्स चलाने के लिए करते थे।
समोइलेवा इन कोर्सों से जुड़ीं और उनकी उत्साही छात्रा बन गयीं। इस तरह उन्हें माक्र्सवादी अध्‍ययन के स्कूल में पढ़ने और स्वयं लेनिन के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में सैद्धान्तिक प्रशिक्षण पाने का सुअवसर मिल गया।

पहली रूसी क्रान्ति के दौरान व्यावहारिक कार्य (त्वेर, एकातेरिनोस्लाव, ओदेस्सा, बाकू, मास्को और अन्य कस्बे)

समोइलोवा को व्यावहारिक काम का पहला अनुभव त्वेर में मिला जहाँ वह आरएसडीएलपी (रूसी सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी) के दूसरे अधिवेशन से कुछ ही दिन पहले 1903 की गर्मियों में पेरिस से लौटने के बाद सीधो पहुँचीं थीं। (अनुवादक की टिप्पणी : आजकल सामाजिक-जनवादी शब्द का अर्थ नकली कम्युनिस्ट होता है, लेकिन उन दिनों सच्चे कम्युनिस्ट सामाजिक-जनवादी ही कहलाते थे।)
समोइलोवा के त्वेर पहुँचने से कुछ ही दिन पहले आरएसडीएलपी की त्वेर कमेटी पर छापा मारकर उसके ज्यादातर सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया था। इस तरह समोइलोवा का आगमन सही समय पर हुआ। वह कमज़ोर पड़ गये सामाजिक-जनवादी संगठन को मजबूत करने आयी थीं, जो विदेश से इस्क्रा द्वारा भेजे जाने वाले निर्देशों के तहत संघर्ष चला रहा था।
गिरफ्तारी से किसी तरह बच गये कामरेडों ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया, और जल्द ही वह कमेटी की सदस्य चुन ली गयीं। समोइलोवा ने पहली मुलाक्फ़ात में त्वेर कमेटी की सदस्य कामरेड कुदेल्ली पर जो छाप छोड़ी वह उसका वर्णन इस तरह करती हैं:
”वह नौजवान लड़की थीं,” वह कहती हैं, ”लम्बी, छोटी-भूरी चमकीली ऑंखों और चमकदार, धूप से सँवलाई रंगत वाली। उनका चेहरा-मोहरा असमान था और उनकी हल्की तिरछी भौहें उनको किसी हद तक मंगोलियाई या चीनी शक्ल-सूरत प्रदान करती थीं। कुल मिला कर वह हँसमुख और मिलनसार व्यक्ति का प्रभाव छोड़ती थीं। उनको देखना आनन्ददायी होता था। उन्हें देख कर लगता था कि जैसे वह हमेशा सेवा के लिए प्रस्तुत हों, अपने काम में दिलोजान से लग जाने के लिए तैयार हों।”
ज़ारशाही रूस में भूमिगत रह कर काम करने वाले क्रान्तिकारियों के रिवाज़ के मुताबिक कामरेड समोइलोवा ने अपनी पहचान छिपाने के लिए एक छद्म नाम रख लिया। कामरेड उन्हें ”नताशा” कहने लगे और अपने गुप्त क्रान्तिकारी काम की पूरी अवधि के दौरान वह इसी नाम से जानी जाती रहीं। (भूमिगत जीवनकाल की चर्चा करते समय हम समोइलोवा को ”नताशा” ही कहेंगे)।
वह प्रचार-कार्य को समझती थीं क्योंकि पेरिस की सामाजिक-जनवादी कक्षाओं में उन्हें उसका प्रशिक्षण मिला था और इसलिए भी कि त्वेर कमेटी के कामों में प्रचार-कार्य सबसे लचर था।
त्वेर कमेटी के सदस्य की हैसियत से उन्होंने कमेटी की रणनीतिक और सांगठनिक दिशा तय करने में भागीदारी की जिसे कि गिरफ्तारियों के बाद नये सिरे से संगठित करने की जरूरत थी। यहाँ उन्होंने फौरन साबित कर दिखाया कि उन्हें इस्क्रा की सांगठनिक योजनाओं में महारत हासिल है, कि वह ”दोस्तों के आहत होने” की परवाह किये बिना लगातार ऐसी रणनीतियाँ अपनाने में सक्षम हैं जिन्हें वह सही समझती हैं।
हालाँकि उन्हें कोई अनुभव नहीं था और वह पहली बार व्यावहारिक काम कर रही थीं लेकिन उन्होंने त्वेर कमेटी के काम-काज की ख़ामियों को समझ लिया – उसकी बिखरी प्रकृति, निरन्तरता के अभाव, और उन दूसरी ख़ामियों को जिनका ज़िक्र लेनिन के इस्क्रा ने किया था।
नताशा के त्वेर आने के कुछ ही दिनों बाद दूसरे अधिवेशन में, जिसका आयोजन 1903 में विदेश में हुआ, आरएसडीएलपी बोल्शेविक और मेंशेविक, दो धड़ों में बँट गयी। विभाजन की खबर मिलने पर आरएसडीएलपी की त्वेर कमेटी और पूरा संगठन लेनिन के नेतृत्व का अनुसरण करने वाले क्रान्तिकारी माक्र्सवादी धड़े में शामिल हो गया और उसके बाद से स्वयं को बोल्शेविक कहने लगा। नताशा भी बोल्शेविकों के साथ जुड़ गयीं।
लेकिन उन्हें जल्द ही त्वेर छोड़ना पड़ा। उन्होंने अपने प्रचार-कार्य को अभी बढ़ाना शुरू ही किया था कि जाड़े का मौसम आ गया; और सर्दियों के मौसम में जंगलों में बैठकें आयोजित नहीं की जा सकती थीं और उनके सामने यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि अपनी बैठकें वे कहाँ किया करें। चूँकि मज़दूरों के साथ बहुत ही कम सम्पर्क था इसलिए जो भी कमरा दे सकता था उन्हें उसे स्वीकार करना पड़ता था। उनके समूह में घुस आये एक ग़द्दार ने सशस्त्र पुलिस को उनके बारे में बता दिया और नताशा को भूमिगत हो जाना पड़ा। संयोग से मज़दूरों ने उस ग़द्दार को मार डाला।
उनके भूमिगत रहकर काम करने की अगली जगह एकातेरिनोस्लाव (अब द्नीप्रोपेत्रोव्स्क) थी। यहाँ के हालात त्वेर से बिलकुल अलग थे। त्वेर उत्तारी रूस के कपड़ा उद्योग क्षेत्र में स्थित था जहाँ दक्षिण के खान और धातुकर्म उद्योग, एकातेरिनोस्लोव जिसका केन्द्र था, के मुवफाबले मज़दूरों का शोषण अधिक होता था। उत्तारी कपड़ा उद्योग क्षेत्र में मज़दूरी सबसे कम थी और चौदह-सोलह घण्टे काम करना पड़ता था। और त्वेर के संगठन समेत समूची नार्दर्न वर्कर्स यूनियन लेनिन और इस्क्रा की बनायी हुई नीतियों पर अमल करती थी।
दूसरी ओर, दक्षिण में विदेशी पूँजी की बदौलत पूँजीवादी विकास अधिक हुआ था, लोहा और इस्पात उद्योग बहुत विकसित था। वहाँ के मज़दूरों की स्थिति उत्तार के कपड़ा उद्योग के मज़दूरों से काफी बेहतर थी। स्थिति अधिक जटिल थी और मेंशेविक प्रभाव भी अधिक था। ख़ास तौर से नब्बे के दशक की औद्योगिक तेज़ी के दौरान जब रेलमार्ग के द्रुत निर्माण की वजह से रेलों के बड़े-बड़े आर्डर पूरे किये जा रहे थे, दक्षिण के सर्वहारा की स्थिति उत्तार के कपड़ा उद्योग मज़दूरों के मुवफाबले काफी अच्छी थी – उन्हें वेतन अधिक मिलता था, काम के घण्टे कम थे, वगैरह।
लेकिन नताशा के पहुँचने के कुछ ही दिन पहले इस जिले के मज़दूरों ने रूसी मज़दूर आन्दोलन के इतिहास में एक गौरवशाली पन्ना जोड़ा था। उन्होंने लाल झण्डे के साथ ”ज़ारशाही मुर्दाबाद”, ”काम के घण्टे आठ करो” – जैसे नारे लगाते हुए सिलसिलेवार कई हड़तालें और प्रदर्शन किये थे। पुलिस और सेना के साथ कई झड़पें हुई थीं जिनमें कितने ही लोग मारे गये थे और घायल हुए थे और जेलें कैदियों से भर गयी थीं जिनके साथ बर्बर दुर्व्‍यवहार किया गया।

अदम्य बोल्शेविकनताशा

आम तौर पर हालात कठिन थे और हालाँकि बड़े कारख़ानों के मज़दूर बोल्शेविकों के साथ सहानुभूति रखते थे लेकिन शहरी ज़िलों में मेंशेविकों की भरमार थी। इन कठिन हालात में नताशा ने स्वयं को अदम्य बोल्शेविक साबित किया और अन्तिम साँस तक वैसी ही बनी रहीं। जब नताशा एकातेरिनोस्लाव में काम कर रही थीं उस वक्त एकातेरिनोस्लाव कमेटी के सदस्य रहे कामरेड एगोरोव थे जो उनकी गतिविधियों का इस प्रकार ब्योरा देते हैं :
”मैं सांगठनिक काम करता था जबकि नताशा प्रचार और कस्बे में सम्पर्क का काम करती थीं। कठिन वक्त था वह। हम शाम के वक्त सांगठनिक और प्रचार-कार्य करते थे जबकि रात में, जब हम थके होते थे, हम प्राय: बैठकर परचे तैयार करते थे। नताशा मुझे उकसाती रहतीं। मैं प्राय: थकान से चूर होकर सर हिलाता रहता और मेरे दिमाग में कोई विचार ही न आता। उसके बाद अपना ओवरकोट फर्श पर बिछाकर मैं उस पर लेट जाता। सुबह नताशा मुझे जगातीं और फिर से काम के लिए तैयार करतीं। इन कामों के अलावा हमें मेंशेविकों से भी लड़ना पड़ता था जो संगठन को अपने हाथ में कर लेना चाहते थे। यह कठिन और अड़ियल लड़ाई थी क्योंकि कमेटी में कुछ ढुलमुल तत्व थे जो मेंशेविकों के सम्पर्क में थे। उनकी रणनीति यह थी कि एकातेरिनोस्लोव में जो भी मेंशेविक आ जाये उसे मज़दूर संगठनों में घुसा दिया जाये। नाताशा और मुझे इन हमलों को नाकाम करके मज़दूर संगठनों पर अपना प्रभाव बनाये रखना था। फैक्ट्री वाले जिलों में अपना प्रभाव बनाये रखने के लिए हमें अपना पूरा ज़ोर लगाना पड़ा, लेकिन हम कामयाब रहे। नताशा ने मज़दूर समूहों के बीच अपनी गतिविधियाँ चलाने में अपनी सारी ऊर्जा और ताकत झोंक दी। हमारी हर शाम इस काम के लिए समर्पित थी। इसके अलावा हमें एक छापाख़ाना और मुद्रित सामग्री के वितरण के लिए तकनीकी मशीनरी का भी बन्दोबस्त करना था। मुझे याद है कि कामरेडों की अनुभवहीनता के चलते छपी सामग्री की पहली खेप का नुकसान हो गया था और हमें घोर निराशा हुई थी। सच है कि वह हमारे पास का सारा साहित्य नहीं था लेकिन हज़ारों प्रतियाँ बेकार हो गयी थीं। लेकिन हमारी जीत यह थी कि उसी दिन, सशस्त्र पुलिसकर्मियों को धता बताकर फैक्ट्रियों में बड़ी तादाद में बचे हुए परचे बाँट दिये गये। परचों की वह खेप दुर्घटनावश हमारे हाथ से निकल गयी थी। हुआ यह था कि चौकसी कर रहे एक पुलिसकर्मी ने परचों को अन्दर लाते देख लिया और उसे सन्देह हुआ कि वह चोरी का माल है और उसने घर में छापा मार दिया।
”एकातेरिनोस्लोव में नताशा अपने निजी पासपोर्ट पर रह रही थीं। त्वेर वाले मामले पर पुलिस विभाग की ओर से जारी सरकुलर से उनके बारे में जानकारी पाकर सशस्त्र पुलिस उनके पीछे लग गयी। मैंने उनसे एक गैरकानूनी पासपोर्ट बनवा लेने का अनुरोध किया और तकरीबन उन्हें राज़ी कर ले गया था लेकिन तब तक काफी विलम्ब हो चुका था। उन्हें गिरफ्तार करके त्वेर ले जाया गया जहाँ उनके ख़िलाफ त्वेर और एकातेरिनोस्लोव के मामलों में आरोप लगाये गये। उनकी गिरफ्तारी संगठन के लिए भारी आघात थी हालाँकि वह इकलौती कामरेड थीं जिन्हें गिरफ्तार किया गया था। मुझे राजनीतिक पुलिस की रणनीति का अनुभव था और मैंने ताड़ लिया था कि वे उनका पीछा कर रहे हैं। लेकिन लम्बे समय तक वह यही सोचती रहीं कि मैं ज़रूरत से ज्यादा सन्देह कर रहा हूँ। उन्हें यकीन आया तब तक काफी देर हो चुकी थी।
”मैंने एकातेरिनोस्लोव में आख़िरी बार उन्हें पुलिस थाने की हवालात के सीखचों के पीछे देखा। हवालात की खिड़की सड़क की तरफ खुलती थी और किसी ने मुझसे कहा कि मुझे उनसे मिलने की अनुमति माँगनी चाहिए। मैंने सोचा कि मैं इसका लाभ उठाऊँगा और अलविदा कहने जाऊँगा लेकिन जैसे ही मुझ पर उनकी नज़र पड़ी वह इतनी तेजी से अपना हाथ और सर हिलाने लगीं कि मुझे लगा कि मेरे लिए भी ख़तरा मँडरा रहा है और मुझे एकातेरिनोस्लोव से दूर चले जाना चाहिए। मैंने अपना सारा काम एक बोल्शेविक कामरेड के हवाले करके वैसा ही किया।”
नताशा चौदह महीने त्वेर की जेल में रहीं। उनकी बहन के लम्बे और लगातार आवेदनों के बाद मार्च 1905 में एक हज़ार रूबल की ज़मानत पर मास्को के पब्लिक प्रासीक्यूटर के आदेश पर उन्हें रिहा किया गया, जिसने उन्हें पुलिस की देख-रेख में रहने के लिए अपनी पसन्द के कस्बे के चुनाव की अनुमति दी थी।
नताशा ने अपना क्रान्तिकारी काम जारी रखने के लिए दक्षिण में लौटने का फैसला लिया। पहले वह बड़े बन्दरगाह और नौपोत निर्माण केंद्र निकोलेयेव गयीं। लेकिन चूँकि उनकी निगरानी हो रही थी और जहाँ कहीं भी जातीं उसके बारे में पुलिस को सूचना देनी होती थी इसलिए वह भूमिगत काम नहीं कर सकीं। जल्द ही उन्होंने चोरी-छिपे नेकोलेयेव छोड़ दिया और ओदेस्सा चली गयीं।
जिन चौदह महीनों तक वह कैद में रहीं उस दौरान रूस का पूरी तरह कायाकल्प हो चुका था। देश में चारों तरफ क्रान्तिकारी उथल-पुथल मची हुई थी। जैसा कि लेनिन ने कहा, आश्चर्यजनक तेज़ी से घटनाएँ घटित हो रही थीं। लेकिन देश के शेष हिस्सों के मुवफाबले दक्षिण कुछ पीछे था, और ओदेस्सा के सर्वहारा वर्ग ने जून की हड़ताल (जून 13-25, 1905) के इकलौते वाकये को छोड़कर सेण्ट पीटर्सबर्ग के सर्वहारा वर्ग के वीरोचित उदाहरण का अनुसरण नहीं किया।
ओदेस्सा का सामाजिक-जनवादी संगठन, जैसा कि नताशा ने जल्द ही भाँप लिया, लेनिन के बताये रास्ते पर नहीं चल रहा था।
ओदेस्सा कमेटी के सारे बोल्शेविक, जो पार्टी के तीसरे अधिवेशन के प्रस्तावों पर चर्चा और उनके अध्‍ययन के लिए जमा हुए थे, गिरफ्तार करके जेल में डाल दिये गये। उससे ऐन पहले गुप्त छापाखाना ढूँढ़ा और जब्त कर लिया गया था। महज कुछ गिने-चुने, अलग-थलग पड़े जुझारू बोल्शेविक ही बचे रह गये थे, जो हाल ही में ओदेस्सा पहुँचे थे और जिन्हें पार्टी संगठन के लोगों से ठीक से सम्पर्क करने का समय नहीं मिल सका था। इन्हीं बोल्शेविकों में नताशा भी थीं।
इस तरह क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवादियों का नेतृत्व बहुत कमज़ोर था। जो कुछ बचा रह गया था उनमें थी, मेंशेविक कमेटी, द बुन्द, कुछ छिट-पुट बोल्शेविक और चन्द बिचौलिये। (बुन्द यानी यहूदी लेबर लीग-मेंशेविक ऐसा संगठन था, जो यहूदी सांस्कृतिक स्वायत्ताता, और यहूदी मज़दूरों के एक अलग संगठन की स्थापना को अपने कार्यक्रम में सबसे अधिक महत्व देता था।) जब ऐतिहासिक दिन शुरू हुए तो नताशा को काम करने का वक्त ही नहीं मिला था। पहली मई से हड़तालें शुरू हुईं और लगभग पूरे महीने चलती रहीं। मज़दूरों की भावनाएँ इतनी उत्तोजित थीं कि मामूली झटका एक बड़ा और फैसलाकुन आन्दोलन खड़ा कर सकता था।
जून के प्रारम्भ में जब मज़दूरों के चुने हुए प्रतिनिधि गिरफ्तार किये गये तो जनता ने उनकी रिहाई की माँग की और जनदबाव में अधिकारियों को उन्हें रिहा करना पड़ा। मज़दूर मार्सेइएज़ गीत गाते हुए अपने रिहा हुए कामरेडों को घर ले गये।
एक मामूली-सी घटना ने बारूद की नली में होने वाली कौंध की तरह जनता की दबी हुई ऊर्जा को निर्बन्धा कर दिया और उसी पल से ओदेस्सा के प्रसिद्ध ‘जून दिनों’ का श्रीगणेश हुआ। 13 जून को कज्ज़ाकों ने हान फैक्टरी पर शान्तिपूर्ण और निहत्थे मज़दूरों पर हमला बोलकर गोलीबारी शुरू कर दी। उन्होंने दो मज़दूरों की हत्या कर दी और कइयों को घायल कर दिया। आसपास के इलाकों के लोगों ने हड़तालें शुरू कर दीं और उसके बाद सारा कस्बा उसमें शामिल हो गया। पुलिस और सेना के साथ टकराव हुए। मज़दूरों ने मोर्चाबन्दी कर दी और सड़कों पर रक्तरंजित लड़ाई शुरू हो गयी। मज़दूरों ने सामाजिक-जनवादियों से खुद को हथियार मुहैया कराने का अनुरोध किया। सेना आ गयी। उनके पीछे से महाविपत्तियाँ आयीं, फैक्टरियों के भोंपू बज उठे, ज़बरदस्त भीड़ नेसिप की ओर, रेलवे के तटबन्ध की ओर बढ़ीं, जहाँ मज़दूरों ने एक ट्रेन रोक रखी थी, यात्रियों को गाड़ी से उतार कर उन्होंने इंजन की भाप निकाल दी। कज्ज़ाक आये, लेकिन जब उन्होंने एक भारी भीड़ देखी, कृतसंकल्प और अवज्ञाकारी भीड़, तो उन्होंने हाथ लहराये और पलटकर वापस चले गये। रेलवे के पुल के पास इतनी बड़ी सभा हुई कि इतनी बड़ी सभा इससे पहले रूस में कभी देखी नहीं गयी थी। सामाजिक-जनवादी वक्ताओं के उत्तोजक भाषणों ने मज़दूरों की भावनाओं को और भी भड़का दिया, उनकी वर्गीय चेतना को जगाकर उनकी एकजुटता को और भी मज़बूत कर दिया।
अगले दिन, जून 14 को ओदेस्सा के सारे मज़दूर हड़ताल पर चले गये। शहर अजीब-सा दिखने लगा। स्टोर, कार्यशालाएँ और दफ्तर सभी बन्द थे। एक भी फैक्टरी, एक भी वर्कशॉप नहीं खुली थी। सड़कों पर ट्रामकारें रोक दी गयी थीं। बहुतों को उलट दिया गया था और गाड़ियों और दूसरी चीजों के साथ उनका भी बैरिकेड के रूप में प्रयोग किया जा रहा था। नौजवानों ने भी इसमें भाग लिया और आन्दोलनकारियों के रूप में भाषण दिये।
सेना और पुलिस के साथ हर जगह टकराव हो रहे थे। कज्ज़ाकों की तलवारों और पुलिस की गोलियों ने मज़दूरों का ख़ून बहाया। गुस्साये मज़दूरों ने हथियारों के लिए चीख-पुकार मचायी लेकिन हथियार नदारद थे… ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई रास्ता ही नहीं बचा था… उसके बाद अचानक 14 जून की शाम क्रान्ति का लाल परचम लहराते पहले क्रान्तिकारी युद्धपोत को ओदेस्सा के बन्दरगाह में आते देखकर वे सुखद आश्चर्य से भर गये।
बाज़ी पलट गयी थी। पुलिस ने तत्काल बन्दरगाह खाली कर दिया। उल्लास से भरी उत्तोजित भीड़ पोतेमकिन की अगवानी के लिए लपकी।
युद्धपोत पोतेमकिन में उसी तरह का विद्रोह भड़क उठा था जैसा मज़दूरों के बीच भड़का था। सामाजिक-जनवादी आन्दोलन नाविकों के बीच पहले ही चलाया गया था लेकिन उसके विद्रोह की शुरुआत पूरी तरह अनपेक्षित थी।
पोत की कमान सँभालने के लिए युद्धपोत पर तीस नाविकों की एक क्रान्तिकारी कमेटी का गठन किया गया। कमेटी ने बिना समय गँवाये कस्बे के मज़दूर संगठनों से सम्पर्क किया। एक साझा अधिवेशन बुलाया गया लेकिन उसमें मेंशेविक प्रभाव, अनिश्चय और ढुलमुलपन अपना असर दिखाने लगा। और बेशवफीमती पल हाथ से निकल गये। हमला करने की बजाय – उस इकलौते रास्ते का सहारा लेने की बजाय, माक्र्सवाद हमें जिसकी शिक्षा देता है – काले सागर के स्क्वॉड्रन में दूसरे पोतों के आने का इन्तज़ार करने का फैसला लिया गया।
चार बजे, युद्धपोत पर बैठक के बाद, सामाजिक-जनवादी संगठनों के प्रतिनिधि सागर तट पर आये और हथियारों और नेतृत्व की प्रतीक्षा कर रहे मज़दूरों के सामने घोषणा की कि नाविक किनारे पर नहीं आयेंगे और यह भी कि वे चाहें तो अपने-अपने घर लौट सकते हैं।
रात उतर आयी। और उसी के साथ प्रतिरोध, उकसावा और अपराध शुरू हो गया।
कस्बे में पुलिस ने योजनाबद्ध ढंग से कत्लेआम शुरू कर दिया। उन्होंने शराबख़ाने खोल दिये, ”ब्लैक हण्ड्रेड” नाम के प्रतिक्रियावादी गिरोह के सदस्यों ने छककर शराब पी, गोदामों में आग लगा दी, उन्हें तहस-नहस कर डाला, घरों में आग लगा दी। कस्बे को आगज़नी, नरसंहार और तबाही के हवाले कर दिया गया।
नताशा ने जो उस समय ओदेस्सा में ही थीं, इस सबको बहुत ही गहराई से महसूस किया। वह अभी-अभी जेल से निकल कर आयी थीं। उन्हें सेण्ट पीटर्सबर्ग में पढ़ाई के दिनों में देखी ज़ारशाही की क्रूरता, जीवन पर लगी कठोर पाबन्दियाँ याद आयीं जहाँ प्रदर्शनकारी छात्रों के किसी समूह के दिखते ही कज्ज़ाक उन पर चाबुक फटकारते, गोलियाँ बरसाते थे।
अब नताशा ने लेनिनवादी इस्क्रा के चट्टानी एकजुटता वाली पार्टी के लिए संघर्ष के आह्नान का मतलब बड़ी ही शिद्दत से महसूस किया जिसके बिना सर्वहारा की जीत नामुमकिन होती है। लेनिन का ”पहले अलग करो और फिर एकजुट होओ” का नारा उनकी गतिविधियों का मार्गदर्शक सितारा बन गया, जिसका आशय था कि बोल्शेविकों को पहले निर्णायक रूप से मेंशेविकों से अलग हो जाने दो और फिर उनके साथ संगठित कार्रवाई के सवाल पर चर्चा करो।
नताशा ने मेंशेविक और बोल्शेविक रणनीति की व्याख्या पर सबसे ज्यादा बल देते हुए ओदेस्सा में प्रचार-कार्य जारी रखा। लेकिन बोल्शेविक संगठन के मज़बूत होने और कुछ सांगठनिक सफलताओं के बावजूद बाद के घटनाक्रमों ने साबित किया कि नेतागण क्रान्तिकारी विकास को पीछे धकेल रहे हैं – जैसे अक्तूबर 1905 की घटनाओं में जब समूचे रूस में नये क्रान्तिकारी फैले हुए थे, मेंशेविक और बुन्दवादी ज्यादा संगठित थे और नतीजतन बोल्शेविकों में बहुत से लोग समझौते और एकीकरण की प्रवृत्ति से ग्रस्त थे।
”अदम्य बोल्शेविक” नताशा, ओदेस्सा में उन्हें इसी नाम से जाना जाता था, ख़ुद पर काबू न रख सकीं। वह घटनाक्रमों के केन्द्र में रहने और सही बोल्शेविक रणनीति सीखने के लिए मास्को चली गयीं। वह ऐन सशस्त्र विद्रोह की रात मास्को पहुँची। वह उसके दमन तक वहीं रुकीं और उसके बाद ओदेस्सा लौट गयीं।
इन तमाम नाटकीय और ऐतिहासिक घटनाक्रमों ने उन पर गहरा प्रभाव डाला। नताशा को लगा कि वह महज़ प्रचार-कार्य को जारी रखने के लिए ओदेस्सा में रुकी नहीं रह सकतीं। उन्होंने खुद ही रोस्तोव-ऑन-दोन जाने का फैसला किया। वहाँ भी सशस्त्र विद्रोह हुआ था। वह जानती थीं कि अब उनके सामने नये कार्यभार उपस्थित थे, रोस्तोव के सर्वहारा के लिए संघर्ष के हालिया रूपों के अनुभवों से सीखने और उनमें महारत हासिल करने का काम, सेना तैयार करने और उसको संगठित करने का काम ताकि नये विद्रोह को हथियारबन्द किया जा सके और सही ढंग से संगठित किया जा सके।

 

बिगुल, जनवरी 2009

 


 

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