चीन के नकली कम्युनिस्टों को सता रहा है “दुश्मनों” यानी मेहनतकशों का डर

सन्‍दीप

वे डरते हैं

किस चीज़ से डरते हैं वे

तमाम धन-दौलत

गोला-बारूद-पुलिस-फ़ौज के बावजूद?

वे डरते हैं

कि एक दिन

निहत्थे और ग़रीब लोग

उनसे डरना बन्द कर देंगे।

चीन के मौजूदा हालात पर गोरख पाण्डेय की कविता ‘उनका डर’ की ये पंक्तियाँ आज एकदम सटीक बैठती हैं। दरअसल, चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के बाद से ही ग़रीबी, बेरोज़गारी, भुखमरी फैल रही थी, अब विश्व आर्थिक मन्दी ने इस संकट को और गहरा दिया है, जिससे चीन में तथाकथित आर्थिक विकास की दर भी कम हो गयी है और छँटनी, तालाबन्दी के चलते बेरोज़गारों की फ़ौज में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। यही नहीं, समाजवादी काल में चीन के जिस मेहनतकश अवाम को समाज का निर्माता माना जाता था, आज वही अवाम पूँजीपतियों की चाकरी बजाने वाली नक़ली कम्युनिस्ट सरकार को ‘दुश्मन’ लगने लगा है। माओ के देहान्त के बाद चीन की सत्ता पर क़ाबिज़ लाल रंग में रँगे भेड़िये अब इस चिन्ता में डूबे हैं कि जनता के ग़ुस्से से कैसे बचा जाये। पूँजीपतियों के टुकड़ों पर पलने वाले अख़बार, समाचार एजेंसियाँ और तरह-तरह के विशेषज्ञ लगातार सामाजिक असन्तोष की चेतावनी दे रहे हैं। हालत यह है कि जनता के विरोध को कुचलने के लिए सेना और पुलिस को चाक-चौबन्द रहने के आदेश दे दिये गये हैं।

मन्दी का सबसे ज़्यादा असर मज़दूर-किसानों पर

आज चीन की अर्थव्यवस्था दुनिया की अर्थव्यवस्था के साथ नत्थी है और दुनिया की अर्थव्यस्था में किसी भी परिवर्तन का असर चीन पर पहले से कहीं अधिक होता है। यही कारण है कि पिछले वर्ष शुरू हुई आर्थिक मन्दी के कारण मुख्यतः निर्यात आधारित चीनी अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ा है। मौजूदा समय में चीन के हर चार में से एक मज़दूर के पास काम नहीं है। चीन में गाँव-शहर के बीच आमदनी का अन्तर दुनिया में सबसे अधिक है।

111125040142-china-workers-story-topनिर्यात आधारित कारख़ानों में मज़दूरों को पहले ही कम मज़दूरी दी जाती थी और उनके जीवन की स्थितियाँ जानवरों से भी बदतर थीं, अब ऐसे कई छोटे-छोटे कारख़ाने बन्द कर दिये गये हैं और देहात से शहरों में मज़दूरी करने आये लाखों मज़दूरों को काम से निकाल दिया गया है। सेण्ट्रल रूरल वर्क लीडिंग ग्रुप के निदेशक चेन ज़ाइवेन ने पिछले सप्ताह एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताया कि बीते वर्ष लगभग 2.6 करोड़ प्रवासी मज़दूरों की छँटनी की गयी, जिन्हें बाद में काम ही नहीं मिला। हालत यह है कि देहात के क्षेत्रों से शहरों की ओर काम की तलाश में आने वाले मज़दूरों को इस वर्ष शहर न आने की हिदायत दी गयी है, जिसका कारण काम की मन्दी बताया गया है। जबकि 65 प्रतिशत ग्रामीण आबादी इन्हीं प्रवासी मज़दूरों की कमाई पर आश्रित है।

सिंगहुआ विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर यू किआओ के अनुसार इस वर्ष शहरी क्षेत्रों में काम करने वाले और 5 करोड़ प्रवासी मज़दूर बेरोज़गार हो सकते हैं। इसमें दसियों लाख बेरोज़गार शहरी मज़दूरों को शामिल नहीं किया गया है। वास्तव में, हर साल लगभग दो करोड़ मज़दूर चीन की श्रम मण्डी में अपना सस्ता श्रम बेचने के लिए दाखि़ल होते हैं। प्रोफ़ेसर यू के अनुसार चीन सरकार द्वारा बड़े उद्योगों को दिये गये 4 खरब युआन के राहत पैकेज से जीडीपी भले ही थोड़ा बढ़ जाये, लेकिन छोटे उद्योगों को उससे कोई फ़ायदा नहीं होगा, जिनमें चीन के अधिकांश मज़दूर काम करते हैं।

चीन के गुआंगदोंग प्रान्त में पिछले वर्ष अक्टूबर तक 15,661 कम्पनियों पर ताला लटक चुका था। यह प्रान्त एक प्रमुख निर्यात केन्द्र है और यहाँ से चीन के कुल निर्यात के एक तिहाई हिस्से की आपूर्ति की जाती है। इस क्षेत्र द्वारा 2007 में की जाने वाली लगभग 23 प्रतिशत आपूर्ति 2008 में घटकर मात्र 5.6 प्रतिशत रह गयी। इसका सबसे बुरा असर मज़दूरों पर पड़ा।

प्रोफ़ेसर यू के अनुसार निर्माण क्षेत्र में भी 30 से 40 प्रतिशत की गिरावट आयी है, जिससे एक करोड़ मज़दूरों की छँटनी कर दी गयी है। आने वाले समय में निर्माण क्षेत्र में और गिरावट की आशंका है जिसके कारण करोड़ों प्रवासी मज़दूर बेरोज़गारों की बढ़ती फ़ौज में शामिल हो जायेंगे।

ये प्रवासी मज़दूर दर-दर भटकने को मजबूर हैं, क्योंकि संशोधनवादियों द्वारा “सुधारों” की शुरुआत करने के बाद से चीन की सामूहिक खेती की व्यवस्था तहस-नहस हो चुकी है और जिनके पास ज़मीन के टुकड़े बचे भी हैं उनके पास बीज-खाद-कीटनाशकों और खेती के औज़ारों आदि के लिए पैसे नहीं हैं। अब चीन के देहात की 65 फ़ीसदी आबादी शहरों में काम करने वाले प्रवासी मज़दूरों पर निर्भर है।

शहरों में भी मेहनतकशों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है, चीन की सामाजिक विज्ञान अकादमी के अनुसार शहरों की लगभग 14 करोड़ आबादी बेरोज़गार है और इस वर्ष इस संख्या में बेतहाशा बढ़ोत्तरी होने की आशंका है। मन्दी के चलते चाहे शहरी मज़दूर हों या गाँव से शहर काम करने आये मज़दूर, सभी को हर समय काम छूटने का डर बना रहता है। इस साल लगभग 7.6 करोड़ कॉलेज स्नातक काम की तलाश में निकलेंगे, जिसमें एक करोड़ पिछले वर्ष कॉलेज से निकले छात्र शामिल हैं, जिन्हें बीते वर्ष काम नहीं मिला था। और इनमें से अधिकांश को अमीरों के घरेलू कामों या बच्चों की देखभाल आदि करके अपना गुज़ारा करना पड़ेगा।

जगह जगह हो रहे हैं पुलिस-प्रशासन- मालिकों और जनता में टकराव

पिछले कुछ महीनों में चीन की मेहनतकश जनता और पुलिस प्रशासन में कई बार टकराव हुआ है। कुछ दिन पहले टैक्सी ड्राइवरों तक की हड़ताल हुई और प्रदर्शन हुए जिनसे दस शहर प्रभावित हुए थे। गुआघदाघ प्रान्त के श्रम विभाग के अनुसार वहाँ बीते वर्ष औद्योगिक झगड़ों की संख्या में दोगुना इज़ाफ़ा हुआ है। चीन में 2006 में ही लगभग 90 हज़ार बड़ी हड़तालें और शहरी तथा ग्रामीण प्रदर्शन हुए थे, इसके बाद चीन की सरकार ने यह आँकड़े प्रकाशित करना ही बन्द कर दिया, लेकिन अनुमान है कि बीते वर्ष इस संख्या में चार गुना की बढ़ोत्तरी हुई होगी।

पिछले वर्ष जून में, चीन की वेंगान काउण्टी में सरकार से जुड़े लोगों द्वारा एक लड़की के बलात्कार और हत्या के बाद वहाँ लगभग 50,000 लोगों की भीड़ ने “कम्युनस्टि” पार्टी के दफ़्तरों और पुलिस स्टेशन में आग लगा दी। दरअसल, यह घटना जनता के दबे हुए गुस्से के फूट पड़ने का कारण बनी थी।

चीन की सामाजिक विज्ञान अकादमी के शोधकर्ता शान ग्वाङाई के 15 जनवरी को एक अख़बार में बयान दिया कि मन्दी से सामाजिक समस्याओं में इजा़फ़ा हो सकता है। शान का कहना था कि सरकारी शोधकर्ता पिछले कई वर्षों से बड़े धरना-प्रदर्शनों और हड़तालों आदि के रुझान पर नज़र रखे हुए हैं और शोधकर्ताओं में इस बात पर सहमति है कि आने वाले समय में प्रदर्शनों की संख्या बढ़ेगी और वे पिछले प्रदर्शनों से ज़्यादा संगठित होंगे।

शान के अनुसार हुनान और हुबेई प्रान्तों के मामलों के आधिकारिक अध्ययनों से पता चलता है कि वहाँ के मज़दूर और किसान जनता को गोलबन्द करने और प्रचार की रणनीति अपनाने में सक्षम है। यानी कुल-मिलाकर वे संगठित तरीक़े से विरोध कर सकते हैं। उनका कहना है कि पिछले कुछ सालों में मज़दूरों-किसानों के अधिकारों और जीवन स्थिति की बेहतरी के लिए आवाज़ उठाने वाले कई “गुमनाम” संगठन बन गये हैं।

हाल ही में आउटलुक साप्ताहिक पत्रिका में कहा गया है कि सरकार और पूँजी के गँठजोड़ ने इन सामाजिक टकरावों को और बढ़ाया है। पत्रिका में सेण्ट्रल पार्टी स्कूल के हवाले से कहा गया है कि निचले स्तर के अधिकारी इन टकरावों को “दुश्मनों” और उनके बीच संघर्ष का नाम देते हैं।

सरकारी भोंपू और पूँजीपतियों के भाड़े के टट्टू दे रहे हैं सामाजिक अशान्ति की चेतावनी

बेरोज़गारों की बढ़ती फ़ौज और धरना-प्रदर्शनों की बढ़ती संख्या से चीन का शासक वर्ग डरा हुआ है। पूँजीपतियों के टुकड़ों पर पलने वाले अख़बारों और तरह-तरह की अकादमियों के विशेषज्ञ अब सामाजिक अशान्ति के बढ़ते ख़तरे की चेतावनी दे रहे हैं। सत्ता पर क़ाबिज़ नक़ली कम्युनिस्टों के अख़बार पीपुल्स डेली के आर्थिक विभाग के उप प्रमुख शी मिंगशेन ने चेतावनी दी है कि आने वाले समय में बेरोज़गारी की रोकथाम नहीं की गयी तो यह एक बड़ी समस्या को जन्म देगी। बीजिंग के रेनमिन विश्वविद्यालय के झाओ झिओझेंग की हिदायत है कि करोड़ों छात्रों को काम नहीं मिल रहा है और करोड़ों प्रवासी मज़दूरों की छँटनी कर दी गयी है, जबकि देहात में उनके पास खेती योग्य ज़मीन नहीं या अन्य बीज-कीटनाशक-कृषि उपकरण आदि के लिए पैसे ही नहीं हैं। उनके अनुसार यह 1989 के लोकतन्त्र समर्थक आन्दोलन के बाद की सबसे गम्भीर समस्या है।

पुलिस-फ़ौज को चाक-चौबन्द रहने का आदेश

ग़रीबी-बेरोज़गारी से तबाह-बदहाल मेहनतकश जनता के ग़ुस्से से बचने के लिए चीन की नक़ली वामपन्थी सरकार ने सेना को किसी भी उभार, धरने-प्रदर्शन आदि के ज़रिये समाज में फैलने वाली अशान्ति से निपटने के निर्देश दिये हैं। फ़रवरी के पहले सप्ताह में, चीन के राष्ट्रपति हू जिन्ताओ ने सेना को आदेश दिया कि वह मन्दी के कारण बेरोज़गार होने वाले लोगों द्वारा अशान्ति फैलाने की कोशिशों से निपटने के लिए तैयार रहे और किसी भी क़ीमत पर (चाहे गोली ही चलाने पड़े – निहितार्थ) समाज में शान्ति बनाये रखे।

जो भी हो, पूँजीपतियों की तलवाचाटू सरकार जितने भी इन्तज़ाम कर ले, लेकिन वह जनता के कोप से लम्बे समय तक बची नहीं रह सकती। इतिहास का सबक यही है

 

 

बिगुल, फरवरी 2009

 


 

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