भुखमरी की शिकार दुनिया की एक चौथाई आबादी भारत में
कैसी तरक्की, किसकी तरक्की? हमारे बच्चों को भरपेट खाना तक नसीब नहीं

कपिल स्वामी

Child searches for valuables in a garbage dump in New Delhiपाँच साल का सोनू काफ़ी सुस्त रहता है और अक्सर बीमार पड़ जाता है। सरकारी डॉक्टर ने उसका एकमात्र इलाज अच्छा खाना बताया है। 80 रुपया रोज़ाना बमुश्किल कमाने वाला उसका बाप आलू और रोटी के सिवा उसे कुछ और नहीं खिला सकता। दरअसल सोनू हमारे देश के उन 70 फ़ीसदी बच्चों में से है जो पौष्टिक खाना न मिलने की वजह से ख़ून की कमी से ग्रस्त हैं। संयुक्त राष्‍ट्र की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़ ज़रूरी खानपान न मिल पाने से भारत के 5 साल से कम उम्र के 70 प्रतिशत बच्चों में ख़ून की कमी है। यानी तेज़ी से विकसित हो रहे हमारे देश में बहुसंख्यक बच्चों को ‘ठीक से खाना’ भी नहीं मिल पा रहा है। देश की ख़ुशहाली और विकास की ‘जय हो’ का बर्बर उद्घोष इन्हीं 70 फ़ीसदी बच्चों और उनके मेहनतकश माँ-बाप के ख़ून के दम पर किया जा रहा है!

संयुक्त राष्‍ट्र के विश्‍व खाद्य कार्यक्रम की ताज़ा रिपोर्ट में दिये गये आँकड़े तरक्की के तमाम दावों के चीथड़े उड़ाने के लिए काफ़ी हैं। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में भूखे पेट सोने वालों में से एक चौथाई भारत में हैं और कुपोषित आबादी का 27 फ़ीसदी यहाँ है। कुपोषित बच्चों के मामले में पूरी दुनिया के 100 कुपोषित बच्चों में से 47 हमारे देश के होते हैं, यह संख्या दुनिया के सबसे पिछड़े क्षेत्र सहारा अफ्रीकी देशों के 28 फ़ीसदी बच्चों से भी कहीं ज़्यादा है! यहाँ के असमय मरने वाले 50 फ़ीसदी बच्चे पौष्टिक खाना न मिल पाने की वजह से मर जाते हैं। वैश्विक भूख सूचकांक में शामिल 119 देशों में से भारत 94वें नम्बर पर पहुँच गया है। भूख और कुपोषण के बारे में होने वाले अधिकांश अध्ययनों में हमारा देश किसी से पीछे नहीं है, बल्कि ग्राफ लगातार ऊपर उठता जा रहा है।

भारत में दुनिया का सबसे बड़ा बाल पोषण कार्यक्रम चलाया जाता है। 450 करोड़ की भारी-भरकम राशि से चलने वाला समेकित बाल विकास सेवा कार्यक्रम या आंगनवाड़ी कार्यक्रम शहर और गाँव के ग़रीबों के बच्चों की स्थिति में कोई ख़ास सुधार लाने में असफल रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में मध्यप्रदेश की स्थिति “अत्यधिक ख़तरनाक” और चाड और इथियोपिया जैसे देशों जैसी है। साथ ही, हाल के वर्षों में आर्थिक प्रगति दशार्ने वाले राज्यों महाराष्‍ट्र और गुजरात में भूखमरी की दर बढ़ी है। देश की राजधानी दिल्ली में, जो कि देश में सबसे ज़्यादा प्रति व्यक्ति आय वाला राज्य है, 5 साल से कम उम्र के 42.2 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं और 26 प्रतिशत बच्चों का वजन कम है।

ये हालात तब हैं जब देश की तरक्की के दावों के बड़े-बड़े हवामहल खड़े किये गये हैं। ऐसा बताया जा रहा है कि अब तो तस्वीर ही बदल गयी है। देश विकास के पथ पर अग्रसर है और जल्द ही हमारे “महान” देश की गिनती दुनिया के सर्वाधिक विकसित देशों में हो जाने वाली है। आँकड़ों की बाजीगरी से विकास दर और जीडीपी में वृद्धि को देश की तरक्की का पैमाना बनाया जा चुका है एक झूठ-मूठ की ख़ुशहाली का अहसास कराया जा रहा है।

वैसे यह सच भी है कि वैश्‍वीकरण ने एक छोटे से तबके के जीवन स्तर में काफ़ी ख़ुशहाली ला दी है। पूँजीपतियों की सेवा में दिन-रात तल्लीन इस तबके की तनख़्वाहें 40-50 हज़ार से लेकर कुछ लाख महीने तक पहुँच गयी हैं। यह व्यंग्योक्ति एकदम सही है कि तेज़ी से विकसित हो रहा भारत का मध्य वर्ग ख़ूब खा रहा है। यह तबका जनता की गाढ़ी कमाई के दम पर ऐयाशी भरा जीवन बिताता है। मन्दी के बावजूद इसी साल आईएमएम-अहमदाबाद के एक छात्र को ही 1.5 करोड़ रुपये सालाना तनख़्वाह का पैकेज मिलना इस तबके की आर्थिक ख़ुशहाली का एक छोटा सा उदाहरण है। जाहिर है कि ये भी मेहनतकश जनता के दम पर पलने वाले परजीवी ही हैं। लेकिन इस छोटे से तबके की ख़ुशहाली को पूरे देश की आम जनता की ख़ुशहाली ज़बरदस्ती बताया जा रहा है। इस झूठ को सच साबित करने में पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी यानी सरकार से लेकर पार्टियाँ तक, और चाटूकार बुद्धिजीवियों से लेकर बुर्जुआ मीडिया तक पूरी जी-जान से लगे हुए हैं।

देश की तरक्की दरअसल इसके पूँजीपति वर्ग की तरक्की है। यहाँ का पूँजीपति वर्ग आज दुनिया के शीर्ष धनपतियों से मुक़ाबला कर रहा है। दुनिया के कई हिस्सों में आज भारतीय पूँजीपतियों ने अधिग्रहण करके खेत और कारख़ाने हथिया लिये हैं। इनकी धन-सम्पदा भी वैसा ही पागलपन पैदा कर रही है जैसा कि अमेरिका-ब्रिटेन के पूँजीपति करते हैं। मुकेश अम्बानी 60 मंज़िला मकान बनवा रहा है तो अनिल अम्बानी अपनी पत्नी को 400 करोड़ का जहाज भेंट कर रहा है। आईपीएल में अरबों रुपये क्रिकेट के तमाशे में लगाये जा रहे हैं।

लेकिन ऐसा नहीं है कि शासक वर्ग को इस बात का इल्म न हो कि व्यापक जनता का बदहाल जीवन उनके लिए किसी दिन एक ख़तरा बन जायेगा। बल्कि इस ख़तरे को बख़ूबी समझते हुए ही शासकों ने तमाम योजनाएँ शुरू कीं हैं। ज़ोर-शोर से प्रचारित राष्‍ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना (नरेगा), मिडडे मील योजना, राष्‍ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) आदि ऐसी ही योजनाएँ हैं। यह साफ-साफ समझ लेना ज़रूरी है कि ये योजनाएँ सरकार ने किसी भलमनसाहत या ग़रीब-हितैजी नजरिये से शुरू नहीं की हैं, बल्कि इन्हें लागू करके वे बुनियादी सुविधाओं से महरूम होती जा रही बड़ी आबादी के गुस्से पर पानी के छींटे मारने का काम कर रहे हैं। लेकिन इन योजनाओं का हश्र भी पिछली योजनाओं जैसा ही सामने आ रहा है। यूनीसेफ की सहायता से चलने वाले आंगनवाड़ी कार्यक्रम और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में व्याप्त भ्रष्‍टाचार और घोर अनियमितताओं की ही तरह नरेगा, मिडडे मील और एनआरएचएम में भयंकर गड़बड़ियों की बात कई सामाजिक संगठनों की रिपोर्टों से लेकर कैग की रिपोर्ट में भी सामने आ रही हैं। वैसे भी लूट पर टिकी इस व्यवस्था में इन योजनाओं की यही सद्गति होनी थी।

पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूर को इंसान माना ही नहीं जाता। उसे मात्र एक उत्पादन के औजार के तौर पर देखा जाता है। मज़दूर को सिर्फ़ जीने लायक पैसा दिया जाता है। मज़दूर को जिन्दा रहने लायक और नये मज़दूर पैदा करने के लिए परिवार चलाने लायक मज़दूरी ही दी जाती है। लेकिन आज पूँजीवाद उस स्थिति में पहुँच गया है जहाँ वह मज़दूरों को जिन्दा रहने और परिवार चलाने लायक मज़दूरी देना भी ज़रूरी नहीं समझता है। वर्तमान विश्‍वव्यापी मन्दी ने इस स्थिति को और ज़्यादा ख़राब कर दिया है। नतीजा ग़रीबों में और ख़ासतौर पर उनके बच्चों में ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ती जा रही भुखमरी और अच्छा खानपान न मिलने से ख़राब होता जा रहा स्वास्थ्य है। अपना पेट काट कर बच्चों को खिलाने के लिए भी अब मज़दूरों के पास कुछ नहीं बचता। मुनाफे की हवस पहले से कहीं ज़्यादा आज मेहनतकश वर्ग के नौनिहालों का निवाला छीन रही है। सरमायेदारों का लालच आज पहले से ज़्यादा मेहनतकशों के बच्चों को असमय मौत के मुँह में धकेल रहा है। मेहनतकश वर्ग के पास अब एकमात्र रास्ता इस मानवभक्षी व्यवस्था को उखाड़ फेंकना रह जाता है, अपने से ज़्यादा अपने बच्चों के लिए।

 

 

बिगुल, मार्च 2009

 


 

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